Friday, 19 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय कर्ज लेकर मुफ्त कब तक बांटा जा सकता है

ShareThis for Joomla!

कर्ज लेकर मुफ्त कब तक बांटा जा सकता है

इस समय सड़क से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक मुफ्ती की घोषणाएं एक बड़े मुद्दे के तौर पर हर संवेदनशील नागरिक का ध्यान आकर्षित किये हुए हैं। अश्वनी उपाध्याय की याचिका के माध्यम से सर्वाेच्च न्यायालय पहुंचे इस मामले को अब तीन जजों की पीठ को सौंप दिया है। सर्वाेच्च न्यायालय ने इस विषय पर केंद्र सरकार, राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग और कुछ वरिष्ठ वकीलों से उनकी राय जानने का प्रयास किया है। अब तक जो कुछ भी चर्चित हुआ है वह मुफ्ती की परिभाषा चुनाव आयोग के दखल और सर्वाेच्च न्यायालय के दखल की सीमा के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा है। इस सवाल की ओर कोई ध्यान ही नहीं गया है कि राजनीतिक दलों को मुफ्ती की घोषणाएं करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है? इन योजनाओं के लाभार्थियों के जीवन स्तर में कितना सुधार हो पाया है? इनका लाभ लेने के बाद उनकी क्रय शक्ति में कितना सुधार हुआ है? यहां कुछ ऐसे सवाल हैं जिन पर व्यवहारिकता में विचार किये बिना मुफ्ती को लेकर ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। इसमें पंचायत सदस्य से लेकर संसद तक कुछ न कुछ मानदेय ले रहा है और यह सब जन सेवक कहलाते हैं। जनता की सेवा के लिए अपना बहुमूल्य समय दे रहे हैं। इस जनसेवा के बदले जो कुछ उन्हें मिल रहा है और उस पर जनता की प्रतिक्रियाएं क्या हैं यह सब उन याचिकाओं के माध्यम से सामने आ चुका है। जिनमें इनकी पैन्शन बन्द किये जाने की मांग की गयी है। जबकि सरकारों की वित्तीय स्थिति यह है कि केंद्र से लेकर राज्य तक हर प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। वित्तीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन अधिनियम एफआरबीएम के अनुसार कर्ज जीडीपी के 3% से 5% तक की सीमा में ही रहना चाहिये। लेकिन कई राज्य सौ प्रतिशत की सीमा पार कर चुके हैं। आर बी आई 13 प्रदेशों को तो कभी भी श्रीलंका होने की चेतावनी दे चुका है। हिमाचल का कर्ज जीडीपी का 38% से बढ़ चुका है और यह जानकारी मानसून सत्र में आयी है। जब राज्य या केंद्र कर्ज लेकर मुफ्त बांटे और फिर भी लाभार्थी की परचेज पॉवर में सुधार न हो तो ऐसी मुफ्ती का लाभ और अर्थ क्या रह जाता है। अदालत इस पर रोक लगा नहीं सकती क्योंकि यह जनप्रतिनिधित्व कानून में दखल हो जाता है। राजनीतिक दलों के अधिकारों का मामला हो जाता है। चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर का मामला है। केवल जनता के समर्थन का मामला रह जाता है और जनता जिस महंगाई और बेरोजगारी के दौर से गुजर रही है उसमें उससे कोई उम्मीद रखना संभव नहीं हो सकता। इस परिदृश्य में केवल चुनाव प्रक्रिया में सुधार का ही एक मात्र विकल्प रह जाता है जिसके माध्यम से इस पर रोक लगाई जा सकती है। यहां यह विचारणीय हो जाता है कि राजनीतिक दलों को परोक्ष/अपरोक्ष मुफ्ती की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। क्या मुफ्ती के भार से दलों की विश्वसनीयता बनेगी? मुफ्ती के आईने में उम्मीदवारों का सारा चरित्र छिपा रह जाता है। इसी के कारण आज विधानसभा से लेकर संसद तक में करोड़़पति और अपराधिक पृष्ठभूमि वाले माननीय की संख्या हर चुनाव में बढ़ती जा रही है। हर बार चुनाव खर्च का दायरा बढ़ा दिया जाता है। लेकिन राजनीतिक दलों को चुनाव खर्च सीमा से बाहर रखा गया है और यही सारी समस्या का मूल है। जब चुनाव महंगा होगा तो यह सिर्फ अमीर का ही अधिकार क्षेत्र होकर रह जायेगा। एक समय अपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के चुनाव प्रचारक हुआ करते थे जो आज स्वयं माननीय हो गये हैं। ऐसे में मुफ्ती और कर्ज से बचने के लिये चुनाव को खर्च से रहित करना होगा। सरकार को चुनाव खर्च उठाना होगा। चुनाव प्रचार के वर्तमान स्वरूप को बदलना होगा। यदि ऐसा न हुआ तो आने वाले समय में चुनाव लड़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। कुछ अमीर आपस में ही फैसला कर लेंगे। चुनाव सुधार करके चुनावों को खर्च मुक्त करना होगा क्योंकि कर्ज लेकर मुफ्त बांटना ज्यादा देर तक नहीं चल सकता है और अब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक आ पहुंचा है तो हर नागरिक को इस बहस में हिस्सा लेना आवश्यक हो जाता है।

Add comment


Security code
Refresh

Facebook



  Search