प्रदेश विधानसभा चुनावों का प्रचार अभियान अपने चरम पर पहुंच चुका है। सभी राजनीतिक दल और निर्दलीय अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। यह दावा करना उनका धर्म और कर्तव्य दोनों है जिसे वह निभा रही हैं। वैसे मुख्य प्रतिद्वंदिता सत्तारूढ़ दल और मुख्य विपक्षी दल ने ही मानी जा रही है। इस नाते प्रदेश में भी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस में ही माना जा रहा है। टिकट आवंटन पर दोनों पार्टियों में बगावत भी उभरी और अन्त में कांग्रेस से तीन गुना ज्यादा भाजपा के बागी चुनाव मैदान में हैं। यह एक सैद्धांतिक सच है कि चुनाव में मुख्य मुद्दा सत्तारूढ़ दल की कारगुजारी ही रहती है। सरकार की यह कारगुजारी विधानसभा के हर सत्र में पक्ष और विपक्ष के विधायकों द्वारा पूछे गये प्रश्नों तथा सरकार द्वारा दिये गये जवाबों के माध्यम से वर्ष में तीन बार सामने आ जाती है। यदि कोई इस कारगुजारी का बारीकी से अध्ययन और विश्लेषण कर ले तो उसे चुनावी निष्कर्षों पर पहुंचने में परेशानी नहीं होगी। क्योंकि विधायकों के यह प्रश्न अपने क्षेत्र की सामान्य समस्याओं बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों से जुड़े रहते हैं। प्रदेश का कोई ऐसा चुनाव क्षेत्र नहीं है जहां स्कूलों में अध्यापकों और अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी न हो। इन कमियों को लेकर पांच वर्षों में दर्जनों मामले प्रदेश उच्च न्यायालय में आ चुके हैं। कर्मचारियों के तबादलों में मंत्रियों और दूसरे नेताओं का दखल कितना बढ़ चुका है इस पर कई मंत्रियों और नेताओं को उच्च न्यायालय नामत लताड़ लगा चुका है। गांव में इन समस्याओं से जूझ रहे लोगों की संख्या दूसरी योजनाओं के लाभार्थियों से कई गुना ज्यादा है। ऊपर से महंगाई और बेरोजगारी की आंच में हर परिवार झुलस रहा है। व्यवहारिक सच को चुनावी आकलनो में बहुत ही कम लोग गणना में ले पाते हैं।
इस जनपक्ष के बाद यदि जयराम सरकार के प्रशासनिक पक्ष पर नजर डाली जाये तो जब यह सामने आता है कि इस सरकार में तो मुख्य सचिव स्तर पर लगातार अस्थिरता बनाये रखी गयी है क्यों छः बार मुख्य सचिव बदले गये? क्यों आज कई मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों को बिना काम के बिठाकर सरकार का लाखों रुपया बर्बाद किया जा रहा है। एनजीटी के स्पष्ट फैसले के बाद भी प्रदेश में हजारों अवैध निर्माण खड़े होने दिये गये। एनजीटी के फैसले की अवहेलना करके डवैलप्मैन्ट प्लान बनाते रहे जिसे एनजीटी ने अस्वीकार कर दिया। ऐसे दर्जनों मामले जिनसे सरकार की प्रशासन और भ्रष्टाचार पर समझ तथा पकड़ दोनों पर एक साथ कई सवाल खड़े हो जाते हैं। 2017 के चुनाव में भाजपा ने वित्तीय कुप्रबन्धन का मामला बड़े जोर से उठाया था। सरकार बनने पर अपने पहले ही बजट भाषण से इस कुप्रबन्धन का खुलासा 18000 करोड़ का ऋण बिना पात्रता के लेने के रूप में किया। लेकिन इन आरोपों के बावजूद उसी वित्त सचिव को पद पर बनाये रखा जिस पर यह अपरोक्ष आरोप थे। इसलिये प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर कोई श्वेत पत्र नहीं लाया गया। बल्कि आज सबसे अधिक कर्ज लेने वाले मुख्यमंत्री का तमगा लगा लिया। लोक सेवा आयोग की जिन नियुक्तियों पर हिमाचल मांगे जवाब के नाम से चुनावों में एक पैम्फ्लैट जारी किया था सरकार बनने पर सबसे पहली नियुक्ति उसी आयोग में बिना नियम बदले करके इतिहास रच दिया और आज तक उसका कोई जवाब नहीं बन पा रहा है। बल्कि सवाल ज्यादा गंभीर बनता जा रहा है। 2017 का चुनाव धूमल के नाम पर लड़कर मिली सफलता का इनाम धूमल को हाशिये पर धकेल कर देने का परिणाम आज संगठन में सबके सामने हैं। यह जो कुछ इस कार्यकाल में घटा है उसी के कारण आज कुछ मंत्रियों को अपने को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके चुनाव प्रचार करना पड़ रहा है। ऐसी परिस्थितियां सरकार कांग्रेस के अंदर अपने हर प्रयास के बाद पैदा करने असफल ही नहीं रही बल्कि एक्सपोज भी हो गयी और इसलिए चुनाव में लगातार बैकफुट पर जाती जा रही है।