Friday, 19 September 2025
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चुनावी आकलन-एक पक्ष

चुनावी आकलन किसके कितने सही निकलते हैं यह चुनाव परिणाम आने पर सामने आ जायेगा। हर मतदाता यह मानकर चलता है कि जिसको उसने वोट दिया है विजय उसी की होगी। इसमें अपवाद की गुंजाइश 1% से ज्यादा की नहीं रहती है। चुनावी आकलन मतदान से पहले और बाद दोनों स्थितियों में लगाये जातेे हैं। मतदान से पहले के सर्वेक्षणों का प्रभाव मतदान पर भी पड़ता है ऐसी धारणा भी एक समय तक रही है। लेकिन जिस अनुपात में मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लगता गया उसी अनुपात में यह धारणा प्रश्नित होती गई और आज प्रसांगिक होकर रह गई है। क्योंकि आज मतदाता सरकार बनने के पहले दिन से ही उस पर नजर रखना शुरू करता है। ऐसा इसलिए होता है कि वह सरकार के फैसलों पर उसके कार्यों से सीधा प्रभावित होता है। सरकार के फैसलों को गुण दोष के आधार पर समझना शुरू कर देता है। वह अपने तत्कालिक आवश्यकताओं के तराजू पर सरकार को तोलना शुरू कर देता है। यह तत्कालिक आवश्यकताएं इतनी अहम हो चुकी है कि इनकी प्रतिपूर्ति भी तत्कालिक चाहिए। इन आवश्यकताओं के लिए जब उसे सुदूर भविष्य का सपना दिखाया जाता है तब सरकार से उसका मोह भंग होना शुरू हो जाता है। जब वह व्यवहारिकता में उसमें भेदभाव का सामना करता है तब सरकार और व्यवस्था के प्रतिरोष पनपना शुरू हो जाता है। जो चलते चलते अघोषित विद्रोह की शक्ल लेता जाता है। जब इस रोष को कोई दशा दिशा मिल जाती है तो यह आन्दोलनों में परिवर्तित हो जाता है अन्यथा चुनावी मतदान में यह खुलकर सामने आता है। इसलिए तो यह माना जाता है कि पहली बार घोषित नीतियों के आधार पर सरकारें बनती है। लेकिन सत्ता में वापसी सरकार की परफारमैन्स के आधार पर होती है। इस बार के मतदान और उसके परिणामों का आकलन इसी मानक पर होगा। इसमें यदि मीडिया सरकार के कामकाज पर पहले दिन से ही निष्पक्षता के साथ नजर बनाये रखेगा और सरकार से समय-समय पर तीखे सवाल पूछने से नहीं डरेगा तो उसके आकलन निश्चित रूप से सही प्रमाणित होंगे। यदि कोई चुनाव प्रचार के स्तर पर और उसमें अपनाए गए साधनों की कसौटी पर आकलन का प्रयास करेगा तो ऐसे आकलन सही प्रमाणित नहीं होंगे। क्योंकि प्रचार के साधन तो स्वभाविक रूप से सत्तारूढ़ दल के पास ही सबसे अधिक होंगे तो आकलन भी उसी के पक्ष में आयेगा। लेकिन जब सरकार की परफारमैन्स के सवाल पर यह सामने आयेगा कि जो आरोप यह पार्टी कांग्रेस पर लगाती थी सरकार बनते ही उसी राह पर स्वयं चल पड़ी। लोकसेवा आयोग इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। कर्ज लेने के नाम पर पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। बेरोजगारी में प्रदेश देशभर में छठे स्थान पर पहुंच गया है। महंगाई के कारण ही चारों उप चुनाव हारे हैं। यह स्वयं मुख्यमंत्री ने माना है। केन्द्र से कोई आर्थिक पैकेज मिलना तो दूर यह सरकार जीएसटी की प्रतिपूर्ति जोर देकर नहीं मांग पायी है। चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री और दूसरे केन्द्रीय नेताओं का जितना ज्यादा सहारा लिया गया उसी अनुपात में केन्द्र के जुमले नये सिरे से हर जुबान पर आ गयेे। अन्ध भक्तों को छोड़कर बाकी हर एक की जुबान पर केन्द्र के चुनाव पूर्व किये गये वायदे आ गये जो कभी वफा नहीं हुये। राम मन्दिर, धारा 370, तीन तलाक और हिन्दू मुस्लिम से हर रोज आम आदमी का पेट नहीं भरता। हजारों टन अनाज बाहर खुले में सड़ गया इसलिये अब सस्ता राशन नहीं मिल सकता। आम आदमी जिन सवालों से पीस रहा है उनका पूछा जाना भक्तों की नजरों में तो कांग्रेस प्रेम हो सकता है। परन्तु आम आदमी की यह पहली आवश्यकता है। गुजरात को मतदान की गणना के लिए तीन दिन और हिमाचल के लिए पच्चीस दिन का अन्तराल क्यों? इस सवाल को पूर्व के आंकड़ों से ढकना बेमानी होगा। यह सही है कि प्रचार तंत्र में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यदि महंगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार प्रचार तंत्र से सही में बड़े मुद्दे हैं तो निश्चित रूप से विपक्ष को सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता और हिमाचल में यह विपक्ष केवल कांग्रेस है।

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