इस परिदृश्य में हुये कर्नाटक चुनावों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा तथा संघ परिवार के लिये इन चुनावों का अर्थ क्या था। यह चुनाव एक तरह से राहुल बनाम मोदी बन गये थे। क्योंकि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद यह दूसरा चुनाव था। कर्नाटक से पहले हुये हिमाचल के चुनाव में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा प्रचार में आये थे और असफल रहे। हिमाचल से मिली हार कर्नाटक में भी जारी रही। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि यह हार प्रधानमंत्री मोदी और संघ भाजपा के उस एजैण्डे की है जिसमें कांग्रेस मुक्त भारत का लक्ष्य रखा गया था। कर्नाटक की हार ने भाजपा के हिन्दू एजैण्डा की भी हवा निकाल दी है। हनुमान चालीसा का पाठ चुनाव प्रचार में इस एजैण्डे की पराकाष्ठा था। इस हार ने 2014 से 2023 तक भाजपा के हर फैसले और घोषणा को आकलन के लिये एक जन चर्चा का विषय बना दिया है। जिसके व्यवहारिक परिणाम अब हर दिन देखने को मिलेंगे। क्योंकि इससे महंगाई और बेरोजगारी पर कोई नियंत्रण नहीं हो पाया है।
इसी परिदृश्य में इस जीत ने कांग्रेस की जिम्मेदारियां भी बढ़ा दी हैं। क्योंकि लोकसभा चुनावों तक हिमाचल और कर्नाटक सरकारों की परफॉरमैन्स कांग्रेस के आकलन का आधार बन जायेगी। हिमाचल में कांग्रेस की सरकार बने पांच महीने से ज्यादा का समय हो गया है। सरकार बदलने का व्यवहारिक संदेश अभी तक जनता में नहीं जा पाया है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यदि आज हिमाचल में भी किसी भी कारण से पुनः चुनावों की स्थिति पैदा हो जाये तो कांग्रेस के लिये स्थितियां कोई ज्यादा सुखद नहीं होंगी। जो चल रहा है यदि उसमें सुधार न हुआ तो चारों सीटों में जीत मिलना आसान नहीं होगा। यह कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की जिम्मेदारी होगी कि वह सरकार पर सरकारी रिपोर्टों से हटकर भी नजर रखने का प्रयास करे। कर्नाटक की हार के बाद भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व ऑपरेशन कमल को बदले हुए कलेवर में अमली शक्ल देने का प्रयास करेगी यह तय है।