क्या कर्ज लेकर सामाजिक सुरक्षा के नाम पर कुछ वर्गों को रेवड़ीयां बांटना सही है इस सवाल पर अब एक खुली बहस की आवश्यकता हो गई है। आज केन्द्र से लेकर राज्य तक हर सरकार कर्ज में डुबी हुई है। सभी राज्य सरकारें जी.डी.पी. के अनुपात में कर्ज लेने की सीमाएं लांघ चुकी हैं। सभी राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिये चुनावों से पहले रेवडीयां की एक लम्बी सूची जारी कर देती है। लेकिन यह नहीं बताती कि इन्हें पूरा करने के लिये यह आप के नाम पर कर्ज लेगी। जैसे विधानसभा चुनावों के लिये हिमाचल में भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों ने मुफ्ती की सूचियां जारी की। भाजपा सत्ता में थी और अपने शासनकाल में कोई अच्छा परफॉर्म नहीं कर पायी थी। इसलिए जनता ने उसके वायदों पर विश्वास नहीं किया कांग्रेस के प्रलोभन कुछ ज्यादा बड़े और लुभावने थे इसलिए उस पर विश्वास करके सत्ता उसको सौंप दी। लेकिन कांग्रेस ने सत्ता में आते ही सबसे पहले राज्य के नियन्त्रण की हर सेवा और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ा दिये। मंत्री परिषद की करीब हर बैठक के आगे पीछे यह देखने को मिला है। लेकिन इसी के साथ जो चुनाव से पहले दस गारंटियां प्रदेश की जनता को दी थी उन पर स्टैण्ड में बदलाव आ गया। अब यह कहा जाने लगा है कि गांरटियां पांच वर्ष के कार्यकाल में पूरी की जायेंगी। 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने के लिये तो यह कह दिया है कि पहले दो हजार मेगावाट बिजली पैदा करेंगे फिर मुफ्त बिजली देंगे। निवर्तमान सरकार अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में दो हजार मेगावाट पैदा नहीं कर पायी है तो यह सरकार कितना कर पायेगी यह आने वाला समय बतायेगा। कर्मचारियों को पुरानी पैन्शन बहाल कर दी गयी है। लेकिन इस बहाली के साथ ही कर्मचारियों से बड़े पैमाने पर दिल्ली कूच करने का आहवान भी कर दिया है। क्योंकि एन.पी.एस. में 9200 करोड़ केंद्र के पास जो प्रदेश का जमा है उसे वापस लेना है। यदि किन्ही कारणों से यह पैसा वापस नहीं मिलता तो ओ.पी.एस. कैसे लागू होगा यह एक बड़ा सवाल होगा। कांग्रेस-भाजपा सरकार पर प्रदेश को कर्ज में डूबने के आरोप लगाकर सत्ता में आयी थी। सत्ता में आने पर कर्ज के आंकड़े भी जारी किये गये थे। लेकिन जब केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने सुक्खू सरकार द्वारा 44 करोड़ कर्ज प्रतिदिन लेने के आंकडे जारी किये तो कर्ज पर उठी बहस आगे नहीं बढ़ी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश को कर्ज में डुबोने के लिये दोनों सरकारें एक ही लाइन पर चल रही हैं। लेकिन सुक्खू सरकार कर्ज के साथ सेवाओं और उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें भी लगातार बढ़ाती जा रही है और यही इस समय आम आदमी के सामने एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। क्योंकि जब कर्ज लेकर और कीमतें बढ़ा कर भी सरकार आम आदमी को राहत न दे पाये तथा न ही गारंटियों को लागू कर पाये तो स्वभाविक रूप से सरकार की प्राथमिकताओं पर नजर जाना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि आज सरकार जिस तरह अपने अनुत्पादक खर्चों पर रोक लगाने को तैयार नहीं तब आम आदमी के सामने सरकार के कर्ज लेने की योजनाओं पर अंकुश लगाने की मांग करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। क्योंकि सामाजिक सुरक्षा तो समाज के हर व्यक्ति को एक बराबर चाहिये इसे वर्गों में नहीं बांटा जा सकता।