पिछले दिनों मां चिंतपूर्णी के दरबार में 1100 रूपए की पर्ची कटवाकर श्रद्धालुओं को वी आई पी दर्शन करवाने की सुविधा प्रदान की गई है। बुजुर्गों और अपंगों के लिए 50 रूपये की पर्ची से यह सुविधा मिलेगी । हर वर्ग के लिए अलग-अलग शुल्क के साथ पर्ची काटी जाएगी। इस फरमान का विपक्षी दल भाजपा ने कड़ा विरोध किया है। महावीर दल ने इस आशय का एक ज्ञापन प्रदेश भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना के माध्यम से प्रदेश के राज्यपाल को भी सौंपा है। पूर्व मंत्री विक्रम ठाकुर ने भी इस फरमान को वापस लेने की मांग की है । लेकिन इस पर कांग्रेस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री जिनके पास यह विभाग है उनकी भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। इससे यही प्रमाणित होता है कि सरकार ने राजस्व बढ़ाने की नीयत से यह प्रयोग शुरू किया है। यह प्रयोग मां चिंतपूर्णी से शुरू होकर सरकार द्वारा अधिग्रहण किये जा चुके अन्य मंदिरों तक भी जाएगा क्योंकि सरकार का नियम सभी जगह एक सम्मान लागू होता है।
हिमाचल में मंदिरों का अधिग्रहण 1984 में विधानसभा में इस आशय का एक विधेयक लाकर किया गया था। उस समय सदन में इसका विरोध केवल जनता पार्टी के विधायक राम रतन शर्मा ने किया था। क्योंकि वह स्वयं दियोथ सिद्ध मंदिर के पुजारियों में से एक थे । उसे समय यह आक्षेप लग रहे थे की इन मंदिरों में जितनी आय हो रही है उसके अनुरूप यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो रही है। मंदिरों के पैसों का दुरुपयोग हो रहा है। इन आक्षेपों से सभी ने सहमति जताई और यह विधेयक पारित हो गया। उसे समय केवल 11 मंदिरों का अधिग्रहण हुआ था और इन मंदिरों से 8 से 10 करोड़ की आय अनुमानित की गई थी। लेकिन विधेयक का आगे आने वाले समय में विस्तार किए जाने का प्रावधान भी रखा गया था और इस विस्तार का प्रस्ताव जनता पार्टी की विधायक स्व. श्यामा शर्मा की ओर से आया था । यह कहा गया था कि मंदिरों की आय का उपयोग शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किया जाएगा।
इसी विस्तार का परिणाम है कि आज प्रदेश के 35 मंदिरों का प्रबंधन सरकार के पास है और 2018 में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के एक प्रश्न के उत्तर में आयी जानकारी के अनुसार इन मंदिरों में क्विंटलों के हिसाब से सोना और चांदी जमा है। कैश और एफडी के नाम पर सैकड़ों करोड़ जमा है । प्रदेश उच्च न्यायालय में आयी एक याचिका के जवाब में इन मंदिरों के पास 2018 में 361.43 करोड़ रूपया होने की जानकारी दी गई है। किन्नौर को छोड़कर प्रदेश के शेष सभी जिलों में यह मंदिर स्थित हैं। इनके प्रबंधन के लिए जिलाधीशों के तहत ट्रस्ट गठित है । सभी मंदिरों में मंदिर अधिकारी तैनात हैं। सभी कर्मचारी सरकारी अधिकारी हैं । अधिनियम के अनुसार ट्रस्ट का मुखिया हिंदू ही होगा। यदि किसी जिले में गैर हिंदू को जिलाधीश लगा दिया जाता है तो उसे मंदिर के ट्रस्ट की जिम्मेदारी नहीं दी जाती है।
इस परिदृश्य में आज की स्थितियों पर विचार किया जाये तो यह सवाल उठता है कि इन मंदिरों के पास जितनी संपत्ति है क्या उसके अनुरूप वहां आने वालों के लिए मंदिर प्रबंधनों द्वारा सुविधा उपलब्ध करवाई गई है । क्या प्रबंधनों ने अपने स्तर पर आवासीय सुविधा सुरजीत की हुई हैॽ कितने मंदिर अपने यहां संस्कृत के अतिरिक्त अन्य विषयों का शिक्षण प्रदान कर रहे हैं। इस मंदिर पर्यटन के नाम पर एक बड़ा व्यवसाय इन परिसरों के गिर्द खड़ा होता जा रहा है। क्या मंदिरों को पर्यटक स्थलों के रूप में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के बिना विकसित करना श्रेयस्कर होगाॽ क्या मंदिरों और पर्यटक की संस्कृति एक सम्मान हो सकती हैॽ मंदिर श्रद्धा और आस्था का केंद्र है। यह धारणा है कि भगवान के पास सब एक बराबर होते हैं । वहां कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। ऊंची और नीचे जाति कोई नहीं होती। वहां पर कोई अधिकारी या सेवक का वर्गीकरण नहीं होता। सबको एक ही लाइन में लगकर दर्शन और पूजा अर्चना करनी होती है। मंदिरों में जब पैसे खर्च करके वीआईपी की सुविधा उपलब्ध करवाने की बात आएगी तो क्या उससे आम आदमी की आस्था प्रभावित नहीं होगीॽ निश्चित रूप से होगी और तब आम आदमी का विश्वास ऐसी व्यवस्था बनाने वालों के प्रति कितना सम्मानजनक रह जाएगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। आस्था को पैसों के तराजू पर तोलना घातक होगा।