Friday, 19 September 2025
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आपदा राहत पैकेज पर भी राजनीति क्यों?

प्रदेश में आयी आपदा से आकलनों के अनुसार बारह हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। आपदा में फंसे लोगों को सुरक्षित निकालना और फिर उनके रहने खाने का प्रबन्ध करना पहली प्राथमिकता थी। राज्य सरकार इस प्राथमिकता पर खरी उतरी है और उसके प्रयासों तथा प्रबंधनो की सभी ने प्रशंसा भी की है। इस आपदा में जनता और कई राज्य सरकारों ने सहायता का हाथ भी बढ़ाया है जिसके फलस्वरुप 254 करोड़ आपदा राहत कोष में आये हैं। इस आपदा में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु ने अपने परिवार की ओर से 51 लाख राहत कोष में देकर जो अपनी संवेदनशीलता का व्यवहारिक परिचय दिया है उसके लिये वह सदैव याद रखे जायेंगे। लेकिन इस अवसर पर केंद्र सरकार की ओर से वायदों से ज्यादा कुछ नहीं मिल पाया है और यह सदन के रिकॉर्ड में भी दर्ज हो चुका है। क्योंकि एन डी आर एफ और एस डी आर एफ में जो कुछ मिला है वह पहले का ही देय था। यहां तक कि जब सदन में इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने का प्रस्ताव पारित किया जा रहा था तो भाजपा इसमें भी सक्रिय भागीदार नहीं बन पायी।
इस परिदृश्य में आपदा में फंसे लोगों को राहत प्रदान करना यह राज्य सरकार की प्राथमिकता थी। इस प्राथमिकता को राज्य के संसाधनों से पूरा करना किसी चुनौती से कम नहीं था। इसके लिये सरकार ने विभागों के बजट में कटौती करके 4500 करोड़ का राहत पैकेज घोषित किया है। जिसमें 3500 करोड़ अपने साधनों और 1000 करोड़ मनरेगा से देने की घोषणा की है। सरकार के इन प्रयासों और पहल का स्वागत करने के बजाये एक भाजपा प्रवक्ता द्वारा यह कहना की शीघ्र ही केंद्र की ओर से प्रदेश को एक बड़ा राहत पैकेज में मिलने वाला है। कांग्रेस ने केंद्र से मिलने वाले इस पैकेज की आहट पाते ही चतुराई से पहले ही अपने पैकेज की घोषणा कर दी है। ताकि केंद्र से मिलने वाले पैकेज को प्रदेश सरकार के राहत पैकेज के नाम पर खर्चा जा सके। ऐसे समय में प्रदेश भाजपा की ऐसी प्रतिक्रिया का स्वागत नहीं किया जा सकता। क्योंकि ऐसी प्रतिक्रिया केंद्र का पैकेज आने के बाद उसके खर्च किये जाने के तरीके पर उठनी चाहिये थी यदि उसमें कोई विसंगति होती तो।
इस तरह राहत पैकेज पर जो राजनीति अनचाहे ही खड़ी हो गयी है उसके परिप्रेक्ष्य में यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह आपदा कितनी प्राकृतिक थी और कितनी व्यवस्था की लचरता के कारण थी। इस पर एक खुली बहस हो जानी चाहिये। क्योंकि यह आशंका बहुत प्रबल होती जा रही है कि यह विनाश लीला लम्बी जायेगी। ऐसे में जो विशेषज्ञों की राय एन.जी.टी. के 2016 के फैसले में महत्वपूर्ण रही है उस पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार किया जाना चाहिये। एन.जी.टी. के फैसले के बाद भी हजारों अवैध निर्माण हुए हैं। एन.जी.टी. के निर्देशों पर बनायी गयी शिमला प्लान को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है। एन.जी.टी. नेे कुछ कार्यालयों को किसी भी दूसरे स्थान पर ले जाने का निर्देश दिया हुआ है क्योंकि शिमला की भार वहन क्षमता ओवर हो चुकी है। बल्कि इस आपदा के बाद पहाड़ी क्षेत्रों की भारवहन क्षमता का अध्ययन करने के निर्देश केंद्र दे चुका है। 2016 में राज्य सरकारे पूरे प्रदेश को प्लानिंग के तहत लाने की बात कर चुकी है। परन्तु यह सब होने के बावजूद यह सरकार भी कार्यालयों को शिमला से शिफ्ट करने के लिये तैयार नहीं है। इसलिये इस आपदा से सबक लेते हुए भविष्य के इन प्रश्नों पर राहत एवं पुनर्वास के साथ ही विचार कर लेना लाभदायक रहेगा। क्योंकि राहत भी आम आदमी का ही पैसा है जिसे गलत नीतियों की भेंट चढ़ाना सही नहीं होगा।

 

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