बिजली बोर्ड के प्रबन्धन को लेकर इसका कर्मचारी संगठन पिछली सरकार के समय से ही इस पर गंभीर सवाल उठता रहा है। लेकिन कर्मचारी संगठन के आरोप पर न तब की सरकार ने कोई ध्यान दिया और न अब की सरकार ने। बल्कि अब तो उसी नेतृत्व को और महिमा मण्डित कर दिया गया है। अब जो नेतृत्व बोर्ड को दिया गया है उसको लेकर भी कर्मचारी संगठन के गंभीर आरोप हैं। यह आरोप रहा है कि बोर्ड नेतृत्व में बोर्ड के हितों के स्थान पर सरकार में बैठे राजनीतिक आकांओं के हितों की ज्यादा रक्षा की। इसलिये आज के संकट के लिये भी कर्मचारी संगठन बोर्ड के प्रबन्धन को ज्यादा जिम्मेदार ठहरा रहा है।
प्रबन्धन की नाकामी के साथ ही यह भी सामने आया है की पिछली सरकार ने जो 125 यूनिट फ्री बिजली देने का फैसला लिया था उसमें इस घाटे की भरपाई सरकार को करनी थी। लेकिन इस समय मुफ्त बिजली देने के बदले जो पैसा सरकार ने बिजली बोर्ड को देना था उसे यहां सरकार नहीं दे पायी है। इस समय फ्री बिजली का 170 करोड़ सरकार ने बोर्ड को देना है। यदि इस पैसे का भुगतान सरकार कर देती तो शायद यह संकट न आता। इस परिप्रेक्ष में यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने तो चुनावों में 300 यूनिट फ्री बिजली देने की गारंटी दी है। यदि सरकार 125 यूनिट की भरपाई ही नहीं कर पा रही है तो 300 यूनिट की भरपाई कैसे कर पायेगी? आज मुफ्ती की जितनी गारंटीयां सरकार ने चुनावों के दौरान जनता को दे रखी हैं क्या उनकी भरपाई हो पायेगी? इन गारंटीयों को पूरा करने के लिये जो खर्च आयेगा वह कहां से पूरा होगा? क्या उसके लिये कर्ज लेने या जनता पर करो का बोझ डालने के अतिरिक्त और कोई विकल्प है? मुफ्ती के लाभार्थियों की संख्या से उन लोगों की संख्या ज्यादा है जो इस लाभ के दायरे से बाहर है और मुफ्ती की अपरोक्ष में भरपाई करते हैं। आज जो मुफ्ती की गारंटरयां सरकार ने दे रखी है क्या उनकी भरपाई पर जो खर्च आयेगा उसका आंकड़ा सरकार जारी करेगी? क्या यह बताया जायेगा कि यह खर्च कहां से आयेगा? इस समय 125 यूनिट फ्री बिजली देने के बाद वर्तमान सरकार ने भी दो बार बिजली की दरें बढ़ाई है और फिर भी समय पर वेतन तथा पैन्शन का भुगतान न हो पाना अपने में सरकार की नीतियों पर एक गंभीर सवाल है। बिजली बोर्ड की स्थिति ने इस सवाल को जनता के सामने पूरी नग्नता के साथ रख दिया है की क्या कर्ज लेकर मुफ्ती के वायदे पूरे किए जाने चाहिये?