Thursday, 18 September 2025
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प्रदेश पर बढ़ते कर्ज के लिये जिम्मेदार कौन ?

हिमाचल प्रदेश लगातार कर्ज के चक्रव्यूह में उलझता जा रहा है । पिछले तीन दशकों में रही सरकारी अपने-अपने कार्यकाल में न तो इस कर्ज पर लगाम लगा पायी है और न ही कोई सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी कर पायी है। इसका अर्थ हो जाता है कि प्रदेश की जनता किसी भी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर ऐसा भरोसा नहीं कर पायी कि उसे दूसरी बार सत्ता सौंप देती। यह सही है कि स्व. वीरभद्र सिंह छः बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन एक बार भी लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री नही बननेका श्रेय नहीं ले पाये। कांग्रेस में उनका विकल्प नहीं था इसलिए वह छः बार मुख्यमंत्री बन गये। भाजपा में शान्ता कुमार दो बार मुख्यमंत्री बने लेकिन दोनों बार अपना कार्यकाल तक पूरा नहीं कर पाये। प्रो. प्रेम कुमार धूमल भी दो बार मुख्यमंत्री रहे लेकिन सत्ता में लगातार वापसी नहीं कर पाये। यही स्थिति जयराम ठाकुर की हुई। अब सुखविंदर सिंह के हाथ प्रदेश की बागडोर है और जिस तरह के संकेत संदेश उनके कार्य प्रणाली से उभर रहे हैं उसमें उनका भी अपवाद होना संभव नहीं लग रहा है। इस समय प्रदेश की वित्तीय स्थिति ऐसे नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी है कि आने वाले समय में कर्मचारी और पैन्शनरों को वेतन तथा पैन्शन का भुगतान भी नियमित रूप से हो पाना कठिन हो जाएगा।
प्रदेश इस हालात पर क्यों पहुंचा इसके लिए दोषी कौन है ? क्या इस स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सकता है? यह कुछ ऐसे प्रश्न है जिन पर यदि समय रहते गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो परिणाम और भयानक हो जाएंगे। इस समय राज्य सरकार और केंद्र सरकार की योजनाओं को अलग-अलग समझने की आवश्यकता है। क्योंकि केंद्र ने शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण और दूसरी जनकल्याण की योजनाओं पर प्रदेश को अपना हिस्सा देने के लिए कभी भी हाथ पीछे नहीं खींचा है चाहे सरकार किसी भी दल की रही हो। प्रदेश की सरकारों ने एक लम्बे अरसे कर मुक्त बजट देने की परम्परा चला रखी है। जबकि हकीकत में हर बजट से पहले और बाद में आवश्यक सेवाओं के दामों तथा अन्य में टैक्स भर बढ़ता ही रहा है। क्योंकि कर मुक्त बजट की वाहवाही लूटने के बाद राजस्व आय में वृद्धि कैसे संभव है। शिक्षा में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड से सर्व शिक्षा अभियान तक की योजनाओं में इतने शैक्षणिक संस्थान खोल दिये गये कि आज उन विद्यालयों में शिक्षक उपलब्ध नहीं है तो कहीं कहीं पर बच्चे नहीं है। आज उनका समायोजन करना एक चुनौती बन गया है। स्वास्थ्य संस्थानों में डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ की कमी है। चार-चार पशु औषधालय एक डॉक्टर के हवाले हैं। कुल मिलाकर केंद्र की योजनाओं पर ऐसे संस्थान खोल दिये गये जिनको आज ऑपरेट कर पाना संभव नहीं रह गया है । प्रदेश में पांच मेडिकल कॉलेज खोले गये हैं लेकिन एक में भी पैट स्कैन की उपलब्धता नहीं है। ऐसे दर्जनों मामले उपलब्ध है जहां आवश्यक वंचित सुविधा ही उपलब्ध नहीं। यदि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना और राष्ट्रीय नेशनल हाईवे योजनाओं को अलग कर दिया जाये तो प्रदेश के पास क्या बचता है।
दूसरी ओर यदि राज्य सरकार के बजट भाषणों का अवलोकन किया जाये तो हर बजट में ऐसी घोषणाएं मिल जाएगी जिस से यह एहसास होगा कि सरकार के पास कोई आर्थिक संकट है ही नहीं। योजनाकार यह नहीं समझना चाहते की कर्ज लेकर सुविधा बांटने से बड़ा कोई कैंसर नहीं है। महिलाओं को 1500 देना और बेटी की शादी पर 50000 का शगुन देना कर्ज लेकर देना कौन सी समझदारी है। एक को लाभ देने के लिए शेष बचे को कर्ज में डुबाना कोई समझदारी नहीं कही जा सकती। इस समय यदि निष्पक्षता से बात की जाये तो यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि कर्ज लेकर कमीशन लेने का जुगाड़ किया जा रहा है। क्योंकि जब यह आंकड़ा सामने आता है कि यह सरकार अब तक करीब 30000 करोड़ का कर्ज ले चुकी है और मंत्रियों के कार्यालय को कारपोरेट की शक्ल देने के लिए करोड़ों खर्च किए जा रहे हैं तो यही समझ आता है की कर्ज लेकर घी पीने की कहावत को यहां सरकार चरितार्थ कर रही है। लग्जरी गाड़ियों और शानदार सज्जा वाले जब कार्यालय बनाने का सपना हो तो उसमें आम आदमी कहीं नहीं होता। यही स्थिति भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की बाध्यता खड़ी कर देती है। स्व.ठाकुर रामलाल ने जब सत्ता छोड़ी थी तब यह प्रदेश अस्सी करोड़ के सरप्लस में था। इस सरप्लस से कैसे कर्ज के चक्रव्यूह में तक पहुंच गए हैं। तब क्या-क्या हुआ है इसका खुलासा अगले अंकों में पढ़े।

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