पूरे देश में श्री सांई को मानने वालों की संख्या करोड़ों में है और सभी धर्मों और जातियों के लोगों की आस्था सांई में है। आस्था बनने के हरेक के व्यक्तिगत आधार होते हैं। ऐसे में यदि सांई में किसी की आस्था है तो क्या इस आस्था को ऐसे बहिष्कार से तोड़ा जा सकता है। शायद नहीं। जगद्गुरु शंकराचार्य का धर्म में एक शीर्ष स्थान है। हरेक धार्मिक मतभेद में शंकराचार्य का निर्णय सर्वोपरी और अंतिम होता है। लेकिन आस्था कोई धार्मिक प्रश्न नहीं है। यह एक विशुद्ध वैयक्तिक विषय है। गौ माता की हत्या नहीं होनी चाहिये। गौ माता एक धार्मिक प्रतीक भी है। गौ माता को राष्ट्र माता घोषित किये जाने की मांग एक राजनीतिक प्रश्न है। क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। यदि सरकार हिन्दू समाज की एक मांग को अधिमान देती है तो उसी गणित से अन्य धर्म को मानने वालों की मांगों को भी अधिमान देना पड़ेगा। शंकराचार्य ने जब अपने उद्बोधन में गौ हत्या करने वाली पार्टियों को वोट न देने की अपील की है तब उन्हें यह भी स्पष्ट करना होगा कि हिन्दूवादी पार्टी के शासन में बीफ के कारोबार का आंकड़ा क्यों बड़ा है। गौ हत्यारी पार्टियों को वोट देना गौ हत्या के पाप में भागीदार बने जैसा है। शंकराचार्य का ऐसा उद्बोधन क्या एक राजनीतिक उद्बोधन नहीं बन जाता है। शंकराचार्य का जो स्थान हिन्दू धर्म में है उसके नाते हिन्दू समाज को यह निर्देश देना कि वह अमुक दल को समर्थन दे और अमुक का बहिष्कार करे अपने में ही एक बड़ा राजनीतिक प्रश्न बन जाता है। फिर जब हिन्दू धर्म के नाते वोट किसे देना है और किसे नहीं देने के निर्देश ऐसे शीर्ष स्तर पर आने शुरू हो जायें तो यह स्थिति अपने में बहुत हास्यास्पद हो जाती है। क्योंकि इसे राजनीति से सीधे-सीधे दखल देने का निर्देश मान लिया जायेगा।
इस समय वक्फ के प्रस्तावित संशोधन के बाद जो राजनीतिक परिदृश्य उभरा है उसमें शंकराचार्य जैसे शीर्ष स्थान से वोट देने और न देने के निर्देश जारी होना एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा बन जाता है। वक्फ के प्रस्तावित संशोधन के बाद जिस तरह का राजनीतिक परिदृश्य उभरा है उसके परिपेक्ष में वोट देने न देने के ऐसे शीर्ष स्थान से निर्देश आना एक बड़ा सवाल बन जाता है। गौ माता को राष्ट्र माता घोषित किये जाने का मांग पत्र क्या केन्द्र सरकार को सौंपा जाना चाहिये या राज्य सरकारों को? फिर किस मंच के नाम से यह मांग रखी जायेगी। यदि इसी तर्ज पर ऐसी ही मांगे दूसरे धर्म को मानने वालों से भी आती हैं तो उन्हें सरकार कैसे इन्कार कर पायेगी? क्या कल जब राम मंदिर संचालन समिति सांई बाबा की मूर्ति को वहां से हटाएगी तब क्या वह इसके कारण पूरी स्पष्टता के साथ समाज में रख पायेगी? तब क्या सांई के भगत इस स्थिति को चुपचाप स्वीकार कर पायेंगे? क्या इससे समग्र हिन्दू समाज में ही बिखराव की स्थितियां नहीं उभरेंगी? मेरा मानना है कि सर्वधर्म समभाव की अवधारणा के तहत ऐसे बहिष्कार समय की मांग नहीं है।