देश की आर्थिक स्थिति का यह गंभीर पक्ष है जिस पर एक सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। राहुल गांधी जब से इन एकाधिकार के प्रयासों में लगी कंपनियों के खिलाफ मुखर हुये हैं देश की जनता ने उनकी चिताओं को समझ कर कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष के पद तक पहुंचा दिया है। राहुल गांधी की चिंताएं जायज हैं और भविष्य के गंभीर प्रश्न हैं। क्योंकि एकाधिकार कहीं पर भी किसी का भी कालांतर में घातक ही सिद्ध होता है। बाजार में इस तरह के प्रयास और वह भी सरकार की नीयत और नीतियों से पोषित हों तो पूरे देश के लिये उसके परिणाम अच्छे नहीं हो सकते। लेकिन राहुल की चिताओं के साथ कुछ प्रश्न भी स्वतः ही खड़े हो जाते हैं। क्योंकि राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिये मतदाताओं से ऐसे मुफ्ती के वायदे कर रहे हैं जिनमें से एक दो को भी पूरा करने के लिये पूरा बजट गड़बड़ा जाता है। मुफ्ती के वायदों को पूरा करने के लिये या तो जनता पर प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष करों का बोझ डालना पड़ता है या फिर कर्ज का सहारा लेना पड़ता है। इस समय कांग्रेस केन्द्र में सत्ता में नहीं है। केवल तीन राज्यों में उसकी सरकारें हैं। ऐसे में यह देखना आवश्यक हो जाता है कि कांग्रेस की यह सरकारें राहुल के मानकों पर कितना खरा उतर रही हैं। क्योंकि कंपनी के एकाधिकार का विकल्प केवल सरकार होती है। जब कोई सरकार कोई भी सेवा प्रदान करने के लिये आउटसोर्स के नाम पर प्राइवेट कंपनी का रुख करती है तो एकाधिकार का सारा विरोध अर्थहीन हो जाता है। सरकारें अपने प्रतिबद्ध खर्चे कम करने के लिये सरकार में कर्मचारियों की भर्ती करने के स्थान पर आउटसोर्स का रास्ता अपना रही है। हर सेवा और उत्पादन में प्राइवेट सैक्टर का रुख किया जा रहा है। कर्ज सरकार के नाम पर और भरपाई जनता से सेवा प्रदान करने के नाम पर के चलन को जब तक नहीं रोका जायेगा तब तक यह एकाधिकार का विरोध केवल कागजी ही रहेगा। क्योंकि आज तो सरकारें कर्ज लेकर होटल का निर्माण करके उसे चलाने के लिए प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर देती हैं। क्या प्राइवेट सैक्टर को स्वयं कर्ज लेकर स्वयं निर्माण करके होटल स्वयं नहीं चलना चाहिये? यही स्थिति शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी हो रही है। सरकार एक तरह से बड़े सरमायेदार के एजैन्ट की भूमिका तक ही रह गयी है। राहुल गांधी को इस मुद्दे पर अपनी राज्य सरकारों को निर्देशित करके प्राइवेट सैक्टर के दखल को कम करने का प्रयास करना चाहिये।