भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातिय देश है। इसके इसी चरित्र को सामने रखकर संविधान निर्माताओं ने देश के हर नागरिक को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक बराबरी का दर्जा दिया है। सरकार का चरित्र धर्मनिरपेक्ष रखा। सरकार का व्यवहार सभी धर्मों के प्रति एक सम्मान रहेगा। किसी के साथ भी जाति और लिंग के आधार पर गैर बराबरी का व्यवहार नहीं किया जा सकता। लेकिन पिछले कुछ अरसे से संविधान के इस स्वरूप के साथ व्यवहारिक रूप से हटकर आचरण देखा गया। गौ रक्षा और लव जिहाद के नाम पर भीड़ हिंसा हुई और इस हिंसा पर प्रशासन लगभग तटस्थ रहा। आर्थिक मुहाने पर संसाधनों को प्राईवेट हाथों में सौंपा गया। देश की अधिकांश आबादी को सरकारी राशन पर आश्रित होना पड़ा। कोविड काल में आये लॉकडाउन में आपातकाल से भी ज्यादा कठिन हो गया जीवन यापन। यह शायद पहली बार देखने को मिला की महामारी को भगाने के लिये ताली, थाली बजायी गयी और दीपक जलाये गये।
कोविड के इसी काल में संघ प्रमुख मोहन भागवत के नाम से भारत के संविधान का एक बारह पृष्ठों का एक बुकलेट वायरल हुआ जिसमें महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिया गया। पूरे समाज पर ब्राह्मण समाज का वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास था। इस पर संघ कार्यालय नागपुर और पीएमओ के नाम पर सुझाव आमन्त्रित किये गये थे। लेकिन इस वायरल हुये प्रलेख पर न तो संघ कार्यालय और न ही पीएमओ से कोई खण्डन जारी हुआ। उत्तर प्रदेश में दो जगह अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज तो हुए लेकिन उन पर हुई कारवाई आज तक सामने नहीं आयी। इसी बीच मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन का फैसला आ गया जिसमें उन्होंने देश को धर्मनिरपेक्ष के स्थान पर पड़ोसी देशों की तर्ज पर धार्मिक देश बना दिये जाने का फैसला दिया। इस फैसले की प्रतियां प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और राष्ट्रपति तक को प्रेषित हुई। कुछ लोग इस फैसले के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय भी पहुंचे। इसी परिदृश्य में केन्द्र में सतारूढ़ दल से मुस्लिम समाज के लोग संसद और सरकार से बाहर हो गये। क्या यह सारी स्थितियां संविधान को बदले जाने की आशंकाओं की ओर इंगित नहीं करते?
आज देश में क्या धर्म के नाम पर एक और विभाजन का जोखिम उठाया जा सकता है शायद नहीं? क्या आर्थिक संसाधनों की मलकियत किसी एक आदमी के हाथ में सौंपी जा सकती है। जिस देश में आज भी 80 करोड़ लोग सरकार के राशन पर आश्रित रहने को मजबूर हों उसके विकास के दावों को किस तराजू में तोला जा सकता है। इस समय संसद में इन आशंकाओं पर एक विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।