Thursday, 18 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय दिल्ली की हार से कांग्रेस पर उठते सवाल

ShareThis for Joomla!

दिल्ली की हार से कांग्रेस पर उठते सवाल

दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस बार भी शुन्य से आगे नहीं बढ़ पायी। जबकि लोकसभा में 2014 में 44 और 2019 में 57 से बढ़कर इस बार 99 तक पहुंच गयी तथा नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर लिया। लेकिन लोकसभा में बढ़ने के बाद हुए हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हार गयी तथा दिल्ली में फिर खाता तक नहीं खोल पायी। राम जन्मभूमि और मंदिर निर्माण आन्दोलन से लेकर अन्ना हजारे तथा स्वामी रामदेव के भ्रष्टाचार विरोध में लोकपाल की मांग को लेकर उठे आन्दोलन का प्रभाव रहा है कि कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी तथा भाजपा के हाथ में सता आ गयी। इसी सबके प्रभाव और परिणाम स्वरुप कांग्रेस से कई नेता दल बदल कर भाजपा में शामिल हो गये। लगभग सभी राज्यों में ऐसा हुआ। कई राष्ट्रीय पंक्ति के नेता भी कांग्रेस छोड़ गये। भाजपा को 2014 में 282 और 2019 में 303 सीटें मिली। इसी के आधार पर 2024 में अब की बार चार सौ पार का नारा लगा लेकिन 240 से आगे नहीं बढ़ पायी और सहयोगियों के सहयोग से सरकार बन पायी। इस तरह के राजनीतिक परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कांग्रेस यह विधानसभा चुनाव क्यों हार गयी और इसका परिणाम क्या होगा।
2014 से 2024 तक हुये हर चुनाव में ईवीएम और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं। इन सवालों के साक्ष्य भी सामने आये और मामला अदालतों तक भी पहुंचा। यह मांग की गयी कि चुनाव ईवीएम की जगह मत पत्रों से करवाये जायें। लेकिन अदालत ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया और चुनाव आयोग को पारदर्शिता के लिये कुछ निर्देश जारी कर दिये। अब हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में जो साक्ष्य सामने आये और उसके आधार पर सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत यचिकाएं अदालतों में आ चुकी हैं। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिये नियम बदल दिये गये और ईवीएम तथा चुनाव आयोग के विरुद्ध एक जन आन्दोलन का वातावरण निर्मित हुआ लेकिन इस वातावरण को इण्डिया गठबंधन के घटक दलों ने ही सहयोग नहीं दिया। इण्डिया गठबंधन के मंच तले लोकसभा का चुनाव लड़कर भाजपा को 240 पर रोक कर यह गठबंधन हरियाणा और दिल्ली में बिखर गया तथा हार गया।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिये जिस विपक्षी एकता की आवश्यकता महसूस की गयी वही एकता विधानसभा चुनावों के लिये भी आवश्यक थी यह एक सामान्य समझ का विषय है। दिल्ली में जब आप ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला तब सपा आरजेडी और टीएमसी तथा एनसीपी (पवार ग्रुप) सभी ने दिल्ली में आप को सहयोग और समर्थन दिया। कांग्रेस को अकेले उतरना पड़ा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इण्डिया के घटक दलों को अपने-अपने यहां कांग्रेस का पूरा सहयोग और समर्थन चाहिये लेकिन इसके लिये कांग्रेस को बराबर का हिस्सा नहीं देंगे। इस तरह घटक दलों के प्रभाव क्षेत्रों में कांग्रेस का अपना नेतृत्व स्वीकार्य नहीं की व्यवहारिक नीति पर घटक दल चल रहे हैं और यही भाजपा की आवश्यकता है। इससे कांग्रेस को घटक दलों और भाजपा के खिलाफ एक साथ लड़ने की व्यवहारिक आवश्यकता बनती जा रही है। समूचे विपक्ष के सामने हर चुनाव में ईवीएम के खिलाफ और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। इस समय यह स्थिति बन चुकी है कि विपक्ष या तो इस मुद्दे पर निर्णायक लड़ाई एक जन आन्दोलन के माध्यम से लड़ने का फैसला ले और उसके लिये चुनावों का बहिष्कार भी करना पड़े तो उसके लिये भी तैयार रहे अन्यथा इस मुद्दे को बन्द कर दिया जाये।
इस तरह कांग्रेस को यह मानकर चलना होगा कि उसे जनता में अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने के लिये कांग्रेस को बौद्धिक आधार पर मजबूत बनाना होगा। क्योंकि कांग्रेस केन्द्र की सत्ता में तो है नहीं इसलिये उसे अपनी राज्य सरकारों के माध्यम से ही अपनी विश्वसनीयता बनानी होगी। कांग्रेस को हर राज्य की वित्तीय स्थिति का व्यावहारिक आकलन करके ही अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी करने होंगे। सत्ता पाने के लिये किये गये अव्यवहारिक वायदे कभी भी कोई सरकार पूरे नहीं कर सकती है। इस समय हिमाचल की सुक्खू सरकार से मतदाता का हर वर्ग नाराज है। सरकार ने प्रदेश पर इतना कर्ज भार डाल दिया है कि आने वाले दिनों में स्थितियां बहुत भयंकर हो जायेंगी। इस समय हिमाचल सरकार के फैसले हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली चुनाव में चर्चा का मुद्दा रहे हैं जिससे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर सवाल उठे हैं।

Add comment


Security code
Refresh

Facebook



  Search