मंत्रियों से लेकर नीचे हर नेता जवाब देने के लिए उतरा मैदान में
शिमला/शैल। राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी वायदों के रूप में मुफ्ती योजनाओं की घोषणाएं किया जाना कितना जायज है? क्या इनकी कोई सीमा तय होनी चाहिये? ऐसी घोषणाओं का पूरी आर्थिकी पर कितना और क्या असर पड़ता है? यह सवाल हमारे देश में भी श्रीलंका की स्थिति के बाद चर्चा और चिन्तन का विषय बने हुए हैं। सबसे पहले वरिष्ठ नौकरशाहों के एक बड़े वर्ग ने प्रधानमन्त्री के समक्ष यह विषय उठाते हुए यह कहा था कि यदि राज्यों को ऐसी घोषणाओं से न रोका गया तो कुछ राज्यों की हालात कभी भी श्रीलंका जैसी हो जायेगी। इसके बाद यह मामला सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंच गया और वहां उसे तीन जजों की पीठ को सौंप दिया गया है। आशा की जा रही है कि गुजरात और हिमाचल विधानसभा के चुनाव से पूर्व ही शायद कोई सुप्रीम निर्देश आ जाये। यह विषय कितना गंभीर और व्यापक है इसको सही परिप्रेक्ष में समझने के लिए आर्थिकी से जुड़े कुछ आंकड़े ध्यान में रखना आवश्यक हो जाता है क्योंकि केन्द्र से लेकर राज्यों तक हर प्रदेश कर्ज में इतना डूब चुका है कि सभी एफ आर बी एम के मानकों को अंगूठा दिखा चुके हैं। इन मानकों के अनुसार कोई भी राज्य जी डी पी के तीन प्रतिश्त से लेकर पांच प्रतिश्त तक ही कर्ज ले सकता है। जून में जो तेरह राज्यों की रिपोर्ट आर बी आई ने जारी की थी उसके मुताबिक कुछ राज्य 240% से 347% कर्ज ले चुके हैं। कैग रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल प्रदेश का कर्ज भार ही जी डी पी के करीब 40% पहुंच गया है
इस परिदृश्य में आज जब हिमाचल के चुनावों के परिप्रेक्ष में भाजपा कांग्रेस और आप में इन मुफ्ती की घोषणाओं को लेकर आपस में होड़ लग गयी है तब प्रदेश की आर्थिक स्थिति को लेकर कुछ सवाल जनहित में सार्वजनिक मंच से इन तीनों दलों से पूछे जाने आवश्यक हो जाते हैं। क्योंकि मुफ्ती योजनाओं की घोषणाओं की शुरुआत आप ने की थी। आप को मात देने के लिये जयराम सरकार ने पहले 60 यूनिट और फिर 125 यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा कर दी। लेकिन सरकार यहीं नहीं रुकी महिलाओं को बस किरायों में छूट का ऐलान कर दिया गया। घोषणाओं की इस दौड़ में कांग्रेस ने दस गारंटीयों का ऐलान करके सरकार को पीछे छोड़ दिया। लेकिन सरकार ने कांग्रेस की गारंटीयों के जवाब में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग के माध्यम से चलायी जा रही 31 योजनाओं की सूची जारी करके यह दावा किया है कि सरकार कांग्रेस की दस गारंटीयों से पहले ही लोगों को 31 योजनाओं के माध्यम से सब कुछ दे चुकी है। मंत्रीयों से लेकर नीचे तक भाजपा का हर नेता कांग्रेस को जवाब देने के काम में लग गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस की गारंटीयों से सही में सरकार और भाजपा परेशान हो उठी है। क्योंकि कांग्रेस की गारंटीयों का सच तो सरकार बनने के बाद पता चलेगा जबकि भाजपा के दावों का सच तो अभी जमीन पर पता चल जायेगा।
जयराम सरकार पर सबसे बड़ा आरोप सदन के भीतर और बाहर प्रदेश को कर्ज के गर्त्त में धकेलने का लगता आ रहा है। जयराम ठाकुर ने अपने पहले बजट भाषण में सदन में यह जानकारी रखी थी कि उनको विरासत में करीब 46,000 करोड का कर्ज मिला है। यह भी कहा था कि वीरभद्र सरकार ने 18,000 करोड सीमा से अधिक लिया है। अभी मानसून सत्र में दी गयी जानकारी के मुताबिक कुल कर्ज 63,735 करोड़ है और जीडीपी 1,75,173 करोड़। 2021-22 और 2022-23 में विभिन्न योजनाओं के तहत केन्द्र से 25,524 करोड सहायता के रूप में और 912 करोड के रूप में मिले हैं। केंन्द्रिय करों में प्रदेश की हिस्सेदारी के रूप में 35,454 करोड मिला है। इस तरह से 2021-22 और 2022-23 में केन्द्र से कुल 60,978 करोड मिला है जबकि दोनों वर्षों का कुल बजट एक लाख करोड़ के अधिक का है। इन दो वर्षों में राज्य के अपने साधनों से करीब 24,000 करोड सरकार को मिला है। इस तरह केन्द्र और राज्य के अपने साधनों से बजट दस्तावेजों के मुताबिक 85,085 करोड़ मिला जबकि खर्च एक लाख करोड से अधिक हुआ और यह कर्ज लेकर पूरा किया गया।
कैग रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18, 2018-19 और 2019-20 में केन्द्रिय सहायता के नाम पर कुछ योजनाओं में कोई पैसा सरकार को नहीं मिला है। शायद इसी कारण से सौ योजनाओं पर सरकार एक भी पैसा खर्च नहीं कर पायी है। 2019 में स्कूलों में बच्चों को वर्दियां तक नहीं दी जा सकी है। जबकि 2019 में लोकसभा के चुनाव हुए और इस वर्ष के बजट में सरकार का कुल बजट अनुमानों से करीब सोलह हजार करोड अधिक खर्च हुआ है और यह खर्च जुटाने के लिए कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई साधन नहीं रहा है। बल्कि बजट दस्तावेजों के मुताबिक सरकार की पूंजीगत प्राप्तियां भी शुद्ध ऋण होती है। इस तरह यदि बजट के आंकड़ों का सही से अध्ययन किया जाये तो कुल कर्ज का आंकड़ा एक लाख करोड से पार हो जाता है। आज जब राजनीतिक दल अभी से चुनावी गारंटीयां लेकर आ रहे हैं तब उनसे प्रदेश की इस बजटीय स्थिति पर भी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये। राजनीतिक दलों से कर्ज की सही स्थिति की जानकारी को लेकर प्रश्न पूछे जाने चाहिये। यह स्पष्ट किया जाना चाहिये की बिना कर्ज लिये और टैक्स लगाये वायदों को कैसे पूरा किया जायेगा।