शिमला/शैल। मोदी सरकार को सत्ता में आये चार साल हो गये हैं। अगले चुनावों के लिये एक वर्ष बचा है। यदि तय समय मई 2019 से पहले यह चुनाव नही होते हैं तो। वैसे यह संभावना बनी हुई है कि शायद लोकसभा का चुनाव 2018 के अन्त तक ही करवा लिया जाये। इस संभावना का बड़ा आधार यह माना जा रहा है कि विपक्ष अब एक जुट होने का प्रयास कर रहा है। विपक्ष की इस संभाविक एकजुटता का असर उत्तर प्रदेश में देखने को मिल चुका है। जहां सपा-वसपा के साथ आने पर योगी सरकार दोनों ही सीटों का उपचुनाव हार गयी जबकि यह सीटें मुख्यमन्त्री और उप मुख्यमन्त्री द्वारा खाली की गयी थी। यही नही इसी के साथ भाजपा राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार में भी उपचुनाव हार गयी इन सारे राज्यों में भाजपा की ही सरकारें थी। वैसे मोदी सरकार लोकसभा का कोई भी उपचुनाव नही जीत पायी है। कई केन्द्रिय विश्वविद्यालयों में हुए छात्र संघो के चुनावों में भी भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को हार का सामना करना पड़ा है। इन विश्व़विद्यालयों में मोदी के अपने लोकसभा क्षेत्रा का बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय भी शामिल है। जहां पिछले लोकसभा चुनावों में पूरा युवा वर्ग, पूरा छात्र समुदाय बहुमत में मोदी के साथ खड़ा था वह आज वैसा हीे नही रह गया है।
पिछले चुनावों में जो वायदे आम आदमी से किये गये थे वह व्यवहार में कोई भी पूरे नही हुए हैं। कालेधन को लेकर जो दावे और वायदे किये गये थे वह पूरे नही हुए हैं। मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दों पर सरकार एकदम असफल रही है। बल्कि इनके स्थान पर देश के सामने आया है हिन्दु मुस्लिम विवाद, फिल्म पदमावत, पाकिस्तान और चीन के साथ तनाव, गौ सेवा, गौ वध, तीन तलाक, बाबा रामदेव का योग, वन्देमारतम, राष्ट्रभक्ति और अन्त में आरक्षण। चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की निष्पक्षता अदालत के फैसले से लगा प्रश्न चिन्ह सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम जजों का पहली बार पत्रकार वार्ता के माध्यम से अपना रोष जनता के सामने लाना। दर्जनों पूर्व नौकरशाहों द्वारा प्रधानमंत्री को एक सामूहिक पत्र लिखकर अपनी वेदना प्रकट करना। यह कुछ ऐसे मुद्दे आज देश के सामने आ खड़े हुए हैं जिनको लेकर परे सामज के अन्दर एक ध्रुवीकरण की स्थिति खड़ी हो गयी है। क्योंकि यह ऐसे मुद्दे हैं जिनका देश की मूल समस्याओं पर से ध्यान भटकाने का प्रयास किया जा रहा है। आज रोटी, कपड़ा और मकान के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य बुनियादी आवश्यकताएं बन चुकी हैं। लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थिति यह हो गयी है कि अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवा साधारण आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है क्योंकि यह अपने में सेवा के स्थान पर एक बड़ा बाज़ार बन चुकी है।
अभी दलित अत्याचार निरोधक अधिनियम को लेकर आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कैसे आरक्षण के पक्ष-विपक्ष तक जा पहुंचा है यह अपने में एक बड़ा सवाल बन गया है। लेकिन यह हकीकत है कि आरक्षण का मुद्दा अगले चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा बनाकर उछाला जायेगा। क्योंकि इसी मुद्दे पर वीपी सिंह की सरकार गयी थी और कई छात्रों ने आत्मदाह किये थे। इस समय भी ऐसा ही लग रहा है कि एक बार फिर इस मुद्देे को उसी आयाम तक ले जाने की रणनीति अपनाई जा रही है। इसका और कोई परिणाम हो या न हो लेकिन इससे समाज में ध्रुवीकरण अवश्य होगा। इस ध्रुवीकरण का राजनीतिक परिणाम क्या होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह तय है कि यह सवाल अवश्य उछलेंगे और सरकार को इन पर जवाब देना होगा। फिर इन्ही मुद्दों के साथ उनाव और कटुआ जैसे कांड जुड़ गये हैं और ऐसे कांड देश के कई राज्यों में घट चुके हैं। संयोगवश ऐसे कांड अधिकांश में भाजपा शासित राज्यों में घटे हैं लेकिन इनकी सार्वजनिक मुखर निन्दा करने और इनपर कड़ी कारवाई करने की मांग में भाजपा नेतृत्व खुलकर सामने नही आया है।
इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि इन सारे मुद्दों पर सरकार के पास कोई संतोषजनक उत्तर नही है। इसलिये आने वाले समय में 2019 के चुनावों तक इन मुद्दों का दंश ज्यादा नुकसानदेह होने से पहले ही मोदी इसी वर्ष चुनाव का दाव खेल दें तो इनमें कोई हैरानी नही होनी चाहिये।