इसी विरोध का परिणाम है कि सर्वोच्च न्यायालय प्रशान्त भूषण को वह सवाल उठाने के लिये सत्ता दे रहा है जो सवाल इसी सर्वोच्च न्यायालय के चार कार्यरत न्यायधीश वाकायदा एक पत्र के माध्यम से प्रैस के सामने रख चुके हैं। प्रशान्त भूषण को सज़ा देने के लिये स्थापित न्याययिक प्रक्रिया को भी नज़रअन्दाजा किया गया है। इसी तरह की स्थिति अदानी को दिये जा रहे त्रिवेन्द्रम एयरपोर्ट की है। केरल सरकार इस एयर पोर्ट को स्वयं चलाना चाहती है। इसके लिये शीर्ष अदालत में एक याचिका दायर की गयी। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे केरल उच्च न्यायालय में उठाया जाये। केरल सरकार उच्च न्यायालय में आ गयी और उच्च न्यायालय ने इसे यह कह कर रद्द कर दिया कि इसे सुप्रीम कोर्ट में उठाया जायें। केरल सरकार फिर सर्वोच्च न्यायालय जा रही थी कि मोदी सरकार ने इस एयरपोर्ट को अदानी के हवाले करने का फैसला सुना दिया। क्या इस तरह की कारवाई से अदालत पर विश्वास कायम रह सकेगा। केन्द्र सरकार किस तरह की जल्दबाजी मे काम कर रही है इसका एक उदाहरण अपराध दण्ड संहिता में संशोधन करने के लिये गठित की गयी कमेटी में भी सामने आया है। इस कमेटी को संशोधन का यह काम छः माह में पूरा करना है और आईपीसी, सीआरपीसी और साक्ष्य तीनों अधिनियमों में संशोधन किया जाना है। देश के पहले लाॅ कमीशन ने ऐसे संशोधन के चार चरणों की प्रक्रिया तय की हुई है। लेकिन अब गठित की गयी कमेटी पहले दो चरणों को नजरअन्दाज करके सीधे तीसरे चरण से अपना काम शुरू कर रही है। इस पर सौ से अधिक विषय विशेषज्ञों ने पत्र लिख कर इसका विरोध किया है और इस कमेटी को तुरन्त प्रभाव से भंग करने की मांग की है।
इस तरह पूरे देश के अन्दर एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है जहां शीर्ष संस्थान विश्सनीयता के संकट में आ खड़े हुए है। कोरोना संकट के कारण आज देश की अर्थव्यवस्था एक संकट के मोड पर आ खड़ी हुई है। करोड़ों लोग रोजगार के संकट से जूझ रहे हैं। ऐसे संकट काल में सरकार का अपने उपक्रमों को निजिक्षेत्र को सौंपना नीयत और नीति दोनों पर गंभीर आक्षेप लगने शुरू हो गये हैं। क्योंकि एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले देश में हर हाथ को काम सरकारी उपक्रमों को निजिक्षेत्र को सौंपने से नही दिया जा सकता है। क्योंकि निजिक्षेत्र व्यक्तिगत स्तर पर मुनाफा कमाने की अवधारणा पर चलता है। इसके लिये वह हाथ को मशीन से हटाने की नीति पर चलता है और कामगारों की छटनी से शुरू करता है। आज सरकार भी उसी नीति पर चलने का प्रयास कर रही है। इसीलिये पचास वर्ष से अधिक आयु के कर्मचारियों को काम की समीक्षा के मानदण्ड से हटाने पर विचार कर रही है। भाजपा ने 1990 में ही यह जाहिर कर दिया था जब शान्ता कुमार हिमाचल के मुख्यमन्त्री थे। तब निजिकरण क्यों के नाम से एक वक्तव्य दस्तावेज जारी किया गया था। इस वक्तव्य में यह आरोप लगाया गया था कि सरकारी कर्मचारी काम चोर और भ्रष्ट हैं। इसी आरोप के सहारे प्रदेश बिजली बोर्ड से बसपा परियोजना लेकर जेपी उद्योग समूह को दी गयी थी तय हुआ था कि बिजली बोर्ड के इस परियोजना पर हुए निवेश को जेपी उ़द्योग सरकार को ब्याज सहित वापिस करेगा लेकिन आज तक कैग की टिप्पणीयों के बावजूद एक पैसा तक वापिस नही हुआ है। आज प्रदेश की बिजली नीति और उद्योग नीति के कारण प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में फंस चुका है। इसी तरह प्रदेश प्रमुख पर्यटक स्थल वाईल्डफलावर हाल दिया गया था जिससे प्रदेश को आज तक कोई लाभ नही मिला है। निजिकरण की देशभर में यही स्थिति है कर्मचारियों पर उस भ्रष्टता का आरोप लगाकर निजिकरण का आधार तैयार किया जाता है जिसकी उन्हे कभी सज़ा नही दी गयी है। इसी कारण से यह सवाल भी नही उठने दिया गया कि यदि सरकार एक उपक्रम नही चला सकती है तो देश कैसे चलायेगी।