Friday, 19 September 2025
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क्या कांग्रेस का संकट प्रायोजित है

इस समय देश ऐसे दौर से गुजर रहा है जो शायद भारत में पहली बार देखने को मिल रहा है। देश की अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है। ऐसा पहली बार हो रहा है जब केन्द्र सरकार ने राज्यों को जीएसटी में उनका हिस्सा दे पाने में असमर्थता जाहिर कर दी है। वित्तमन्त्री सीता रमण ने इस आर्थिक संकट को ईश्वर की देन कह दिया है। वित्त हर गतिविधि का मूल होता है और जब यही गड़बड़ा जाये तो तुरन्त प्रभाव से राष्ट्रीयहित में संसद को भंग करके एक राष्ट्रीय सरकार के गठन की आवश्यकता हो जाती है लेकिन इस समय ऐसा नही किया जा रहा है बल्कि संकट के इस दौर में विपक्ष की सरकारों को तोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। बल्कि विपक्ष मुक्त भारत का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे हालात में एक सशक्त और स्पष्ट विपक्ष की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है क्योंकि सत्तापक्ष अपनी नीतियों की समीक्षा के लिये तैयार नही है। वह आज भी अपनी गलतीयों के लिये नेहरू-गांधी काल की नीतियों को जिम्मेदार ठहरा रहा है। मीडिया भी सरकार से सवाल पूछने की बजाये विपक्ष को कमज़ोर करने के काम में लग गया है और इसीलिये उसे गोदी मीडिया की संज्ञा दी जा रही है। उच्च न्यायपालिका का सरोकार भी आम आदमी नही रह गया है। मंहगाई और बेरोज़गारी दोनों का संकट एक साथ झेल रहे आम आदमी की सुध लेने वाला कोई नही रह गया है। यदि कोई सरकार से सवाल पूछने का साहस दिखाता है तो उसे तुरन्त देशद्रोह करार देकर उसके पीछे जांच एजैन्सीयों को लगा दिया जाता है।
आज जो हालात है यदि उस पर कोई सवाल न भी किया जाये और सरकार के हर फैसले की सराहना की जाये तो क्या उससे स्थितियां अपने आप बदलकर ठीक हो जायेंगी? शायद नहीं। इसलिये आज एक सशक्त विपक्ष अनिवार्य हो गया है इस समय विपक्ष के नाम पर कांग्रेस के अतिरिक्त और कोई राजनीतिक दल ऐसा सामने नही है जो आम आदमी में अपनी स्वीकार्यता बना पाने की स्थिति मेें रह गया हो। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, टीएमसी, एनसीपी और आम आदमी पार्टी सभी ने कांग्रेस तथा भाजपा का विकल्प होने का प्रयास किया है लेकिन कोई भी दल ऐसा हो पाने में समर्थ नही हो पाया है। ऐसा शायद इसलिये हुआ है क्योंकि कोई भी दल देश के समाने कोई स्पष्ट आर्थिक चिन्तन नही रख पाया है। आर्थिक चिन्तन के अभाव में कोई स्पष्ट राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन इन दलों का नही बन पाया। इसलिये इनकी स्वीकार्यता नही बन पायी और आज भी यह उसी धरातल पर खड़े हैं। जबकि कांग्रेस और भाजपा तथा वाम दलों का इन तीनो मुद्दों पर अपना-अपना स्पष्ट चिन्तन है। वाम दलों का भी यह दुर्भाग्य रहा है कि स्पष्ट चिन्तन के बावजूद इसको व्यवहारिक बनाने की प्रक्रिया को सर्वस्वीकार्य नही बना पाये। वाम दलों के चिन्तन में दम है इसलियें सत्तारूढ़ दल ने सबसे पहले इस चिन्तन को ही अस्वीकार्य करार देकर इसके कई चिन्तकों को जेलों तक पहुंचा दिया है।
इस तरह जो राजनीतिक परिस्थितियां देश में बनती जा रही है उनसे यह सवाल खड़ा हो गया है क्या ऐसे लोकतन्त्र सुरक्षित रह पायेगा? यह सवाल इसलिये भी महत्वपूर्ण और गंभीर हो जाता है कि सत्तारूढ़ भाजपा संघ परिवार की केवल एक राजनीतिक ईकाई है जिसका संचालन उस संघ के हाथ में है जो अपने में एक पंजीकृत संस्था भी नही है। पंजीकृत न होने के कारण वह देश के कानून के प्रति कितनी जवाबदेह है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यह संघ के चिन्तन का परिणाम है कि देश के संसाधनों को एक योजनाबद्ध तरीके से नीजि हाथों में सौंपा जा रहा है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम पर सैंकड़ों विदेशी कंपनीयों से लाखों करोड़ का निवेश देश में करवा दिया गया है। बैंकों में एक वर्ष में 1.84 लाख कराड़ का फ्राड घट चुका है और तीन लाख करोड़ का घाटा बैंकों को अलग से हो गया है। बैंकों की सुरक्षा खतरे में आ खड़ी हुई है और कोई इस पर सवाल उठाने की हिम्मत नही जुटा पा रहा है। सवाल उठाने का दायित्व मीडिया विपक्ष का होता है। जब से गोदी मीडिया की संज्ञा में आ गया है तब से यह जिम्मेदारी अकेले विपक्ष पर आ गयी है। विपक्ष में भी केवल कांग्रेस ही बची है। कांग्रेस की सरकारों को गिराने का जिस तरह से 2014 से लेकर आज 2020 तक प्रयास किया गया है उससे यह संकट और भी गंभीर हो गया है। राजस्थान में सरकार गिराने के लिये भाजपा किस तरह से सक्रिय भूमिका निभा रही थी यह साक्ष्यों सहित सामने आ चुका है। साक्ष्य सामने आने के कारण ही राजस्थान में सरकार नही गिर पायी है। राजस्थान की इस असफलता का ही परिणाम है कि भाजपा ने कांग्रेस के भीतर संेध लगाकर 23 लोगों से पत्र लिखवाने की योजना को कार्यरूप दिलाया। सवाल है कि क्या इन 23 नेताओं में से किसी एक ने भी देश के आर्थिक संकट के लिये प्रधानमन्त्री और भाजपा की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। चीन और नेपाल के मुद्दे पर कांग्रेस के कितने लोगों ने सवाल किया है। कांग्रेस के अन्दर यह अकेले राहुल गांधी ही थे जिन्होने चौकीदार को चोर कहने का साहस किया था लेकिन किसी ने उनका साथ नहीं दिया था। राहुल को गाली देने और उनका चरित्र हनन करने के लिये किस तरह से मीडिया को प्रायोजित किया गया यह कोबरा पोस्ट के स्टिंग आप्रेशन से सामने आ चुका है। इस समय भाजपा संघ को उन्ही की भाषा में जवाब देने की आवश्यकता है। लेकिन दुर्भाग्य से कांग्रेस नेतृत्व का एक बड़ा वर्ग इससे बचने का प्रयास कर रहा है।
इस परिदृश्य में कांग्रेस के इन 23 नेताओं के पत्र को किसी भी गणित में जायज़ नही ठहराया जा सकता है। क्योंकि संगठन में चुनावों के जिस मुद्दें को पत्र में उठाया गया है उसे कार्यसमिति की बैठक में वैसे भी उठाया जा सकता था। फिर संगठन में चुनावों की प्रक्रिया तो बहुत पहले से ही शुरू हो गयी थी जिसे लोकसभा चुनावों के कारण लंबित किया गया था। ऐसे में संगठन के चुनावों के नाम पर पार्टी को आम आदमी की नजरों में विवादित बनाना किसी भी तर्क से जायज़ नही ठहराया जा सकता। क्योंकि इस समय राष्ट्रीय बैंकों का अस्तित्व उसी मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जिस पर राष्ट्रीयकरण के समय था। इसलिये आने वाले दिनों में यह सबसे प्रमुख मुद्दा होगा और यही नेताओं और दलों की कसौटी बन जायेगा।

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