इस परिप्रेक्ष में यह लगता है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश के मुद्दों पर बात करने के बजाय इसी से काम चलाने का प्रयास करेगा कि रुपया नहीं गिर रहा है बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है। इस समय बिलकिस बानो के हत्यारों की सजा मुआफी के मामले में जिस तरह से केन्द्र की भूमिका बेनकाब हुई है उससे क्या आज भाजपा के हर नेता से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि हत्यारों और बलात्कारियों का सार्वजनिक महिमामण्डन किस संस्कृति का मानक है। क्या मुस्लिम होने से उन्हें न्याय का अधिकार नहीं रह जाता है। क्या आज यह राष्ट्रीय प्रश्न नहीं बन जाता है। क्या संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसी का नाम है? इसी तरह आज नोटबंदी पर आई हुई 58 याचिकाओं पर सुनवाई के माध्यम से एक सार्वजनिक बहस का वातावरण निर्मित हो रहा है। सर्वाेच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार और आरबीआई को नोटिस जारी किया है। इसमें यह सामने आ चुका है की नोटबंदी का अधिकार आरबीआई एक्ट के तहत सरकार को था ही नहीं। इस बहस से यह सवाल फिर उछलेंगे कि नोटबंदी के समय घोषित लाभ कितने क्रियात्मक हो पाये हैं। नोटबंदी पर क्या आज सवाल नहीं पूछे जाने चाहियं? नफरती बयानों पर जिस तरह का कड़ा संज्ञान सर्वाेच्च न्यायालय ने लेते हुए प्रशासनिक निष्क्रियता को अदालती अवमानना करार दिया है उससे पूरे समाज में एक नयी संवेदना और संचेतना का वातावरण निर्मित हुआ है। नफरती बयानों के लिए सबसे अधिक सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोग जिम्मेदार हैं। नफरती बयानों पर भी भाजपा नेतृत्व से सवाल पूछे जाना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि यह सारे आज के राष्ट्रीय प्रश्न बन चुके हैं। इनके कारण अर्थव्यवस्था पूरी तरह तहस-नहस हो चुकी है। इन प्रश्नों से ध्यान हटाने के लिए राम मन्दिर, तीन तलाक धारा 370 हटाने जैसे मुद्दे परोसे जायेंगे।
हिमाचल के संद्धर्भ में भी इस सवाल का जवाब नहीं आयेगा कि प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में ही 2541 करोड़ रूपया बांटे जाने के बाद भी प्रदेश बेरोजगारी में देश के
टॉप छः राज्यों में क्यों आ गया। प्रदेश का कर्ज भार हर रोज बढ़ता क्यों जा रहा है? प्रदेश को दिये गये 69 राष्ट्रीय राजमार्ग और कितने चुनावों के बाद सैद्धांतिक स्वीकृति से आगे बढ़ेंगे। मनरेगा में इस वर्ष अभी तक कोई पैसा क्यों जारी नहीं हो पाया है? प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना क्यों बंद हो गयी? इसके तहत निर्माणधीन 203 सड़को का भविष्य क्या होगा। विधानसभा का यह चुनाव बहुत अर्थों में महत्वपूर्ण होने जा रहा है इसलिये यह कुछ प्रश्न आम आदमी के सामने रखे जा रहे हैं।
हिमाचल में पीछे हुए विधानसभा के मानसून सत्र के बाद जयराम सरकार ने विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों के सम्मेलन किये हैं। हर सप्ताह मंत्रिमण्डल की बैठक करके प्रदेश भर में करोड़ों की योजनाएं घोषित की हैं। मुख्यमंत्री की इन जनसभाओं के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने भी कार्यकर्ताओं और जनता का मन टटोलने का प्रयास किया है। क्योंकि जयराम के राजनीतिक संरक्षक के रूप में नड्डा का नाम ही सबसे पहले आता रहा है। आज नड्डा जयराम बनाम धूमल खेमे में भाजपा पूरी तरह बंटी हुई है यह सब जानते हैं। बल्कि इसी खेमे बाजी का परिणाम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी पांच जिलों में जनसभाएं आयोजित की गयी। चम्बा की सभा के लिये जो पोस्टर लगे थे उनमें राज्यसभा सांसद इन्दु गोस्वामी का फोटो नही था। इसकी जानकारी जब दिल्ली पहुंची तब रातों-रात इन्दु के फोटो वाले पोस्टर लगे।
प्रधानमंत्री के बाद गृह मंत्री अमित शाह की रैली भी सिरमौर में आयोजित की गयी। अब चुनाव प्रचार के दौरान भी प्रधानमंत्री की आधा दर्जन सभाएं करवाये जाने की योजना है।
प्रधानमंत्री की सभाओं और चुनाव आयोग की पुरानी प्रथा से हटने को यदि एक साथ जोड़ कर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि इस चुनाव में प्रदेश में केंद्रीय एजेंसियों और केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका केंद्रीय होने जा रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि प्रदेश का यह चुनाव भी प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही लड़ा जायेगा। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस समय प्रधानमंत्री और उनकी सरकार सर्वाेच्च न्यायालय में नोटबंदी तथा चुनावी बाँडस के मुद्दों पर जिस तरह सवालों के घेरे में घिरती जा रही है उसे विपक्ष कितनी सफलता के साथ प्रदेश की जनता के बीच रख पाता है। क्योंकि यह तय है कि खेमों में बंटी प्रदेश भाजपा के किसी भी नेता के नाम पर चुनाव लड़ने का जोखिम केंद्रीय नेतृत्व नहीं उठाना चाहता है।
आज सरकार को यह जवाब देना होगा कि 2022-23 के बजट में ग्रामीण विकास के आवंटन में 38% की कटौती क्यों की गयी थी? क्या इसी के कारण आज मनरेगा में कोई पैसा गांव में नहीं पहुंच पा रहा है। पीडीएस के बजट में भी भारी कटौती की गयी थी और उसी कारण से आज 80 करोड़ जनता को मुफ्त राशन देने का संकट आ रहा है। बजट में यह कटौती तो उस समय कर दी गयी थी जब रूस और यूक्रेन में युद्ध की कोई संभावनाएं तक नहीं थी। इसलिए आज बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के परिदृश्य में सरकार की नीयत और नीति पर खुली बहस की आवश्यकता हो जाती है।