वोटर आईडी को आधार कार्ड से जोड़ने का विधेयक लोकसभा में बिना बहस के पारित हो गया है। इसे चुनाव सुधारों की दिशा में एक बड़ा कदम कहा जा रहा है। इस विधेयक को लोकसभा में लाये जाने से पहले चुनाव आयोग और पीएमओ के बीच एक बैठक होने का विवाद भी उभरा था। इस विवाद के परिदृश्य में यदि इस चुनाव सुधार पर संसद में बहस हो जाती तो अच्छा होता। लेकिन ऐसा हो नही पाया। शायद इस सरकार की यह संस्कृति ही बन गयी है कि विपक्ष की कोई भी बात सुननी ही नहीं है। जिस तरह से प्रधानमंत्री भी केवल अपने मन की ही बात जनता को सुनाने के सिद्धांत पर चलते आ रहे हैं उनकी सरकार भी उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रही है। दर्जनों उदाहरण इस चलन के नोटबंदी से लेकर कृषि कानूनों के पास होने से लेकर उनके वापिस होने तक के मौजूद हैं। इस चलन में सबसे बड़ी कमी यही होती है कि आप हर बार हर समय ठीक नहीं हो सकते। आर्थिक क्षेत्र में जितने भी फैसले लिये गये हैं उनका ठोस लाभ केवल 10ः समृद्ध लोगों को ही मिला है और बाकी के नब्बे प्रतिश्त के तो साधन ही कितने चले गये हैं। सरकार जिस तरह से बड़े पूंजीपतियों की पक्षधर होकर रह गयी है उसका सबसे बड़ा प्रमाण सरकार की विनिवेश योजना है। जिसके तहत अच्छी आय देने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे ट्रैक, रेलवे स्टेशन, ट्रेन, हवाई अड्डे, बंदरगाह, ऊर्जा उत्पादन और ट्रांसमिशन, तेल और गैस पाइपलाइनज, टेलीकॉम इंफ्र्रास्ट्रक्चर तथा खनिज और खानों को निजी क्षेत्र में सौंपकर इससे छःलाख करोड़ जुटाने की योजना है। इसी विनिवेश के तहत सरकारी बैंकों को भी प्राइवेट सैक्टर को देने का विधेयक लाया जा रहा था जिसे बैंक कर्मचारियों की हड़ताल और पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका से टाल दिया गया। लेकिन देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के साथ अदानी कैपिटल की हुई हिस्सेदारी से इसका श्रीगणेश कर दिया गया है।
बैंकिंग देश की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है लेकिन इस सरकार के कार्यकाल में 2014 -15 से 2020-2021 तक कमर्शियल बैंकों का एनपीए दो लाख करोड़ से बढ़कर 25.24 लाख करोड़ तक पहुंच गया। लेकिन इनमें रिकवरी केवल 593956 करोड़ ही हो पायी है जबकि 10,72116 करोड़ की कर्ज माफ कर दिया गया। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए इसी अवधि में 1904350 करोड़ को पहुंच गया जिसमें रिकवरी सिर्फ 448784 करोड़ और इसमें 807488 करोड़ का कर्ज इसमें माफ किया गया है। यह सारे आंकड़े आरबीआई से 13.8.21 की एक आरटीआई के माध्यम से सामने आये हैं। इन आंकड़ों से यह सामने आया है कि इस सरकार के कार्यकाल में करीब बीस लाख करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया। इसी कर्ज माफी का परिणाम है कि बैंकों में जमा पूंजी पर लगातार ब्याज कम होता जा रहा है और बैंकों की सेवाएं लगातार महंगी होती जा रही हैं। महंगाई और बेरोजगारी भी इसी सबका परिणाम है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस दिन यह चिन्हित अदारे पूरी तरह से प्राइवेट सैक्टर के हवाले हो जायेंगे उस दिन महंगाई और बेरोजगारी का आलम क्या होगा।
इस सारे खुलासे के बाद यह सवाल जवाब मांगते हैं कि क्या इस सब पर देश के अंदर एक सार्वजनिक बहस नहीं हो जानी चाहिये थी? सरकारी संपत्तियों को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करके कितनी देर देश को चलाया जा सकेगा? जिस देश के बैंकों की हालत यहां तक पहुंच गयी है कि 22219 ब्रांचों वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 60 ब्रांचों वाले अदानी कैपिटल को अपना लोन पार्टनर बनाना पड़ा है यदि वहां के बैंक प्राइवेट हाथों में चले जायें तो आम आदमी का पैसा कितनी देर सुरक्षित रह पायेगा? प्राइवेट बैंक गरीब आदमी को क्यों और किन शर्तों पर कर्ज उपलब्ध करावायेगा? क्या इस वस्तुस्थिति का देर-सवेर हर आदमी पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इन सवालों को हिन्दू-मुस्लिम करके नजरअंदाज किया जा सकता है? क्या राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर और मथुरा में कृष्ण मूर्ति रखने से महंगाई और बेरोजगारी के प्रश्न हल हो जायेंगे? आज जो नेता और राजनीतिक दल इन सवालों पर मौन धारण करके बैठ गये हैं क्या उनके हाथों में देश सुरक्षित रह पायेगा? क्या ऐसे परिदृश्य में आज संसद से लेकर हर गली चौराहे तक इन सवालों पर बहस नहीं होनी चाहिये?
घातक होगा सार्वजनिक सवालों पर बहस से भागनावोटर आईडी को आधार कार्ड से जोड़ने का विधेयक लोकसभा में बिना बहस के पारित हो गया है। इसे चुनाव सुधारों की दिशा में एक बड़ा कदम कहा जा रहा है। इस विधेयक को लोकसभा में लाये जाने से पहले चुनाव आयोग और पीएमओ के बीच एक बैठक होने का विवाद भी उभरा था। इस विवाद के परिदृश्य में यदि इस चुनाव सुधार पर संसद में बहस हो जाती तो अच्छा होता। लेकिन ऐसा हो नही पाया। शायद इस सरकार की यह संस्कृति ही बन गयी है कि विपक्ष की कोई भी बात सुननी ही नहीं है। जिस तरह से प्रधानमंत्री भी केवल अपने मन की ही बात जनता को सुनाने के सिद्धांत पर चलते आ रहे हैं उनकी सरकार भी उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रही है। दर्जनों उदाहरण इस चलन के नोटबंदी से लेकर कृषि कानूनों के पास होने से लेकर उनके वापिस होने तक के मौजूद हैं। इस चलन में सबसे बड़ी कमी यही होती है कि आप हर बार हर समय ठीक नहीं हो सकते। आर्थिक क्षेत्र में जितने भी फैसले लिये गये हैं उनका ठोस लाभ केवल 10ः समृद्ध लोगों को ही मिला है और बाकी के नब्बे प्रतिश्त के तो साधन ही कितने चले गये हैं। सरकार जिस तरह से बड़े पूंजीपतियों की पक्षधर होकर रह गयी है उसका सबसे बड़ा प्रमाण सरकार की विनिवेश योजना है। जिसके तहत अच्छी आय देने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे ट्रैक, रेलवे स्टेशन, ट्रेन, हवाई अड्डे, बंदरगाह, ऊर्जा उत्पादन और ट्रांसमिशन, तेल और गैस पाइपलाइनज, टेलीकॉम इंफ्र्रास्ट्रक्चर तथा खनिज और खानों को निजी क्षेत्र में सौंपकर इससे छःलाख करोड़ जुटाने की योजना है। इसी विनिवेश के तहत सरकारी बैंकों को भी प्राइवेट सैक्टर को देने का विधेयक लाया जा रहा था जिसे बैंक कर्मचारियों की हड़ताल और पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका से टाल दिया गया। लेकिन देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के साथ अदानी कैपिटल की हुई हिस्सेदारी से इसका श्रीगणेश कर दिया गया है। बैंकिंग देश की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है लेकिन इस सरकार के कार्यकाल में 2014 -15 से 2020-2021 तक कमर्शियल बैंकों का एनपीए दो लाख करोड़ से बढ़कर 25.24 लाख करोड़ तक पहुंच गया। लेकिन इनमें रिकवरी केवल 593956 करोड़ ही हो पायी है जबकि 10,72116 करोड़ की कर्ज माफ कर दिया गया। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए इसी अवधि में 1904350 करोड़ को पहुंच गया जिसमें रिकवरी सिर्फ 448784 करोड़ और इसमें 807488 करोड़ का कर्ज इसमें माफ किया गया है। यह सारे आंकड़े आरबीआई से 13.8.21 की एक आरटीआई के माध्यम से सामने आये हैं। इन आंकड़ों से यह सामने आया है कि इस सरकार के कार्यकाल में करीब बीस लाख करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया। इसी कर्ज माफी का परिणाम है कि बैंकों में जमा पूंजी पर लगातार ब्याज कम होता जा रहा है और बैंकों की सेवाएं लगातार महंगी होती जा रही हैं। महंगाई और बेरोजगारी भी इसी सबका परिणाम है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस दिन यह चिन्हित अदारे पूरी तरह से प्राइवेट सैक्टर के हवाले हो जायेंगे उस दिन महंगाई और बेरोजगारी का आलम क्या होगा। इस सारे खुलासे के बाद यह सवाल जवाब मांगते हैं कि क्या इस सब पर देश के अंदर एक सार्वजनिक बहस नहीं हो जानी चाहिये थी? सरकारी संपत्तियों को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करके कितनी देर देश को चलाया जा सकेगा? जिस देश के बैंकों की हालत यहां तक पहुंच गयी है कि 22219 ब्रांचों वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 60 ब्रांचों वाले अदानी कैपिटल को अपना लोन पार्टनर बनाना पड़ा है यदि वहां के बैंक प्राइवेट हाथों में चले जायें तो आम आदमी का पैसा कितनी देर सुरक्षित रह पायेगा? प्राइवेट बैंक गरीब आदमी को क्यों और किन शर्तों पर कर्ज उपलब्ध करावायेगा? क्या इस वस्तुस्थिति का देर-सवेर हर आदमी पर असर नहीं पड़ेगा? क्या इन सवालों को हिन्दू-मुस्लिम करके नजरअंदाज किया जा सकता है? क्या राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर और मथुरा में कृष्ण मूर्ति रखने से महंगाई और बेरोजगारी के प्रश्न हल हो जायेंगे? आज जो नेता और राजनीतिक दल इन सवालों पर मौन धारण करके बैठ गये हैं क्या उनके हाथों में देश सुरक्षित रह पायेगा? क्या ऐसे परिदृश्य में आज संसद से लेकर हर गली चौराहे तक इन सवालों पर बहस नहीं होनी चाहिये?
नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता संभाले सात वर्ष हो गये हैं। इन सात वर्षों में 2014 के मुकाबले महंगाई और बेरोजगारी कहां पहुंच गयी है इसका दंश अब हर आदमी झेल रहा है। देश जिस आर्थिक स्थिति में पहुंच चुका है वहां पर महंगाई और बेरोजगारी के कम होने की सारी संभावनाएं समाप्त हो चुकी है क्योंकि यह सब सरकार के गलत आर्थिक फैसलों का परिणाम है। 2014 में यूपीए को भ्रष्टाचार का पर्याय करार दिया गया था इस नाते आज सरकार से यह पूछना हर व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि भ्रष्टाचार के कौन से मामले की जांच सात वर्षों में पूरी होकर मामला अदालत तक पहुंचा है। जिस सीएजी विनोद राय ने टूजी में 1,76,000 करोड़ का घपला होने का आंकड़ा देश को परोसा था और यह आरोप लगाया था कि कुछ सांसदों ने उन्हें यह आग्रह किया था कि इसमें प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का नाम नहीं आना चाहिये। इस आरोप के लिए विनोद राय ने अदालत में लिखित में माफी मांग ली है। 1,76,000 करोड़ के घपले को आकलन की गलती मान कर यह कह दिया है कि कोई घपला हुआ ही नही है। क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि 2014 में बड़े योजनाबद्ध तरीके से सरकार के खिलाफ अन्ना, रामदेव आन्दोलन प्रायोजित किये गये थे। क्यों मोदी सरकार डॉ. मनमोहन सरकार के खिलाफ कोई श्वेत पत्रा नहीं ला पायी है। आज जिस हालत में देश खड़ा हुआ है हर संवेदनशील व्यक्ति के लिये चिन्ता और चिन्तन का विषय होना आवश्यक है। क्योंकि आना आने वाला समय हर आदमी से हर घर में यह सवाल पूछेगा कि संकट के इस दौर में उसकी भूमिका क्या रही है।
अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल रहे हैं नरेंद्र मोदी अरविन्द केजरीवाल और ममता बनर्जी। क्योंकि यह सभी अन्ना के आंदोलन के साथ परोक्ष-अपरोक्ष में जुड़े रहे हैं। यह ममता बनर्जी ही थी जिन्होंने अन्त में अन्ना के लिए आयोजन रखा था। यह दूसरी बात है कि पंडाल में जनता के न आने से अन्ना आयोजन स्थल तक जाने का साहस नहीं कर पाये थे। इसीलिए मोदी के आर्थिक फैसलों का विरोध यह लोग नहीं कर पाये हैं। नोटबंदी पहला और सबसे घातक फैसला रहा है क्योंकि जब 99.6% पुराने नोट नये नोटो के साथ बदल लिये गये तो वहीं से काले धन और टेरर फंडिंग के दावे हवा-हवाई सिद्ध हो गये। उल्टा नये नोट छापने और उनको ट्रांसपोर्ट करने का करीब 38,000 करोड़ का खर्च पड़ा। जून 2014 में बैंकों का एन पी ए जो करीब 2,52,000 करोड़ का था वह आज 2021 में दस खरब करोड़ तक कैसे पहुच गया। कारपोरेट घरानों का दस लाख करोड़ का कर्ज क्यों और कैसे माफ हो गया। क्या इन्ही फैसलों का परिणाम नही है कि आज सरकारी बैकों को प्राइवेट सैक्टर को सौंपने के लिये संसद के इसी सत्र में संशोधन लाया जा रहा है। आज किसानों की आय दो गुणी करने के लिये एस.बी.आई. और अदानी में समझौता हुआ है। अब एस.बी.आई. के माध्यम से अदानी किसानों को कर्ज बांटेगा। जिस अंबानी- अदानी को कृषि कानूनों का कारण माना जा रहा था आज वही अदानी कृषि कानून वापिस होने के बाद किसानों को कर्ज बांटेगा और एस.बी.आई. उसमें सहयोग करेगा। जबकि अदानी तो एस.बी.आई. का एक बड़ा कर्जदार है। क्या यह कृषि क्षेत्र पर अदानी के कब्जे का मार्ग प्रशस्त करने का पहला कदम नहीं माना जाना चाहिये।
एस.बी.आई. देश का सबसे बड़ा बैंक है। इस बैंक को अदानी कैपिटल प्रा. लि. के साथ मिलकर किसानों को ट्रैक्टर और कृषि मशीनों की खरीद के लिये कर्ज देने का पार्टनर बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? एस.बी.आई. अदानी की इस डील पर ममता की चुप्पी क्यों है? क्या अदानी ने ममता से मिलकर बंगाल के कृषि क्षेत्र में ही इस तरह से निवेश की कोई बड़ी योजना तो नहीं बना रखी है? यह सारे सवाल इस डील और मुलाकात के बाद प्रसांगिक हो उठे हैं। क्योंकि इस सब को एक महज संयोग मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
इस पृष्ठभूमि में आ रहे इन विधेयकों को लाने की आवश्यकता क्यों अनुभव हुई और इससे किसको क्या लाभ मिलेगा यह विचारणीय सवाल हैं। बैंकिंग अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन पर बैंक कर्मचारी संगठनों ने तो ‘‘बैंक बचाओ देश बचाओ’’ के बैनर तले 1 दिन का प्रदर्शन करके यह कहा है कि इस संशोधन से सरकारी बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को देने की योजना है। इससे बैंकिंग सेवाएं महंगी हो जाएंगी। यह भी जानकारी दी है कि अब तक 500 बैंक दिवालिया हो चुके हैं। जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तब भी यही सबसे बड़ा कारण था कि उस समय भी कई बैंक डूब चुके थे। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारण ही आज तक देश के बैंक सुरक्षित चल रहे थे और जनता का विश्वास इन पर बना हुआ था। अब जब यह बैंक प्राइवेट सैक्टर के पास चले जाएंगे तो आम आदमी इन में अपना पैसा रखते हुए डरेगा। वैसे ही जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तब जून 2014 में बैंकों का एनपीए करीब अढ़ाई लाख करोड़ था जो आज बढ़कर सितंबर 2021 में 10 खरब करोड़ हो चुका है। इससे सरकार की नीतियों का पता चलता है।
इसी परिदृश्य में क्रिप्टोकरंसी को लेकर विधेयक लाया जा रहा है एक समय आर बी आई ने क्रिप्टोकरंसी पर प्रतिबंध लगाने की बात की थी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबंध को यह कहकर रद्द कर दिया था कि जब इसको लेकर आपके पास कोई कानून ही नहीं है तो प्रतिबंध का अर्थ क्या है। अब वित्त मंत्री ने यह कहा है कि क्रिप्टो पर प्रतिबंध नहीं लगाकर इसको रैगुलेट किया जाएगा। और इस नियमन की जिम्मेदारी सैबी की होगी। इसी के साथ ही यह भी कहा है कि क्रिप्टो लीगल टेंडर नहीं होगा। यहीं से आशंकाएं उठनी शुरू हो जाती है क्योंकि करंसी विनिमय का माध्यम होता है। करंसी से वस्तुएं और सेवाएं खरीदी जा सकती हैं। करंसी पर सरकार का नियंत्रण और अधिकार रहता है। करंसी से आप बैंक में खाता खोल सकते हैं। बैंक इस खाते का लेजर रखता है परंतु क्रिप्टो का बैंक से कोई संबंध ही नहीं है। इसका सारा ऑपरेशन डिजिटल है जो उच्च क्षमता के कंप्यूटर से संचालित होगा । एक कोड से ऑपरेट होगा। इस समय करीब एक दर्जन क्रिप्टोकरंसी प्रचलन में हैं। लेकिन सरकार के पास कोई नियन्त्रण नहीं है। ऐसे में क्रिप्टो पर कोई भी रैगुलेशन लाने से पहले इसके बारे में जनता को जागरूक किया जाना चाहिये। क्योंकि यह एक डिजिटल कैश प्रणाली है। जो कंप्यूटर एल्गोरिदम पर बनी है। यह सिर्फ डिजीट के रूप में ही ऑनलाइन रहती है। इस पर किसी देश या सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। एक तरह से यह गुप्त रूप से पैसा रखने की विधा है। इसलिए इस संबंध में कोई भी रैगुलेशन लाने का औचित्य तब तक नहीं बनता जब तक इसे सामान्य लेन देन की प्रणाली के रूप में मान्यता नहीं दे दी जाती। इसके बिना यह काले धन और उसके विदेश में निवेश की संभावनाओं को बढ़ाने का ही माध्यम सिद्ध होगा। इसलिए आज जिन आर्थिक परिस्थितियों में देश चल रहा है उनमें बैंकों को प्राइवेट सैक्टर को सौंपने की योजना और क्रिप्टो को रैगुलेट करने के अधिनियम लाना कतई देश के हित में नहीं होगा। इससे आम आदमी भी बैंक बचाओ देश बचाओ में कूदने पर विवश हो जायेगा।
अगले वर्ष के शुरू में ही पांच राज्यों के चुनाव होने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर जाता है। यह एक स्थापित सत्य है। बंगाल की हार के बाद हुये कुछ राज्यों के उपचुनावों में भी भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। इस हार से प्रधानमंत्राी की व्यक्तिगत छवि पर असर पड़ा है। अब यह धारणा निर्मूल साबित हो चुकी है कि‘‘ मोदी है तो मुमकिन है’’। जो लोग मोदी को शिव और विष्णु का रूप मानने लग गये थे आज इस हार ने उनको नैतिकता का संकट खड़ा कर दिया है। इस परिपेक्ष में वस्तुस्थिति का आकलन करते हुये यही मानना पड़ेगा की उत्तर प्रदेश की संभावित हार के परिदृश्य में ही कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान किया गया है। ऐसे में इस समय 2014 से लेकर अब तक लिये गये हर आर्थिक फैसले को ध्यान में रखना आवश्यक होगा। क्योंकि उन्हीं फैसलों के कारण आज बैंकों का एनपीए ढाई लाख करोड़ से 10 ट्रिलियन करोड़ तक पहुंच चुका है। इस एनपीए के कारण पेट्रोल और डीजल तथा खाद्य तेलों की कीमतें बढ़ी थी। अब जब पेट्रोल डीजल के दामों में कमी करनी पड़ी है तो जीएसटी की दर पांच प्रतिश्त से बढ़ाकर बारह प्रतिश्त कर दी गयी। यह स्पष्ट है कि सरकार एनपीए की रिकवरी करने में असमर्थ है क्योंकि इसमें सबसे अधिक योगदान प्रधानमंत्राी मुद्रा ऋण योजना में बांटे गये कर्ज का है। एनपीए का असर आने वाले दिनों में हर आदमी पर दिखेगा। चाहे वह भाजपा मोदी का समर्थक हो या विरोधीं जब इसका प्रत्यक्ष प्रभाव सामने आयेगा उस समय जनता की प्रतिक्रिया क्या होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
इस परिदृश्य में उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतना भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता हो जाता है। महंगाई बेरोजगारी और अयोध्या में राम मंदिर के लिय हुई जमीन खरीद में सामने घपलों ने निश्चित रूप से भाजपा की राजनीतिक जमीन को बेहद कमजोर कर दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं है। इसलिये यह चुनाव जीतने के लिए विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति ही शायद अंतिम हथियार मोदी शाह के हाथ में बचा है। क्योंकि किसानों ने इस ऐलान के बाद भी अपना आंदोलन वापिस नही लिया है। एमएससी के प्रावधान की वैधानिक मांग उतना ही बड़ा हथियार बन गया है। अभी सीबीआई और ईडी के निदेशकों के कार्यकाल में जिस तरह से बढ़ोतरी की गयी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि विपक्ष निशाने पर है। विपक्ष में कांग्रेस सबसे बड़ा दल है और 2014 से आज तक सरकार का मुकाबला कर रहा है। अभी तक किसी भी नेता का कुछ बिगाड़ नहीं पाया है। कांग्रेस ही हर मुद्दे पर सरकार का खुलकर विरोध करती आयी है। अब बंगाल परिणामों के बाद टीएमसी का शीर्ष नेतृत्व ईडी के निशाने पर आया है। सपा बसपा पहले से निशाने पर चल रहे हैं। इसलिये यह दल अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं बना पाये हैं। आप और टीएमसी भी 2024 के चुनावों तक राष्ट्रीय विकल्प बनने की स्थिति में नहीं है। इस समय मोदी और भाजपा को कोई चुनौती है तो वह केवल कांग्रेस से है। इसलिए कांग्रेस को कमजोर करने के लिए भाजपा की परोक्ष/अपरोक्ष में यह रणनीति रहेगी कि वह टीएमसी आप और सपा-बसपा को ताकत दे। इसके लिए कांग्रेस की कमजोर कड़ियों को इन दलों में धकेलने का प्रयास होगा ही। इस समय जो लोग कांग्रेस छोड़कर जा रहे हैं उनके जाने को इसी परिप्रेक्ष में देखा जा रहा है।
आज जिस आर्थिक स्थिति पर देश पहुंच चुका है उसके लिए वर्तमान सरकार के फैसले ही जिम्मेदार हैं। इन फैसलों को पलटने के लिए वर्तमान सत्ता जैसी ताकत ही केंद्र में चाहिये। क्योंकि आज अगर सरकार के आर्थिक फैसलों के कारण आम आदमी कमजोर न हुआ होता तो शायद लोगों का भाजपा और मोदी से मोहभंग न होता। आर्थिक फैसलों के कुप्रभावों को हिन्दू-मुस्लिम, राम मंदिर गौरक्षा, धारा 370 और तीन तलाक के नाम पर जो दबाने के प्रयास किये गये आज वह सब कुछ खुलकर सामने आ चुका है। इस समय सैकड़ों विदेशी कंपनियों एफडीआई के नाम पर देश की आर्थिकी पर कब्जा कर चुकी है। इस सबके परिणाम आने वाले दिनों में क्या रंग दिखायेंगे यह तो आगे ही पता चलेगा। इसलिये इस समय राजनीतिक चयन दलों से ज्यादा की समझ भी कसौटी होगा।
लेकिन आज तक अपने ही मन की बात देश को सुनाने में लगे रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस आन्दोलन की आंच तब महसूस हुई जब बंगाल हारने के बाद हिमाचल और राजस्थान में उपचुनाव भी बूरी तरह हार गये। इस हार का ही परिणाम है कि अब उत्तर प्रदेश के चुनावों के लिए नड्डा और राजनाथ जैसे नेताओं को भी दो-दो जिलों का प्रभारी बनाकर फील्ड में उतारना पड़ा है। किसान आंदोलन को असफल बनाने और बदनाम करने में सरकार और उसके समर्थकों ने क्या कुछ किया है यह किसी से छुपा नहीं है। इसी का परिणाम है कि इस आंदोलन में करीब 700 किसानों ने अपने प्राण दिए हैं। गांधीवादी सिद्धांतों पर एक वर्ष में भी अधिक देर तक चले इस आंदोलन में हिंसा भड़काने का हर प्रयास असफल रहा है। बल्कि इस आंदोलन ने आपसी भाईचारे और एकता की जो मिसाल कायम की है उसके लिए आंदोलन के नेतृत्व को सदा याद रखा जाएगा।
प्रधानमंत्री ने इस समय इन कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके अपने सारे समर्थकों को हैरान कर दिया है। क्योंकि प्रधानमंत्री को समर्थन देने के लिए जिस तरह की भाषा और तथ्यों का प्रयोग यह लोग कर रहे थे उससे इन्हें पूरा विश्वास था कि नरेंद्र मोदी आंदोलन और उसके समर्थकों को पूरी तरह कुचल कर रख देगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और मोदी को क्षमा याचना करनी पड़ी है। मोदी की इस क्षमा याचना से उनके समर्थकों को भी सबक लेने की जरूरत है उन्हें अब अपने विवेक का भी प्रयोग करने का संदेश इस क्षमा याचना में छिपा है। क्योंकि जो लोग निष्पक्षता से इन कानूनों का आकलन कर रहे थे वह जानते थे कि एक दिन इन्हें वापस लेना पड़ेगा। शैल के पाठक जानते हैं कि 5 जून 2020 को अध्यादेश के माध्यम से लाये गये इन कानूनों पर 6 जून को ही हमने लिखा था कि यह सबके लिए घातक है और वापस होंगे। हमारा यह आकलन सही सिद्ध हुआ है। इसी परिप्रेक्ष में आज फिर यह कहना आवश्यक हो जाता है कि 2014 से लेकर 2021 तक जितने भी आर्थिक फैसले लिये गये हैं उन सब का परिणाम बैड बैंक की स्थापना के रूप में सामने आया है। प्रधानमंत्री और उनके समर्थकों को यह जवाब देना होगा कि जून 2014 में हमारे बैंकों का जो एनपीए करीब ढाई लाख करोड़ था वह आज 10 खराब करोड़ तक कैसे पहुंच गया है। जिस देश के बैंकों का एनपीए 10 खरब करोड़ हो जाएगा वह बैंक कितनी देर जिंदा रह पायेंगे और इसके प्रभाव से कोई भी अछूता कैसे रह पायेगा। देश की आर्थिक स्थिति कभी भी विस्फोटक होकर सामने आने वाली है यदि पूरे देश में राज्यों से लेकर केंद्र तक मोदी का शासन भी हो जाये तो भी स्थिति से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बचा है। इस देश का सारा आर्थिक नियंत्रण विदेशी कंपनियों, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी आर्थिक संस्थाओं के पास जा चुका है। इस समय इस संद्धर्भ में एक सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है अन्यथा देश से क्षमा याचना के लिए भी समय नहीं मिलेगा।