Friday, 19 September 2025
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जब डूबेगी कश्ती तो डूबेगें सारे न तुम ही बचोगे न साथी तुम्हारे

भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का लगातार हनन हो रहा है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों की सूची में इस वर्ष 150वेें स्थान पर आ गया है। पिछले वर्ष 142 वें स्थान पर था। एक वर्ष में आठ स्थान पर नीचे आ गया है। यह उस समय हो रहा है जब देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार के हाथ में शासन व्यवस्था है संविधान के में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पिलर माना गया है। संविधान में प्रेस को बाकी तीनों से अलग रखा गया है। इस पर इसमें से किसी का भी सीधा हस्तक्षेप नहीं है। यह इसलिए है ताकि प्रेस समाज के प्रति जवाबदेह हर व्यक्ति से सीधा सवाल कर सके। पूछे हुये सवाल और उसके जवाब तथा उससे जुड़ी जमीनी सच्चाई को पूरी बेबाकी से जनता के सामने रखना प्रेस का कर्म और धर्म दोनों है। प्रेस जनता और शासन व्यवस्था के बीच एक माध्यम एक मीडिया की भूमिका अदा करता है। जब कोई व्यक्ति अदालत तक पहुंचने में भी असमर्थ हो जाता है तब वह अपनी फरियाद लेकर मीडिया के पास आता है ताकि उसकी बात जनता की अदालत तक पहुंच जाये। लोकलाज के चाबुक से शासन और प्रशासन दोनों सजग हो जायें शायद इसलिये जनता को एक बड़ी अदालत की संज्ञा दी गई है। इसी के लिए तो यह कहा गया है ‘‘कि गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’’
लेकिन आज जो हालात हर दिन बनते जा रहे हैं उसमें लोकतंत्र के हर पिलर की भूमिका प्रश्नित होती जा रही है। बल्कि कार्यपालिका और व्यवस्था के गठजोड़ के साथ ही इसमें अब न्यायपालिका के भी शामिल होने की चर्चाएं सामने आने लग गयी हैं। यह स्थिति और भी घातक होने जा रही है। क्योंकि जब न्यायपालिका के बीच से ही यह फैसले आने शुरू हो जायें कि अब देश को धर्मनिरपेक्षता छोड़कर धार्मिक देश हो जाना चाहिये तब क्या इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिये। मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन के फैसले पर सर्वाेच्च न्यायालय से लेकर संसद में सरकार की चुप्पी तक क्या सब कुछ सवालों में नहीं आ जाता है। यदि आज सविधान में कुछ बदलाव करने की आवश्यकता सरकार और सत्तारूढ़ दल को लग रही है तो उस पर सीधे सार्वजनिक बहस क्यों नहीं उठाई जा सकती। इस बदलाव को एक चुनाव का ही मुद्दा बनाने का साहस सरकार क्यों नहीं दिखा पा रही है। चुनावी मुद्दा बनाकर इस पर जनता का जो भी फैसला आये उसे स्वीकार कर लिया जाये। यह शायद इसलिये नहीं किया जा रहा है कि देश की जनता इसके लिए कतई तैयार नहीं है। क्योंकि जनता ने धर्म का वह रूप भोगा है जहां एक व्यक्ति के छूने मात्र से ही दूसरे का धर्म नष्ट हो जाता था।
लेकिन आज फिर उसी व्यवस्था को लाने की बिसात बिछाई जा रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद एक वार्षिक अधिवेशन में 22 वर्ष पूर्व तीन संदनीय संसद के गठन का प्रस्ताव पारित कर चुकी है। इस प्रस्ताव पर भाजपा नेता डॉ. स्वामी का फ्रंट लाइन में विस्तृत लेख छप चुका है। जिस पर आज तक किसी ओर से कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आयी है क्यों? लेकिन इस पर अमल करने के लिए दूसरे धर्मों को कमजोर और हीन दिखाने के एजेंडा पर अमल शुरू कर दिया गया है। इस पर किसी का ध्यान न जाये इसके लिये आम आदमी को आर्थिक सवालों में उलझा दिया गया है। महंगाई और बेरोजगारी लगातार इसलिये बढ़ रही है क्योंकि आय और रोजगार के सारे साधनों को एक-एक करके प्राइवेट सैक्टर को सौंपा जा रहा है। पवन हंस और एलआईसी इसके ताजा उदाहरण है। आज आर्थिकी और धार्मिकता पर जब भी मीडिया में किसी ने भी कोई सवाल पूछने का साहस किया है तो उस पर देशद्रोह तक के मामले बना दिए गये हैं। कई लोगों की नौकरियां चली गई है। सवाल पूछते वालों के विज्ञापन तक बंद करके और मुकद्दमे बना दिये गये हैं। भाजपा शासित हर राज्य इस नीति पर चल रहा है। हिमाचल की जयराम सरकार तक इन हथकंडो पर आ चुकी है। शैल इसमें भुक्तभोगी है। लेकिन आज यह असहमति मीडिया से चलकर राजनेताओं तक पहुंच गयी है। जिग्नेश मेवाणी प्रकरण इसका ताजा उदाहरण है। पेपर लीक की खबर छापने वाले पत्रकार को एक विधायक के इशारे पर गिरफ्तार करने तक का जब हालात पहुंच जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थितियां कहां तक पहुंच चुकी हैं। अब दर्द का हद से गुजरना दवा होने के मुकाम तक पहुंच चुका है। ऐसे में अब यही कहना शेष है कि
‘‘जब डूबेगी कश्ती तो डूबेगें सारे
न तुम ही बचोगे न साथी तुम्हारे’’

क्या महंगाई और बेरोजगारी प्राथमिकताएं नहीं है

अभी कमर्शियल रसोई गैस के दामों में फिर बढ़ौतरी हुई है। इसका असर पूरे बाजार पर पड़ेगा। इस महंगाई के साथ ही बेरोजगारी बढ़ रही है। अभी मार्च में आयी सी एम आई ई की रिपोर्ट से यह सामने आ चुका है। वह सारे सार्वजनिक प्रतिष्ठान विनिवेश के नाम पर निजी क्षेत्र के हवाले हो चुके हैं। जिनमें रोजगार के अवसर बढ़ने भी थे और भरे भी जाने थे। अब स्थिति यह हो गयी है कि सेना में भी कुछ अरसे से भर्ती बंद है। सेना में इस समय शायद एक लाख बाईस हजार से ज्यादा पद रिक्त चल रहे हैं लेकिन इसके बावजूद भर्ती नहीं हो रही है। जबकि सैनिक स्कूल प्राइवेट सैक्टर को भी दे रखे हैं और उसमें आर एस एस का नाम प्रमुख है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी पर सरकार का ध्यान जाना शायद प्राथमिकता नहीं रह गया है। लेकिन इसी के साथ जब हिंसा और कोरोना का भी बढ़ना शुरू हो जाये तो सारे परिदृश्य को एक साथ जोड़ कर देखने से जो तस्वीर उभरती है वह किसी के लिए भी भयावह हो सकती है। जातीय और धार्मिक आधारों पर उभरी हिंसा जब एक वैचारिकता का चोला ओढ़ लेती है तब उस पर नियंत्रण कर पाना असंभव हो जाता है।
इस बार रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर उभरी हिंसा जिस तरह से जहांगीरपुरी से अलवर तक ट्रैवल कर गयी वह अपने में बहुत कुछ संदेश दे जाती है। क्योंकि इन दोनों घटनाओं में व्यवहारिक रूप से कोई संबंध नहीं था फिर एक न्यूज़ चैनल न्यूज़ 18 ने इसमें संबंध जोड़ा वह एक गंभीर सवाल बन जाता है। इसी तर्ज पर अयोध्या में भी कुछ नियोजित किया जा रहा था जिसे पुलिस ने समय रहते गिरफ्तारियां करके रोक लिया। इस हिंसा पर नियंत्रण पाने के लिये जिस तरह से बुलडोजर चलाने का प्रयास किया गया उससे एक अलग ही तस्वीर उभरती है। सर्वाेच्च न्यायालय ने जब इस बुलडोजर न्याय पर सवाल उठाते हुए रोक लगाई तब से सोशल मीडिया के कुछ मंचों पर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जिस तरह की बहस छेड़ दी गयी है वह अपने में बहुत घातक प्रमाणित होगी। क्योंकि इस बहस में नियम कानून और संविधान की जगह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का तर्क बढ़ाया जा रहा है। देश के संविधान के स्थान पर बहुसंख्यक की मान्यताओं को अधिमान देने का प्रयास किया जा रहा है।
इस बहस में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लिया जा रहा है उसमें यहां तक कहा गया कि ‘‘यह सुप्रीम कोर्ट है या अराजकता फैलाने और भारतवर्ष का इस्लामीकरण करने का एक जरिया’’ हिमाचल हैवन साइट पर एक ओंकार सिंह की यह पोस्ट अपने में जो कुछ कह जाती है उससे यह संकेत उभरते हैं कि संविधान के वर्तमान स्वरूप में एक जबरदस्त बदलाव का माहौल तैयार किया जा रहा है। इस पोस्ट से दिसंबर 2018 में मेघालय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश संदीप रंजन सेन के ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ के फैसले की याद ताजा हो जाती है। इसी फैसले के बाद संघ प्रमुख डॉ. भागवत के नाम से ‘‘भारत का नया संविधान’’ के कुछ अंश वायरल होकर बाहर आये थे। इस कथित संविधान के वायरल हुये मसौदे पर न तो भारत सरकार और न ही संघ मुख्यालय से कोई प्रतिक्रियाएं नही आयी हैं। फिर अभी हरिद्वार में जब संघ प्रमुख ने देश को पन्द्रह वर्षों में अखण्ड भारत बनाने का संकल्प लिया और स्पष्ट कहा कि इसमें आने वाली हर बाधा को नष्ट कर दिया जायेगा तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। इसी संकल्प की घोषणा के बाद राम नवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर संयोगवश हिंसक वातावरण देखने को मिला है। पंजाब के पटियाला में भी शिव सैनिकों और कथित खालिस्तान समर्थकों में झगड़ा इसी के बाद सामने आया है।
इस कथित धार्मिक उन्माद में प्रशासन की भूमिका तटस्थता की होती जा रही है। जिसका अर्थ है कि इन तत्वों को अपरोक्ष में राजनीतिक संरक्षण हासिल है। राजनीतिक दल इस पर चुप्पी साधे बैठे हैं। जनता को इस हिंसा के साथ ही फिर से कोरोना के प्रकोप का भय दिखाया जाने लगा है। इसी भय और चुप्पी के कारण महंगाई और बेरोजगारी जैसे आर्थिक सवाल गौण होते जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक हित केे आये मामलों को प्राथमिकता के आधार पर निपटा नहीं रहा है। जबकि ईवीएम, राफेल और पेगासैस जैसे संवेदनशील मामलों को तुरंत निपटाने की आवश्यकता है। इस सारे परिदृश्य को एक साथ रख कर देखने से यह आवश्यक हो जाता है कि इस पर सार्वजनिक बहस शुरू की जाये।

कांग्रेस का प्रशांत प्रयोग

पांच राज्यों में मिली चुनावी हार ने कांग्रेस को पेशेवर चुनावी रणनीतिकार की सेवायें लेने के मुकाम पर पहुंचा दिया है। अब साथ ही यह सवाल भी उठने लग पड़ा है कि यदि प्रशांत प्रयोग भी सत्ता में वापसी न करवा पाया तो कांग्रेस कहां जायेगी? कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी है जिसका देश के निर्माण में एक निश्चित योगदान रहा है। आजादी के वक्त सैकड़ों रियासतों में बंटे देश में केंद्रीय लोकतांत्रिक सत्ता की स्थापना कर पाना कोई आसान काम नहीं था। क्योंकि आज जिस तरह से सार्वजनिक संसाधनों को विनिवेश के नाम पर प्राइवेट सैक्टर को सौंपा जा रहा है यदि यही सब कुछ पहले आम चुनाव के साथ ही कर दिया जाता तो शायद यह देश कुछ अमीर लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति बनकर ही रह जाता। उस समय की सरकार के सामने कृषि बैंकिंग और राजाओं के प्रीविपर्सों की नीतियों में बदलाव करना प्राथमिकता थी। इस दायित्व को इन्होंने सफलतापूर्वक अंजाम दिया। लेकिन उस समय भी इन बदलावों का विरोध हुआ और उसमें सी राजगोपालाचार्य, चौधरी चरण सिंह, मीनू मसानी, के एफ रुस्तम जी और प्रो.बलराज मधोक जैसे नाम प्रमुखता से सामने आते हैं। यह जिक्र इसलिये आवश्यक हो जाता है क्योंकि आज निजीकरण सबसे बड़ा आर्थिक सवाल बन चुका है।
इस परिदृश्य में यदि आकलन किया जाये तो कांग्रेस के सारी वस्तुस्थिति को मुख्य रूप से नेहरू तक का कार्यकाल उसके बाद 1977 तक का और फिर 1977 से आज तक का यह एक व्यवहारिक सच है कि कांग्रेस नेतृत्व नेहरू परिवार की परिधि से आज तक बाहर नहीं निकल पाया है। इसका कारण यह रहा है कि देश के सबसे धनी परिवार ने देश की आर्थिक स्थिति को संभालने के लिये अपना सब कुछ राष्ट्र को दे दिया और यह देना ही परिवार को कांग्रेस का केंद्र बना गया। जबकि नेहरू के कार्यकाल में भी संगठन में कामराज प्लान जैसी योजनायें आयी। इंदिरा गांधी को पार्टी में स्थापित होने के लिये कांग्रेस में दो बार विघटन की स्थितियों का सामना करना पड़ा। जिस तरह से इंदिरा गांधी को स्थापित होने के लिए संघर्ष करना पड़ा वही स्थिति राजीव गांधी के लिए भी बनी थी और आज सोनिया, राहुल और प्रियंका के लिये भी वैसी ही स्थितियां निर्मित होती जा रही है। क्योंकि आर्थिक सोच को लेकर ही टकराव देश की राजनीति का एक स्थायी चरित्र बन चुका है। आज इस आर्थिक अवधारणा के टकराव को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण से ढकने का प्रयास किया जा रहा है। तेतीस करोड़ देवी देवताओं की अवधारणा वाले देश को धर्म के गिर्द केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है।
इस व्यवहारिक वस्तुस्थिति को यदि और गंभीरता से समझा जाये तो यही सामने आता है कि हर बार सत्ता परिवर्तन नेहरू काल से लेकर आज मोदी काल तक भ्रष्टाचार के नाम पर ही होता रहा है। लेकिन भ्रष्टाचार के एक भी बड़े आरोप को प्रमाणित नहीं किया जा सका है। 2014 में भी इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन आज तक इसका कोई परिणाम सामने नहीं आया है। जबकि आज इसका आकार और प्रकार दोनों ही कई गुना बढ़ चुके हैं। इस बढ़ौतरी को कोई भी मुद्दा नहीं बना पा रहा है। जबकि महंगाई और बेरोजगारी दोनों इसी के परिणाम हैं। सत्ता में बने रहने के लिये चुनाव लगातार महंगे होते जा रहे हैं। इसमें हर छोटे-बड़े चुनाव से पहले धार्मिक और जातीय हिंसा एक बड़ा हथियार बनती जा रही है। हर चुनाव में ईवीएम पर गंभीर से गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। आम आदमी ईवीएम को संदेश से देख रहा है। लेकिन राजनीतिक दल अभी तक इस पर स्पष्ट नहीं हो रहे हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ दल से सत्ता छीनने में जनता के सवाल लेकर जनता में जाना पड़ेगा। भ्रष्टाचार को लेकर अपने ही संगठन से शुरुआत करनी होगी।
इस परिदृश्य में यह सवाल रोचक होगा कि प्रशांत किशोर भाजपा के प्रचार तंत्र का मुकाबला करने के लिये किस तरह की नीति पर चलने का सुझाव देते हैं। वह अपने ही सूत्रों के दम पर क्या कांग्रेस का उम्मीदवार बन कर चुनाव लड़ने का साहस दिखायेंगे? क्या पी के सही में सत्ता परिवर्तन चाहते हैं? क्या वह एक राजनीतिक चिंतक होने के नाते कांग्रेस को सहयोग कर रहे हैं? आज सरकार की आर्थिक नीतियां सबसे बड़ा मुद्दा बनी हुई हैं। ऐसे में किसी भी दल को सहयोग देने से पहले यह स्पष्ट करना होगा कि उनकी अपनी आर्थिक सोच क्या है? अन्यथा किसी भी पेशेवर की सलाह पर अमल करना सार्थक परिणाम ही देगा यह तय नहीं माना जा सकता।

चुनाव प्रक्रिया पर अब बहस जरूरी है

इस समय देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें यह सवाल हर रोज बड़ा होता जा रहा है की आंखिर ऐसा हो क्यों रहा है? यह सब कब तक चलता रहेगा? इससे बाहर निकलने का पहला कदम क्या हो सकता है? पिछले अंक में महंगाई के साथ उठते सवालों पर चर्चा उठाते हुये पाठकों से यह वायदा किया था कि अगले अंक में इस पर चर्चा करूंगा। अभी संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत का हरिद्वार से एक ब्यान आया है कि अगले पन्द्रह वर्षों में अखण्ड भारत का सपना पूरा हो जायेगा। एक तरह से इसके लिये समय सीमा तय कर दी गयी है। भाजपा संघ की राजनीतिक इकाई है यह सब जानते हैं। इस नाते संघ प्रमुख का यह ब्यान भाजपा सरकार के लिये अगले पन्द्रह वर्षों का एजेण्डा तय कर देता है। यह भी सभी जानते हैं कि अखझण्ड भारत की परिकल्पना में बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मयनमार, श्रीलंका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सभी शामिल हैं। इस परिकल्पना और संघ प्रमुख के इस एजेण्डे का अर्थ क्या हो सकता है यह समझना मैं पाठकों पर छोड़ता हूं। इसमें उल्लेखनीय यह भी है कि डॉ. भागवत ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इसमें जो भी व्यवधान पैदा करने का प्रयास करेगा वह नष्ट हो जायेगा। इस प्राथमिकता में देश की आर्थिकी, महंगाई और बेरोजगारी के लिये क्या स्थान है यह समझना भी अभी पाठकों पर छोड़ता हूं। क्योंकि सभी के भविष्य का प्रश्न है।
देश का एजेंडा संसद के माध्यम से सरकार तय करती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का चयन लोगों के वोट से होता है। इसके लिए हर पांच वर्ष बाद पंचायत से लेकर संसद तक सभी चुनाव की प्रक्रिया से गुजरते हैं। सांसदों से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों तक सब को मानदेय दिया जा रहा है। हर सरकार के कार्यकाल में इस मानदेय में बढ़ौतरी हो रही है। लेकिन क्या जिस अनुपात में यह बढ़ौतरी होती है उसी अनुपात में आम आदमी के संसाधन भी बढ़ते हैं शायद नहीं। इन लोक सेवकों का यह मानदेय हर बार इसलिये बढ़ाया जाता है कि जिस चुनावी प्रक्रिया को पार करके यह लोग लोकसेवा तक पहुंचते हैं वह लगातार महंगी होती जा रही है। क्योंकि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों पर किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा ही तय नहीं है। आज जब चुनावी चंदे के लिये चुनावी बाण्डस का प्रावधान कर दिया गया है तब से सारी चुनावी प्रक्रिया कुछ लखपतियों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी है। इसी कारण से आज हर राजनीतिक दल से चुनावी टिकट पाने के लिये करोड़पति होना और साथ में कुछ आपराधिक मामलों का तगमा होना आवश्यक हो गया है। इसलिये तो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन अभी तक भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा भी जुमला बनकर रह गया है कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाउंगा।
पिछले लंबे अरसे से हर चुनाव में ईवीएम को लेकर सवाल उठते आ रहे हैं। इन सवालों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता को शुन्य बनाकर रख दिया है। ईवीएम को लेकर इस समय भी सर्वाेच्च न्यायालय में याचिका लंबित है। फिर विश्व भर में अधिकांश में ईवीएम की जगह मत पत्रों के माध्यम से चुनाव की व्यवस्था कर दी गयी है। इसलिए आज देश की जनता को सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना चाहिये कि चुनाव मतपत्रों से करवाने पर सहमति बनायें। इससे चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने में मदद मिलेगी। इसी के साथ चुनाव को धन से मुक्त करने के लिये प्रचार के वर्तमान माध्यम को खत्म करके ग्राम सभाओं के माध्यम से मतदाताओं तक जाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। सरकारों को अंतिम छः माह में कोई भी राजनीतिक और आर्थिक फैसले लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये। इस काल में सरकार को अपनी कारगुजारीयों पर एक श्वेत पत्र जारी करके उसे ग्राम सभाओं के माध्यम से बहस में लाना चाहिये। ग्राम सभाओं का आयोजन राजनीतिक दलों की जगह प्रशासन द्वारा किया जाना चाहिये।
जहां सरकार के कामकाज पर श्वेत पत्र पर बहस हो। उसी तर्ज पर अगले चुनाव के लिये हर दल से उसका एजेण्डा लेकर उस पर इन्हीं ग्राम सभाओं में चर्चाएं करवायी जानी चाहिये। हर दल और चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वह देश-प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर एजेंडे में वक्तव्य जारी करें। उसमें यह बताये कि वह अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए देश-प्रदेश पर न तो कर्ज का भार और न ही नये करों का बोझ डालेगा। मतदाता को चयन तो राजनीतिक दल या व्यक्ति की विचारधारा का करना है। विचारधारा को हर मतदाता तक पहुंचाने का इससे सरल और सहज साधन नहीं हो सकता। इस सुझाव पर बेबाक गंभीरता से विचार करने और इसे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक बढ़ाने-पहुंचाने का आग्रह रहेगा। यह एक प्रयास है ताकि आने वाली पीढ़ियां यह आरोप न लगायें कि हमने सोचने का जोखिम नही उठाया था।

महंगाई के साथ उठते सवाल

महंगाई पर संसद में बहस नहीं हो सकी है क्योंकि सरकार ऐसा नहीं चाहती थी। बल्कि संसद के बाहर सत्तारूढ़ भाजपा महंगाई को जायज ठहराने के लिये दूसरे देशों के तर्क दे रही है। लेकिन श्रीलंका का नाम लेने से परहेज कर रही है। आरबीआई ने भी यह मान लिया है कि अभी महंगाई कम नहीं हो सकती। इस महंगाई के कारण विकास दर भी अनुमानों से कम रहेगी यह भी आरबीआई ने स्वीकार लिया है। सर्वाेच्च न्यायालय ने भी कुछ मामलों पर सुनवाई करते हुये सरकारों को सलाह दी है कि वह योजनायें बनाते समय वित्तीय स्थिति का ध्यान रखें। चुनाव आयोग ने सरकारों द्वारा घोषित मुफ्त उपहारों की योजनाओं पर कहा है कि इन्हें रोकने की उसके पास कोई शक्तियां नहीं है। ऐसी मुफ्त योजनाओं पर फैसला जनता को ही लेना होगा यह चुनाव आयोग की सलाह है। प्रधानमंत्री के साथ पिछले दिनों भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों की हुई एक बैठक में मुफ्ती योजनाओं पर बात उठाते हुये कुछ अधिकारियों ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि इन्हें न रोका गया तो हमारे भी कई राज्यों की हालत श्रीलंका जैसी हो जायेगी। मुफ्ती योजनाओं पर इन अधिकारियों का संकेत आम आदमी पार्टी की ओर था। प्रधानमंत्री के साथ अधिकारियों की यह बैठक काफी वायरल हो चुकी है।
आम आदमी पार्टी ने जिस तर्ज पर दिल्ली में मुफ्ती योजनाओं को अंजाम दिया है उसके परिणाम स्वरूप उसने दो बार भाजपा और कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखा है। इसी मुफ्ती के नाम पर उसने पंजाब में दोनों दलों से सत्ता छीन ली है। अन्य राज्यों में भी वह इसी प्रयोग को दोहराने की योजना पर चल रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का संदेश एक ऐसा नारा है जो हर वर्ग के हर आदमी को सीधे प्रभावित करता है। यही दोनों क्षेत्र इस शासनकाल में सबसे बड़े व्यवसायिक मंच बन गये हैं। केंद्र से लेकर राज्यों तक की सभी सरकारें इस व्यपारिकता को रोकने की बजाये आप की तर्ज पर मुफ्ती के चक्रव्यूह में उलझ गयी है। इसलिये निकट भविष्य में इस मुफ्ती के जाल से कोई भी राजनीतिक दल बाहर निकल पायेगा ऐसा नहीं लगता। एक और मुफ्ती का बढ़ता प्रलोभन और दूसरी ओर हर क्षेत्र प्राइवेट सैक्टर के लिये खोल देना समाज और व्यवस्था के लिये एक ऐसा कैंसर सिद्ध होंगे जिस के प्रकोप से बचना आसान नहीं होगा।
ऐसे में यह सवाल अपने आप एक बड़ा आकार लेकर यक्ष प्रशन बनकर जवाब मांगेगा कि ऐसा कब तक चलता रहेगा। क्योंकि मुफ्ती की भार उठाने के लिये हर वर्ग पर परोक्ष /अपरोक्ष करों का बोझ डालना पड़ेगा। करों से सिर्फ कर्ज लेकर ही बचा जा सकता है। क्योंकि हर वह क्षेत्र जिससे राष्ट्रीय कोष को आय हो सकती थी वह प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर दिया गया है। इसलिये तो जून 2014 में देश का जो कर्ज भार 54 लाख करोड़ था वह आज बढ़कर 130 लाख करोड़ हो गया है। आईएमएफ के मुताबिक यह कर्ज इस वर्ष की जीडीपी का 90% हो जायेगा। यह आशंका बनी हुई है कि हमारी कई परिसंपत्तियों पर विदेशी ऋणदाता कब्जा करने के कगार पर पहुंच गये हैं। राजनीतिक दलों की प्राथमिकता येन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करना और फिर उसे बनाये रखना ही हो गया है। दुर्भाग्य यह है कि संवैधानिक संस्थान भी इस दौड़ में दलों के कार्यकर्ता होकर रह गये हैं। जनता को हर चुनाव में नए नारे के साथ ठगा जा रहा है। मीडिया अपनी भूमिका भूल चुका है क्योंकि बड़े मीडिया संस्थानों पर सत्ता के दलालों का कब्जा हो चुका है। छोटे मीडिया मंचों का गला सत्ता घोंटने में लगी हुई है। इसी सब का परिणाम है कि जिस बड़े शब्द घोष के साथ नरेंद्र मोदी ने संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने का दावा किया था उसी अनुपात में यह कब्जा पांच राज्यों के चुनाव में और पूख्ता हो गया हैं। इस वस्तु स्थिति से निकलने के लिये चुनावी व्यवस्था को बदलना ही एकमात्र उपाय रह गया है । इस पर अगले अंक में चर्चा बढ़ाई जाएगी।

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