किसान आन्दोलन को दबाने कुचलने और असफल बनाने के लिये सरकार किस हद तक जा सकती है यह देश के सामने आ चुका है। 26 जनवरी से लेकर 6 फरवरी तक जो कुछ घटा है उसको लेकर विदेशों तक मे प्रतिक्रियाएं हुई हैं। विदेशी प्रतिक्रियाओं को कुछ लोगों ने देश के आन्तरिक मामलों में दखल करार दिया है। लेकिन यह लोग उस समय खामोश रहे थे जब हमारे प्रधानमन्त्री अमेरिका में जाकर ‘‘अब की बार ट्रंप सरकार’’ कर रहे थे। किसान आन्दोलन को यदि सर्वोच्च न्यायालय ने शांतिप्रिय और किसानों का अधिकार न कहा होता तो शायद इसका अंजाम भी नागरिकता आन्दोलन जैसा हो चुका होता। किसान गांधी जी के अहिंसा के मार्ग पर चल रहा है। यह चक्का जाम कार्यक्रम में सामने आ चुका है। चक्का जाम में कोई दीपक सिद्धु नहीं घुस पाया इसलिये कोई अप्रिय घटना नहीं घट पायी। यह अहिंसा ही आन्दोलन की सबसे बड़ी ताकत है।
लेकिन अब तक जो कुछ घट चूका है उससे किसान और सरकार पहुंचे कहां है यह समझना महत्वपूर्ण है। किसानों के साथ कई दौर की वार्ताएं करने के बाद भी कृषि मन्त्री नरेन्द्र सिंह तोमर को यह पता नहीं चल पाया है कि इन कानूनों में काला क्या है। कृषि मन्त्री के मुताबिक उन्हें किसान यह बता ही नहीं पाये हैं कि कानूनों में खराबी क्या है जिसे दूर किया जा सके। इतनी वार्ताओं के बाद भी जब सरकार को कालापन समझ नहीं आ पाया है तब किसानों को दो टूक कह दिया है कि वह अपनी मांगे पूरी हुए बिना घर वापिस नही जायें कानूनों की वापसी के लिये सरकार को दो अक्तूबर तक समय दिया गया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह आन्दोलन लम्बे समय तक चलेगा और यदि दो अक्तूबर तक कानूनों की वापसी न हुई तो आन्दोलन की रूपरेखा में क्या अन्तर आयेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह तय है कि इस आन्दोलन से समाज के हर वर्ग के हर घर तक एक बहस सोशल मीडिया के मंचो पर इसके पक्ष और विपक्ष में छिड़ चुकी है। यहां तक कि स्वयं किसानों में भी पक्ष-विपक्ष खड़ा हो गया है। पत्रकार, न्यूज चैनल, सिनेमा और क्रिकेट तक सभी जगह पक्ष -विपक्ष बन चुका है। इस पक्ष-विपक्ष बनने को यदि एक तरह के गृह युद्ध की संज्ञा दे दी जाये तो यह कोई अतिशयोक्ति नही। होगी यह स्थिति सरकार के हर आर्थिक फैसले के बाद खड़ी हुई है। नोटबंदी से लेकर इन कृषि कानूनों तक ने समाज को प़क्ष-विपक्ष में बांटने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। बल्कि यह लगता है कि सरकार ने एक बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से समाज को यहां तक पहुंचाया है। हर नये फैसले से पूराने सवाल पिछे जाते गये और नये सवाल खड़े होते गये। नोटबंटी से उद्योग प्रभावित हुए यह विशेष पैकेज दिये जाने के बाद भी आज तक पुरानी स्थिति में नहीं आ पाये हैं। इनमें आटोमोबाईल और रियल एस्टेट प्रमुख हैं। नोटबंदी से कितना काला धन बाहर आया या खत्म हुआ इसका कोई आंकड़ा आज तक सामने नहीं है। जो लोग बैंको का लाखों करोड़ डकार कर विदेश भाग गये वह आज तक वापिस नहीं आये। एनपीए बढ़ने का असर आम आदमी पर हुआ उसके सभी तरह के जमा पर ब्याज दरें कम हो गयीं। लेकिन एक भी दिन किसी ने भी इस पर सवाल खड़ा नहीं किया। क्योंकि इसी दौरान लव जिहाद और गौर रक्षा बड़े सवाल बन गये।
हर क्षेत्र में कीमतें बढ़ गयीं। पैट्रोल पर तो भाजपा सांसद डा. स्वामी की टिप्पणी कि ‘‘राम के भारत में पैट्रोल 93रू. सीता के नेपाल में 53रू और रावण की लंका में 51रू’’ सरकार की नीयत और नीति पर सबसे बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। अभी बजट के साथ ही खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ गयी हैं और इन विवादित कानूनों में आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन का प्रभाव कीमतें बढ़ने पर पड़ेगा यह पहले दिन से कहा जा रहा है। क्योंकि इस अधिनियम से ही कीमतों और जमा खोरी पर नियन्त्रण रखा जाता था जो अब समाप्त कर दिया गया है अब यह नियन्त्रण युद्ध और अकाल की स्थिति में ही किया जा सकेगा। क्या इस मंहगाई का असर हर आदमी पर नहीं पड़ेगा? क्या कानून बनाकर मंहगाई लाने का यह प्रयास इसका काला पक्ष नहीं है? आज कृषि उपज बेचने के लिये एपीएमसी अधिनियम के माध्यम से हर प्रदेश सरकार ने कुछ मण्डीयां बनाने की व्यवस्था की हुई है। इन मण्डीयों पर सरकार के कानून का नियन्त्रण है। यह मण्डीयां किसान से धोखाधड़ी नहीं कर सकती है। लेकिन नये कानून ‘‘किसान उपज व्यापार एवम् वाणिज्य संवर्धन के तहत इन मण्डीयों के बाहर भी कृषि उपज बेचने का प्रावधान दिया गया है। ऐसे खरीदार का किसी नियम-कानून के तहत पंजीकृत होना आवश्यक ही है। ऐसी खरीद करने वाला किसी भी कानून के दायरे में नहीं आयेगा। यदि इसमें किसान के साथ कोई धोखा हो जता है तो उसकी जिम्मेदारी किसान की ही होगी। क्या किसान को संरक्षण देना कहा जा सकता है शायद नहीं। क्या इसे कानून का काला पक्ष नहीं माना जाना चाहिये? तीसरा कानून किसान (सशक्तिकरण एवम् संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबन्ध एवम् कृषि सेवाएं विधेयक है इसके तहत कोई भी व्यक्ति किसी की भी ज़मीन किराये पर लेकर उस पर अपनी ईच्छानुसार उत्पादन कर सकेगा। इसके लिये दोनों पक्षों के बीच अनुबन्ध होगा। इस अनुबन्ध के आधार पर किराये पर लेने वाला व्यक्ति बैंक से ऋण आदि ले सकेगा। यदि किसी कारण से वह ऋण अदा नहीं कर पाता है तो उस स्थिति में किसान की अनुबंधित ज़मीन का क्या होगा इसको लेकर अधिनियम में कुछ नहीं कहा गया है। वैसे भी अनुबन्ध पर कोई भी विवाद होने की स्थिति में इसकी शिकायत एसडीएम के पास जायेगी दूसरी अदालत में नहीं। फिर इसमें उस एसडीएम का अधिकार क्षेत्र रहेगा जहां से किराये पर लेने वाला होगा। जहां पर ज़मीन स्थित है उस एसडीएम का नहीं। क्या यह व्यवस्था किसान के हित मेें दी जा सकती है? क्या यह भी कानून का काला पक्ष नहीं है?
इन कानूनों को यदि सरकार और राजनीतिक दलों के आईने से बाहर निकलकर देखने का प्रयास किया जायेगा तो मुझे पूरा विश्वास है कि कोई भी इसका समर्थन नहीं कर पायेगा। लेकिन जब कृषि मन्त्री की नजर में इनमें खराब ही कुछ नहीं है तो सरकार उन्हें वापिस क्यों लेगी। नये बजट के साथ ही दालों की कीमतो में बढ़ौत्तरी होने को यदि इन कानूनों के आईने से देखने/बढ़ने का प्रयास दलगत प्रतिबद्धता से उपर उठकर किया जायेगा तो आसानी से इनका काला पक्ष समझ आ जायेगा। अन्यथा यह सच स्वयं भोगने के बाद समझ आयेगा और तब तक काफी देर हो चुकी होगी। शायद सरकार भी यही चाहती है क्योंकि सच तो सच ही रहेगा और एक दिन सामने आयेगा ही।
सरकार ने किसानों की बात मानने से साफ इन्कार कर दिया है। इसकी आशंका उसी समय उभर आयी थी जब इस आन्दोलन को खालिस्तानी, पाक-चीन और टुकड़े-टुकड़े गैंग समर्थित करार दिया गया था। यही नहीं अलग-अलग किसान संगठनों का समर्थन हालिस होने का दावा किया गया। फिर कुछ संगठनों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर हुई और सरकार ने भी किसानों को अदालत में जाने का सुझाव दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाओं की सुनवाई करते हुए कानूनों के अमल पर रोक लगाते हुए एक कमेटी का गठन कर दिया। इस कमेटी में संयोजगवश वह लोग सदस्य बनाये गये जो इन कानूनों का पहले ही समर्थन कर चुके हैं। किसानों ने जब इस कमेटी को अस्वीकार कर दिया तब उसके बाद चालीस लोगों को एनआईए के नोटिस आ गये। आन्दोलनरत किसानों को लगातार गुमराह और विपक्ष से समर्पित-संचालित प्रचारित किया गया। इस तरह सरकार किसानों से लगातार वार्ताएं भी करती रही और उसी अनुपात में आन्दोलन को असफल करने के प्रयासों में भी लगी रही। इस तरह अब तक जो कुछ हुआ है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार इन कानूनों को किसी भी सूरत में वापिस लेने को तैयार नही है। अब आन्दोलन की ताकत से ही कोई परिणाम निकलने की उम्मीद है।
इस वस्तुस्थिति में फिर वही सवाल उभरता है कि आखिर सरकार किस ताकत के आधार पर यह सब कर रही है। जबकि लोकतन्त्र में सबसे बड़ी ताकत जनता होती है और इन कानूनों से देश की 70% से भी अधिक की जनसंख्या प्रभावित हो रही है। इसी वर्ष मई तक पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं और यह आन्दोलन भी लगातार बढ़ता जा रहा है। दर्जनों किसान आन्दोलन में अपने प्राणों की आहूति दे चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों के टैªक्टर मार्च पर रोक लगाने से इन्कार करते हुए दिल्ली पुलिस को इससे अपने स्तर पर निपटने के लिये कह दिया है। यह मार्च कितना शांतिपूर्ण रहता है यह आगे पता चलेगा। लेकिन यह संभावना लगातार बनी रहेगी कि कुछ तत्व इसमें शरारत करने का प्रयास कर सकते है क्यांेकि ऐसा पूर्व में हो चुका है और ऐसे लोग पकड़े भी गये हैं। यदि किसी भी कारण से इसमें कुछ अप्रिय घट जाता है तो स्थितियां और भी उलझ जायेंगी?
इस समय सरकार जो भी आर्थिक फैसले ले रही है उनका प्रभाव समाज के कितने हिस्से पर क्या पड़ेगा इसका आकलन किये बिना ही चुनावी सफलताओं की ताकत के आधार पर कर रही है। उसका तर्क है कि जनता ने उसे यह सब करने के लिये ही जनादेश दिया हैं इसी जनादेश के नाम पर यह कृषि कानून राज्यसभा में विपक्ष को पूरी तरह नज़रअन्दाज करके पारित करवा दिये गये। विपक्ष को पूरी तरह अप्रसांगिक बना दिया गया है। जब लोकतन्त्र में विपक्ष को इस तरह अप्रसांगिक बना दिया जाता है तब जनता ही एक मात्र ऐसा साधन रह जाता है जिसे सड़क पर आकर अपनी आवाज बुलन्द करनी पड़ती है। आज किसान-सरकार वार्ता टूटने का सबसे बड़ा कारण ही सरकार पर अविश्वास का बढ़ना हैं भाजपा आज देश को विपक्ष मुक्त करने के ऐजैण्डे पर काम कर रही है। जो ऐजैण्डा कांग्रेस मुक्त भारत से शुरू हुआ था वह अब विपक्ष मुक्त भारत पर पहुुंच गया है। संघ को विपक्ष मुक्त भारत हिन्दु राष्ट्र के ऐजैण्डा को लागू करने के लिये चाहिये। इसके लिये सरकार को चुनावी सफलताएं चाहिये। जिस तर्ज में सरकार ने किसानों को यह कहा कि वह इससे अधिक कुछ नही कर सकती उसके बाद किसानों को यह आन्दोलन चलाये रखना विवशता हो जाती है। लेकिन इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि जब किसान आन्दोलन में व्यस्त होंगे वहीं पर सरकार-भाजपा चुनावी राज्यों में अपना खेल रचने के लिये स्वतन्त्र होगी। बंगाल में जिस तरह से टीएमसी में तोड़ फोड़ चल रही है उससे यही पुष्ट होता है । डा. स्वामी ने बहुत पहले ‘‘फ्रन्ट लाईन’’ में छपे अपने लेख में भाजपा की नीति को लेकर लिखा है कि "Join us and be free Resist us and see you in court." 2014 से आज 2021 तक भाजपा का यही चरित्र पूरी स्पष्टता से सामने आया है। विपक्षी दलों के जिन लोगों पर एक समय भाजपा ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाये हैं वह भाजपा में आकर पाक साफ हो गये हैं। चुनावी सफलता के लिये भाजपा कुछ भी करने की रणनीति पर चल रही है।
डा. स्वामी ने अपने लेख में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अक्तूबर 1998 के अधिवेषन में लाये गये एक प्रस्ताव की भी चर्चा की है। डा. स्वामी का यह लेख इस समय फिर चर्चा में चल रहा है और इसका कोई जवाब या खण्डन अधिकारिक रूप से समाने नही आया है। इसलिये उन्ही के शब्दों में इसे पाठकों के सामने रखना आवश्यक हो जाता है। ACCORDING to a draft circulated at the1998 October conference of the Akhil Bharatiya Vidyarhti Parishad (ABVP), an RSS front organisation, the following measures are planned: The present bicameral Parliament would be replaced by a three-tier structure. At the apex will be a Guru Sabha of sadhus and sanyasis(read VHP activists) nominated by the President who is elected by a Lok Sabha constituted on a limited electoral college of primary and secondary school teachers, the rolls of which will be prepared by the HRD Ministry and not the Election Commission. All legislation and money bills will have to originate in the Guru Sabha and be Passed by it before being sent to the Lok Sabha. The Guru sabha will also be the Judicial Commission to nominate Supreme Court Judges, and impeach them. In between the Guru Sabha and the Lok Sabha, there will be a Raksha Sabha of serving armed forces chiefs and retired soldiers who can decide when to declare an Emergency. India would be, it seems, converted into a state which is a cross between the Taliban and the Vatican. It is for this scheme that they will seek a mandate in a mid-term poll.
आज जिस तरह की परिस्थितियां बनायी गयी हैं उसमें भाजपा से इन सवालों पर जवाब मांगना आवश्यक हो जाता है। भाजपा की इन धारणाओं पर सार्वजनिक बहस उठाना समय की जरूरत हो जाता है। क्योंकि आज किसान जो लड़ाई लड़ रहा है वह उसकी अपनी ही नही बल्कि आम आदमी की लड़ाई है। आज शायद बहुत सारे लोग सही जानकारीयों के अभाव में भाजपा को अपना समर्थन दे रहे हैं। इसलिये साक्ष्यों के साथ पाठकों के सामने यह जानकारियां रखना निष्पक्ष पत्रकारिता का धर्म हो जाता है। क्योंकि सरकार और जनता में हर रोज़ अविश्वास बढ़ता जा रहा है जो कि कालान्तर में सभी के लिये घातक सिद्ध होगा।
किसान आन्दोलन में अब तक सौ से ज्यादा लोग अपने जीवन की आहूति दे चुके हैं और किसान -सरकार वार्ता के अब तक के सभी दौर असफल रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय मे जो शपथ पत्र सरकार ने इस संद्धर्भ में दायर किया है उससे और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि सरकार अभी इन कानूनों को वापिस लेने के लिये तैयार नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस ढंग से इसमें विशेषज्ञ कमेटी का गठन किया और संयोगवश इस कमेटी के सदस्यों का इन कानूनों का समर्थक होना सामने आया है उससे यह आशंका और प्रबल हो जाती है कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकल पायेगा। यह कानून किसान से अधिक आम आदमी के लिये घातक है और इन्हें अदानी-अंबानी जैसे पूंजीपतियों के दबाव में वापिस नहीं लिया जा रहा है यह हर दिन स्पष्ट होता रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि किसान की बजाये आम आदमी को यह विरोध शुरू करना चाहिये था। आम आदमी अपने में संगठित नहीं है और साथ ही राजनीतिक दलों में भी बंटा हुआ है। इसी कारण से वह इस विरोध के बारे में शायद सोच नहीं सका। किसान अब संगठित भी हो चुका है और इन कानूनों से सबसे पहले वही प्रभावित होगा यह बात उसको समझ आ गयी और वह आन्दोलन की राह पर आ गया। किसान को आन्दोलन पर शायद इसलिये आना पड़ा क्योंकि राजनीतिक दलों ने अपने अपने कारणों से इन कानूनों पर अपनी प्रतिक्रियाओं को तत्काल सार्वजनिक नहीं किया जबकि सभी दलों की किसान ईकाईयां भी है। राजनीतिक दलों की चुप्पी का भी सरकार ने लाभ उठाया और आन्दोलन के खिलाफ प्रचार पर आ गयी। आज भी देश की 70% जनसंख्या कृषि पर आश्रित है ऐसे में यह स्वभाविक है कि जब भी इतने बड़े आधार पर चोट की जायेगी तो वह उस चोट से आहत हो ही उठेगा। कृषि पर हुई चोट से आहत यह 70% जनसंख्या अब अच्छी तरह से समझ गयी है कि सरकार ने उनके साथ अच्छे दिनों के नाम पर क्रुर मजा़क किया है। इसी समझ के बाद देश के हर कोने में रहने वाला किसान अब आन्दोलन का हिस्सा बनता जा रहा है। इसलिये यह आन्दोलन अब सरकार के हर प्रयास से बाहर होता जा रहा है और सफल होकर रहेगा।
लेकिन इस आन्दोलन को लेकर सरकार ने जिस तरह का रूख अपना रखा है उससे जो सवाल उभरे हैं उन्हें नज़रअन्दाज करना आसान नहीं होगा। सरकार अपनी चुनावी जीत को सबसे बडे हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है यह सच भी है कि भाजपा ने 2014 और 2019 दोनों ही लोकसभा चुनाव जीते हैं। बल्कि अब कोरोना काल में हुए बिहार विधान सभा चुनावों में भी भाजपा गठबन्धन ने ही सरकार बनायी है और इस सरकार बनाने को ही हर फैसले के लिये जनादेश करार दे रही है। लेकिन इसी का दूसरा पक्ष भी उतना ही गंभीर है। हर चुनाव के बाद ईवीएम को लेकर सवाल भी उठे हैं। ईवीएम को लेकर कई याचिकाएं शीर्ष अदालत में लंबित भी है। चुनाव ईवीएम की जगह वैलेट पेपर से करवाने की मांग उठ चुकी है। जहां वैलेट पेपर से चुनाव हुए हैं वहीं पर भाजपा को हार मिली है। हरियाणा के निगम चुनाव इसका ताजा उदाहरण है। जम्मू -कश्मीर में भी वैलेट पेपर से चुनाव हुए और वहां पर गुपकार को 107 और भाजपा को 74 सीटें मिली है। इसलिये आने वाले चुनाव ईवीएम से न करवा कर वैलेट पेपर से करवाये जाने को लेकर देश में एक सार्वजनिक बहस करवाकर फैसला लिया जाना चाहिये। क्योंकि अभी एक भाजपा नेता के यहां 200 नकली ईवीएम मशीने पकड़ी गयी हैं। चुनाव आयोग 2024 के चुनावों के लिये और भी नयी ईवीएम मशीने तैयार करवा रहा है जिनमें यह सुनिश्चित रहेगा कि अपने पोलिंग बूथ से दूर किसी दूसरे स्थान से भी वोट डाला जा सकेगा। इसलिये ईवीएम जब तक नये परिदृश्य में एक सर्वसहमति से फैसला नहीं आ जाता है तब तक बिहार जैसा जनादेश घटता रहेगा और सरकार एकतरफा फैसले लेती रहेगी।
इसी के साथ दूसरा बड़ा सवाल हिन्दु राष्ट्र को लेकर उठ रहा है। इस समय जिस तरह का आचरण सरकार कर रही है उससे यही सन्देश दिया जा रहा है कि इस देश में रहने वाले मुस्लिम और ईसाईयों को छोड़ कर सभी हिन्दु हैं। इसलिये गैर हिन्दुओं के खिलाफ एक सुनियोजित लड़ाई छेड़ दी गयी है। इसी दिशा में एक -एक करके फैसले लिये जा रहे हैं और पूरा समाज इसमें बंटा हुआ है। आर्थिक फैसलों की गुण दोष के आधार पर समीक्षा करने के स्थान पर हिन्दुओं को एकजूट होने का संदेश दिया जा रहा है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के 1998 के प्रस्ताव और मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस एस आर सेन तथा संघ प्रमुख मोहन भागवत के भारतीय संविधान का जो प्रारूप सामने आया है यह सब हिन्दुराष्ट्र की अवधारणा के आधार पर सभंव है। जिन पर अब व्यापक बहस की आवश्यकता है। क्योंकि चुनावी जनादेश और हिन्दु राष्ट्र की अवधारणा सरकार के ऐसे हथियार बन चुके हैं जिनकी आड़ में सारे आर्थिक फैसले बिना किसी बहस और सहमति के लिये जा रहे हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के लिये कालान्तर में यह फैसले घातक होंगे। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि राजनीतिक दल इस वस्तुस्थिति की गंभीरता को समझते हुए किसान आन्दोलन में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने के लिये आगे आ जायें।