Friday, 19 September 2025
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सोनिया के अध्यक्ष बनने पर सवाल क्यों

लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए जब राहुल गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया तो उसके बाद पार्टी को नया अध्यक्ष चुनने के लिये 75 दिन का समय लग गया। इतने समय बाद भी नये अध्यक्ष की जिम्मेदारी सोनिया गांधी को सौंपी गयी। सोनिया पहले भी यह जिम्मेदारी संभाल चुकी है और उन्ही की अध्यक्षता में पार्टी दो बार सत्ता में रही। राहुल की अध्यक्षता में पार्टी ने मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब में सरकारें बनाई। कर्नाटक और गुजरात में पार्टी के प्रदर्शन में सुधार हुआ। लेकिन इसके बावजूद पार्टी हार गयी। इस हार के कारण क्या रहे हैं इसका कोई बड़ा खुलासा भी पार्टी की ओर से बाहर नही रखा गया। किसी पर भी चुनावों में पार्टी हित के खिलाफ काम करने का सीधा कोई आरोप नही लगा। लेकिन इसके बावजूद पार्टी के कई विधायक और सांसद पार्टी छोड़ कर चले गये। क्या इन लोगों का पार्टी की विचारधारा से मतभेद चुनाव परिणामों के बाद पैदा हुआ या इन्होंने चुनावों में पार्टी के खिलाफ काम किया था। यह भी अब तक स्पष्ट नही हो पाया है। जबकि पार्टी के अन्दर आज भी ऐसे बहुत लोग हैं जो मोदी और संघ की विचारधारा का भाजपाईयों से भी अधिक समर्थन करते हैं। जब वैचारिक अस्पष्टता से ग्रसित लोग पार्टी के जिम्मेदार पदों पर बैठे रहेंगे तो चुनावी सफलताएं पाना कठिन हो जाता है यह एक स्थापित सत्य है।
ऐसे परिदृश्य में राहुल के बाद कांग्रेस की कमान पुनः सोनिया को सौंपना पार्टी के कितना हित में रहेगा इसका आकलन करने से पहले कांग्रेस से हटकर अन्य विपक्षी दलों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। लोकसभा चुनावों के पहले ही यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि यदि विपक्ष जीत भी जाता है तो उसका नेता कौन होगा। यह सवाल भी भाजपा की ओर से ही उछाला गया था। इस सवाल पर विपक्ष में क्या कुछ घटा इसको यहां दोहराने की आवश्यकता नही है। भाजपा ने जहां विपक्ष पर नेता का सवाल उछाला वहीं पर सबसे अधिक राजनीतिक गाली अकेले राहुल गांधी को निकाली। राहुल गांधी ने तो नेता का सवाल बहुमत के निर्णय पर छोड़ दिया लेकिन अन्य विपक्षी नेता पूरी स्पष्टता से ऐसा नही कर पाये। उत्तर प्रदेश में वसपा-सपा ने कांग्रेस को गठबन्धन से अपरोक्ष में नेता के सवाल पर ही अलग किया था। चुनावों के दौरान ईवीएम एक बड़ा मुद्दा विपक्ष ने बनाया। इसको लेकर चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय तक गये। बिहार में उपेन्द्र कुशवाह जैसे नेताओं ने चुनावों के बाद ईवीएम पर एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करने की बातें की थी। लेकिन चुनाव हारने के बाद यह पूरा विपक्ष राजनीतिक परिदृश्य से एक तरह से लोप ही हो गया है। जबकि ईवीएम को लेकर ही मुबई और ग्वालियर उच्च न्यायालयों में गभीर याचिकाएं लंबित हैं। आज हर विपक्षी दल में टूटन आयी है उसके चुने हुए लोग भाजपा में शामिल हो रहे हैं और लगभग हर बड़े नेता के खिलाफ ईडी और सीबीआई में मामले बनते जा रहें हैं। लेकिन इस सबके बावजूद विपक्ष की ओर से कोई सामूहिक आवाज़ सामने नही आ रही है। विपक्षी एकता के जो प्रयास लोकसभा चुनावों के दौरान चल रहे थे वह आज शांत क्यों हो गये हैं।
जब से राहुल गांधी ने त्यागपत्र दिया और टीवी चैनलों की बहसों के पैनलों में पार्टी की भगीदारी को विराम दिया तो कांग्रेस और राहुल के चुप होने के साथ ही वाकी विपक्ष क्यों चुप हो गया। जबकि जो सवाल चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने उठाये थे वह सवाल आज पूरी स्पष्टता के साथ हर आदमी के सामने है। देश की आर्थिक स्थिति एक गंभीर दौर से गुजर रही है। मोदी सरकार द्वारा ही नियुक्त आरबीआई गवर्नरों और सरकार के आर्थिक सलाहकार का समय से पहले ही अपने पदों से त्यागपत्र देना इसके संकेत हैं। साढ़े आठ लाख करोड़ के एनपीए के आंकड़े संसद में आ चुके हैं। अंबानी पर आरबीआई का रैडफ्लैग अपने में ही एक बहुत बड़े आर्थिक संकट का संकेत है। 2014 में आम आदमी की बचतों पर जो उसे बैंको से ब्याज मिलता था उसमें 2019 में करीब 3% की कमी आयी है। आम आदमी की इस 3% की कटौती का लाभ किसे दिया जा रहा है। आज कुछ औद्यौगिक क्षेत्रों से तीन लाख से अधिक लोगों को नौकरी से निकाला जा चुका है। यह सवाल आम आदमी से सीधे जुड़े हुए हैं और देर सवेर वह इन पर चर्चा करेगा ही। लेकिन इन सवालों पर देश का मोदी भक्त मीडिया चुप्पी साधे हुए है क्योंकि उसे 800 करोड़ विज्ञापनों के रूप में सरकार द्वारा दिये जा चुके हैं और यह जानकारी आरटीआई के माध्यम से सामने आयी है। ऐसे में जब आम आदमी के सवालों पर मीडिया चुप्पी साध लेता है तब यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर आती है कि वह जनता की आवाज बनकर सामने आये। परन्तु दुर्भाग्य से आज विपक्ष यह जिम्मेदारी निभा नही पा रहा है।
आज देश गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। सरकार ने सारे सार्वजनिक उपक्रमों से उनके 75% सरप्लस संसाधनो की मांग कर ली है। इस मांग का सैबी के अध्यक्ष अजय त्यागी ने पत्र लिखकर विरोध भी किया है। आशंका है कि आर बी आई से भी उसका 75% सरप्लस इसी तरह मांग लिया जायेगा। सर्वाेच्च न्यायालय में छुट्टीयों के दौरान जिस तरह से अदानी समूह के चार मामले सुन लिये गये हैं उस पर शीर्ष अदालत के वरिष्ठ वकील दुष्यन्त दावे ने प्रधान न्यायधीश को पत्र लिखकर चिन्ता व्यक्त की है उससे कई गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। आम्रपाली प्रकरण में क्रिकेट स्टार महेन्द्र सिंह धोनी और उनकी पत्नी साक्षी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में सौंपी गयी आडिट रिपोर्ट में आक्षेप उठाये गये हैं वह अपने में एक अलग मुद्दा खड़ा करता है। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस तरह के सारे गंभीर मुद्दों पर विपक्ष एकदम, खामोश हो गया है।
ऐसे में जब देश राजनीतिक संक्रमण के दौर से गुजर रहा हो तो क्या देश के
सबसे पुराने राजनीतिक दल को अपनी सार्वजनिक जिम्मेदारी निभाने के लिये अपनी सुविधानुसार फैसला लेने का अधिकार नही होना चाहिये। कांग्रेस का अध्यक्ष कौन हो यह निर्णय कांग्रेस का अपना मामला है। कांग्रेस को ही इसके पक्ष और विपक्ष में राय बनानी है। कांग्रेस के इस फैसले पर गैर कांग्रेसी
दलों को एतराज उठाने का कोई अधिकार नही है। जो भी दल और मीडिया चैनल इस पर परोक्ष/अपरोक्ष में आपति जता रहे हैं उससे केवल उनकी प्रमाणिकता ही सामने आ रही है। अनचाहे ही वह अपने को भाजपा का पक्षधर प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं। सोनिया के कमान संभालने के बाद देखना यह होगा कि क्या अब भी चुने हुए विधायक/सांसद इस फैसले का विरोध करके पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल होते हैं या नही। इसी के साथ यह भी टैस्ट होगा कि आने वाले दिनों में चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में मोदी-भाजपा लहर के सामने कांग्रेस का प्रदर्शन क्या रहता है। क्या कांग्रेस पूरी आक्रामकता के साथ इन चुनावों में उत्तर पाती है या नही सोनिया के लिये यही बड़ी परीक्षा होगी। क्योंकि विपक्षी दल अभी भी अपनी वैचारिक अस्पष्टता के बाहर नही आ पा रहे हैं। भाजपा के मानसिक दबाव के कारण यह दल टूटते जा रहे हैं भाजपा के लिये यह शुभ हो सकता है परन्तु देश के लिये नही। क्यों निरंकुश सता का अन्तिम प्रतिफल पूर्ण भ्रष्टाचार ही होता है। ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस ने जो सोनिया को कमान देकर देश के प्रति अपनी राजनीतिक जिम्मेदारी निभाने का फैसला लिया है उसका स्वागत किया जाना चाहिये।

अनुच्छेद 370-सरकार की नीयत पर उठते सवाल

मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया है। अब अनुच्छेद 370 के समाप्त हो जाने के बाद प्रदेश को दो केन्द्र शासित राज्यों में पुर्नगठित कर दिया गया है जिसमें जम्मू-कश्मीर में तो विधानसभा होगी परन्तु लद्दाख कारगिल में नही। सरकार ने यह फैसला लेने का सबसे बड़ा कारण वहां फैला आतंकवाद और अलगावाद बताया है। सरकार के मुताबिक पुरानी व्यवस्था के तहत राज्य का विकास पूरी तरह रूक गया था जिसके कारण राज्य में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार भी बढ़ गया था। सरकार ने जो कारण गिनाये हैं हो सकता है कि वह पूरी तरह सही हो। क्योंकि 2014 से केन्द्र में भाजपा की सरकार चली आ रही है और जम्मू-कश्मीर में भी महबूबा मुफ्रती की पीडीपी के साथ सरकार बनाई। संभव है कि इस दौरान जो सूचनाएं उसके पास आयी हों उनके आधार पर सरकार का आकलन सही हो। लेकिन अनुच्छेद 370 हटाने के लिये केन्द्र सरकार को राज्य में लोगों के नागरिक अधिकारों को कुछ समय के लिये स्थगित करना पड़ा है। वहां के गैर भाजपा राजनीतिक नेतृत्व को हिरासत में लेना पड़ा है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्रियों को नजरबन्द करना पड़ा है। कांग्रेस नेता गुलाम नवी आजाद और वाम नेता सीता राम येचूरी और डी राजा को प्रशासन ने श्रीनगर नही जाने दिया उन्हे एयरपोर्ट से ही वापिस कर दिया गया। पूरी घाटी मे दूर संचार व्यवस्था बन्द रखी गयी है।
स्रकार के इन कदमों से यह स्वभाविक सवाल उठता है कि यदि अनुच्छेद 370 को हटाना राज्य के हित में है तो ऐसा करने से पहले सरकार वहां के राजनीतिक नेतृत्व और जनता को विश्वास में क्यों नही ले पायी? सरकार को ऐसा क्यों लगा कि भाजपा के अतिरिक्त कोई भी दूसरा इसमें सरकार पर विश्वास नही करेगा? ऐसा क्यों लगा कि भाजपा के अतिरिक्त दूसरे लोग राष्ट्रहित को नही समझते हैं। जबकि संसद में उन दलों के लोगों ने भी जो एनडीए के सहयोगी नही है ने भी समर्थन दिया है। इसी के साथ यह भी सच्च है कि एनडीए के सहयोगी जेडीयू ने इसका विरोध किया है। इस विरोध और समर्थन से यही स्पष्ट होता है कि या तो इस विषय को भाजपा सहित सभी अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ के आईने से देख रहे हैं या फिर इसमें गंभीर वैचारिक मतभेद हैं। इन दोनों ही स्थितियों में इस विषय पर एक खुली सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है क्योंकि राष्ट्र हित को परिभाषित करना किसी एक ही राजनीतिक दल का एकाधिकार नही रह जाता है चाहे वह सत्ताधारी दल ही क्यों न हो। फिर दुर्भाग्य से भाजपा की छवि लगातार मुस्लिम विरोधी बनती जा रही है और अब तो यह लगने लगा है कि शायद भाजपा एक सुनियोजित योजना के तहत इस छवि को बढ़ाती जा रही है। यह ध्रुवीकरण कालान्तर में लोकतन्त्र के लिये घातक सिद्ध होगा यह तय है।
भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में किसी भी मुस्लिम को अपनी पार्टी से चुनाव उम्मीदवार नही बनाया है। 2014 के लोकसभा चुनावों से शुरू हुई यह स्थिति आज 2019 के लोकसभा चुनावों में भी यथास्थिति ही रही है। जो दल सबसे बड़ी सदस्यता वाला दल होने का दावा करे और उस दल में देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या में से कोई भी ऐसा व्यक्ति न मिल पाये लोकसभा की चुनावी भागीदारी का हिस्सेदार न बनाया जा सके तो सामान्यतः यह किसी के भी गले नही उतरेगा। बल्कि हर कोई इसे जातिय और धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता कदम ही करार देगा और इस परिदृश्य में आज सरकार की नीयत पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। क्योंकि जहां अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष अधिकार हासिल थे वैसे ही कुछ अधिकार अन्य दस राज्यों को भी अनुच्छेद 371 के तहत हालिस हैं। अब 371 के प्रावधानों को भी हटाने की चर्चा देश के उन राज्यों में उठना स्वभाविक है। संविधान के शैडयूल पांच में कुछ राज्यों के लिये विशेष प्रावधान हैं। देश के सभी राज्यों के 284 कानून संविधान के शैडयूल नौ में आते हैं। इनके खिलाफ देर सवेर आवाज उठना स्वभाविक है। हिमाचल के भूसुधार अधिनियम की धारा 118 को हटाने की मांग दिल्ली से लेकर शिमला तक स्वर लेने लगी है। स्वभाविक है कि जब धारा 370 को समाप्त किया जा सकता है तो फिर अन्य धाराओं के ऐसे ही प्रावधानों को समाप्त क्यों नही किया जा सकता। आने वाले दिनों में यह एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा।
अनुच्छेद 370 को हटाने वाले राष्ट्रपति के आदेशों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा चुकी है और शीर्ष अदालत ने इसे लंबित रख दिया है। इस परिदृश्य में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि अनुच्छेद 370 और 35 A है क्या। 35 A की लम्बे अरसे से शीर्ष अदालत में चुनौती मिली हुई है और वहां यह मुद्दा लंबित चला आ रहा है क्योंकि केन्द्र ने इस पर कोई जवाब दायर नही किया है। स्मरणीय है कि 15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी के समय जम्मू-कश्मीर एक स्वायत और सार्वभौमिक राज्य था जिसने 26 अक्तूबर 1947 को भारत में विलय किया। लेकिन यह विलय विदेशी मामलों, दूर संचार और रक्षा के मामलों में ही था। अन्य मामलों में केन्द्र का कोई भी कानून वहां के शासक की पूर्व अनुमति के बिना लागू नही होगा। इस तरह जम्मू-कश्मीर की संप्रभता अपनी जगह बनी रही क्योंकि यह अन्य राज्यों की तर्ज पर नही था और इसी को सुनिश्चित करने के लिये संविधान में धारा 370 का प्रवधान किया गया था। इस व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट के ग्यारह जजों की पीठ ने 1971 में माधव राव मामले में माना है। 1952 के दिल्ली समझौते के बाद 370 के प्रावधानों को और पुख्ता करने के लिये 35 A जोड़ा गया था। 2015 में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में आये मुबारिक शाह नक्शबन्दी मामले में अदालत ने यह कहा कि  In Jammu and Kashmir, the immovable property of a State subject/citizen, cannot be permitted to be transferred to a non State subject. This legal and constitutional protection is inherent in the State subjects of the State of Jammu and Kashmir and this fundamental and basic inherent right cannot be taken away in view of peculiar and special constitutional position occupied by State of Jammu and Kashmir. Article 35-A is clarificatory provision to clear the issue of constitutional position obtaining in rest of country in contrast to State of Jammu and Kashmir. This provision clears the constitutional relationship between people of rest of country with people of Jammu and Kashmir'

यही नही केन्द्र और जम्मू-कश्मीर के संबंधों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने 1959 में प्रेम नाथ कौल मामले में भी ऐसी ही व्याख्या की है। इस तरह जहां तक केन्द्र सरकार द्वारा इस मामले में अपनाई गयी प्रक्रिया का सवाल उस परअब तक जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय में आये विभिन्न मामलों में अदालत की जो व्याख्या रही है उसके मुताबिक केन्द्र की नीयत पर गंभीर सवाल उठते हैं। आज इस मामले में शीर्ष अदालत जो भी व्याख्या करेगी उसके परिणाम दूरगामी होंगे। क्योंकि जो राजनीतिक परिदृश्य आज बना हुआ है यह आवश्यक नही है कि वही अब स्थायी बना रहेगा। केन्द्र के इस कदम ने शीर्ष न्यायपालिका के लिये भी एक परीक्षा की स्थिति पैदा कर दी है।

अराजकता की पराकाष्ठा है उन्नाव प्रकरण

सर्वोच्च न्यायालय ने उन्नाव दुष्कर्म प्रकरण से जुड़े सारे मामले तुरन्त प्रभाव से दिल्ली स्थानान्तरित करने और उपचाराधीन पीड़िता को पच्चीस लाख की तत्काल राहत देने तथा दैनिक आधार पर सुनवाई करते हुए इस मामले का फैसला पैंतालीस दिन के भीतर करने के निर्देश जारी किये हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कारवाई तब की है जब मीडिया में यह खबर छपी की पीड़िता के परिजनों ने उनकी दुर्घटना होने से पहले ही बारह जुलाई को शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायधीश को पत्र लिखकर सुरक्षा की गुहार लगाई थी और उनके संज्ञान में लाया था कि कैसे इस प्रकरण के मुख्य अभियुक्त भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर के लोगों ने इन्हें घर में आकर डराया धमकाया। इस पत्र में डराने-धमकाने की वीडियों रिकार्डिंग भी साथ संलग्न की गयी थी। यह कौन लोग थे यह खुलासा इस पत्र में था। लेकिन 12 जुलाई का लिखा यह मुख्य न्यायधीश के संज्ञान मे मीडिया के माध्यम से 30 जुलाई को आया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश को लिखे इस पत्र की प्रतियां मुख्य न्यायधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय, प्रशासनिक न्यायमूर्ति न्यायालय लखनऊ, प्रमुख गृह सचिव, पुलिस महानिदेशक, पुलिस महानिरीक्षक, शाखा प्रमुख सीबीआई, एसीबी और पुलिस अधीक्षक उन्नाव को भी भेजी गयी थी। लेकिन इस पत्र का कहीं पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया और  उसके बाद इनका ऐक्सीडैन्ट हो गया जिसमें दो लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी। इस दुर्घटना में प्रयुक्त हुए ट्रक की नम्बर प्लेट पर काली ग्रीस लगाई हुई थी ताकि शिनाख्त न हो सके। इस दुर्घटना में उत्तर प्रदेश के एक मंत्री के दामाद का नाम भी सामने आया है। यह दुष्कर्म 4 जून 2017 को विधायक के घर पर हुआ था। विधायक सेंगर 2018 में तब गिरफ्तार किया गया जब पीड़िता ने मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के आवास पर आत्मदाह करने का प्रयास किया। इस प्रकरण में दर्ज हुए मामलों को उत्तर प्रदेश से बाहिर ट्रांसफर करने के लिये आयी याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल में नोटिस जारी किये थे लेकिन इन पर कारवाई 28 जून के बाद शुरू हुई।
 इस प्रकरण के इस संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह पूरा मामला सत्ता के दुरूपयोग का एक ऐसा कड़वा सच है जो शायद अब अधिकांश की नीयती बनता जा रहा है। क्योंकि सत्ता का यह घिनौना चेहरा आये दिन किसी न किसी रूप में सामने आता जा रहा है। आरोपी भाजपा का विधायक है और 2018 से गिरफ्तार भी चल रहा है और गिरफ्तारी के बावजूद उसकी सत्ता का डंका बराबर बजता आ रहा है। आज जब इस प्रकरण पर संसद तक में सवाल उठ गया और पार्टी द्वारा इस दंबग के खिलाफ कोई कारवाई नही किये जाने का सच सामने आया तब यह कहा गया कि इसे बहुत पहले ही पार्टी से निष्कासित कर दिया गया है। यह निष्कासन हुआ है या नहीं आज इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया है कि इस प्रकरण पर प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष अमितशाह और कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा और उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। शायद यह प्रतिक्रिया न आने का ही परिणाम है कि एक मन्त्री का दामाद भी सेंगर की मद्द के लिये हद तक आ गया है। इससे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पार्टी में बाहुबलियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। मध्यप्रदेश और, उत्तराखण्ड में भी विधायक बाहुबल का परिचय दे चुके हैं। यदि इस बढ़ते बाहुबल पर समय रहते अंकुश न लगाया गया तो यह पार्टी की सेहत के लिये आने वाले दिनों में घातक होगा। क्योंकि उन्नाव प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उत्तर प्रदेश में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गयी है। ऐसा लगता है कि भाजपा पार्टी और सरकार का इस समय एक मात्र लक्ष्य विपक्ष को येनकेन प्रकारेण खत्म करने का ही रह गया है। अब तो यह आम चर्चा का विषय बन गया है कि देश को कांग्रेस मुक्त करवाने के लिये भाजपा को कांग्रेस मुक्त होने से कोई परहेज नहीं रह गया है।
उन्नाव प्रकरण ने जहां व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े किये हैं वही पर सर्वोच्च न्यायालय को भी सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। पिछले दिनों प्रधान न्यायधीष ने सर्वोच्च न्यायालय की रजिस्ट्री पर सवाल उठाते हुए वहां पर सीबीआई से कुछ लोगों को तैनात करने का कदम उठाया था। जिन आशंकाओं पर यह कदम उठाने की नौबत आयी थी आज उन्नाव प्रकरण ने उन आशंकाओं को और पुख्ता कर दिया है। आज सर्वोच्च न्यायालय ने उन्नाव प्रकरण में 45 दिनों के भीतर ट्रायल पूरा करने के निर्देश दिये हैं यह एक स्वागत योग्य कदम है लेकिन यहीं पर शीर्ष अदालत को यह भी मंथन करने की आवश्यकता है कि उसने बहुत पहले माननीयों के खिलाफ आये मामलों का ट्रायल एक वर्ष के भीतर करने के निर्देश किये हुए हैं। लेकिन इन निर्देशों के बाद यह फीड बैक नही लिया गया कि इन पर अनुपालना कितनी हुई है। पुलिस जांच भी समयबद्ध होने के निर्देश हैं। लेकिन जबतक निर्देशों पर कड़ाई से अमल सुनिश्चित नही किया जायेगा तब तक कागजा़ें में निर्देश जारी करने का कोई लाभ नही रह जाता है। जिन अधिकारियों को पीड़िता के परिजनों ने पत्र की प्रतियां भेजी थी आज यदि उन सबसे यह पूछा जाये कि उन्होंने इस पर क्या कदम उठाये थे और उचित कदम न उठाने पर उनकों भी दण्डित किया जायेगा तभी एक कड़ा संदेश जा पायेगा अन्यथा यह फिर राहत देने तक ही सीमित होकर रह जायेगा और यह अराजकता बढ़ती ही चली जायेगी।

ईवीएम अब मुद्दा क्यों नहीं विपक्ष से एक सवाल

लोकसभा चुनावों में विपक्ष को जिस कदर हार मिली है वह अधिकांश के लिये अप्रत्याशित रही है। क्योंकि 2014 के मुकाबले 2019 में परिस्थितियां भाजपा के लिये बहुत आसान नहीं रह गयी थी। 2014 मे किये गये अधिकांश वायदे सरकार पूरे नहीं कर पायी थी फिर इस बार 2014 के मुकाबले विपक्ष ज्यादा संगठित था। नोटबंदी और जीएसटी जैसे आर्थिक फैसलों का प्रभाव भी जनता पर कोई ज्यादा सकारात्मक नही था। लेकिन यह सब होने के बाद भी विपक्ष बुरी तरह हार गया। इस हार का परिणाम हताशा होगा स्वभाविक है परन्तु यह हताशा इतनी आत्मघाती हो जायेगी कि दलों के दलबदल के बाद भी विपक्षी नेतृत्व अपनी चुप्पी से बाहर नही आ रहा है। अधिकांश गैर एनडीए दल इस दलबदल का शिकार हुए हैं। खास तौर पर वह दल जो चुनावों से पहले पूरी मुखरता और आक्रामकता अपनाये हुए थे। इक्कीस दलों ने ईवीएम पर चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक एक बड़ा मुद्दा जनता के सामने खड़ा कर दिया था।
इस मुद्दे पर चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक का जो आचरण रहा है वह भी देश की जनता के सामने रहा है। आज चुनावों के बाद इसी ईवीएम के मुद्दे पर देश के कुछ उच्च न्यायालयों में याचिकाएं दायर और लंबित हैं। इन याचिकाओं में बहुत गंभीरता हैं लेकिन वह राजनीतिक दल जिन्होंने चुनावों से पहले यह मुद्दा उठाया था आज एकदम इस पर खामोश होकर बैठ गये हैं। इनकी इस खामोशी से यह सवाल उठता है कि क्या इनके लिये यह अब कोई मुद्दा नही रह गया है। जबकि शायद आज यह ज्यादा प्रसांगिक हो जाता है। क्योंकि आज चुनाव नही है और इससे सरकार पर कोई असर भी नही पड़ना है लेकिन जब वीवी पैट ईवीएम मशीनों का हिस्सा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से ही बना है और पांच वीवी पैट की गिनती करने का भी शीर्ष अदालत का ही आदेश है। सर्वोच्च न्यायालय ने वी वी पैट गिनती की संख्या बढ़ाने से इसलिये इन्कार किया था कि चुनाव परिणामों में छः दिन की देरी हो जायेगी। वी वी पैट की गिनती ईवीएम से पहले करने को नियमों का हवाला देकर मना किया था। लेकिन इस मुद्दे को सर्वोच्च न्यायालय मूलतः आधारहीन नही कह सका है। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने एक समय 2013 से ईवीएम में किसी भी तरह की गड़बड़ी होने से पूरी तरह इन्कार कर दिया था लेकिन इसके बाद 2017 मे आयी एक अन्य याचिका में गड़बड़ी की आशंका को स्वीकारते हुए इसमें वीवी पैट का प्रावधान कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ईवीएम मे छेड़छाड़ की संभावनाओं से इन्कार नही किया जा सकता। इस परिदृश्य में यह एकदम प्रसांगिक हो जाता है कि ईवीएम के मुद्दे को नये सिरे की जनता के बीच ले जाया जाये। फिर अभी चुनाव आयोग आठ पोलिंग बूथों पर ईवीएम और वी वी पैट की गिनती में मिस मैच की आई शिकायतों की जांच कर रहा है। इनमें एक पोलिंग बूथ हिमाचल के सिरमौर जिले का भी है। यहां चुनाव आयोग की विशेषज्ञ टीम ने राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के समक्ष यह जांच की है। इस जांच से ई वी एम पर उठने वाले सवालों को स्वतः ही प्रमाणिकता मिल जाती है।
जब जनता के सामने चुनाव के प्रसंग से हटकर इस विषय को रखा जायेगा तो जनता का इस पर समर्थन मिलना आसान हो जायेगा। जनता के सामने जब यह रखा जायेगा कि भविष्य में होने वाले चुनाव में ईवीएम के साथ वीवी पैट की गिनती अनिवार्य कर दी जाये तो जनता इस मांग को गलत करार नही दे पायेगी। सत्तापक्ष को भी इसका विरोध करना आसान नही होगा और तब चुनाव आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय को भी इसे मानना पड़ेगा। जब वी वी पैट की गिनती अनिवार्य हो जायेगी तब ईवीएम के स्थान पर बैलेट पेेपर का प्रयोग करने की मांग स्वतः ही खत्म हो जायेगी। इस समय जो विभिन्न उच्च न्यायालयों में ईवीएम को लेकर याचिकाएं लंबित चल रही हैं उनकी शीघ्र सुनवाई और फैसले की मांग करना दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा हो जाता है जिसको उठाकर विपक्ष जनता को यह भरोसा दिला सकता है कि उसे जनसरोकारों की चिन्ता है।
आज पूरा विपक्ष जिस तरह से हताश होकर बैठ गया है उससे जनता में उसकी विश्वसीनता पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं और शायद इसी का परिणाम है कि कमजा़ेर बौद्धिकता के लोग दलबदल करने पर आ गये हैं। जबकि इस तरह से विपक्ष का कमजोर होते जाना कालान्तर में लोकतन्त्र के लिये घातक सिद्ध होगा। आज देश की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है। सरकार के आर्थिक फैसलों पर आरबीआई से लेकर सरकार के आर्थिक सलाहकारों के बीच अपने में ही मतभेद उभरने और बाहर आने लग पड़े हैं। सरकार द्वारा विदेशी ब्राॅण्ड जारी करने को लेकर संवद्ध टीम के मतभेद उजागर होने शुरू हो गये हैं। इन आर्थिक और वित्तिय सवालों पर आम आदमी से प्रतिक्रियाओं की उम्मीद करना गलत होगा क्योंकि यह सब उसके बौद्धिक दायरे से बाहर की चीजें हैं। आम आदमी को इसकी कोई जानकारी नही है कि सरकार ने अंबानी जैसे कुछ उद्योगपतियों का 8.5 लाख करोड़ का एनपीए खत्म कर दिया है। इन आर्थिक सवालों पर आम आदमी को जागरूक करना राजनीतिक नेतृत्व की जिम्मेदारी है और इसी से वह आज लगभग पलायन करने लग पड़ा है। इसलिये आज यह आवश्यक हो जाता है कि विपक्ष को उसकी जिम्मेदारी से भागने न दिया जाये। क्योंकि जब किसी सरकार का कर्जा और घाटा उसकी राजस्व आय से बढ़ जाता है और खर्च चलाने के लिये विनिवेश के नाम पर संपतियां बेचने की नौबत आ जाती है तो वह देश के लिये सबसे कठिन दौर होता है। आज भारत उसी दौर से गुजर रहा है। ऐसे में विपक्ष की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि आम आदमी को तो यह सब भोगना है जबकि उसे इस सबकी समझ ही नही है। इसलिये विपक्ष से यह आग्रह है कि वह अपनी भूमिका को समझते हुए चुप्पी से बाहर निकल कर आम आदमी में अपना विश्वास कायम करके एक बड़े संघर्ष की तैयारी करें।

कुलभूषण सुधीर जाधव फैसले के बाद के सवाल

कुल भूषण सुधीर जाधव मामले में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का फैसला आ गया है। इस फैसले पर मीडिया प्रतिक्रियाओं के माध्यम से प्रसन्नता व्यक्त की गयी है। फैसले से जाधव की सजा़ पर रोक जारी रखते हुए अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने इस मामले की पुनः सुनवाई करने के निर्देश जारी किये हैं। अदालत ने यह कहा है To conclude, the Court finds that Pakistan is under an obligation to provide, by means of its own choosing,   effective review and reconsideration of the conviction and sentence of Mr. Jadhav, so as to ensure that full weight is given to the effect of the violation of the rights set forth in Article 36 of the Vienna Convention, taking account of paragraphs 139, 145 and 146 of this Judgment. अदालत के 42 पन्नों के फैसले को पढ़ने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने जाधव पर पाकिस्तान द्वारा लगाये गय आरोपों पर गुणदोष के आधार पर कोई फैसला नही दिया है यह आरोप आज भी अपनी जगह यथास्थिति खड़े हैं। पाकिस्तान ने जाधव को लेकर जो एक पक्षीय प्रक्रिया अपनाकर फैसला सुना दिया था उसमें जिनेवा कन्वैन्शन का घोर उल्लंघन हुआ है। यह भारत की ओर से इस पर सबसे बड़ा आरोप था। यह आरोप कन्वैन्शन के आर्टिकल 36 पर आधारित था। पाकिस्तान इस आरोप का 2008 के समझौते के बिन्दु छः का सहारा लेकर खण्डन कर रहा था। अन्तर्राष्ट्रीय अदालत में इस प्रकरण पर सारी बहस कन्वैन्शन के आर्टिकल छत्तीस और 2008 के भारत’पाकिस्तान के द्विपक्षीय समझौते के प्रावधानों के गिर्द ही केन्द्रित रही है। इसमें भारत को अवश्य सफलता मिली है कि भारत द्वारा इस प्रक्रिया पर उठाये गये सारे सवालों को स्वीकारते हुए पाकिस्तान द्वारा इस पर रखे गये सारे तर्कों को खारिज कर दिया है।
अब जाधव पर नये सिरे से यह मुकद्दमा चलेगा। इसमें भारत पूरी राजनीतिक प्रतिस्थानों के अनुसार कानूनी सहायता से लेकर अन्य सभी प्रकार की सहायता जाधव को उपलब्ध करवायेगा। जब तक इस पर अन्तिम फैसला नही आ जाता है तब तक पहले के फैसले पर स्टे जारी रहेगा। लेकिन फैसले से पहले जाधव की पाकिस्तान की जेल से रिहाई नही हो पायेगी। इसलिये भारत को इसका बराबर ध्यान रखना होगा कि नये सिरे से भी यह मुकद्दमा पाकिस्तान की ही अदालत में चलेगा। न्यायधीश भी उसी केे होंगे और मामले से जुड़ा सारा रिकार्ड भी पाकिस्तानी सेना द्वारा ही तैयार किया गया है। इस तरह पाकिस्तान को उसी की जमीन पर उसी की अदालत में कानून के सहारे हार देनी होगी। क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने जाधव पर लगे आरोपों को नकारा नही है।
भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय अदालत से यह भी राहत मांगी थी कि जाधव को तत्काल रिहा किया जाये लेकिन अदालत ने जाधव को रिहा नही किया है। ऐसे में पाकिस्तान पर जिस तरह से तथ्यों और साक्ष्यों से छेड़छाड़ और मनमर्जी से गठने के आरोप भारत लगाता रहा है अब उन आरोपों को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने प्रमाणित करना भारत की जिम्मेदारी और चुनौती दोनों हो जाता है।
पाकिस्तान की धूर्तताओं को सामने रखते हुए जाधव की रिाहई और घर वापसी सुनिश्चित करने के लिये हर तरह के साधनों का उपयोग और प्रयोग किया जाना समय की मांग होगी। जाधव 3 मार्च 2016 से पाकिस्तान की जेल में बन्द हैं उसे सुरक्षित वापिस लाना सरकार की जिम्मेदारी है। पुलवामा के बाद पाकिस्तान को घर में घुसकर मारने का जो परिचय अन्तर्राष्ट्रीय जगत को मोदी सरकार ने दिया था आज पुनः से उस परिचय को दोहराने की अनिवार्यता बन जाती है। इस परिदृश्य में जिस तरह से मीडिया के बड़े वर्ग ने अन्तर्राष्ट्रीय अदालत के फैसले को ही अन्तिम उपलब्धि बनाकर प्राचारित किया है उसे उपलब्धि से ज्यादा चुनौती और कसौटी कहना ज्यादा प्रसांगिक होगा।
क्योंकि पाकिस्तान द्वारा जाधव पर सबसे बड़ा आरोप espionage का लगाया गया है। इसी आरोप को वह 2008 के समझौते के बिन्दु छः के तहत कवर करते हुए गिरफ्तारी की तत्काल सूचना देने की बाध्यता से अपने को मुक्त मानता है। अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने पाकिस्तान के तर्कों को इतना ही खारिज किया है कि इन सारे तर्कों के बावजूद पाकिस्तान को जाधव की गिरफ्तारी की सूचना तत्काल देनी चाहिये थी जो उसने 25 मार्च 2016 को तीन सप्ताह बाद दी। अदालत ने भारत का यह तर्क भी स्वीकार किया है कि जाधव को राजनीतिक संपर्क की सुविधा भी दी जानी चाहिये थी। इसी सबके आधार पर इस मामले की पुनः सुनवाई करने के आदेश हुए हैं। लेकिन जाधव पर लगे espionage के आरोप को झूठ साबित करना भारत सरकार के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि भारत के अन्दर आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने का आरोप पाकिस्तान पर भारत लगाता आया है। आज अपरोक्ष में यह आरोप भारत पर लग रहा है और अन्तर्राष्ट्रीय अदालत के मंच तक यह आरोप पहुंच चुका है। इसलिये इस आरोप को ‘‘झूठ’’ प्रमाणित करने के लिये भारत को साम, दाम, दण्ड और भेद नीति के सारे पक्षों पर एक साथ सक्रियता दिखानी होगी।

 

                                   जाधव फैसले के महत्वपूर्ण अंश

 

भारतीय नागरिक कुलभूषण सुधीर जाधव को 3 मार्च 2016 को पाकिस्तान ने गिरफ्तार किया था। इस गिरफ्तारी की सूचना भारतीय दूतावास को 25 मार्च 2016 को मिल पायी थी। इस गिरफ्तारी के बाद 21 सितम्बर 2016 को इस मामले का पाकिस्तान ने ट्रायल शुरू कर दिया और 10 अप्रैल को 2017 को इस पर फैसला सुनाते हुए मौत की सज़ा दे दी। इस पर भारत सरकार ने 8 मई 2017 को अन्तर्राष्ट्रीय अदालत में फैसले को चुनौती दे दी। अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने 18 मई 2017 को पाकिस्तान के फैसले के खिलाफ स्टे के आदेश कर दिये। अब 17 जुलाई 2019 को इसमें अदालत का अन्तिम फैसला आ गया है। अन्तर्राष्ट्रीय अदालत ने इसमें फिर से ट्रायल शुरू करने के आदेश जारी किये हैं। इसमें भारत ने अदालत से क्या राहत मांगी थी और उस पर क्या फैसला आया है वह शैल के पाठकों के सामने रखा जा रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय अदालत की पीठ में सोलह जज थे जिनमें से पन्द्रह ने यह फैसला दिया है। केवल जस्टिस जिलानी फैसले के विरोध में गये हैं।

 

17. In the Application, the following claims were made by India:
“(1) A relief by way of immediate suspension of the sentence of death awarded to the accused.
(2) A relief by way of restitution in integrum by declaring that the sentence of the military court arrived at, in brazen defiance of the Vienna Convention rights under Article 36, particularly Article 36 paragraph 1 (b), and in defiance of elementary human rights of an accused which are also to be given effect as mandated under Article 14 of the 1966 International Covenant on Civil and Political Rights, is violative of international law and the provisions of the Vienna Convention; and
(3) Restraining Pakistan from giving effect to the sentence awarded by the military court, and directing it to take steps to annul the decision of the military court as may be available to it under the law in Pakistan.
(4) If Pakistan is unable to annul the decision, then this Court to declare the decision illegal being violative of international law and treaty rights and restrain Pakistan from acting in violation of the Vienna Convention and international law by giving effect to the sentence or the conviction in any manner, and directing it to release the convicted Indian national forthwith.”
For these reason
THE COURT,
(1) Unanimously,
Finds that it has jurisdiction, on the basis of Article I of the Optional Protocol concerning the Compulsory Settlement of Disputes to the Vienna Convention on Consular Relations of 24 April 1963, to entertain the Application filed by the Republic of India on 8 May 2017;
(2)  By fifteen votes to one,
 Rejects the objections by the Islamic Republic of Pakistan to the admissibility of the Application of the Republic of India and finds that the Application of the Republic of India is admissible;
(3) Finds that, by not informing Mr. Kulbhushan Sudhir Jadhav without delay of his rights under Article 36, paragraph 1 (b), of the Vienna Convention on Consular Relations, the Islamic Republic of Pakistan breached the obligations incumbent upon it under that provision;
(4)   Finds that, by not notifying the appropriate consular post of the Republic of India in the Islamic Republic of Pakistan without delay of the detention of Mr. Kulbhushan Sudhir Jadhav and thereby depriving the Republic of India of the right to render the assistance provided for by the Vienna Convention to the individual concerned, the Islamic Republic of Pakistan breached the obligations incumbent upon it under Article 36, paragraph 1 (b), of the Vienna Convention on Consular Relations;
(5) Finds that the Islamic Republic of Pakistan deprived the Republic of India of the right to communicate with and have access to Mr. Kulbhushan Sudhir Jadhav, to visit him in detention and to arrange for his legal representation, and thereby breached the obligations incumbent upon it under Article 36, paragraph 1 (a) and (c), of the Vienna Convention on Consular Relations;
(6) Finds that the Islamic Republic of Pakistan is under an obligation to inform Mr. Kulbhushan Sudhir Jadhav without further delay of his rights and to provide Indian consular officers access to him in accordance with Article 36 of the Vienna Convention on Consular Relations;
(7) Finds that the appropriate reparation in this case consists in the obligation of the Islamic Republic of Pakistan to provide, by the means of its own choosing, effective review and reconsideration of the conviction and sentence of Mr. Kulbhushan Sudhir Jadhav, so as to ensure that full weight is given to the effect of the violation of the rights set forth in Article 36 of the Convention, taking account of paragraphs 139, 145 and 146 of this Judgment;
(8) Declares that a continued stay of execution constitutes an indispensable condition for the effective review and reconsideration of the conviction and sentence of Mr. Kulbhushan Sudhir Jadhav.


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