Friday, 19 September 2025
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क्या दलबदल से भाजपा कांग्रेस मुक्त करायेगी देश को

लोकसभा चुनावों में मिली अप्रत्याशित हार के बाद विपक्ष में टूटन शुरू हो गयी है। टीडीपी के चारों राज्यसभा सांसद भाजपा में शामिल हो गये हैं। टीडीपी के बाद आई एन एल डी का सांसद भी भाजपा में चला गया है। इन सांसदों के बाद गोवा के दस कांग्रेस विधायक भाजपा में शामिल हो गये। उनमें से तीन मन्त्री भी बन गये हैं। कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस के विधायकों ने त्यागपत्र देकर गठनबन्धन सरकार के लिये संकट पैदा कर दिया है। कर्नाटक प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका है। प्रधान न्यायधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ के बाद अब यह मामला पांच जजों की पीठ को सौंपा गया है। देश की शीर्ष अदालत में इस प्रकरण के आने के बाद यह स्पष्ट हो जायेगा कि हमारा दल बदल विरोधी कानून कितना सक्ष्म है। इसमें कांग्रेस या भाजपा जिसकी भी जीत हो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इसमें जनमत की हार निश्चित है। कर्नाटक प्रकरण में भाजपा अपना हाथ होने से इन्कार कर रही लेकिन भाजपा नेतृत्व वहां मेन केन प्रकारेण सरकार बनाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार है। गोवा और कर्नाटक के प्रकरण कब बंगाल, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दोहरा दिये जायें यह अब सामान्य लग रहा है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने बंगाल को लेकर तो अपने इरादे लोकसभा चुनावों में ही जाहिर कर दिये थे और वहां वैसा ही घटता भी जा रहा है।
यह जो कुछ हो रहा है इससे सबसे पहला सवाल यह उभरता है कि इस तरह के राजनीतिक जन प्रतिनिधियों के सहारे देश का लोकतन्त्र कैसे कितनी देर जिंदा रहेगा। दूसरा सवाल शीर्ष न्यायपालिका को लेकर उठता है कि वहां सार्वजनिक महत्व के मुद्दों को कितनी देर तक लटकाये रखा जायेगा। इस समय दो महत्वपूर्ण  मुद्दे लंबित चल रहे हैं एक में बीस लाख ईवीएम मशीनों के गायब होने का मामला है। सवाल स्पष्ट है कि या तो मशीने गायब होने का आरोप सच है या निराधार है। अदालत में यह मामला आरटीआई के तहत मिली सूचना पर आधारित है। यदि मशीने गायब होने का आरोप सही साबित हो जाता है तो फिर पूरी चुनाव प्रक्रिया पर उठने वाले सवालों पर बात आयेगी और उसके परिणाम दूरगामी होंगे। लेकिन इससे दलों की हार जीत से अलग लोकतन्त्र की जो जीत होगी वह महत्वपूर्ण है। अदालत में एक याचिका लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर केन्द्र और कुछ राज्यों द्वारा जो जनता के कुछ वर्गों को वित्तिय लाभ देने के लिये जो योजनाएं घोषित की गयी तथा उनके तहत यह वित्तिय लाभ दिये भी गये इसे मतदाताओं को प्रलोभित करना माना जाये। एक अरसे से यह चलन बन गया है कि सरकारें चुनावों से पूर्व ऐसी योजनाओं के माध्यम से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक रूप से घूसखोरी को अंजाम देती हैं और लोकतन्त्र फिर हार जाता है। आज यह मुद्दे याचिकाओं के माध्यम से उच्च न्यायपालिका के पास लंबित पड़े हैं और उन्हे कोई प्राथमिकता नही दी जा रही है। क्या ऐसे न्यायपालिका पर भी लम्बे समय तक विश्वास बना रह पायेगा।
आज जिस तरह से यह दलबदल घट रहा है उससे जहां जन प्रतिनिधियों की विश्वनीयता सवालों के घेरे में खड़ी हो गयी है। वहीं पर राजनीतिक दलों की विश्वनीयता पर भी सवाल उठ रहे हैं  गोवा में कांग्रेस के विधायकों को मन्त्रा बनाने के लिये दूसरे घटक के मन्त्रीयों को हटाना पड़ा उन्होने स्वेच्छा से अपने पद नही त्यागे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि बड़े पैमाने पर सौदेबाजी को अंजाम दिया गया। यहां यह सवाल उठता है कि क्या भाजपा को यह सब करने की आवश्यकता थी? जो पार्टी अभी इतना बड़ा जन विश्वास लेकर सता में आयी है क्या उसके ऐसे आचरण से पापुलर जनमत हासिल करने के दावों पर स्वतः ही प्रश्नचिन्ह नही लग जाता है। क्या भाजपा कर्नाटक प्रकरण का पटाक्षेप होने से पहले यह घोषणा करने का दम रखती है कि वह दलबदल से सरकार नही बनायेगी और राज्य में चुनाव करवायेगी। भाजपा में यह दम नही है क्योंकि इसी कर्नाटक लोकसभा चुनावां के मतदान के बाद मतगणना से पहले हुए निकाय चुनावों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। क्या इस तरह के राजनीतिक आरचण से भाजपा का अपना ही पक्ष कमजोर नही हो रहा है।

राजनीति की आकाश-राणे संस्कृति का अंजाम क्या होगा

इन दिनों भाजपा और कांग्रेस के कई नेता अपनी दबंगई और विवादित ब्यानों के कारण जन चर्चा का विषय बने हुए हैं। इनमें प्रमुख रूप से भाजपा विधायक आकाश विजयवर्गी, कांग्रेस विधायक नितेश राणे और भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर, सन्नी दियोल, प्रहलाद पटेल और मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के नाम विशेष उल्लेखनीय हो गये हैं। प्रज्ञा ठाकुर तो चुनाव प्रचार के दौरान ही चर्चित हो गयी थी। जब उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे को देशभक्त तथा आतंकवादीयों की गोली का शिकार हुए पुलिस अधिकारी हेमन्त करकरे की मौत को अपने अभिशाप का प्रतिफल कहा था। साधवी प्रज्ञा ठाकुर के इन ब्यानों पर काफी विवाद खड़ा हुआ था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इसकी निन्दा करते हुए यहां तक कह दिया था कि प्रज्ञा को दिल से क्षमा नही कर पायेंगे। लेकिन जब प्रज्ञा ने बतौर सांसद शपथ ली और जिस तरह की नारेबाजी वहां हुई उससे स्पष्ट हो गया कि उन पर प्रधानमन्त्री की नाराज़गी का कोई असर नही हुआ है। बल्कि प्रज्ञा के आचरण पर पार्टी से रिपोर्ट मांगी गयी थी लेकिन यह रिपोर्ट भी अभी तक सामने नही आयी है।
इसी तरह भाजपा के गुरदासपुर के सांसद सन्नी दियोल भी चर्चा में आ गये हैं दियोल भी संसद में शपथ लेते हुए जव to uphold the constitution के स्थान पर with hold the constitution का उच्चारण कर गये थे। उनके इस उच्चारण पर उस समय मणीशंकर अय्र जैसे विद्वानों ने सवाल भी उठाये थे। लेकिन उस समय इस पर कोई बड़ा विवाद खड़ा नही हुआ। परन्तु अब दियोल ने अपने संसदीय क्षेत्र में बतौर सांसद अपने कार्यों और अधिकारियों के साथ बैठकें करने आदि के लिये अपना गुरप्रीत नाम का एक प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया है। यह गुरप्रीत सिंह व्यवहारिक तौर पर अधिकारियों और जनता के बीच एक तरह से सांसद ही बन जायेगा यह स्वभाविक है। दियोल ने वाकायदा पत्र लिखकर यह प्रतिनिधि नियुक्त किया है। सोशल मीडिया में यह पत्र वायरल होकर चर्चा का विषय बना हुआ है। भाजपा दियोल के इस आचरण पर एकदम खामोश है क्योंकि वह अमितशाह और मोदी की विशेष पसन्द रहे हैं।
इन सांसदो के साथ ही मध्यप्रदेश के इन्दौर से भाजपा विधायक आकाश विजय वर्गीय चर्चा में आ गये हैं। उन्होंने अपने बैट से सरेआम अधिकारियों को पीट डाला। इस प्रकरण पर पुलिस में मामला दर्ज हुआ और उनकी गिरफ्तारी तक हो गयी। इस प्रकरण में उन्हांेने मीडिया में दिये अपने ब्यान में बड़े गर्व से यह स्वीकारा है कि उन्हे शिक्षा ही यह दी गयी है कि ‘‘ पहले आवेदन फिर निवेदन और अन्त में दनादन’’ आकाश के ब्यान से सत्ता की ताकत का स्पष्ट पता चलता है। यही नही जब आकाश के इस आचरण की निन्दा होने लगी तब उनके इस शौर्य को महिमामण्डित करते हुए भाजपा के ही कुछ लोगों ने एक गाना तक इस पर रच दिया। पूरी भाजपा की ओर से आकाश के इस आचरण की कोई निन्दा नही आयी। अब इस पर भी प्रधानमंत्री की ओर से ही यह आया है कि आकाश चाहे किसी का भी बेटा रहा हो परन्तु ऐसे लोगों का पार्टी में कोई स्थान नही है। प्रधानमन्त्री द्वारा निंदा किये जाने के बाद संगठन कब क्या कारवाई करता है यह अभी सामने आना है। लेकिन आकाश के इस आचरण के बाद उत्तर प्रदेश में मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ के एक अस्पताल के दौरे के दौरान पत्रकारों को वहीं एक कमरे में बन्द करने और मुख्यमन्त्री के जाने के बाद उन्हे छोड़ने का प्रकरण सामने आया है। इस पर योगी से लेकर मोदी तक किसी की कोई प्रतिक्रिया सामने नही आयी है। क्योंकि योगी आदित्यनाथ भाजपा में एक बड़ा नाम होते जा रहे हैं। योगी आदित्यनाथ के अतिरिक्त केन्द्रिय मन्त्री प्रहलाद पटेल के बेटे का नाम भी दबंगई में जुड़ गया है उसके ऊपर गोली चलाने का आरोप है। इसी आरोप में वे गिरफ्तार हो चुके हैं और अब तक जेल मे ही हैं। अब इस कड़ी में कांग्रेस के विधायक नितेश राणे का नाम भी जुड़ गया है। उन्होंने अपने समर्थकों के साथ एक इंजिनियर को पुल पर रस्सीयों से बांध कर उस पर बाल्टी भर के कीचड़ फैंका है। नितेश राणे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमन्त्री नारायण राणे के बेटे हैं। नारायण अब भाजपा के सांसद हैं और कल को उनके बेटे नितेश राणे भी भाजपा के विधायक हो सकते हैं।
ऐसे कई प्रकरण सामने आते जा रहे हैं जहां नेताओं द्वारा सत्ता की ताकत का इस तरह का आपराधिक प्रदर्शन सामने आता जा रहा है। आज जो समर्थन भाजपा को मिला हुआ है उसके बाद एक बार फिर अन्य राजनीतिक दलों में तोड़फोड़ का दौर शुरू हो गया है। आन्ध्र प्रदेश के चार राज्यसभा सांसद भाजपा में शामिल हो गये हैं। लेकिन यह वही सांसद है जिनके खिलाफ पिछले दिनों सीबीआई ने भाजपा महामन्त्री जी वी एल नरसिम्हाराव की शिकायत पर छापेमारी करके हजारों करोड़ के घपलों के मामले दर्ज किये हैं। जब इस तरह की पृष्ठभूमि के लोग भाजपा में शामिल होंगे तो इसका संदेश यही जायेगा कि क्या भाजपा भ्रष्टाचारियों के लिये गंगोत्री बन गयी है। यह ठीक है कि आम आदमी आज इस सबका मूक दर्शक होने के अतिरिक्त और कुछ नही कर सकता है लेकिन वह यह अवश्य कहेगा कि भाजपा भी अन्य दलों जैसी ही है।
यह जो कुछ घट रहा है उसके इन नायकों के अपने -अपने तर्क हो सकते हैं जिनके आधार पर यह लोग अपने-अपने कृत्यों को सही ठहरा सकते हैं लेकिन जिस ढंग से यह हुआ है उसके पीछे सीधे और स्पष्ट रूप से सत्ता की ताकत के नशे की गंध आ रही है। शायद सत्ता के इन्ही प्रतीकों का दूसरा रूप जनता में भीड़ हिंसा होता जा रहा है। भीड़ हिंसा के जितने भी मामले सामने आये हैं उनके पीछे गो तस्करी के आरोप का तर्क परोसा जा रहा है। यदि इस तर्क को मान भी लिया जाये तो यह सवाल उठता है कि इस तस्करी को रोकने और उस पर सजा़ देने का काम तो प्रशासनिक तन्त्र तथा अदालत का है लेकिन यहां अदालत और प्रशासन का काम भीड़ ने अपने हाथ में ले लिया है जिन नेताओं और नेता पुत्रों ने अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से पीटने का काम शुरू किया है उन्होंने भी प्रशासन और अदालत का काम अपने हाथ मे ले लिया है।
ऐसे ही यदि कल को यह जनता भी मन्त्रीयों/विधायकों/सांसदो और अधिकारियों/कर्मचारियों के खिलाफ उनके झूठे वायदें/जूमलों को लेकर इसी संस्कृति का अनुसरण करना शुरू कर दे तो क्या होगा। आज देश के राजनीतिक नेतृत्व को राजनीति में उभरती इस नयी संस्कृति को लेकर गंभीर होना होगा। यदि समय रहते इसे रोका न गया तो यह तय है कि इसके परिणाम गंभीर होंगे।

उच्च न्यायपालिका की भूमिका पर लगी देश की नज़रें

संसद में राष्ट्रपति अभिभाषण पर चली बहस अन्त में जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस अंदाज में आपातकाल और देश के मुस्लिमों का जिक्र उठाया है उससे कई अहम सवाल फिर से खडे़ हो गये हैं जिन पर खुली बहस की आवश्यकता जरूरी हो गयी है। प्रधानमंत्री ने बड़े स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि यदि आपातकाल के समय देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो शायद आपातकाल न लग पाता। आपातकाल आज से 44 वर्ष पहले 25 जून 1975 को लगा था। उस समय आपातकाल से पहले की स्थितियां क्या रही थीं नरेन्द्र मोदी ने उनका जिक्र नही किया है। 1971 मे आम चुनाव हुए थे और कांग्रेस को एक अच्छा बहुमत मिला था क्योंकि उस समय चुनावों की पृष्ठभूमि में पूर्व राजाओं के प्रिविपर्स समाप्त करना और बैंकों का राष्ट्रीयकरण जैसे आर्थिक फैसले तथा बंगला देश जैसे राजनीतिक घटनाक्रम देश के सामने थे। लेकिन उस समय श्रीमति गांधी के रायबरेली से चुनाव को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती मिली। उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 को अपने फैसले में इस चुनाव को रद्द कर दिया। इस फैसले की सर्वोच्च न्यायालय में अपील की गयी और सर्वोच्च न्यायालय ने 24 जून को दिये अपने फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को बहाल रखा।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद श्रीमति गांधी पर पद त्याग के लिये दवाब आया। लेकिन श्रीमति गांधी ने पद त्यागने के बजाये अपने सलाहकारों की राय पर अमल करते हुए देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। महत्वपूर्ण विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया गया। अखबारों पर सैन्सर लगा दिया। आपातकाल में नेताओं की रिहाई के लिये बंदी प्रत्याक्षीकरण याचिकाएं उच्च न्यायालय में आयी। सर्वोच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं को अपने पास ट्रांसफर कर लिया और एडीएम जबलपुर बनाम शिवकान्त शुक्ल नाम से यह मामला वहां आ पहुंचा। पांच जजों की संविधान पीठ में इसकी सुनवाई हुई। चार जजों ने सरकार ने अपातकाल लागू करने के फैसले को जायज ठहराया। केवल जस्टिस एचआर खन्ना ने इसके विरोध में फैसला दिया। आपातकाल को जायज ठहराने वाले जज थे चीफ जस्टिस ए एन रे, जस्टिस एम एच वेग, जस्टिस वाई वी चन्द्रचूड़ और जस्टिस पी एन भगवती। आपातकाल में करीब 63 लोगों की जेलों में मौत हो गयी थी। उस समय यदि सर्वोच्च न्यायालय का बहुमत इस आपातकाल का समर्थन न करता तो शायद आज परिस्थितियां कुछ भिन्न होती। आपातकाल 44 वर्ष पहले लगा था और तब से लेकर अब तक बहुत पानी बह चुका है। देश ने 1984 के दंगो से लेकर गोधरा कांड और समझौता ब्लास्ट जैसे कई दृश्य देख लिये हैं। आर्थिक मोर्चे पर नोटबंदी  से लेकर जीएसटी तक देश बहुत कुछ झेल चुका है। हर घटना में लोगों की जाने गयी हैं इस सच्च को झुठलाना संभव नही है। समय कब करवट बदलेगा कोई नही जानता लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि प्रकृति ना कभी कुछ भूलती है और न ही माफ करती है।
2014 में जब देश की जनता ने भाजपा /मोदी को सत्ता सौंपी थी उस समय क्या दावे और वायदे किये गये थे और उनमें से आज कितने पूरे हुए हैं यह न तो जनता को भूला है और ही शासक वर्ग को इसकी याद दिलाने की जरूरत है। आज की सच्चाई यह है कि सरकार को रिजर्व बैंक से आरक्षित निधि में से पैसा मांगना पड़ रहा है। आरक्षित निधि में से यह पैसा दिया जाना चाहिये या नहीं इस पर आरबीआई में एक राय न होने से इसके दो गवर्नर और एक डिप्टी समय से पहले ही अपने पद त्याग चुके हैं। देश के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रहमण्यम का आर्थिक वृद्धि दर का आकलन अन्तर्राष्ट्रीय बहस का विषय बन चुका है। इन तथ्यों की भले ही आम आदमी को समझ न हो लेकिन इनका अन्तिम प्रभाव इसी आम आदमी पर पड़ेगा यह तय है। आज आम आदमी मंहगाई और बेरोजगारी से पीड़ित है यह एक कड़वा सच है।
 आज सरकार को जो अभूतपूर्व जन समर्थन इन चुनावों में मिला है उसको लेकर जो ईवीएम पर दोष डाला जा रहा है उसकी पृष्ठभूमि 2001 में मद्रास उच्च न्यायालय 2002 केरल उच्च न्यायालय और 2004 में कर्नाटक उच्च न्यायालयों में आयी याचिकाएं भी हैं। इसी के साथ आज 20 लाख ईवीएम मशीने गायब होने को लेकर मुम्बई उच्च न्यायालय और ग्वालियर उच्च न्यायालय में आयी याचिकाएं भी हैं। गायब हुई मशीनों पर फैसला देना आज देश की उच्च न्यायपालिका के लिये शायद आपातकाल से भी बड़ा टैस्ट बन चुका है। इन गायब मशीनों पर चुनाव आयेग की खामोशी से न केवल आयेग की अपनी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं बल्कि सरकार को मिले इस भारी जन समर्थन पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। आज यह प्रधानमंत्री को तय करना है कि वह इस विश्वास को कैसे बहाल करते हैं। क्योंकि कांग्रेस को कोसने से यह विश्वास बहाल नही हो सकता। बल्कि जिस तरह से राजनीतिक तोड़फोड़ शुरू हो चुकी है और सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जो प्रैस की आज़ादी पर परोक्ष/अपरोक्ष अंकुश लगाने के प्रयास हुए हैं उससे एक बार फिर आपात जैसी आशंकाएं उभरने लग पड़ी हैं।

एक देश एक चुनाव-कुछ सवाल

देश में लोकसभा से लेकर नीचे पंचायत स्तर तक जन प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान प्रक्रिया से होता है। यह व्यवस्था संविधान में की गयी है। इस व्यवस्था संचालन के लिये संसद और विधानसभाओं के चुनाव की जिम्मेदारी चुनाव आयोग को दी गयी है। यह चुनाव निष्पक्ष हों इसके लिये चुनाव आयोग को संवैधानिक स्वायतता दी गयी है। पंचायतीराज संस्थाओं के चुनावों की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के पास है और अब राज्यों में भी इसके लिये स्वायत निर्वाचन आयोगों की व्यवस्था कर दी गयी है। केन्द्र से लेकर राज्यों तक इस निर्वाचन तन्त्र को स्वायतता प्रदान करने का अर्थ है कि हर स्तर पर निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित हों। जब स्वतन्त्रता के बाद 1952 में पहली बार चुनाव करवाये गये थे तब पूरे देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन 1967 में यह व्यवस्था बिगड़ी जब कुछ राज्यों में संबद्ध सरकारों का गठन हुआ। राज्यों में राजनीतिक समीकरण बिगड़ने शुरू हुए और मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े। लोकसभा में भी यह समीकरण बिगड़े और वहां भी मध्यावधि चुनाव करवाये गये।
आज स्थिति यह बन चुकी है कि देश में हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव हो जाते हैं। जब यह चुनाव अलग-अलग होते हैं तो स्वभाविक है कि इन पर धन और समय दोनों ही अत्याधि खर्च हो जाते हैं। इस पृष्ठभूमि में यदि पूरी चुनावी व्यवस्था का एक निष्पक्ष आकलन किया जाये तो यह आवश्यकता महसूस होती है कि यदि सारे चुनाव एक साथ करवा दिये जाये तो धन और समय दोनों में महत्वपूर्ण बचत की जा सकती है। इसलिये अब जब प्रधानमन्त्री ने ‘‘एक देश एक चुनाव’’ को लेकर सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया है तो सिद्धान्त रूप में इसका स्वागत है। अभी इस कार्यकाल के एक तरह से पहले ही दिन इस महत्वपूर्ण विषय को सार्वजनिक बहस के लिये प्रस्तुत करना एक सराहनीय कदम है। वैसे तो पिछले कार्यकाल में जब संसद का संयुक्त सत्र बुलाया गया था तब महामहिम राष्ट्रपति ने यह विषय को माननीयों के सामने रखा था। उस समय कुछ देर के लिये इस पर सार्वजनिक चर्चाएं भी हुई थी। लेकिन यह विषय कोई ज्यादा आगे नही बढ़ा क्योंकि उस समय प्रधानमन्त्री ने इसमें सीधे दखल नही दिया था। अब प्रधानमन्त्री ने स्वयं सर्वदलीय बैठक बुलाकर यह बहस उठायी है तो निश्चित है कि यह अपने अंजाम तक पहुंचेगा ही। इस बार जो बहुमत भाजपा और एनडीए को मिला है वह जनता के समर्थन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसलिये इस विषय पर सभी दलों की सहमति केवल एक राजनीतिक औपचारिकता से अधिक कुछ नही है। सीधा है कि यदि प्रधानमन्त्री इस पर गंभीर और ईमानदार हैं तो यह फैसला हो जायेगा और इसे अमलीशक्ल मिल जायेगी। क्योंकि इस आश्य का संसद में विधेयक लाया जायेगा जहां यह पारित हो जायेगा और राज्यों की विधानसभाओं का अनुमोदन भी हासिल हो जायेगा।
प्रश्न केवल यह होगा कि इसे कब से लागू किया जायेगा। क्योंकि जब भी इसे लागू करने की बात आयेगी तब लोकसभा या राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने की नौबत आयेगी ही। इसलिये यह स्पष्ट है कि ‘‘एक देश एक चुनाव’’ के लिये एक बार तो इन्हे भंग करना ही पड़ेगा इस समय लोकसभा से लेकर अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं इसलिये यह फैसला एक तरह से भाजपा को ही लेना है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि नरेन्द्र मोदी ने यह बहस पहले ही दिन क्यों छेड़ दी। लोकसभा का अगला चुनाव अब 2024 में होगा तो क्या इस पर उस समय अमल किया जायेगा। क्या उस समय सारी विधानसभाओं को भंग किया जायेगा? यह एक बड़ा सवाल होगा। यदि 2024 से पहले यह किया जाता है तो क्या इस लोकसभा को भंग किया जायेगा। इसी के साथ इस पक्ष पर भी विचार करना होगा कि यदि किसी राज्य में किसी कारण से राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तो क्या यह शासन उस विधानसभा के शेष बचे पूरे कार्यकाल के लिये होगा या शेष बची अवधि के लिये ही चुनाव करवाये जायेंगे। लेकिन यह चुनाव करवाने से ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का नियम भंग होगा और ऐसे में शेष बची पूरी अवधि के लिये राष्ट्रपति शासन ही एक मात्र विकल्प रह जाता है। इसलिये यह फैसला केवल प्रधनमन्त्री मोदी के अपने ऊपर निर्भर करेगा। यदि अब इस पर फैसला न लिया जा सका तो यह प्रधानमंत्री की अपनी छवि पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह बन जायेगा।
यह सही है कि ‘‘एक देश एक चुनाव’’ लागू होने से धन और समय की बचत हो जायेगी। लेकिन क्या इस बचत से चुनावों की विश्वसनीयता पर इस समय लग रहे सवालों से छुटकारा मिल जायेगा। आज इन चुनावों को लेकर एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में मनोहर लाल की आ चुकी है। एक भानू प्रताप सिंह ने विस्तृत ज्ञापन महामहिम राष्ट्रपति को सौंप रखा है। इसी के साथ बीस लाख ईवीएम गायब होने को मुबंई और ग्वालियर उच्च न्यायालयों में याचिकायें लंबित है। इन पर अन्ततः फैसले तो आयेंगे ही और यह फैसले चुनाव आयोग से लेकर स्वयं उच्च न्यायपालिका की अपनी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल होंगे। प्रधानमंत्री द्वारा छेड़ी गयी यह बहस यदि इन उठते सवालों से ध्यान हटाने का ही प्रयास होकर रह गयी  तो इसके परिणाम घातक होगे।

देश को एक सशक्त विकल्प चाहिये

लोकसभा चुनावों में जो लगभग एक तरफा समर्थन भाजपा नीत एनडीए को मिला है और विपक्ष की जो शर्मनाक हार हुई है उस पर हिमाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता शान्ता कुमार की एक तात्कालिक प्रतिक्रिया आयी थी। शान्ता कुमार ने इस स्थिति को लोकतन्त्र के लिये खतरा कहा था। इस प्रतिक्रिया से शान्ता कुमार का क्या मंनव्य रहा है इसका उन्होंने कोई विस्तृत खुलासा नही किया है और न ही किसी ने शान्ता के इस ब्यान पर कोई प्रतिक्रिया जारी की है। लेकिन सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में देश के बाद अब तक जो तथ्य सामने आये हैं उनमें सबसे पहले यह आंकड़ा आया कि वर्ष 2018-19 में देश के बैंकों में 71500 करोड़ का फ्राॅड हुआ है। वैसे अब इसमें यह भी जुड़ गया है कि पिछले ग्याहर वर्षों में बैंकों में दो लाख करोड़ का फ्रॅाड हुआ है। इसी के साथ यह आंकड़ा भी सामने आ गया है कि बेरोजगारी की दर पिछले 4 वर्षों के सबसे ऊंचे रिकार्ड पर पहुंच गयी है और इसमें शहरी बेरोज़गार का आंकड़ा सबसे अधिक है। अमरीका ने भारत से निर्यात होने वाले उन उत्पादों पर अब डयूटी लगा दी है जो पहले इससे मुक्त थे। अमरीका के इस फैसले से देश के निर्यातकों को करीब 40,000 करोड़ का नुकसान होगा। सरकार ने देश के किसानों को जो राहत का दायरा बढ़ाया है उससे 87500 करोड़ रूपया इनके खातों में जायेगा। लेकिन इसी फैसले के साथ-साथ ही यह जानकारी भी बाहर आयी है कि सरकार ने 90,000 करोड़ की संपत्तियां बेचने का फैसला लिया है और 2800 करोड़ की संपत्तियां बेच भी दी है। डाॅलर के मुकाबले में रूपया लगातार कमजोर होता जा रहा है। चुनावों के बाद बहुत सारी चीजों की कीमतें बढ़ गयी हैं और इनके और बढ़ने की संभावना है।
यह जो जानकारियां चुनावों के बाद सामने आयी हैं यह सब चुनाव परिणाम आने के बाद नही घटा है। यह सब पहले बड़े अरसे से देश में घट चुका था लेकिन इसकी जानकारी अधिकारिक तौर पर चुनावों से पहले बाहर नही आने दी गयी क्योंकि यदि यह सब जानकारियां चुनावों से पहले सामने आ जाती तो निश्चित रूप से यह सब जन चर्चा के मुद्दे बनते और तब शायद परिणामों पर भी इसका असर पड़ता लेकिन ऐसा भी नही है कि यह जानकारियां कतई बाहर आयी ही नही हों। यदि हम चुनावों के दौरान और उससे भी पहले के परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो यह सामने आता है कि कांग्रेस और उसके नेता राहूल गांधी इस ओर जनता का ध्यान खींच रहे थे। परन्तु जनता इन विषयों की गंभीरता का आकलन नही कर पायी और शेष विपक्ष भी इस संद्धर्भ में कारगर भूमिका नही निभा पाया। अभी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद जम्मू-कश्मीर को लेकर जिस तरह की नीति अपनाने के संकेत दिये थे अब उसमें पूरी तरह से यूटर्न ले लिया गया है। आजकल बंगाल को लेकर जिस तरह की लाईन भाजपा ले रही है और उसको जिस तरह से मीडिया प्रचारित -प्रसारित कर रहा है उसके अन्तिम परिणाम क्या होंगे यह शायद अब आकलन से भी बाहर होता जा रहा है।
इसी तरह पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में कुछ पत्रकारों के खिलाफ कारवाई की गयी है उस पर सर्वोच्च न्यायालय को भी यह टिप्पणी करनी पड़ी है कि इस देश में अभी तक संविधान है और देश उसी के अनुसार चलता हैै। यह ठीक है कि पत्रकार होने से किसी को यह अधिकार हासिल नही हो जाता कि वह किसी के खिलाफ कुछ भी निराधार छाप दे। लेकिन इस तरह के समाचारों पर मानहानि का मामला दायर करने का रास्ता है। परन्तु इस रास्ते को न अपनाकर इसमें पुलिस स्वयं शिकायतकर्ता बनकर सीधे गिरफ्तारी से शुरू करे तो निश्चित रूप से यह सोचना पड़ता है कि आप विरोध का कोई स्वर सुनने को तैयार ही नही है। प्रैस की स्वतन्त्रता के मामले में आज भारत 140वें स्थान पर है और यह सही में लोकतन्त्र के लिये खतरा है।
अभी सरकार के नये कार्यकाल का एक माह भी पूरा नही हुआ है और अब तक जो कुछ सामने आ चुका है वह निश्चित रूप से चिन्ताजनक है। आर्थिक मोर्चे पर जो कुछ सामने है शायद उसका कोई बड़ा प्रतिकूल असर दस प्रतिशत लोगों पर नही पड़ेगा और हो सकता है कि इस वर्ग ने सरकार के पक्ष मे मतदान भी न किया हो लेकिन इस सबका असर देश की 90ः जनता पर पड़ता है और उसका गुनाह केवल यही है कि उसे इस सबकी पूरी समझ ही नही है। जनता को इसकी समझ तब आयेगी जब बेरोज़गारी और मंहगाई उसकी दहलीज लांघ कर उसके घर पर कब्जा कर लेगी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। ऐसे में आज देश के विपक्षी राजनेताओं से ही यह अपेक्षा है कि वह इस वस्तुस्थिति की गंभरीता को समझते हुए आम आदमी के बचाव में आगे आयें अन्यथा देश की जनता विपक्ष को भी क्षमा नही करेगी। आज देश का राजनीतिक वातावरण बंगाल से लेकर कश्मीर तक जिस मुकाम पर पहुंच चुका है वह हर संवदेनशील बुद्धिजीवि के लिये गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन चुका है। इस समय परिस्थितियों की यह मांग है कि देश में एक सशक्त राजनीतिक विकल्प खड़ा हो। इसके लिये यदि राजनीतिक दलों को 1977 और 1989 की तर्ज पर अपना विलय करके भी यह विकल्प तैयार करना पड़े तो ऐसा किया जाना चाहिये। आज कांग्रेस में जिस तरह से राहूल गांधी ने अध्यक्षता छोड़ने का फैसला लिया है वह कांग्रेस के भीतर की परिस्थितियों को सामने रखते हुए सही है क्योंकि सत्ता के खिलाफ विरोध का जो स्वर उन्होंने मुखर किया था उसमें वह अपने ही घर में अकेले पड़ गये थे। लेकिन राष्ट्रीय संद्धर्भ में यह फैसला जनहित में नही है। आज वह सारे सवाल मुद्दे बनकर सामने आने लग पड़े हैं जो चुनावों से पहले ही राहूल ने उठाने शुरू कर दिये थे। आने वाले समय में आम आदमी जैसे जैसे पीड़ित होता जायेगा वह इन्हें समझता जायेगा यह तय है। उस समय उसकी समझ और पीड़ा को स्वर देने के लिये जनता एक नेता चाहेगी और वह शायद राहूल के अतिरिक्त और कोई न हो पाये।

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