Friday, 19 September 2025
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अराजकता का संकेत है पुलिस एनकाऊंटर का स्वागत

बलात्कार, हत्या और भ्रष्टाचार ऐसे जघन्य अपराध हैं जिनके खिलाफ सख्ती से निपटा जाना आवश्यक है। यह अपराध सभ्य समाज के माथे पर कलंक होते हैं क्योंकि यह एक व्यक्ति विशेष ही नहीं बल्कि पूरे समाज के खिलाफ सामूहिक होते हैं। इसीलिये ऐसे अपराधों के खिलाफ समय-समय पर जनाक्रोश उभरता रहा है। दिल्ली में जब निर्भया कांड घटा था तब जनाक्रोश के कारण ही कानून को और सख्त किया गया था। इसी सख्ती का परिणाम था कि ट्रायल कोर्ट ने बहुत जल्द आरोपियों को फांसी की सज़ा सुनाई और दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी तुरन्त इस सज़ा का अनुमोदन कर दिया। लेकिन उसके बाद जब सर्वोच्च न्यायालय में इस पर रिव्यू याचिका दायर हुई तो वहां पर सुनवाई शुरू होने में ही दो वर्ष का समय लग गया क्योंकि स्टेट की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में किसी ने इसका उल्लेख नही उठाया। दिल्ली के बाद शिमला के कोटखाई में ऐसा ही कांड घटा। पुलिस ने जांच शुरू की लेकिन उस पर जनाक्रोश उभरा और परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय के निर्देशों पर इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गयी। लेकिन आज अदालत में ही इस जांच पर गंभीर सवाल खड़े हो गये और नये सिरे से जांच की मांग की जाने लगी है।
 शिमला कांड के बाद उन्नाव कांड सामने आया। इसमें एक विधायक और उसके लोगों पर आरोप हैं। पीड़िता को मारने के प्रयास किये गये। अन्ततः जब उसे पेशी पर ले जाया जा रहा था तब उस पर तेल छिड़क कर आग लगा दी गयी। इस आग में झुलसने के तीसरे दिन दिल्ली के अस्पताल में वह दम तोड़ गयी। इस कांड पर जनाक्रोश तब भी उभरा था और अब मौत के बाद भी उभरा है। इस कांड के दोषी विधायक को सांसद साक्षी महाराज का आशीर्वाद हासिल है जिसके लिये यह सांसद भी जनाक्रोश के दायरे में आ गये हैं। इस कांड की पीड़िता की मौत हो गयी है और यही कथित दोषी चाहते थे। ऐसे में अब अदालत किसको कब क्या सज़ा देती है या कोई सांसद इसमें भी दोषीयों को जनता के हवाले करने की मांग करता है अब इस पर निगाहें रहेंगी।
 अब जब हैदराबाद की डाक्टर के साथ रेप और हत्या का प्रकरण सामने आया तो फिर जनाक्रोश उभरा क्योंकि अब डाक्टर के परिजनों ने उसके गुम होने की शिकायत घटना से दो दिन पहले पुलिस को दी थी तब उस पर कोई कारवाई नही की गयी। यह आरोप लगा कि यदि पुलिस ने शिकायत पर गंभीरता दिखाते हुए उस पर कारवाई की होती तो शायद यह कांड न घट पाता। स्वभाविक है कि इस परिदृश्य में पुलिस पर सवाल उठने ही थे जो संसद तक जा पहुंचे और वहां जया बच्चन जैसी महिला सांसदों ने आक्रोश में कथित आरोपियों को जनता के हवाले करने तक की बात कर दी। संसद में हुई इस चर्चा के बाद पुलिस ने भी आरोपियों को घटनास्थल पर लाकर मुठभेड़ में उन्हें मार गिराया। पुलिस ने इस मुठभेड़ को जायज ठहराते हुए यह तर्क दिया कि आत्म रक्षा में गोली चलानी पड़ी। आक्रोषित जनता ने भी पुलिस के इस तर्क को स्वीकार कर लिया और मुठभेड़ पर फूल बरसाते हुए स्वागत कर दिया। भीड़ का तर्क और मनोविज्ञान अपना अलग ही होता है क्योंकि उसके लिये किसी एक हो व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन क्या पुलिस भी भीड़ ही हो सकती है? क्या भीड़ और जनाक्रोश का तर्क पुलिस ले सकती है शायद नहीं। क्योंकि यदि पुलिस को भी भीड़ होने का लाईसैन्स दे दिया जाये तो फिर पुलिस की आवश्यकता ही कहां रह जाती है। पुलिस और सीबीाआई के कई एनकांऊटर फर्जी सिद्ध हो चुके हैं जिसके लिये उसे दड़ित भी किया गया है। इसलिये एनकांऊटर को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने विस्तृत दिशा निर्देश जारी किये हुए हैं जिनके तहत हर मुठभेड़ पर एफआईआर दर्ज किया जाना आवश्यक है। हैदराबाद मुठभेड़ पर क्या कारवाई होती है यह तो आने वाले समय में ही सामने आयेगा। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि पुलिस को इस तरह के कृत्य की कतई स्वीकारोक्ति नहीं दी जा सकती।
 यह जो सारे प्रकरण घटे है और हरेक में पुलिस /सीबीआई की कार्यप्रणाली सवालों में घिर गयी है। इससे एक बार फिर सार्वजनिक बहस की आवश्यकता आ खड़ी हुई है। क्योंकि अब तक जो भी प्रावधान इस दिशा मे किये गये हैं वह सब नाकाफी साबित हुए हैं उनसे समाज में कोई डर नहीं बन पाया है इसलिये यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि आखिर ऐसी मानसिकता पनप ही क्यों रही है। वह कौन से कारण हैं जो इस तरह की मनोवृति को जन्म दे रहे हैं। जबकि हमारी सांस्कृतिक विरासत के मानदण्ड तो बिल्कुल अलग रहे हैं। जिस समाज में ‘‘भोजन, भजन, वस्त्र और नारी यह सब परदे के अधिकारी’’ यत्र पूजयते नारी, रमन्ते तत्र देवता’’ जैसी मान्यतांए रही हों वहां पर गैंगरेप अैर हत्या सामाजिक मूल्यों पर सवाल खड़े करेंगे ही। क्योंकि अपराध विज्ञान भी यह मानता है कि हर मानसिकता के पनपने की निश्चित पृष्ठभूमि रहती है। इसके लिये शैक्षणिक ढांचे से लेकर सोशल मीडिया जैसे मंचों की भूमिका पर भी विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि सोशल मीडिया के कुछ मंचों में जिस तरह से सैक्स को व्यवसायिकता का आवरण दिया जा रहा है। उसका प्रतिफल ऐसे अपराधों की शक्ल में ही समाज को भुगतना पड़ेगा।
 पुलिस और अदालत को ऐसे अपराधों का निपटारा ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक को एक तय समय सीमा तक करने का प्रावधान किया जाना चाहिये। इसके लिये संसद को एकजुट होकर कानून बनाना होगा। बलात्कार और हत्या तथा भ्रष्टाचार के अपराधों के लिये एक जैसा ही प्रावधान किया जाना चाहिये क्योंकि जब भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे जनप्रतिनिधियों के मामलों का निपटारा दशकों तक नही हो पाता है तो उससे समाज में अन्ततः अराजकता ही पनपती है और तब पुलिस मुठभेड़ों को भी समाज स्वागत और स्वीकार करने लग जाता है।

नये समीकरणों का संकेत है महाराष्ट्र का घटनाक्रम

क्या महाराष्ट्र में भाजपा सत्ता से अन्ततः बाहर हो गयी है। इस बाहर होने के संकेत तभी उभर गये थे जब शिवसेना ने आधे कार्यकाल के लिये अपने मुख्यमन्त्री की मांग रखी थी और भाजपा ने इससे इन्कार कर दिया था। इस इन्कार के बाद शिवसेना  एनसीपी और कांग्रेस में सहमति बनाने के प्रयास हुए। जब यह प्रयास सफल हो गये तभी रातों रात फिर खेल बदला और सुबह भाजपा के फडनवीस  तथा एनसीपी के अजीत पवार की मुख्यमन्त्री तथा उप मुख्यमन्त्री के रूप में शपथ हो गयी। इस शपथ ग्रहण के बाद फिर खेल बदला और मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहंुच गया। सर्वोच्च न्यायालय ने जब फ्लोर टैस्ट के आदेश दिये तब इस टैस्ट में सफल/असफल होने से पहले ही अजीत पवार और फड़नवीस ने अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया। क्योंकि फड़नवीस के पास वांच्छित बहुमत नही था। सत्ता के इस खेल में क्या-क्या कैसे घटा यह सब देश ने देखा है। कौन सा गठनबन्धन कितना सिद्धान्तों पर आधारित रहा है यह गौण हो गया है। इस सबको धूर्तता की पराकाष्टा कहा जाये तो कोई अत्युक्ति नही होगी।

 महाराष्ट्र में जो कुछ यह घटा है उसने कुछ बुनियादी सवाल भी खड़े किये हैं। यह सवाल उठता है कि जब शिवसेना की शर्त न मानकर भाजपा ने सरकार बनाने के इन्कार कर दिया था और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था तब ऐसी क्या विवशता आ खड़ी हुई कि सबुह-सुबह ही शपथ ग्रहण समारोह करवा दिया गया? क्या उस समय राजनेताओं से हटकर गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने भी यह जानकारी नहीं दी कि अजीत पवार के जिस पत्र को आधार बनाया जा रहा है वह वास्तव में ही सही नही है? गुप्तचर ऐजैन्सीयों की यही जिम्मेदारी होती है कि वह हर घटना की तथ्यों सहित सही जानकारी अपने वरिष्ठों के सामने रखें। यहीं पर एक और सवाल खड़ा होता है कि क्या गुप्तचर ऐजैन्सीयां सही जानकारी ही नहीं दे पायीं या फिर उनकी जानकारी को नजरअन्दाज किया गया। इसमें जो भी स्थिति रही हो वह देश के लिये हितकर नही हो सकती यह स्पष्ट है। क्योंकि ऐजैन्सी का आकलन गलत होना या उसे नजरअन्दाज कर दिया जाना देश की सुरक्षा के लिये हानिकारक  हो सकता है। यदि यह मान लिया जाये कि ऐजैन्सियों का आकलन सही था लेकिन उसे राजनैतिक आकाओं ने अपने स्वार्थों के कारण नहीं माना तो इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अब राजनीतिक नेतृत्व अहंकार में आ चुका है और नेतृत्व का अहंकार संगठन और राष्ट्र दोनों के लिये कालान्तर में नुकसान देह साबित होता है।
महाराष्ट्र में जो कुछ घटा है उसकी समीक्षा एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में की जानी आवश्यक है क्योंकि इस समय देश एक गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। विकास दर का आकलन अब पांच प्रतिशत से भी नीचे आ गया है जिस मुद्रा लोन योजना के माध्यम से बड़ा सपना संजोया गया था कि एक घण्टे में एक करोड़ का लोन देकर देश का कायाकल्प हो जायेगा वह योजना एनपीए का सबसे बड़ा आंकड़ा हो गया है क्योंकि 3.63 करोड़ खाते डिफाल्ट हो गये हैं। आर्थिक स्थिति को सुधारने का सरकार का हर उपाय असफल हो गया है। स्थिति एक ऐसे मोड़ पर पहंुच गयी है जहां हर व्यक्ति इससे व्यक्तिगत तौर पर प्रभावित होना शुरू हो गया है। यह वह आम आदमी है जिसके पास कोई नियमित आय किसी वेतन, पैन्शन या दुकान से नही है और इसकी संख्या 80% से भी अधिक है। इसके लिये राममन्दिर, हिन्दु-मुस्लिम, तीन तलाक और धारा 370 से बड़ा सवाल उसकी रोज़ी-रोटी हो जाती है। जब यह आदमी प्रभावित होता है तब यह बिना किसी दल और नेतृत्व के अपनी नाराज़गी सत्ता के खिलाफ मतदान करके अपनी नाराज़गी प्रकट करता है। हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम इसी स्थिति का प्रतिफल है। इसी का परिणाम है कि महाराष्ट्र में एकदम विरोधी विचारधाराओं के लोगों को इकट्ठा होना पड़ा है। आज हिन्दुत्व को एक राजनीतिक ऐजैण्डे के रूप में लेने के स्थान पर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ के रूप में लेना होगा।
 महाराष्ट्र जहां 288 सदस्यों के सदन में 176 सदस्यों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हों वहां पर यह लोग सीबीआई और ईडी के खौफ को दरकिनार करके इकट्ठे होने को बाध्य हो गये हों तो ऐसी स्थिति को राजनीति में नये समीकरणों की आहट के रूप में लेना होगा। क्योंकि पिछले कुछ समय में जो कुछ याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में आयी हैं वह सीधे रूप में नये उभरते जन सरोकारों और जनाक्रोश की ही अभिव्यक्ति हैं। एक जनहित याचिका में विधायकों/सांसदो को पैन्शन दिये जाने का विरोध किया गया है। एक याचिका में राजनीति दलों द्वारा आपराधिक मामला झेल रहे व्यक्ति को चुनाव में उम्मीदवार न बनाये जाने के लिये चुनाव आयोग से इस संद्धर्भ में नियम बनाने की मांग की गयी है। अश्वनी उपाध्याय की इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीन माह में जवाब मांगा है। एडीआर और कामन काज की याचिका में पिछले लोकसभा चुनावों में 347 लोकसभा क्षेत्रों में वीवी पैट और ईवीएम  में आयी विसंगतियों पर कुछ स्थायी प्रावधान बनाये जाने की मांग करते हुए कई और गंभीर विषयों पर ध्यान आकर्षित किया गया है। बीस लाख ईवीएम मशीनों के गायब होने पर पहले ही याचिकाएं लंबित चल रही हैं। इन सारी याचिकाओं में उठाये गये मुद्दे आने वाले दिनो में सार्वजनिक चर्चा का विषय बनेंगे यह तय है। यह मुद्दे और देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति दोनो का सांझा प्रभाव राजनीति में नये समीकरणों का कारक बनेगा यह निश्चित है और महाराष्ट्र को इसका पहला प्रयोग माना जा सकता है।

 

 

धूर्तता और धोखे के सहारे राजनीति कब तक

राजनीति संभावनाओं का पिटारा और धूर्तता का अन्तिम पड़ाव होती है यह महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने एक बार फिर प्रमाणित कर दिया है। चुनाव पूर्व शिवसेना और भाजपा ने गठबन्धन करके चुनाव लड़ा तथा बहुमत हासिल किया। लेकिन जब सरकार बनाने की बात आयी तब शिवसेना ने अढ़ाई वर्ष उनका भी मुख्यमन्त्री बनाये जाने की बात रखी जिसका भाजपा ने विरोध किया। शिवसेना ने भाजपा पर झूठ बोलने का आरोप लगाया और भाजपा ने इस आरोप का जवाब देने की बजाये राष्ट्रपति शासन लागू करवा दिया। परिणामस्वरूप गठबन्धन टूट गया और लगा कि भाजपा शायद इस बार सिद्धान्त की राजनीति करने जा रही है क्योंकि उसने साफ कहा था कि उनके पास बहुमत का आंकड़ा नही है। इसी के साथ यह भी कहा था कि जिसके पास आंकड़ा हो वह सरकार बना ले। अन्यों को सरकार बनाने के लिये स्वभाविक था कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस सब आपस में मिलकर सरकार बनाये। इसके लिये प्रयास शुरू हुए तीनों दलों में सहमति बनी और संयुक्त रूप से तीनों दलों द्वारा राज्यपाल को पत्र सौंपने की स्थिति आ गयी। लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया था कि अब तीनो दलों की ही सरकार बनने जा रही है तभी रात को एनसीपी के घर में सेंध लगाकर अजीत पवार को तोड़ा गया। अजीत पवार ने एनसीपी विधायकों के उन हस्ताक्षरों को राज्यपाल को सौंपा जो उन्होंने बैठक में आने की उपस्थिति के नाम पर किये थे। सुबह भी बैठक के नाम पर अजीत ने विधायकों को बुलाया और सीधे राजभवन ले गया। जितने में यह विधायक इस खेल को समझ पाते उतने में शपथ ग्रहण ही संपन्न हो गया। यह सब तीन विधायकों ने शरद पवार के साथ एक पत्रकार वार्ता में कहा है। अजीत पवार को एनसीपी से निकाल भी दिया गया है। शरद पवार ने कहा कि सबकुछ जानकारी में था। इसमें सच क्या है इसको बाहर आने में समय लगेगा। लेकिन जो कुछ अजीत ने किया है वह राजनीतिक धूर्तता ही कहलाता है।
भाजपा ने जो कुछ किया है क्या उसे राजनीतिक संभावना कहा जा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि एनसीपी के साथ सरकार बनना तब राजनीतिक संभावना माना जाता यदि उसके विधायक खुलेआम शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होते और इस आश्य का वाकायदा सार्वजनिक ब्यान जारी करके आते। लेकिन ऐसा नही हुआ है इस गणित में भी यह आचरण धूर्तता में ही आता है। लेकिन इस सब में यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि अजीत पवार को यह सब क्यों करना पड़ा और येनकेन प्रकारेण सरकार बनाना भाजपा की विवशता क्यों थी। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे जिसमें हरियाणा में सारे दावे के बावजूद भाजपा को सरकार बनाने का बहुमत नही मिल पाया। अब झारखण्ड के चुनाव में एलजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया है। यह सब राजनीतिक संद्धर्भो में इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मई में हुए लोकसभा चुनावों में मिले प्रचण्ड बहुमत के यह सब एकदम उल्ट है। इसपर भाजपा का चिन्तित होना स्वभाविक है। इस चिन्ता के निराकरण के लिये उसे अपने प्रबन्धकीय कौशल का ही संदेश देना राजनीतिक बाध्यता बन जाती है।
 लेकिन इसी सब में यह सवाल फिर अपनी जगह खड़ा रह जाता है कि महाराष्ट्र में घटे पंजाब एण्ड महाराष्ट्र बैंक प्रकरण में प्रदेश के करोड़ों लोगों का पैसा डूब गया है। पन्द्रह लोगों ने अपनी जान गंवा दी है। इस प्रकरण की जांच में भाजपा से ही ताल्लुक रखने वाले नेताओं की गिरफ्तारीयां हुई हैं। इसी बैंक के प्रकरण में अजीत पवार का नाम आया है। इस प्रकरण की जांच चल ही रही है। ऐसे में यह सीधा संदेश जाता है कि अजीत ने इस प्रकरण की जांच में आने वाली आंच से बचने के लिये यह पासा बदल लिया है। इससे पहले भी कई राज्यों के ऐसे नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं जिनके खिलाफ ईडी और सीबीआई में जांच चल रही थी। इसलिये आज राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा करना कि वह सिद्धान्त की राजनीति करेंगे और कम से कम भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं आने देंगे एकदम गलत होगा। महाराष्ट्र का सारा खेल अप्रत्यक्ष में इसी भ्रष्टाचार के गिई घूम रहा है लेकिन इस खेल का सबसे भयानक पक्ष यह है कि इसमें लोकतान्त्रिक परम्पराओं की बलि दी जा रही है और जब यह प्रंसग शीर्ष अदालत तक पंहुच जाते हैं तब इसमें न्यायपालिका भी कई बार एक पक्षकार जैसा ही आचरण कर जाती है। अब यह प्रकरण भी शीर्ष अदालत में जा पहुंचा है। शीर्ष अदालत ने मामले को गंभीर मानते हुए रविवार को ही सुनवाई करके इसमें सभी पक्षों को नोटिस जारी करके सोमवार को सुनवाई जारी रखने का आदेश दिया है। कर्नाटक में भी इसी तरह की परिस्थितयां बनी थी और शीर्ष अदालत ने उसमें येदुरप्पा को बहुमत साबित करने का समय सीमित कर दिया था। शीर्ष अदालत ने बहुमत के दावे के आधार के प्रमाण तलब कर लिये हैं।
आज जो कुछ यह घट रहा है और 2014 के बाद तो इसमें जिस तरह के बढ़ौत्तरी हुई है उसके परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि ऐसा कब तक चलता रहेगा और क्या इसको रोका नही जा सकता है। आज की राजनीति एकदम सत्ता होकर ही रह गयी है। यदि आपके पास सत्ता है तो आप राजनीति में प्रसांगिक हैं अन्यथा नहीं फिर यह सत्ता केवल पैसे के बल पर ही हासिल की जा सकती है। इस पैसे के लिये राजनेता को या तो स्वयं उद्योगपति होना पड़ता है या फिर उद्योगपति का पक्षकार। आज सारी राजनीति इसी के गिर्द केन्द्रित होकर रह गयी है क्योंकि प्रत्यक्ष सत्ता के लिये चुनाव की सीढ़ी चढ़कर आना पड़ता है और हर बार बढ़ते चुनाव खर्च से यह सीढ़ी ऊंची ही होती जा रही है। यही खेल भ्रष्टाचार को अंजाम देता है। ऐसे में जबतक चुनाव को खर्च से मुक्त नही किया जाता तब तक सत्ता के राजनेता को भ्रष्ट होने से नहीं बचाया जा सकता है। मेरा मानना है कि चुनाव को खर्च से मुक्त किया जा सकता है। इसके लिये एक व्यवहारिक मुहिम छेड़ने की आवश्यकता है। इसके लिये क्या किया जा सकता है इसकी चर्चा आगे करूंगा।

राजनीति के बाद पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के संकट में

क्या आज की पत्रकारिता विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही है। यह सवाल राष्ट्रीय प्रैस दिवस के अवसर पर सूचना एवम् जन संपर्क विभाग हिमाचल सरकार द्वारा इस संद्धर्भ में आयोजित एक कार्यक्रम संबोधित करते हुए मुख्यमन्त्री जयराम के संबोधन से उभरा है। मुख्यमन्त्री ने अपने संबोधन में यह स्वीकारा कि आज की राजनीति अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। इस स्वीकार के साथ ही मुख्यमन्त्री ने उसी स्पष्टता के साथ ही पत्रकारों और पत्रकारिता को भी यह नसीहत दी कि वह तो अपनी विश्वसनीयता बचाये रखने का प्रयास करें। मुख्यमन्त्री पिछले पच्चीस वर्षों से सक्रिय राजनीति में है इसलिये उनके इस कथन को एक ईमानदार स्वीकारोक्ति के साथ ही गंभीरता से लेना होगा। राजनीति और पत्रकारिता सामाजिक संद्धर्भों में एक दूसरे के पूरक हैं और इसी नाते एक -दूसरे के ह्रास के लिये भी बराबर के जिम्मेदार हैं। यह सही है कि आज की राजनीति पर ‘‘धूर्तता का अन्तिम पड़ाव’’ होने की कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है और इसी का परिणाम है कि संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक में अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर राजनीतिक दल अपराधियों को ‘‘माननीयों’’ बनवाने में बराबर का भागीदार है। एक तरफ यह भागीदारी हर चुनाव के बाद बढ़ रही है तो दूसरी ओर हर दल अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी जीरो टालरैन्स की प्रतिबद्धता भी लगातार दोहराता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी 2014 में यह घोषणा की थी कि वह संसद को अपराधियों से मुक्ति दिलायेंगें प्रधानमंत्री के इस दावे को सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह आदेष पारित करके अपना समर्थन दिया था कि  ‘‘माननीया के मामलों का एक वर्ष के भीतर निपटारा किया जाये’’। लेकिन प्रधान और सर्वोच्च  न्यायालय दोनो ही इस संद्धर्भ में पूरी तरह असफल हुए हैं। जब जब यह सब व्यवहारिक रूप में सामने आयेगा तो हर संवदेनशील ईमानदार व्यक्ति को यह कहना और मानना ही पड़ेगा कि सही में राजनीति अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है।
 अब पत्रकारिता भी विश्वसनीयता के इसी संकट से गुजर रही है। पत्रकारिता के इस संकट का सबसे बड़ा कारण यह है कि आज अधिकांश समाचार पत्र और न्यूज चैनल अंबानी -अदानी जैसे बड़े उद्योग घरानों की मलकीयत हो गये हैं। पत्रकार इनका नौकर होकर रह गया है क्योंकि उसे मालिक की नीयत और नीति दोनो की ही अनुपालना करने की बाध्यता हो जाती है। और उद्योग के हित सीधे सरकार से जुड़े ही नहीं बल्कि पोषित होते हैं। उद्योग घरानों को सरकार से अपना एनपीए खत्म करवाना होता है। अपनी ईच्छानुसार अपनी कंपनी को दिवालिया घोषित करवाना होता है। पत्रकार यह सब जानकारी रखते हुए इसे मालिक हित में जनता के साथ सांझी नही कर पाता है। यहीं से उसकी विश्वसनीयता का संकट शुरू हो जाता है क्योंकि यदि वह मालिक सरकार और नौकरशाह के नापाक गठजोड़ को जनता के सामने रखने का साहस दिखाता है तो इसके लिये उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ता है। सरकारें भी ऐसे कड़वे सच को स्वीकारने का साहस नही रखती है बल्कि उनका अपना दमनचक्र शुरू हो जाता है। ऐसे में पत्रकार के पास अपनी दशा-दिशा पर चिन्तन मनन करने का अवसर ही नही रह जाता है। इस तरह के चिन्तन मनन का अवसर प्रैस दिवस के माध्यम से मिलता था।  लेकिन आज जब प्रैस दिवस पर इस चिन्तन मनन के स्थान पर क्रिकेट मैच पत्रकारों की प्राथमिकता हो जायेगा तब यह प्रैस दिवस न होकर प्रैसरात्रि बन जायेगी।   
 क्योंकि आज की पत्रकारिता का यह सरोकार ही नही रह गया है कि ‘‘गर तोप मुकाबिल होतो अखबार निकालो’’ राष्ट्रीय प्रैस दिवस का आयोजन राष्ट्रीय प्रैस परिषद राज्य सरकारों के सहयोग से करवाती है और प्रैस की आज़ादी सुनिश्चित करना उसका दायित्व रहता है। लेकिन क्या प्रैस परिषद यह दायित्व निभा पा रही है। अभी जब जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाई गयी और मीडिया पर भी कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये तब इन प्रतिबन्धों को कश्मीर टाईमज़ ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। कश्मीर टाईमज़ की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रैस परिषद से भी जवाब मांगा था। प्रैस परिषद ने अपने जवाब में इन प्रतिबन्धों को जायज़ ठहराया। इस पर जब हंगामा हुआ तब परिषद ने अपना स्टैंड बदला इसी के बाद उत्तर प्रदेश में कुछ घटनाएं सामने आयी जहां पुलिस ने पत्रकारों के खिलाफ कारवाई करते हुए गिरफ्तारीयां तक की। यह मामले भी शीर्ष अदालत तक पहुंचे। हिमाचल में भी कुछ मामले नालागढ आदि में सामने आये थे जहां पुलिस ने कारवाई की थी और उसके खिलाफ प्रदर्शन हुए। इसी कड़ी में हिमाचल का वह मामला जिसमें सोशल मीडिया में किसी गुमनाम कार्यकर्ता का पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार के नाम लिखा पत्र जब वायरल हुआ तब उस पत्र में लगाये गये आरोपों की कोई प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष जांच करवाये बिना ही उसमें पुलिस कारवाई को अजांम दे दिया गया और अभी तक यह जांच चल रही है।
यह सारे मामले ऐसे हैं जहां सरकार और पत्रकार/पत्रकारिता का सीधा रिश्ता संद्धर्भ मे आता है। सरकार और जनता के बीच संबंध और संवाद की भूमिका अदा करता है पत्रकार। कुछ हद तक यही भूमिका सरकार का गुप्तचर विभाग भी अदा करता है। दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि गुप्तचर अपनी सारी जानकारी फाईल में बन्द करके सरकार के सामने रखता है जबकि पत्रकार उसी जानकारी को जनता के सामने रखता है। जब जनता में सीधे रखी गयी जानकारी सरकारी दावों और वायदो से हटकर होती है तो उस पत्रकार को सरकार का विरोधी करार दे दिया जाता है उसकी बेबाक आवाज को दबाने का प्रयास किया जाता है और यहीं से विश्वसनीयता का सरोकार खड़ा हो जाता है। अभी पिछले दिनों महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनावों में जीत के जो दावे और आंकड़े सत्तापक्ष जनता में रख रहा था उन्हीं आंकडा़े और दावों पर ही मीडिया अपनी मोहर लगाता जा रहा था लेकिन जब चुनाव के परिणाम सामने आये तो यह आंकड़े और दावे सभी हवा-हवाई सिद्ध हुए। इन अनुमानों का गलत साबित होना राजनीतिक दलों से ज्यादा मीडिया की साख पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता अपने आप सवालों में आ जाती है।
आज की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में राजनीति के बाद न्यायपालिका और पत्रकारिता की विश्वसनीता पर प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गये हैं। यही आने वाले समय का सबसे बड़ा संकट होने वाला है। ऐसे समय में एक मुख्यमन्त्री का बेबाक स्वीकार अपने में प्रशंसनीय है। लेकिन इसी के साथ मुख्यमन्त्री से ही यह उम्मीद भी की जानी चाहिये कि वह अपने राज्य में तो राजनीति और पत्रकारिता दोनों की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिये ईमानदारी से प्रयास करेंगे।

अब तो धर्म की राजनीति पर विराम लगना चाहिये

क्या अब धर्म और मन्दिर-मस्जिद की राजनीति पर विराम लग जायेगा? यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद आयी कुछ प्रतिक्रियाओं के परिदृष्य में उभरता है। संघ परिवार के कुछ घटकों ने इस फैसले का स्वागत इस अन्दाज में किया है कि यह उनकी एक बहुत बड़ी जीत है। इस स्वागत के अन्दाज से यह आशंका उभरना स्वभाविक है कि क्या आन वाले समय में काशी-मथुरा जैसे अन्य स्थलों को लेकर भी इसी तरह का कुछ देखने को मिल सकता है। क्योंकि पिछले दिनों जब भाजपा नेता डा. स्वामी शिमला आये थे तब उनकी पत्राकार वार्ता में इसी तरह के संकेत उभरे थे। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मुस्लिम नेता औबैसी ने अपनी प्रतिक्रिया में तथ्यों पर आस्था की जीत करार दिया है। कुछ मुस्लिम हल्कों में इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका तक दायर करने की बातें की जा रही हैं। राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मुद्दा देश के लिये कितना संवदेनशील रहा है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1992 में जब यह मस्जिद गिरायी गयी थी तब चार राज्यों की सरकारें इसकी भेंट चढ़ गयी थीं और वहां पर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था।
 यह मसला आज भी उतना ही संवदेनशील है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिन पांच माननीय न्यायधीशों ने यह मामला 41 दिनों तक सुना और इस पर 1045 पन्नो का फैसला दिया है इस फैसले का लेखक कौन सा न्यायधीश है इसे गोपनीय रखा गया है जबकि आज तक यह प्रथा रही है कि जब भी कोई मामला किसी पीठ के समक्ष होता है तो उस पर फैसला लिखने की जिम्मेदारी कोई एक जज ही निभाता है। यही नहीं इसी फैसले में एक न्यायधीश ने सौ पन्नों का अनुबन्ध लिखा है लेकिन उस जज का नाम भी सार्वजनिक नहीं किया गया है। फैसला लिखने में ही इतनी गोपनीयता बरती जाना मामले की संवदेनशीलता को ही सामने लाता है। इस मामले में तीन पक्षकार थे रामलल्ला विराजमान, सुन्नी सैन्ट्रल वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा/ विवाद का विषय था कि विवादित स्थल 2.77 एकड़ जमीन पर मालिकाना हक किसका है। इसमें निर्मोही अखाड़ा की याचिका को ‘‘तय समय के बाद आयी’’ कह कर खारिज कर दिया गया है।  2.77 एकड़ पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का भी  मालिकाना हक नही माना गया है। विवादित स्थल पर रामलल्ला विराजमान के मालिकासना हक को मानते हुए शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिये हैं कि वह तीन माह के भीतर यहां पर मन्दिर निर्माण के लिये एक व्यापक योजना तैयार करे। यह योजना 1993 के अयोध्या विशेष एरिया अधिग्रह अधिनियम की धारा 6 और 7 के प्रावधानों के अनुरूप तैयार की जायेगी और इसी में इस निर्माण और फिर उसके संचालन के लिये एक ट्रस्ट बनाने के निर्देश दिये गये हैं। इस ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़ा को भी उचित प्रतिनिधित्व देने के निर्देश है। शीर्ष अदालत ने संविधान की धारा 142 के तहत प्रदत ‘‘राजाज्ञा’’अधिकारों का प्रयोग करते हुए सरकार को निर्देश दिये हैं कि सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी मस्जिद बनाने के लिये पांच एकड़ भूमि किस प्रमुख स्थान पर उपलब्ध करवाये। इस तरह शीर्ष अदालत ने निर्मोही अखाड़ा को ट्रस्ट में शामिल करने और सुन्नी वक्फ बोर्ड को पांच एकड़ भूमि दिये जाने के आदेश पारित करके इस मामले से जुड़े इन पक्षकारों के हितों की भी पूरी -पूरी रक्षा की है। पिछले 134 वर्षों से अदालतों के बीच फंसे रहे इस मामले का इससे अच्छा अदालती फैसला और कुछ नहीं हो सकता था यह सबको मानने से एतराज नही होना चाहिये।
इस समय जिस तरह की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां देश की हैं उनमें शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार को इस निर्माण के लिये ट्रस्ट बनाने की जिम्मेदारी देकर बहुत बड़ा और अच्छा काम किया है। क्योंकि इसी सरकार पर यह आरोप लग रहे हैं कि वह देश को हिन्दु राष्ट्र बनाना चाहती है। भारत एक बहुविद्य देश है और यह विविधता ही इसकी विशेषता है। इसी विविधता को ध्यान में रखकर संविधान निर्माताओं ने देश को धर्म निरपेक्ष रखा है। क्योंकि यहां पर कई धर्माें और जातियों के लोग रहते हैं इसीलिये सरकार किसी एक ही धर्म की पैरोकार होकर काम नहीं कर सकती। आज इस धर्मनिरपेक्ष सौहार्द को बनाये रखने की जिम्मेदारी सरकार की है। इस मन्दिर निर्माण के लिये ट्रस्ट बनाये जाने के निर्देश एक तरह से सरकार की परख की कसौटी सिद्ध होंगे। यह सरकार को ही सुनिश्चित करना होगा कि आने वाले दिनों में किसी और धार्मिक स्थल को लेकर इस तरह का कोई विवाद न उभरने पाये। क्योंकि इस तरह के विवादों का असर जब देश की आर्थिकी पर पड़ता है तब आम आदमी के लिये मन्दिर और मस्जिद बहुत गौण हो जाते हैं। उस समय उसके लिये रोज़ी-रोटी ही सबसे प्रमुख होते हैं और जो भी शासन व्यवस्था इस पर प्रश्नचिन्ह लगने की स्थितियां पैदा करती हैं लोग उसके खिलाफ बिना नेतृत्व के भी खड़े हो जाते हैं महाराष्ट्र और हरियाणा में जो भी घटित हुआ है वह इसी तरह की कार्यशैली का परिणाम है। इसलिये अब धर्म और मन्दिर की राजनीति पर विराम लग जाना चाहिये।

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