Friday, 19 September 2025
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तालाबन्दी-जवाब मांगते कुछ सवाल

 

वर्ष 2009 में एच 1 एन 1 स्वाईन फ्लू विश्व में फैला था। अप्रैल 2009 में इसका पहला मामला कैलिफोर्निया में एक दस वर्ष की लड़की में सामने आया और जून में इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया गया था। सैन्टर फार डजीज कन्ट्रोल एण्ड प्रिवेन्शन (सीडीसी) के मुताबिक यूएसए में ही करीब 61 मिलियन लोग इससे प्रभावित हुए थे जिनमें से 12469 की मौत हो गयी थी। विश्व भर में इस महामारी से करीब 5,75,400 लोगों की मौत होने का अनुमान है। अप्रैल 2009 में शुरू हुई यह महामारी अगस्त 2010 में रूकी थी। लेकिन भारत में इसका प्रकोप वर्ष 2015 से फरवरी 2020 तक ज्यादा रहा। 2015 में इसके 42592 मामले सामने आये जिनमें 2992 की मौत हो गयी। 2017 में 38811 मामले रिपोर्ट हुए और 2270 की मौत। 2018 में 15266 मामले और 1128 मौतें 2019 में 28798 मामले और 1218 की मौत। 2020 में फरवरी तक 1132 नये मामलें और 18 मौत का आंकड़ा रहा है। एनसीडीसी के मुताबिक हिमाचल में ही फरवरी 2019 में 270 परीक्षण किये गये थे जिनमें 86 मामले पाॅजिटिव पाये गये थे। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने प्रदेश की इस स्थिति पर अधिकारियों से चर्चा करके 12 बैड की सुविधा वाला एक आईसोलेशन वार्ड और 4 बैड का एक और आईसीयू की उपलब्धता सुनिश्चित करने के आदेश दिये थे। 2020 में फरवरी तक इसके 11 पाॅजिटिव मामले सामने आये जिनमें से 9 शिमला से तथा एक-एक कांगड़ा और मण्डी से रहा है। यह जानकारी सीडीसी के रिकार्ड पर आधारित है सार्वजनिक है। स्वाईनफ्लू के लक्षण और कोरोना के लक्षण एक जैसे हैं। स्वाईनफ्लू भी इन्फैक्शन से फैलता है और इसके कारण 8000 से अधिक मौतें हो चुकी है।
स्वाईनफ्लू के इन आंकड़ों और आज के कोरोना के आंकड़ों को एक साथ रखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वाईनफ्लू की गंभीरता कोरोना से कम नहीं थी। वह भी उतना ही मारक रहा है जितना कोरोना है। लेकिन स्वाईनफ्लू के समय कोई तालाबन्दी नही की गयी थी। कोई कफ्र्यू नही लगाया गया था। क्या उस समय शासन प्रशासन ने स्वाईनफ्लू की गंभीरता का आकलन करने में कोई चूक की थी? क्या 8000 मौतें हो जाने के बाद इसकी भयानकता समझ आयी है? स्वाईनफ्लू के रोगियों का ईलाज और उनकी देखभाल करने वाले डाक्टर तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मी मास्क पहनने, सोशल डिस्टैसिंग रखने तथा सैनेटाईजेशन की अनुपालना करते थे। लेकिन उस समय समाज में इसका भय आज की तरह प्रभावित और प्रसारित नही किया गया था। आज भी बुहत सारे डाक्टर और कई पूर्व वरिष्ठ नौकरशाह यह कह रहे हैं कि इससे इस तरह आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन जिस तरह से तालाबन्दी लागू की गयी और उनकी अनुपालना सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी पुलिस को दी गयी तथा अवेहलना करने वालों के खिलाफ आपराधिक मामले बनाये गये हैं उससे सारी स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि कोई किसी की खुशी और गम में शरीक नही हो पा रहा है। सोशल डिस्टैंसिंग मानसिक डिस्टैसिंग बन गयी है।
24 मार्च को तालाबन्दी घोषित की गयी। उस समय किसी को भी इतना समय नही मिला कि कोई आवश्यक वस्तुएं जुटाकर रख पाता। ‘जो जहां है वह वहीं रहे’ का नियम लागू हो गया। करोडो़ लोग एक झटके में बेकार और बेरोज़गार होकर बैठ गये क्योंकि एक छोटी दुकान से लेकर बड़े से बड़ा कारखाना तक बन्द हो गया। लोगों को खाने का संकट खड़ा हो गया। लोग अपने घरों को वापिस जाना चाहते थे लेकिन अनुमति नही दी गयी। क्योंकि एक दूसरे के साथ मिलने से हर एक के संक्रमित होने का व्यक्तिगत डर बैठ गया था। इसी समय जब दिल्ली के निजा़मुद्दीन मरकज़ में तबलीगी समाज का आयोजन सामने आया तो उससे स्थिति की गंभीरता और बढ़ गयी। इन लोगों को इसका वाहक करार दे दिया गया। आंकडे़ इस ढंग से सामने आये की इन्ही के कारण कोरोना फैल रहा है। सोशल मीडिया पर ऐसे-ऐसे विडियोज़ वायरल हो गये जिनसे पूरा मुस्लिम समाज कटघरे में खड़ा कर दिया गया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसको लेकर कड़ी प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं। लेकिन इस सबके वाबजूद देश के लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया। सरकार के दिशा निर्देशों पर कोई एतराज नही उठाया। लेकिन अब जब सरकार ने प्रवासी मजदूरों और छात्रों को अपने घरों अपने राज्यों में लौटने की राहत दे दी तब पहली बार सरकार के फैसले पर सवाल उठे हैं।
तालाबन्दी से करोड़ो लोग प्रभावित हुए हैं। कोरोना की जो वस्तुस्थिति 24 मार्च को थी आज उसमें कोई सुधार नही हुआ है। तालाबन्दी के वाबजूद इसके मामले बढे़े हैं। ईलाज के नाम पर मास्क पहनना, सोशल डिस्टैसिंग रखना, सैनेटाईज़र का उपयोग करने का ही परेहज उपलब्ध है। आज सरकार ने इन मज़दूरों को आने जाने की अनुमति दे दी है लाखों का आना जाना हो भी गया है। एक ही शर्त रखी गयी है कि आने जाने वाले का परीक्षण किया जाये और संगरोधन में रखा जाये। बहुत सारे भाजपा नेताओं ने ही सरकार के इस फैसले पर सवाल भी खडे किये हैं। क्योंकि इतने सारे लोगों का परीक्षण करना और उनको संगरोधन में रख पाना व्यवहारिक रूप से ही संभव नही है। क्योंकि आज देश में परीक्षण के लिये जितने भी उपकरण उपलब्ध है यदि उन सबका इस्तेमाल दिन में तीन शिफ्टों में भी किया जाये तब एक टैस्ट करने में कितना समय लगेगा। इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है फिर अब तक 40% मामले तो ऐसे पाये गये हैं जिनमें प्रत्यक्ष लक्षण रहे ही नही है। इसलिये आज जब इन मजदूरों को आने जाने की अनुमति दे दी गयी है तब इनके संक्रमित होने इनसे संक्रमण फैलने की संभावना नही बनी रहेगी? क्या सरकार को इसका कोई अहसास ही नही हो पाया है या फिर सोच समझ कर यह फैसला लिया गया है। क्या इस फैसले से सरकार स्वयं ही तबलीगी समाज की कतार में ही नही खड़ी हो जाती है। यह सवाल लम्बे समय तक सरकार की नीयत और नीति पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता रहेगा।
अब सरकार ने आरोग्य सेतु ऐप डाऊनलोड़ करना अनिवार्य कर दिया है। लेकिन इसके डाऊनलोड़ करने से आपका डाटा चोरी होने का डर है यह चेतावनी हिमाचल के डीजीपी ने दी है उन्होने इसको बडे़ सावधानी से डाऊनलोड़ करने की राय दी है। इस ऐप से आपके ऊपर निगरानी रखी जायेगी यह आशंका कांग्रेस नेता राहूल गांधी ने भी व्यक्त की है जिस पर रविशंकर प्रसाद ने कड़ा एतराज उठाया है। लेकिन पिछले दिनों सरकार ने टैलिकाॅम कंपनीयों से मोबाईल कालिंग का रिकार्ड मांगा था। इस पर शायद एयरटेल ने एतराज जताया था कि वह ऐसा किस नियम के तहत कर सकते हैं। उसी दौरान सोशल मीडिया में यह चर्चा उठी थी कि एक ऐसा ऐप तैयार किया जा रहा है जिसके माध्यम से संबंधित व्यक्ति के बारे में सारी जानकारी जुटा ली जायेगी जो एनपीआर के माध्यम से लेने का प्रयास किया जा रहा है। इस चर्चा का कोई खण्डन आज तक आया नही है और यह माना नही जा सकता कि सरकार को इसकी जानकारी न रही हो। आज सरकार ने प्रवासी मज़ूदरों के आने जाने में परीक्षण की शर्त लगाई है।  लेकिन जब इसी आग्रह की एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुई थी तब उसकी सुनवाई के समय शीर्ष अदालत ने उसे यह कहकर नही सुना था कि इसमें राजनीति की गंध आ रही है। इस पर बहुत सारे हल्कों पर प्रतिक्रियाएं भी उभरी थी क्योंकि इसी याचिका में पीएम केयर फण्ड पर भी सवाल उठाया गया था। आज देश की आर्थिक स्थिति एक प्रलय के मुहाने पर पहंुच गयी है। यह चेतावनी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रहमण्यम ने दी है। आरटीआई के माध्यम से यह सामने आ चुका है कि कैसे अब तक 6.60 लाख करोड़ के ऋण बट्टे खाते में डाले जा चुके हैं। इन खुलासों से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब स्वाईनफ्लू के दौर में तालाबन्दी जैसे कदमों की आवश्यकता नही समझी गयी थी तो अब कोरोना के समय क्यों?

घातक होगा उग्र हिन्दुवाद

भारत के करोड़ों लोग विदेशों में अपनी रोज़ी-रोटी के लिये गये हुए हैं। विदेशों में बैठे यह लोग वहां पर हिन्दु, मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई होकर नहीं बल्कि भारतीय होकर रह रहे हैं। वहां की सरकारें भी इनके साथ जाति और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नही करती क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। हमारे संविधान की धारा 14 से 18 तक में विस्तार से यह दर्ज है कि यहां पर जाति, धर्म समुदाय और लिंग के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नही किया जायेगा। सबके साथ समानता का व्यवहार किया जायेगा। संविधान की अनुपालना सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है। लेकिन इस समय जब भारत ही नहीं पूरा विश्व कोरोना महामारी के संकट से जूझ रहा है उस समय धर्म के आधार पर भेदभाव किये जाने के आरोप लगना एक और भी बडा़ संकट हो जाता है। भेदभाव के इन आरोपों का आक्षेप जब सरकार तक जा पहुंचे और सरकार की ओर से उसका कोई खण्डन न आये तो स्थिति की गंभीरता कई गुणा बढ़ जाती है क्योंकि यह आशंका हो जाती है कि यह भेद-भाव किसी बडे़ ऐजैण्ड का ही कोई हिस्सा तो नही है।
कोरोना को लेकर सरकारी स्तर पर चिन्ताएं 14-15 मार्च को सामने आयी थी जब शैक्षणिक, धार्मिक और अन्य सार्वजनिक स्थलों को बन्द कर दिया गया था। 22 मार्च को प्रधानमन्त्री के आह्वान पर एक दिन के कफ्रर्यू की अनुपालना की गयी थी1 24 मार्च से पूरे देश में लाकडाऊन चल रहा है। कुछ राज्यों ने तो कफ्रर्यू तक लगा रखा है। सारी आर्थिक गतिविधियों पर पूरा विराम लगा हुआ है। विपक्ष भी इस आपदा में पूरी तरह सरकार के साथ खड़ा है। कहीं से यह सवाल नही उठ रहा है कि आर्थिक गतिविधियों को पूरी तरह बन्द कर देना संकट का हल कैसे हो सकता है। इस महामारी से लड़ने के लिये सरकार की तैयारियों पर कोई सवाल नही उठाया गया है। इस समय सरकार के साथ एक-जुटता से खड़े होना ही सबकी प्राथमिकता बनी हुई है। लेकिन इसी दौरान जब दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज में मुस्लिम समाज के तबलीगी समुदाय का एक सम्मेलन हुआ तक उस सम्मेलन के बाद तबलीगी समुदाय को ऐसे प्रचारित किया गया कि देश में शायद कोराना इन्ही के कारण फैला है। पूरे देश में तबलीगीयों को चिन्हित करने उन्हे पकड़ने की मुहिम शुरू हो गयी। सैकड़ो लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज कर लिये गये। सोशल मीडिया से लेकर इलैक्ट्रानिक मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इन्हें कोरोना बम और तालिबानी के संबोधन तक दे दिये। कई जगहों पर हिंसा तक हो गयी।
मीडिया के एक बड़े वर्ग में जब इस समुदाय के खिलाफ एक सुनियोजित प्रचार चल रहा था तब सरकार की ओर से इस प्रचार को रोकने के लिये कोई कदम नही उठाये गये। सरकार की इस तटस्थता के बाद सर्वोच्च न्यायालय में कुछ मुस्लिम संगठनों की ओर से एक याचिका दायर हुई। इस याचिका में ऐसे प्रचार के खिलाफ कारवाई करने और मीडिया को दिशा निर्देश जारी करने का आग्रह किया गया था। याचिका में पूरे दस्तावेजी प्रमाण संलग्न किये गये थे। लेकिन इस याचिका पर कोई विशेष कारवाई नही हुई । फेक न्यूज़ को लेकर कुछ दिशा निर्देश जारी हुए और प्रैस कांऊसिल आफ इण्डिया से भी याचिका में लगाये गये आरोपों पर जवाब मांग लिया गया है। इन आरोपों की प्रमाणिकता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है जब 17 अप्रैल को दैनिक जागरण ने यह खबर छापी की मेरठ के कैंसर अस्पताल ने यह नोटिस चिपका रखा है कि मुस्लिम रोगी तभी यहां आये जब उसे कोरोना नैगेटिव घोषित कर दिया गया हो। उसी दिन एक्सप्रैस के अहमदाबाद संस्करण में भी यह छपा कि अहमदाबाद के अस्पताल में भी हिन्दु और मुस्लिम के लिये अलग-अलग वार्ड बना दिये गये हैं और यह सरकार के निर्देशों के अनुसार हुआ है। इन समाचारों का कोई खण्डन नही आया। बल्कि 18 अप्रैल को भारत सरकार के संयुक्त सचिव ने अपनी दैनिक ब्रिफिंग में आकड़े रखते हुए यह बताया की 14378 मामलों में से 4291 मामले तबलीगी समाज से हैं। तमिलनाडू के 84% दिल्ली के 63% तेलंगाना के 79% उत्तर प्रदेश के 59% और आंध्रप्रदेश के 61% मामले तबलीगी से जुडे़ हैं। आकंडो के इस तरह के विवरण से यह और पुख्ता हो गया कि यही समाज इस बिमारी का एक मात्र कारण होता जा रहा है।
इन खुलासों के बाद मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जो नफरत का वातावरण बना है वह केवल भारत तक ही सीमित नही रहा है। बल्कि मुस्लिम देशो में बैठे कई उग्र हिन्दुवाद के समर्थक भारतीय, ईस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ घिनौने प्रचार में लग गये हैं। ईस्लामिक देशों के संगठनों ने इस प्रचार का कड़ा संज्ञान लिया है। बहुत सारे ऐसे दुष्प्रचारक अपनी पोस्टों में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का फोटो भी अपने साथ डालकर यह संकेत दे रहे हैं कि उन्हे प्रधानमन्त्री का आर्शीवाद प्राप्त है। वहां की सरकारों ने इसको गंभीरता से लिया है कि जो समर्थक यहां रोज़ी, रोटी कमाते हुए भी ईस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ ऐसा प्रचार कर रहे हैं वह अपने देश में क्या-क्या कर रहे होंगे । इन देशो में भीरतीयों के खिलाफ वातावरण बनना शुरू हो गया है। भारतीयों को वापिस भेजने की मांग उठनी शुरू हो गयी है। ऐसे एक दर्जन कट्टरवादीयों के खिलाफ कारवाई करते हुए उन्हे नौकरी से भी निकाल दिया गया है। संकेत और संदेश स्पष्ट है कि यदि मुस्लिमों के खिलाफ यह नफरत प्रचार बन्द न हुआ तो विदेशों में बैठे भारतीय गंभीर संकट में पड़ जायेंगे।

घातक होगा आर्थिक गतिविधियों को विराम देना

कोरोना का प्रकोप लगातार बड़ता जा रहा है क्योंकि इसका कोई प्रमाणिक ईलाज अब तक सामने नहीं आ पाया है। संक्रमण से यह बिमारी फैलती है यही पुख्यता जानकारी अब तक उपलब्ध है। इसलिये संक्रमण को कम करने के लिये (संगरो़धन) एक दूसरे से संपर्क में दूरी बनाये रखना ही सबसे बड़ा बचाव का उपाय रह गया है। शब्दकोष में संगरोधन का समय चालीस दिन कहा गया है। शायद इसी कारण से पहले 21 दिन की तालाबन्दी लागू की गयी और उसमें कोई अन्तराल दिये बिना 19 दिन के लिये आगे बढ़ा दिया गया। अब इसमें 20 अप्रैल को स्थिति का आकलन करके इसमें कुछ राहत देने पर विचार किया जायेगा। लेकिन यह बिमारी संक्रमण से ही फैलती है इसको लेकर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। क्योंकि एक डाक्टर विश्वस्वरूप राय चौधरी का एक विडियो सोशल मिडिया के मंचों पर वायरल हुआ है जिसमें यह दावा किया गया है कि यह वायरस उस तरह का घातक नही है जिस तरह का प्रचार किया जा रहा है। डा चौधरी ने दावा किया है कि उन्होने इस संबन्ध में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा हर्षवर्धन से भी 5 अप्रैल को विस्तार से बात की है। डा चौधरी के दावे का किसी भी ओर से कोई खण्डन नही आया है। बल्कि विश्व स्वास्थ्य संगठन और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्राफैसर जय भट्टाचार्य के आकलन भी इसी दावे की पुष्टि करते हैं। इस आकलन का अंग्रजी दैनिक टाईम्स आफ इण्डिया ने भी अपने 16 अप्रैल के संस्करण में प्रमुख्ता से जिक्र उठाया हुआ है। जो आंकड़े अब तक सामने आये हैं उनसे से भी कुछ अन्तः विरोध उभरे हैं। यह कहा गया है कि इसके 38.46% मामले वह है जो कभी किसी संक्रमित के संपर्क में आये ही नही है। न ही यह लोग कहीं बाहर गये हैं और ना ही कोई इनके पास आया है। यह भी आंकड़ा आया है कि मरने वाले अधिकतर वह लोग हैं जो अन्य बिमारियों से भी साथ ही पीड़ित थे। सामुदायिक संचरण के आकलन को भी गलती मान लिया गया है। इन आंकड़ो से यह स्पष्ट है कि अभी तक इसके फैलाव के कारणो पर भी एक राय नही बन पायी है। ऐसे में जब इसकी न तो कोई प्रमाणिक दवाई है और न ही फैलाव का कोई एक माध्यम ही चिन्हित हो पाया है तब यही इसका सबसे गंभीर पक्ष हो जाता है। क्योंकि तथ्य यह हैं कि जब पूर्ण तालाबन्दी घोषित की गयी थी तब देश में इसके केवल 550 मामले थे और  नौ लोगों की मौत हो चुकी थी। आज इसके कुल मामलों की संख्या  14000 से उपर हो गयी है और मरने वालों का आंकड़ा भी 400 से उपर पहुंच चुका है।
दूसरी ओर जब से तालाबन्दी चल रही है तब से हर तरह  की आर्थिक गतिविधि पर पूर्ण विराम लगा हुआ है। तालाबन्दी की घोषणा के साथ ही यह कह दिया गया था कि जो जहां है वह वहीं रूके। इसके कारण शहरों से लेकर गांव तक सभी प्रभावित हुए हैं। जो भी कामगार जहां भी जैसा भी काम कर रहा था उसका वह काम तुरन्त प्रभाव से बन्द हो गया। इसमें कामगारों को इतना समय नही मिल पाया कि वह अपने- अपने काम के स्थानों को छोड़ कर अपने गांव/शहरों में वापिस आ पाते जहां के वह स्थायी निवासी थे। जहां यह काम कर रह थे वहां इनके स्थायी निवास नही थे। न ही अब तक ऐसी कोई व्यवस्था ही है कि हर छोटे-बड़े उद्योगपति या दुकानदार जिसके पास भी एक-दो-चार स्थायी/अस्थायी काम करने वाले लोग हों उसे उनके आवास की सुविधा प्रदान करना भी अनिवार्यता हो। फिर जो लोग दैनिक आधार पर मज़दूरी आदि करके अपना गुज़ारा कर रहे थे उनका जब सारा रोज़गार ही बन्द हो गया तब उनके लिये तो दो वक्त का भोजन जुटाना भी कठिन हो गया है। इस तरह जो कुल लोग प्रभावित हुए हैं शायद उनमे से तो आधे लोग सरकारी आंकड़ो की गिनती में ही न हो। इनमें से अधिकांश ऐसे भी होंगे जिनके राशन कार्ड तक नही बने हैं। तालाबन्दी से सबसे ज्यादा प्रभावित यही वर्ग है जिसके पास आज खाने और रहने की कोई व्यवस्था नही है। ऊपर से जिस तरह की यह बिमारी है प्रचारित हो गई है उससे हर व्यक्ति मनौवैज्ञानिक तौर पर आशंकित और आतंकित हो गया है। संबद्ध प्रशासन हर व्यक्ति को आशंका की नज़र से देख रहा है।
ऐसी वस्तुस्थिति में जो महत्वपूर्ण सवाल आज खड़े हो गये हैं उनमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आर्थिक गतिविधियों की पूर्ण तालाबन्दी आवश्यक है? तालाबन्दी से करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं। करोड़ो ऐसे है जो अपनो और अपने स्थायी निवासों से एकदम पूरी तरह बेरोज़गार होकर बाहर बैठे हैं। यह लोग ऐसी बेकारी की हालत में अपने घरों को वापिस लौटना चाहते हैं। जब तालाबन्दी का पहला चरण 14 अप्रैल  को खत्म हो रहा था तब उसके पहले प्रधानमन्त्री ने राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों और अपने सहयोगियों से वस्तुस्थिति पर विचार विमर्श किया था। इस विमर्श के बाद यह सामने आया था कि शायद 14 के बाद रेल और हवाई यात्रा बहाल हो जाये। रेलवे और एयर कंपनीयों ने कई जगह टिकट बुक करने भी शुरू कर दिये थे। अब इन टिकटों को रद्द करके यह पैसा वापिस किया जा रहा है। रेलवे ने शायद 39 लाख टिकट बुक कर लिये थे। इस टिकट बुकिंग के कारण ही शायद बांद्रा और सूरत में यह मज़दूर लोग हजारों की संख्या में बाहर आ गये थे। मज़दूरों के बाहर आने पर जिस तरह का आचरण सरकार की ओर से सामने आया है उसमें रेलवे के उस पत्र को नज़रअन्दाज करना जिसमें प्रस्तावित यात्रा के बहाल होने का जिक्र किया गया था। इससे सरकार और प्रशासन की समझ पर गंभीर सवाल खड़े होते है। क्योंकि मज़दूरों के बाहर निकलने को बान्द्रा में जिस तरह से मीडिया के एक वर्ग ने मस्जिद के साथ जोड़ने का प्रयास किया और सूरत की घटना को एकदम नज़रअन्दाज किया उससे मीडिया की भूमिका के साथ ही सरकार की कार्यशैली पर भी गंभीर सवाल उठते हैं।
 दूसरा बड़ा सवाल उठता है कि आर्थिक गतिविधियों को बन्द रखना कहां तक उचित है। देश आर्थिक संकट से गुज़र रहा है यह तभी सामने आ गया था जब सरकार को आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ का रिजर्व लेना पड़ा था। उसके बाद दो बैंक फेल हो गये और यस बैंक को आरबीआई ने 70 हजार करोड़ का ऋण दिया। अब जब तालाबन्दी लागू की गई और सरकार ने 1.70 लाख करोड़ का राहत पैकेज दिया तब उसके बाद हर तरह के छोटे बड़े जमा पर ब्याज दरें घटा दी गयी। यह ब्याज दरें घटाने के बाद केन्द्र से लेकर राज्यों तक ने माननीयों के वेत्तन भत्तों में 30% की कटौती की। क्षेत्र विकास निधि भी दो वर्षों के लिये बन्द कर दी। कई राज्यों ने तो अपने कर्मचारियों के वेत्तन और पैन्शन में कटौती कर दी है। अब फिर रिजर्व बैंक ने पचास हजार करोड़ का निवेश करके बाजार को उभारने का फैसला लिया है। लेकिन जिस तरह से आर्थिक कार्यों पर विराम चला हुआ है उससे तो अन्ततः आर्थिक विकास दर शून्य से भी नीचे आने की संभावना खड़ी हो गयी है। करोड़ो लोग बेकार होकर घर बैठने को विवश हो गये हैं क्योंकि यह अभी तक अस्पष्ट है कि आर्थिक गतिविधियां कब और कितनी बाहाल हो पायेगी। यह तह है कि अगर लम्बे समय तक यह सब चलता रहा तो हालात बहुत ही कठिन हो जायेंगे। ऐसे में बिमारी के परहेज के साथ-साथ ही आर्थिक गतिविधियों को शुरू करना आवश्यक हो जाता है अन्यथा भूख और बिमारी अगर दोनों एक साथ खड़े हो गये तो संकट और भी गहरा हो जायेगा।

रोजी-रोटी का संकट होगा तालाबन्दी का अन्तिम परिणाम

कोरोना का कहर कितना भयानक हो उठा है इसका अन्दजा इसी से लगाया जा सकता है कि केन्द्र सरकार को एक अध्यादेश लाकर प्रधानमंत्री से लेकर सांसदो तक के वेतन भत्तों और पैन्शन पर एक वर्ष के लिये 30% की कटौती घोषित करनी पड़ी है। राष्ट्रपति और राज्यपालों ने भी स्वेच्छा से अपने ऊपर यह 30% की कटौती आयत कर ली हैं प्रधानमंत्री की तर्ज पर ही कई राज्यों के  मुख्यमंत्रीयों से लेकर विधायकों तक ने यह कटौती अपने ऊपर से पहले ही महाराष्ट्र, राजस्थान, तेलंगाना और आन्धप्रदेश की सरकारों ने तो अपने कर्मचारियों तक के वेतन में 75% से लेकर 50% तक कटौती घोषित कर दी है। केन्द्र सरकार ने तो सांसद निधि भी दो वर्ष के लिये निरस्त कर ली। सांसदों की ऐच्छिक निधि पर भी कर लगा दिया है। हिमाचल जैसे कुछ राज्यों ने भी विधायक क्षेत्र विकास निधि पर दो वर्ष के लिये रोक लगा दी हैं। इन सारे कदमों का तर्क कोविड-19 की रोकथाम के लिये धन जुटाना कहा गया है। संभव हे कि हर राज्य सरकार को यही  कदम उठाने पड़े और अन्त में इस सबका परिणाम वित्तिय आपतकाल की घोषणा के रूप में सामने।
कोरोना ने इस वर्ष के शुरू में ही देश में दस्तक दे दी थी और उस समय भी यह स्पष्ट था कि इसका कोई ईलाज सामने नही है। ईलाज के अभाव में परेहज ही सबसे बड़ा कदम रह जाता है और परेहज सोशल डिस्टैसिंग-संगरोधन - ही था। यदि यह संगरोधन का कदम तभी उठा लिया जाता तो शायद स्थिति यहां तक न आती। सरकारों ने केन्द्र से लेकर राज्यों तक जो वित्तिय कदम उठाये हैं उससे देश की आर्थिक स्थिति पर स्वतः ही बसह की नौवत आ जाती है। क्योंकि इन कदमों का एक तर्क यह रहा है कि राजस्व संग्रहण रूक गया है। देश में पूर्णबन्दी और कफ्रर्यू तो 24-25 मार्च का लगाये गये। वित्तिय वर्ष 31 मार्च को समाप्त होता हैं। 31 मार्च को तो लेखा-जोखा होता है कि किस विभाग ने कितना बजट खर्च कर लिया है, कितना खर्च बजट से अधिक हो गया हैं या कितना बजट बच गया हैं राजस्व प्राप्तियों में भी यही होता है कि बजट अनुमान के अनुरूप संग्रहण हो पाया या नही। केन्द्र से अपेक्षित धन मिल पाया है या नही। इस सारी गणना में वर्ष के अन्तिम सप्ताह में इतना अन्तर नही आ सकता है कि माननीय, मन्त्रीयों, सांसदो, विधायकों के वेत्तन भत्तों में कटौती करने की नौवत आ जाये और यह नौवत सरकारी कर्मचारियों के वेत्तन की कटौती तक पहुंच जाये। जबकि केन्द्र सरकार ने वर्ष 2018 में सांसदो के वेत्तनभत्तों में 100% की बढ़ौत्तरी की थी। 2018 के बाद 2019 में लोकसभा के चुनाव हुए 2018 में ही प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना शुरू की गयी थी। इस योजना के तहत देशभर में करीब 11 लाख करोड़ ऋण बांटे गये है जिनमें करीब 70% से भी अधिक एनपीए हो चुके हैं बल्कि उनका पूरा ब्यौरा तक बैंकों के पास उपलब्ध नही है। हिमाचल में ही इस योजना के तहत सितम्बर 2019 तक 1,45,838 उद्यमियों को 2541.43 करोड़ के ऋण बांटे गये हैं । लेकिन इनमें से कितने उ़द्यमियों ने सही में कोई उद्योग धन्धा किया है और कितनों ने ऋण की कोई अदायगी की है इसका कोई ठोस रिकार्ड तक उपलब्ध नही है। क्योंकि इस योजना में दस्तावेजों की कोई बड़ी अनिवार्यता नही रखी गयी थी। इस तरह की कई योजनाएं और रही है जिनमें पैसा दिया गया हैं। इसी तरह बड़े उद्योपतियों का एनपीए बढ़ा और उसमें से आठ लाख करोड़ के करीब राईटआफ कर दिया गया।

इस तरह के कई वित्तिय फैसले रहे हैं जिनका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। अर्थशास्त्रीयों का मानना है कि देश की अर्थव्यवस्था के सामने यह चुनौती आनी ही थी जिसका संकेत बैंकों के फेल होने से मिलना शुरू हो गया था। आज कोरोना के कारण जब हर व्यक्ति अपने में डर गया है तो परिणाम पूर्ण तालाबन्दी और कफ्रर्यू के रूप में सामने आ गया है। एक झटके में सारी आर्थिक गतिविधियों पर विराम लग गया है। स्थिति इतनी विकट हो गयी है कि गतिविधियां पुनः कब चालू हो पायेंगी यह कहना कठिन हो गया है। यह स्पष्ट नही है कि उद्योगों को पुनः उत्पादन में आने में कितना समय लग जोयगा। इन उद्योगों पर जितना बैंकों के माध्यम से निवेश हुआ पड़ा है वह कितना सुरिक्षत बच पायेगा यह कहना आसान नही है। शायद इसी सबके सामने रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय में वित्तिय अपातकाल लागू किये जाने के आग्रह की याचिकाएं आ चुकी हैं। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी सवाल उठाते हुए याचिकाएं आ चुकी है। स्वास्थ्य सेवाओं के राष्ट्रीयकरण की मांग भी एक याचिका के माध्यम से आ चुकी है। यदि आर्थिक उत्पादन की गतिविधियां और ज्यादा देर तक बन्द रही तो एक बड़े वर्ग के लिये रोटी का संकट खड़ा हो जायेगा। संयुक्त राष्ट्रसंघ की आईएलओ के अध्ययन के मुताबिक देश में चालीस करोड़ लोगों को रोज़गार पर गंभीर संकट खड़ा हो जायेगा। लेकिन जहां देश इस तरह के संकट से गुजर रहा है वहीं पर एक वर्ग कोरोना के फैलाव के लिये तब्लीगी समाज को जिम्मेदार ठहराने के प्रयासों में लगा हुआ है। यह वर्ग इस तथ्य को नजरअन्दाज कर रहा है कि रामनवमी के अवसर पर कई जगह हिन्दु समाज ने भी तालाबन्दी को अंगूठा दिखाते हुए आयोजन किये हैं रथ यात्राएं तक निकाली गयी हैं। इस आश्य के दर्जनों वीडियोज़ सामने आ चुके है जिनका खण्डन करना कठिन है। ऐसे में एक ही जिम्मेदार ठहराने के प्रयासों में लगे हुए लोग न तो सरकार के ही शुभचिन्तक कहे जा सकते हैं और न ही समाज के। क्योंकि जब बिमारी के डर के साथ ही भूख का डर समान्तर खड़ा हो जायेगा तब उसका परिणाम केवल क्रान्ति ही होता है।

ताली थाली के बाद दीपक पर उम्मीद

 

देश कोरोना महामारी से जूझ रहा हैं हर रोज़ संदिग्धों और मरने वालों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। यह संख्या इसलिये बढ़ रही है क्योंकि इसका कोई पुख्ता ईलाज अभी तक सामने नही आ पाया है। जो लोग ईलाज से ठीक भी हो गये हैं उसके आधार पर भी यह राय नही बन पायी है कि इसका ईलाज ऐसे किया जाये। इस स्थिति में सबसे अहम उपाय सामाजिक तौर पर एक दूसरे से पृथकत्ता रखना ही अनिवार्य हो जाता है। डाक्टर भी मरीज को क्यारन्टाईन- संगरोधन करने का ही उपाय प्रयोग में लाते हैं। सोशल डिस्टैंन्सिंग और क्यारन्टाईन दोनों का ही अभिप्राय संगरोधन होता है। एक-दूसरे के साथ को रोधन करना, पृथक करना ही सबसे प्र्रभावी उपाय है। सामान्यतः संगरोधन काल चालीस दिन का माना जाता है। संक्रमण से फैलाने वाली हर बीमारी में संगरोधन अपनाया जाता है। प्रधानमंत्री ने भी इस संगरोधन की महत्ता और आवश्यकता को मानते हुए पहले जनता कर्फ्यू और फिर तालाबन्दी का आह्वान किया तथा लागू करने के निर्देश दिये। जनता ने कर्फ्यू का पूरी ईमानदारी से अनुपालन किया। इस अनुपालना पर कृतज्ञता जताने के लिये जब ताली और थाली बजाई गयी थी तक कई जगहों पर इतने लोग इकट्ठे हो गये थे जिससे  जनता कर्फ्यू की उपलब्धि पर वहां प्रश्नचिन्ह लग गया था। अब तालाबन्दी पर भी दीपक जलाकर कृतज्ञता जताने को कहा गया हैं बहुत सारे लोग इस दीपक जलाने को ज्योतिष और तंत्र शास्त्र का एक बड़ा प्रयोग मान रहे हैं। यदि दीपक जलाने का दीपावली जैसा आयोजन बना दिया गया तो तालाबन्दी की उपलब्धियों पर भी प्रश्नचिन्ह लगने जैसी बात हो जायेगी क्योंकि दीपक जलाना या अन्य तरह से रोशनी करना संगरोधन में नही आता है। प्रधानमंत्री के आह्वान पर जब ताली और थाली बजाई गयी तो अब यह प्रकाश भी किया ही जायेगा चाहे दीपक जलाकर हो या मोबाईल आन करके हो।
प्रधानमंत्री का आह्वान है इसलिये यह पूरा किया ही जायेगा क्योंकि इस समय सारी उम्मीदें उन्ही पर ही टिकी हुई हैं। इसलिये आज सवाल भी प्रधानमंत्री से ही किया जायेगा। अभी तालाबन्दी के दस दिन शेष हैं। पहले दस दिनों में ही राज्य सरकारों ने अपने कर्मचारियों को पूरा वेतन दे पाने में अपनी असर्मथता जताई है। वेतन में 75%,60%,50% और दस प्रतिशत की कटौती अगले आदेशों तक की गयी है। पैन्शन में भी दस प्रतिशत की कटौती की गयी है। हिमाचल जैसे राज्य ने नये वर्ष के पहले ही सप्ताहमें कर्ज लेकर शुरूआत की है। आरबीआई ने हर तरह के जमा पर ब्याज दरें कम की हैं। इसमें छोटी बचतें और चालू एफडी भी शामिल है। इसका तर्क यह दिया गया है कि तालाबन्दी के कारण राजस्व के संग्रहण में कमी आयी है। लेकिन तालाबन्दी तो पिछले वित्तिय वर्ष के अन्तिम सप्ताह मे लागू की गयी थी। 24 मार्च तक तो कोई तालाबन्दी नही थी सारा काम यथास्थिति चल रहा था। फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि एक ही सप्ताह में सरकारों की हालत यह हो गयी कि वह पूरा वेतन दे पाने में असमर्थ हो गयी। तालाबन्दी के कारण देश के चालीस करोड़ से अधिक के लोग प्रभावित हुए हैं जिन्हे यह पता नही है कि उन्हे फिर से रोज़गार कब मिल पायेगा। देश की आज़ादी के समय तो करीब डेढ़ करोड लोगों ने ही पलायन किया गया था। सोलह अगस्त 1947 को 72 लाख लोग भारत से पाकिस्तान गये थे और 72 लाख ही पाकिस्तान से भारत आये थे। लेकिन उस पलायन का दर्द यह लोग आज भी महसूस करते हैं। परन्तु आज तो अपने देश में एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने पर प्रतिबन्ध है। बलिक राज्यों के अपने भीतर ही एक जिले से दूसरे जिले में जाने पर पाबंदी है। सीमाएं सील कर दी गयी हैं और सड़कों के किनारे लाखों की संख्या में लोग बेघर होकर बैठे हैं। आज जब प्रधानमंत्री ने देश से दीपक जलाकर रोशनी करने का आह्वान किया है तब यदि इन लोगों के लिये भी कोई स्थिति स्पष्ट कर दी जाती है तो शायद इन्हे कुछ साहस मिलता। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है।
  यही नही जिस महामारी के कारण आज ये हालात पैदा हुए हैं उससे बचने के लिये कोई दवाई तो अभी तक नही बन पायी है परन्तु जो सुरक्षात्मक उपाय आवश्यक हैं उनकी भी आपूर्ति नही हो पा रही है। जो डाक्टर मरीजों के उपचार में लगे हुए हैं उन्हे ही यह सुरक्षा उपकरण पूरी मात्रा में उपलब्ध नही हैं। उपचार में लगे डाक्टर और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की हर राज्य से कमी की शिकायतें आ रही है। ऐसे में कई जगहों पर डाक्टरों नर्सो ने त्यागपत्र तक देने का प्रयास किया है। इस आवश्यक सामान की आपूर्ति के लिये समय रहते उचित कदम नही उठाये गये हैं यह पूरी तरह सामने आ चुका है। बल्कि तालाबन्दी के बाद भी जिस तरह से सर्विया आदि देशों को इस आवश्यक सामान का निर्यात किया गया है  उससे सरकारी प्रबन्धों और संवदेना पर गंभीर सवाल उठ खडे़ हुए हैं । इस वस्तुस्थिति में भी निज़ामुद्दीन  प्रकरण को जिस तरह से कुछ हल्कों में हिन्दु-मुस्लिम का रंग दिया जा रहा है। वह सामाजिक सौहार्द की दिशा में बहुत घातक सिद्ध होगा यह तय है। क्योंकि यह प्रकरण भी शीर्ष अदालत तक पहुंच चुका है। इसमें दर्ज हुए मामले अदालत तक पहुंचेगे ही। तब यह सवाल उठेगा ही कि देश की गुप्तचर ऐजैन्सीयां क्या कर रही थी। उनकी सूचनाएं क्या थी और उन पर केन्द्र और दिल्ली सरकार ने क्या किया। मरकज़ के साथ लगते पुलिस थाने ने क्या भूमिका अदा की। यह सवाल एक बार चर्चा में आयेंगे ही। ऐसे में आज यदि प्रधानमंत्री इन सारे आसन्न सवालों पर देश को संबोधित कर जाते तो शायद कोरोना का हिन्दु-मुस्लिम होना रूक जाता। अब देखना दिलचस्प होगा की दीपक के प्रकाश में यह महामारी हिन्दु-मुस्लिम होने से बच पाती है या नही।
                

 

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