2014 से पहले कोरोना होता तो प्रधानमन्त्री नेरन्द्र मोदी ने 74वें स्वतन्त्रता दिवस पर लाल किले से देश को संबोधित करते हुए जनता के सामने यह सवाल रखा है कि यदि 2014 से पहले कोरोना आ जाता तो क्या होता। इस सवाल से बहुत सारे सवालों को जन्म दे दिया है। इन सवालों की गिनती करने और उनके जवाब तलाशने से पहले नरेन्द्र मोदी का 15 अगस्त 2013 का एक दृश्य याद आ जाता है। मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमन्त्री थे। दिल्ली में जब 15 अगस्त 2013 को लाल किले पर प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह का भाषण समाप्त हुआ था उसके आधे घन्टे के बाद नरेन्द्र मोदी का भुज के लालन काॅलिज के प्रांगण से भाषण शुरू हुआ था। काॅलिज के प्रांगण में मंच की पृष्ठभूमि में लाल किले की दिवार का वृहतचित्र लगाया गया था। उस पृष्ठभूमि में भाषण करते हुए नरेन्द्र मोदी ने डा. मनमोहन सिंह से भारत-चीन से सीमा से लेकर डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमतों तक हर ज्वलंत समस्या पर सवाल पूछे थे। उन्ही सवालों के मसौदे पर अन्ना का आन्दोलन खड़ा हुआ। कांग्रेस सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय करार दिया गया। जनता को अच्छे दिन आने का भरोसा दिया गया और सत्ता परिवर्तन हो गया। इस परिदृश्य में आज जब नरेन्द्र मोदी ने यह सवाल किया है कि यदि 2014 से पहले देश में कोरोना आ जाता तो क्या होता। इस समय देश कोरोना के संकट से गुजर रहा है। इसके कारण अर्थव्यवस्था पर क्या और कितना असर पड़ा है इसको लेकर कुछ विशेषज्ञों की राय में स्थिति 1947 से भी नीचे चली जायेगी। चालीस करोड़ से भी अधिक के रोज़गार पर असर पड़ा है। इसी वर्ष के अन्त तक एनपीए बीस लाख करोड़ हो जाने का अनुमान है। 2022 तक बैंकों के संकट में आने की आशंका खड़ी हो गयी है। वित्त मन्त्री के निर्देशों के बावजूद बैंक ऋण देने में असमर्थता व्यक्त करने लग गये हैं। अन्र्तराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में कमी आने के बावजूद पैट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाये जा रहे हैं। डालर के मुकाबले में रूपये की कीमत सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी है। अर्थव्यवस्था की यह स्थिति और भी बदतर होने की संभावना है क्योंकि कोरोना का आतंक लगातार बढ़ता जा रहा है। इस आतंक के कारण अनलाॅक थ्री में भी बाजा़र 30% तक ही रिस्टोर हो पाया है। इसे 100% तक होने में लंबा समय लगेगा और अब कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालने की एडवायजरी जारी की जाने लगी है। क्या अर्थ व्यवस्था के इन पक्षों पर मोदी सरकार की कोई चिन्ता और चिन्तन देश के सामने आ रहा है। शायद नही क्योंकि भाजपा का सरोकार अपने लिये संगठन हर जिले में हाईटैक कार्यालय बनाना, वर्चुअल रैलियां करने और चुनी हुई सरकारे गिराना है। आज कोरोना से निपटने में सरकार कितनी सफल रही है इसकी जांच के लिये सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के माध्यम से आयोग गठित किये जाने की कुछ पूर्व वरिष्ठ नौकरशाहों द्वारा की गयी है। जब कोरोना के मामले का आंकड़ा केवल पांच सौ था तब पूरे देश में लाॅकडाऊन करके सबको घरों के अन्दर बन्द कर दिया गया और जब आंकड़ा पांच लाख पहुंच गया तब इसमें ढील दे दी गयी। सरकार के अन्तः विरोधी फैंसलों के कारण यह लगने लगा है कि कोरोना से ज्यादा इसका प्रचार आतंक का कारण बन गया। कोरोना में ही यह सामने आया है कि छः वर्षों में मोदी सरकार देश में कोई नया बड़ा स्वास्थ्य संस्थान खड़ा नही कर पायी है। जो स्वास्थ्य संस्थान पहले से चल रहे हैं उनमें कितनी क्या सुविधायें हैं इसका खुलासा इसी से हो जाता है कि क्या कोई भी मन्त्री या अन्य बड़ा नेता जो कोरोना की चपेट में आया यह किसी भी सरकारी संस्थान मंे ईलाज के लिये नही गया। क्योंकि यह सरकार सारे संस्थानों को कमजोर करके उन्हें निजि क्षेत्र के हवाले करने की नीति पर चल रही है। इसी नीति का परिणाम है कि 23 सरकारी उपक्रमों को विनिवेश की सूची में डालकर उन्हे प्राईवेट सैक्टर के हवाले किया जा रहा है। शायद यह पहली सरकार है जिसके कार्यकाल में कोई भी सार्वजनिक उपक्रम खड़ा नही किया गया है। सरकार की आर्थिक नीतियों पर कोई सवाल न पूछे जायें इसके लिये बड़े ही सुनियोजित तरीके से प्रयास किये जा रहे हैं इन प्रयासों में मीडिया और उच्च न्यायपालिका भी सरकार का पूरा साथ दे रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में प्रशान्त भूषण के मामले में जिस तरह की भूमिका रही है उससे 1976 के एडीएम जब्बलपुर मामले की याद ताजा हो जाती है जब यह कहा गया था कि आपातकाल में मौलिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। मीडिया में सार्वजनिक मुद्दों पर जिस तरह से बहसे आयोजित की जा रही हैं उसका कड़वा सच कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी की मौत के रूप में सामने आ चुका है। आज शायद यह पहली बार हो रहा है कि राजनीतिक सत्ता से लेकर शीर्ष न्यायपालिका और मीडिया सभी पर से एक साथ भरोसा उठ रहा है। मोदी सरकार के आने से पहले भी स्वाईन फ्लू जैसी भयानक महामारीयां देश में आ चुकी हैं जिनमें हजारों लोग मरे भी हैं लेकिन तब लाॅकडाऊन करके लोगों को घरों में कैद करके नहीं रखा गया था। यदि 2014 से पहले कोरोना आ जाता तो शायद हालात इतने बदत्तर न होते। महामारी आती और निकल जाती। लोग रोज़गार और भुखमरी के कगार पर न धकेले जाते।
राम मन्दिर का शिलान्यास होने से अब उन सवालों पर विराम लग जायेगा जिनमें यह पूछा जाता था कि श्रीराम का मन्दिर कहां और कब बनेगा। इस मन्दिर निर्माण के लिये हुए आन्दोलन में भाजपा की चार सरकारों की बलि चढ़ गयी थी। लेकिन इस मुद्दे पर आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में जब यह कहा गया कि इस मन्दिर के लिये बाबरी मस्जिद का गिराया जाना गलत था और पुरातत्व विभाग ऐसे कोई साक्ष्य नही दे पाया है कि मन्दिर को गिराकर मस्जिद बनाई गयी थी तब इसी से सारे आन्दोलन की नैतिकता धराशायी हो जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला एक ऐतिहासिक धरोहर दस्तावेज बन गया है। आने वाले समय में जब भी कोई अतीत के इन पन्नो को खंगालते हुए आन्दोलन की नैतिकता का आकलन करेगा तो वह इस आन्दोलन के नायकों को साधुवाद नहीं कह पायेगा और न ही हिन्दु पुरोधाओं को निर्दोष करार दे पायेगा। आने वाली पीढ़ीयों के पास इसका शायद कोई जवाब नही होगा। बल्कि जब यह जिक्र आयेगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने तथ्यों से इतर जाकर अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए यह स्थल हिन्दु समाज को सौंपा है और मुस्लिम समाज ने इसे अपनी विशालता का परिचय देते हुए स्वीकार कर लिया तो वहां फिर आन्दोलन की राजनीतिक महत्वकांक्षा पर आकर ही बात रूकेगी। उस समय भविष्य की पीढ़ीयां आज के वर्तमान को कैसे आंकेगी यह कहना कठिन है। क्योंकि आज कोरोना के कारण जिस तरह से अभी तक धार्मिक स्थल बन्द चल रहे हैं और पुजारियों को अपने जीवन यापन के लिये सरकारों से आर्थिक सहायता मांगनी पड़ी है उससे निश्चित रूप से आस्था पर भी कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं।
इस समय देश कोरोना संकट के दौर से गुजर रहा है। तीन लाकडाऊन झेलने के बाद अब अनलाक तीन चल रहा है। लेकिन अनलाक तीन में भी अभी तक बाज़ार की आर्थिक गतिविधियां 30% भी बहाल नही हो पायी हैं। 30% आर्थिक गतिविधियों का अर्थ है कि सरकार का राजस्व संग्रहण भी अभी तक 40% नही हो पाया है। राजस्व की इसी कमी के चलते केन्द्र सरकार ने हिमाचल जैसे राज्य को कह दिया है कि वह पहली सितम्बर से कोरोना के टैस्टों पर होने वाले खर्च को स्वयं उठाये। इसी संकट के कारण एपीएल परिवारों की राशन की सब्सिडी बन्द कर दी गयी है और बीपीएल की मात्रा कम कर दी है। करोड़ों लोग बेरोजगार होकर बैठ गये हैं। हिमाचल में ही इससे पीड़ित आत्महत्या करने लग पड़े हैं। राज्य के डीजीपी ने इस पर गंभीर चिन्ता व्यक्त की है। पूरा देश आर्थिक संकट से गुजर रहा है। लेकिन राम मन्दिर के शिलान्यास को जिस तरह से देशभर में एक पर्व के रूप में मनाते हुए भाजपा-संघ द्वारा मिठाईयां बांटी गयी है उससे सत्तारूढ़दल की मानवीय संवेदनाओं और उसकी प्राथमिकताओं का अन्दाजा लगाया जा सकता है। विश्वभर में इस शिलान्यास के बाद धार्मिक राष्ट्रवाद को लेकर एक बहस छिड़ गयी है। इस शिलान्यास के बाद भी देश के धार्मिक स्थलों पर चल रही पाबन्दी नही हठ पायी है। इसको लेकर मर्यादा पुरूषोत्तम राम कितने प्रसन्न हो रहे होंगे इसका भी आन्दाज लगाया जा सकता है। शिलान्यास को लेकर जब भी कोई निष्पक्ष आकलन होगा तब इन सवालों को नजरअन्दाज कर पाना कठिन होगा। क्योंकि आर्थिक संकट में इस समारोह पर हुआ यह करोड़ों का खर्च यह भूखे पेट की आंखों में सवाल बनकर तो खड़ा रहेगा ही।
यह शिलान्यास मर्यादा पुरूषोत्तम राम के मन्दिर का हो रहा था। कोरोना काल में हुए इस शिलान्यास के पर्व पर बहुत लोग और कई बड़े नेता कोरोना को लेकर चल रही पाबन्दियों के कारण नहीं आ पाये। क्योंकि कोरोना निर्देशों के उल्लघंन पर सजा और जुर्माने का प्रावधान घोषित है। बहुत लोगों को इसके लिये जुर्माना लगा भी है। लेकिन शिलान्यास समारोह में जो बाबा रामदेव जैसे लोग शामिल थे वह कोरोना निर्देशों का खुला उल्लघंन कर रहे थे। उन्हें कोई इसके लिये इंगित भी नहीं कर रहा था। गृहमन्त्री अमितशाह तीन अगस्त को कोरोना पाजिटिव पाये गये और वह उपचार के लिये मेदान्ता में भर्ती भी हुए। 29 जुलाई को वह प्रधानमन्त्री के साथ मन्त्री परिषद की बैठक में शामिल थे। नियमों के अनुसार उस बैठक में शामिल हर व्यक्ति को संगरोध में होना चाहिये था लेकिन ऐसा हुआ नही है। देशभर में शिलान्यास के बाद जो जश्न मनाया गया है उसमें कोरोना निर्देशों का खुला उल्लंघन हुआ है। इस जश्न के आगे सारे नियम और निर्देश बौने साबित हुए हैं। समारोह में वह पोस्टर भी पूरा ध्यान आकर्षित कर रहा था जिसमें संघ प्रमुख मोहन भागवत को राज्यपाल और मुख्यमन्त्री से ऊपर स्थान दिया गया था। जबकि मोहन भागवत कोई जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नही है। बल्कि उनका संघ तो एक पंजीकृत संस्था भी नही है। यही नहीं एक चित्र में तो भगवान राम को प्रधानमन्त्री अंगूली से पकड़कर मन्दिर की ओर ले जा रहे हैं यह दिखाया गया है कि इस तरह पूरे समारोह में प्रधानमन्त्री और संघ /भाजपा को ही महिमा मंडित करने का प्रयास रहा है। आज कोरोना के कारण आम आदमी इन मर्यादाओं के हनन पर खुल कर नहीं बोल पा रहा है। लेकिन इस समारोह से यह तो सामने आ ही गया है कि कोरोना को लेकर लगाई गयी पाबन्दियां केवल आम आदमी के लिये ही हैं। लेकिन यह तय है कि जिस दिन यह पाबन्दियां हटेगी उस दिन यही समारोह ऐसे सवाल लेकर आयेगा जिनका जवाब देना कठिन होगा क्योंकि मर्यादाओं का जो हनन यहां हुआ है वह अपना असर अवश्य दिखायेगा।
भारतीय जनता पार्टी ने 2014 में केन्द्र में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता संभाली थी। 2014 के चुनावों में अच्छे दिन और प्रत्येक के खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने के वायदे किये गये थे। देश की जनता से कहा गया था कि उसने कांग्रेस को राज करने के लिये साठ वर्ष दिये हैं और उसे केवल साठ महीने दिये जायें। कांग्रेस जो साठ वर्षों में नही कर पायी है भाजपा ने वह सब साठ महीनों में करने का वायदा किया था। 1,76,000 करोड़ के टूजी स्कैम जैसे जो भ्रष्टाचार के मामले उस दौरान सामने थे और उनमें गिरफ्तारीयां तक हुई थी। उनको अंजाम तक पहुंचाने का वायदा किया गया था। देश में लाखों करोड़ों के कालेधन की समस्या से निपटना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। पांच वर्ष के कार्यकाल में इतने कामों को अन्जाम देना आसान नही था। फिर इन कामों में रोड़ा अटकाने के लिये तो टूटा फूटा विपक्ष सबसे बड़ी बाधा था। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा तो दिया गया था लेकिन इसी से काम हल होने वाला नही था। क्योंकि वामदल, चन्द्रबाबू नायडू, ममता बैनर्जी, बहन मायावती और अखिलेश यादव जैसे भी कई लोग थे जिनसे निपटना कोई आसान काम नही था। इस तरह की बहुत सारी आपदायें थी जिनको अवसर में बदलना बड़ी चुनौती था। इस तरह की राजनीतिक विरासत से पार पाकर देश को आज आत्मनिर्भरता के मुकाम तक पहुंचाना सही में मोदी सरकार और भाजपा की एक बड़ी उपलब्धि है।
आज भाजपा के देशभर में 900 कार्यालय बनने जा रहे हैं। जब भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपने कार्यकर्ताओं को यह जानकारी दी कि पार्टी के पांच सौ कार्यालयों के निर्माण का कार्य अमितशाह के समय ही पूरा हो गया था और शेष बचे चार सौ कार्यालयों का निर्माण वह शीघ्र ही पूरा कर लेंगे। तो निश्चित रूप से यह कार्यकर्ताओं के लिये एक बहुत बड़े गर्व का विषय था। तब उन्हे सही में यह एहसास हुआ होगा कि जब पार्टी के अच्छे दिन आ गये हैं तो अब आगे कार्यकर्ताओं की ही बारी आयेगी। वैसे तो प्रधानमन्त्री मुद्रा ऋण योजना में दिया गया ग्यारह लाख करोड़ का ऋण भी तो कार्यकर्ताओं के ही काम आया है। इसीलिये तो इसमें कागजी औपचारिकताओं को गौण ही रखा गया था। इसी उद्देश्य से तो अब बैकों को निर्देश दिये गये हैं कि वह खुले मन से ऋण बांटे। उन्हें सीबीआई, सीबीसी और सीएजी से डरने की कोई जरूरत नही है। आखिर सरकार इससे ज्यादा उदारता कैसे ला सकती है। वर्ष 2019 में बैंकों में डेढ लाख करोड़ के फ्राड के मामले घटे हैं। आरटीआई में सूचना भी बाहर आ गयी है लेकिन किसी बैंक के खिलाफ कोई बड़ी कारवाई नही की गयी है। इस फ्राड से भी कुछ लोगो ने तो कमाया है। सरकार इसी सबके लिये तो डिजिटल व्यवस्था पर बल दे रही है।
कालाधन एक बड़ी समस्या थी। इससे निपटने के लिये नोटबन्दी से बढ़िया कोई दूसरी योजना हो ही नही सकती थी। दो हजार का नोट लाकर संग्रहण और आसान कर दिया गया। 99.6ः पुराने नोट आसानी से नये नोटों के साथ बदल लिये गये और कालेधन से अपने आप छुटकारा मिल गया। इसीलिये 2014 से पहले बाबा रामदेव जैसे व्यापारी जो हर रोज कालेधन के आंकड़ों का ही हिसाब लगाते रहते थे। अब 2300 करोड़ का एनपीए मुआफ करवाकर इस समस्या से निजात पा चुके हैं। ऐसे दर्जनों लोग हैं जिनका लाखों करोड़ का एनपीए खत्म कर दिया गया और देश ने इसे आराम से स्वीकार भी कर लिया है। आज तो एलआईसी में भी तीस हजार करोड़ का एनपीए हो गया है। जीपीएफ, ईपीएफ संकट में आ गये हैं। संासदो/विधायकों के वेतनभत्तों में सरकार को 30ः की कटौती करनी पड़ी है। केन्द्र सरकार का बजट चार माह में ही दम तोड़ गया है। सारी नयी योजनाओं को 31 मार्च तक के लिये स्थगित कर दिया गया है। सरकारें राजस्व की कमी से जूझ रही हैं। महामारी के संकट में कई सरकारें डाक्टरों तक को नियमित वेतन नही दे पा रही हैं। सरकारों की ऐसी हालत के बावजूद भी भाजपा की वर्चुअल रैलियां अपनी जगह नियमित चल रही हैं। हजारों करोड़ का पार्टी कार्यालयों के निर्माण का प्रौजैक्ट पूरी रफ्तार से चल रहा है। नोटबदी के संकट काल में पार्टी कार्यालयों के लिये जमीनें खरीदी गयी। भले ही आम आदमी को उस दौरान नये नोट मिलने में लम्बा इन्तजार करना पड़ा हो लेकिन उस दौरान भाजपा को यह करोड़ो का लेन-देन करने में कोई दिक्कत नही आयी है। अच्छे दिनों की परिभाषा इससे बेहतर और क्या हो सकती है।
राष्ट्रीय बैंकों की एक बड़ी खेप निजिक्षेत्र को दी जा रही है। यह करके भाजपा अपने जनसंघ के समय के उस वायदे को पूरा करने जा रही है जो उस समय बैंकों के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में तब के जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. बलराज मद्योक और उनके मित्रों मीनू मसानी तथा रूस्तमजी, कावासजी कपूर ने याचिका डालकर किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीयकरण के खिलाफ फैसला दिया था जिसे स्व.श्रीमति इन्दिरा गांधी ने संविधान के पच्चीसवें संशोधन से निरस्त किया था। आज मोदी सरकार पूरी मेहनत के साथ देश को उस दौर में ले जाने के लिये दिन रात काम कर रही है। कांग्रेस इस पुनीत कार्य में व्यवधान पैदा कर रही है इसलिये उसकी सरकारें गिराना समय की जरूरत बन गयी है। आज अगर करोड़ो लोग बेरोज़गार होकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं तभी तो वह आत्मनिर्भरता का महत्व समझकर सरकार पर बोझ बनने से परहेज करेंगे।
स्वस्थ लोकतन्त्र के लिये सत्तापक्ष के साथ स्वस्थ्य विपक्ष का होना बहुत आवश्यक है। इसी तर्क पर राजनीतिक दलों के भीतर भी असहमति के बीच का पूरा सम्मान होना चाहिये। पार्टी के अनुशासन और असहमति के बीच बहुत ही बारीक सीमा रेखा होती है। प्रायः महत्वाकांक्षा पर असहमति का आवरण डाल दिया जाता है। राजस्थान प्रकरण में भी शायद महत्वाकांक्षा को असहमति प्रचारित किया जा रहा है। क्योंकि इस प्रकरण के मुखर होते ही जिस तरह से केन्द्र की ऐजैन्सीयां आयकर से लेकर ईडी तक सक्रिय हुई हैं और पायलट कैंप को जिस तरह कानूनी सहायता मिली है उससे यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि इसमें भाजपा एक सक्रिय भूमिका निभा रही है। लोकतन्त्र और दलबदल कानून के लिये इससे ज्यादा घातक कुछ नही हो सकता। देश के कितने राज्यों में कब-कब इस तरह के दलबदल प्रायोजित हुए हैं इसकी सूची लंबी है और उसके विस्तार में जाने का अभी कोई औचित्य नही है क्योंकि उस काम को भाजपा अंजाम दे रही है। क्योंकि उसका हर तर्क नेहरू गांधी कांग्रेस तक पहुंच जाता है। कांग्रेस की हर गलती उसके लिये लाईसैन्स बन जाती है। लेकिन यहां महत्वपूर्ण सवाल यह हो जाता है कि यदि यह सब ऐसे ही चलता रहा तो इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा और इसे कैसे रोका जा सकता है। निश्चित रूप से यह सब चुनाव व्यवस्था की कमजोरियों का परिणाम है। लम्बे अरसे से मतदाताओं को सरकारी रिश्वत बांटकर प्रलोभित किया जाता है और चुनाव आयोग इस प्रलोभन पर आंख बन्द कर लेता है। हर बार चुनाव खर्च की सीमा इतनी बढ़ा दी जाती है कि कोई भी आदमी सफेद धन के सहारे चुनाव नही लड़ सकता। चुनाव लड़ रहे व्यक्ति पर चुनाव खर्च की सीमा है परन्तु राजनीतिक दल पर ऐसी कोई सीमा नही है। आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत का निवारण चुनाव याचिका दायर करना ही रह गया है। इसी कारण से आज संसद से लेकर विधान सभाओं तक आपराधिक छवि के लोग हमारे माननीय हो कर बैठे हैं। प्रधानमन्त्री मोदी ने चुनाव में वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करेंगे। लेकिन आज रिकार्ड पर सबसे अधिक अपराधिक छवि के लोग भाजपा में ही है।
आज जब सर्वोच्च न्यायालय असहमति के सवाल पर विचार करने जा रहा है तब यह आग्रह करना प्रसंागिक हो जाता है कि इस समय ईवीएम को लेकर जो याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय और कुछ उच्च न्यायालयों में लंबित पड़ी हैं यदि उन्ही पर समय रहते फैसला आ जाये तो शायद उसी से लोकतन्त्र का बड़ा भला हो जायेगा। क्योंकि एक याचिका में लोकसभा की 347 सीटों पर ईवीएम और वीवीपैट में आये भयानक अन्तर पर एडीआर ने बड़ी मेहनत करके साक्ष्यों के आधार पर यह मुद्दा उठाया है।
प्रयासों से लोक तन्त्र सुरक्षित रह पायेगा? इसी के साथ यह प्रश्न भी विचारणीय हो गया है कि भाजपा को यह सब करने की आवश्यकता क्यों हो गयी है जबकि केन्द्र में उसकी सरकार को इतना प्रचण्ड बहुमत हासिल है कि किसी भी अन्य दल की उसे आवश्यकता ही नही है। भाजपा के इस प्रयास से पार्टी के चाल, चरित्र और चेहरे पर जो सवाल अब उठ खड़े हुए हैं उन्ही के साथ पूर्व में मणिपुर, गोवा, कनार्टक और मध्यप्रदेश में जो आरोप भाजपा पर लगे थे उन्हे भी अब बल मिल जाता है। राजस्थान के प्रसंग पर जिस तरह की प्रतिक्रियाऐं मायावती जैसे नेताओं की आयी है उससे एक और सवाल खड़ा
हो जाता है कि आज की राजनीति में सिंधिया, पायलट तथा मायावती जैसे नेताओं का स्थान क्या होना चाहिये। इस समय देश महामारी के संकट से गुजर रहा है और इसी संकट के कारण देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो गयी है। करोड़ों लोगों का रोजगार खत्म हो गया है। महामारी का संकट और कितना लंबा चलेगा तथा अर्थव्यवस्था पुनः अपने पुराने स्तर पर कब आ पायेगी यह निश्चित रूप से कह पाने में शायद आज कोई नही है। महामारी से ज्यादा उससे पैदा हुआ डर अधिक
नुकसानदेह हो रहा है। जब तक यह डर बना रहेगा तब तक अर्थव्यवस्था में सुधार आने की कल्पना करना भी संभव नही होगा। ऐसे संकटकाल में भी यदि केन्द्र की सरकार किसी राज्य सरकार को धनबल के सहारे गिराने का प्रयास
करे तो किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिये इससे बड़ा और कोई खतरा नही हो सकता है। क्योंकि पिछले कुछ अरसे से सरकार की नीतियों की आलोचना में उठे हर स्वर को देशद्रोह करार देने का चलन शुरू हो गया है।
ऐसा पहली बार हुआ है कि वामपंथी विचारधारा को सीधे राष्ट्र विरोधी करार दे दिया गया है। भीमा कोरेगांव प्रकरण में गिरफ्तार बारबरा राव, प्रो. तेलतुंवडे़ और सुधा भारद्वाज जैसे चिन्तक इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। केन्द्र सरकार के आकलन कहां कहां गलत सिद्ध हुए हैं इसकी नोटबन्दी से लेकर आज कोरोना में लाॅकडाऊन और अनलाॅक के रूप में एक लंबी सूची बन जाती है। इस परिदृश्य में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि आखिर भाजपा यह सब कर क्यों रही है। जबकि अर्थव्यवस्था के नाम पर डिसइन्वैस्टमैन्ट और एफडीआई ही इस सरकार के सबसे बड़े फैसले हैं। इन फैसलों का एक समय तक भाजपा कितना विरोध करती थी इसका प्रमाण स्वदेशी जागरण मंच रहा है जो आज न होने के बराबर होकर रह गया है। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाले देश में यह फैसले कितने लाभादायिक सिद्ध होंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।
केन्द्र में भाजपा की सरकार 2014 से है और 2019 के चुनावों में इसे पहले से भी बड़ा बहुमत मिला है। लेकिन इतने बड़े बहुमत के बावजूद मणिपुर, गोवा, कर्नाटक, दिल्ली, पंजाब, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और बंगाल में भाजपा की सरकारें नही बन पायीं। यह दूसरी बात है कि इसी धनबल के सहारे इनमें से कुछ राज्यों में आज भाजपा सत्ता में है। लेकिन इससे यह अवश्य सामने आता है कि छः वर्षों के शासनकाल में भी भाजपा अपनी वैचारिक स्वीकार्यता नही बना पायी है। चुनावों में चुनाव आयोग और ईवीएम को लेकर जो सवाल चुनाव याचिकाओं के माध्यम से शीर्ष अदालत तक पहुंचे हुए हैं वह अभी तक अनुतरित हैं क्योंकि यह याचिकाएं अभी तक लंबित है। 2014 के चुनावों से पहले अन्ना आन्दोलन आदि के माध्यम से
भ्रष्टाचार और कालेधन के बड़े मुद्दे खड़े किये गये थे उन्हे सरकार और जनता दोनो भूल बैठी है जबकि 1,76,000 करोेड़ के 2जी स्कैम पर मोदी सरकार ही अदालत में यह मान चुकी है कि इसमें आकलन में ही गलती लगी है। अब भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम में ही संशोधन कर दिया गया है। अपराध दण्डसंहिता में बदलाव के लिये कमेटी गठित कर दी गयी है। आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके कीमतों और भण्डारण की सीमा पर से सरकार का नियन्त्रण समाप्त कर दिया गया है। अब पर्यावरण अधिनियम में बदलाव का प्रस्ताव तैयार कर दिया गया है। इसमें पर्यावरण से अधिक उद्योगपतियों के
हितों की रक्षा की गयी है। आम आदमी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा यह सरकार के सरोकार से बाहर हो गया है। इस समय बेरोज़गारी सबसे बड़ा राष्ट्रीय सवाल देश के सामने खड़ा है। सरकार में इस महामारी के दौर में आर्थिक पैकेज के माध्यम से जो राहत आम आदमी को दी है वह तेल की कीमतों और अन्य चीजों में बढ़ौत्तरी करके वसूलनी शुरू कर दी है। जो पैकेज दिया गया है उससे भी ज्यादा पैसा आम आदमी के बैंकों में जमा पंूजी पर देय ब्याज की दरें कम करके इकट्ठा
कर लिया है। इस तरह अगर सही में आकलन किया जाये तो महामारी के माध्यम से भी सरकार ने कालान्तर में कमाई का रास्ता निकाल लिया है। ऐसे में फिर यह सवाल खड़ा रह जाता है कि भाजपा को कांग्रेस की सरकारें तोड़ने की जरूरत क्या है? क्या कांग्रेस संघ- भाजपा के किसी बड़े ऐजैण्डे की राह में कोई बड़ा रोड़ा होने जा रही है। इस समय विपक्ष के नाम पर कांग्रेस के अतिरिक्त और कोई दल कारागर भूमिका में नही रह गया है यह एक व्यवहारिक सच है। इसीलिये भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। इस नारे के पीछे का सच भाजपा की देश को हिन्दु राष्ट्र बनाने की परिकल्पना है। इसका पहला संकेत असम उच्च न्यायालय के न्यायधीश न्यायमूर्ति चैटर्जी द्वारा एक स्वतः संज्ञान मे ली गयी याचिका में दिये फैसले के रूप में सामने आ चुका है। इसमें कहा गया है कि अब भारत को हिन्दुराष्ट्र घोषित कर दिया जाना चाहिये और यह काम मोदी जी ही कर सकते हैं। इस संकेत के बाद दूसरा संकेत उस समय सामने आया जब संघ प्रमुख डा. भागवत द्वारा तैयार किये गये भारत के संविधान का प्रारूप सामने आया। शैल यह प्रारूप अपने पाठकों के
सामने भी रख चुका है और इस पर न तो भारत सरकार तथा न ही संघ परिवार की ओर से कोई खण्डन आया है। इस समय हिन्दु राष्ट्र की यह चर्चा कुछ और हल्कों में फिर सुनने को मिल रही है। इसके लिये भाजपा को कुछ और राज्यों में अपनी सरकारें चाहिये। संभव है राजस्थान का प्रयास इसी दिशा में एक कदम था।