Friday, 19 September 2025
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उत्पादक की क्षमता से पहले उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़ानी होगी

इस समय देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जहां किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिये ज्यादा देर तक तटस्थता की भूमिका में रह पाना संभव नही होगा। जिस तरह से आर्थिक मंदी और उससे निपटने के उपाय सामने आ रहे हैं उनसे हर आदमी सीधे तौर से प्रभावित हो रहा है। भले ही वह उस प्रभाव के बारे में सजग है या नही। क्योंकि इस आर्थिक मंदी से उत्पादन का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है और उसका सीधा प्रभाव रोज़गार पर पड़ा है। करोड़ो लोग परोक्ष/अपरोक्ष रूप से बेरोज़गार हुए हैं। सरकार ने इस कड़वे सच को स्वीकारते हुए उद्योगों को 1.45 लाख करोड़ की राहत प्रदान की है। यह राहत जीएसटी और कुछ अन्य टैक्सों की दरें कम करने के रूप में दी गयी है। इस राहत से सरकारी कोष में 1.45 लाख करोड़ के राजस्व की कमी आयेगी। यह कमी कैसे पूरी की जायेगी इसका कोई विकल्प सीधे रूप में सामने नहीं रखा गया है। माना जा रहा है कि इस कमी को विनिवेश के माध्यम से पूरा किया जायेगा जिसका अर्थ होगा कि कुछ और सरकारी संपत्तियों को नीजिक्षेत्र को सौंपा जायेगा। क्योंकि जीएसटी के माध्यम से जितना राजस्व आने की उम्मीद थी उसमें भी करीब दो लाख करोड़ की कमी रहने की उम्मीद है। सरकार 1.45 लाख करोड़ की राहत की घोषणा से पहले ही आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ ले चुकी है। अब इस राहत के बाद स्वभाविक है कि राजस्व में कमी आयेगी इसलिये सरकार इस कमी को कहां से कैसे पूरा करेगी और इसका आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह पहला सवाल है।
सरकार की 1.45 लाख करोड़ की राहत के साथ बाज़ार में खुशी की लहर देखने को मिली है। बाज़ार में निवेश में एकदम उछाल आया है। इस राहत से उत्पादन में जो कमी आयी थी वह रूक जायेगी उसमें बढ़ौत्तरी भी आ जायेगी और रोज़गार जाने का जो संकट पैदा हो गया था उसमें भी कुछ रोक लग जायेगी। मोटर गाड़ियां और हाऊसिंग का निर्माण फिर पुरानी चाल पर आ जायेगा यह माना जा रहा है। लेकिन इस सबसे खरीद पर भी असर पड़ेगा इसको लेकर संशय है। बाज़ार में 55 हजार करोड़ की गाड़ियां पहले से मौजूद हैं लेकिन उन्हे खरीदने वाला कोई नहीं था इसलिये आटोमोबाईल क्षेत्र में मंदी आयी थी। इसी तरह बाज़ार में 18 लाख घर बनकर तैयार हैं परन्तु लेने वाला कोई नही है। मंदी की तो परिभाषा ही यह है कि आपके पास बेचने के लिये तो सामान तैयार है परन्तु लेने वाला कोई नही हैं। इसका पता इसी से चल जाता है कि आरबीआई पांच बार ऋण की ब्याज दरों पर कटौती की घोषणाएं कर चुका है। यह घोषणाएं यह प्रमाणित करती है कि निवेशक और उपभोक्ता दोनो ही ऋण लेने से कतरा रहे हैं। क्योंकि दोनों के पास ऋण वापिस करने के पर्याप्त साधन नही हैं और बैंक भी एनपीए का और बोझ उठाने की स्थिति में नही हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठता है कि आखिर यह हालात पैदा क्यों और कैसे हो गये? क्या सरकार की प्राथमिकताएं अव्यवहारिक हो गयी हैं। सरकार जब छोटे किसानों और दुकानदारों को पैन्शन तथा गरीबों को ईलाज के लिये आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं लाने की बात करती है तो इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह मानती है कि उसकी योजनाओं से समाज के इस वर्ग का जीवन यापन कठिन हो गया है। यह वर्ग सरकार की योजनाओं के गुण दोषों का आकलन करने न लग जाये इसलिये उसे इस तरह की राहतें देकर कुछ समय के लिये शांत रखने का उपाय किया गया है। लेकिन यहां यह सवाल उठता है कि आखिर ऐसा कब तक किया जा सकता है। आज एक वर्ग को 1.45 लाख करोड़ की राहत देकर मंदी से बाहर निकालने का उपाय किया गया है लेकिन जिस ढंग से सरकारी निकायों का विनिवेश किया जा रहा है और सभी सरकारी उपक्रमों के 75% सरप्लस संसाधनों को समेकित निधि में शामिल करने के लिये आदेश किये जा चुके हैं क्या उससे आने वाले समय में यह सरकारी उपक्रम स्वतः ही बन्द होने की कगार पर नही आ जायेंगें तब बेरोज़गारों का एक और बड़ा वर्ग नहीं पैदा हो जायेगा? क्योंकि आज तो कोरपोरेट टैक्स घटाकर उद्योगपति को राहत दे दी गया है लेकिन उस राहत से उपभोक्ता की क्रय शक्ति नहीं बढ़ रही है और जिस तरह की योजनाएं चल रही हैं उससे यह क्रय शक्ति भविष्य में भी बढ़ने की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है।
आम आदमी के पास आय के सामान्य संसाधन क्या रह गये हैं? आज भी देश की 70% आबादी कृषि पर निर्भर है और यह प्रमाणित सत्य है कि जब तक कृषि पर आत्मनिर्भरता नहीं बनेगी तब तक औद्यौगिक निर्भरता का कोई बड़ा अर्थ नहीं रह जाता है। कृषि पर आधारित किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होता जा रहा है और उद्योगपत्ति हज़ारों करोड़ का एनपीए डकार कर भी सुरक्षित और सम्मानित घूम रहा है। नोटबंदी के पांच दिन बाद ही 63 अरबपतियों का 6000 करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया था। उसी दौरान की एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक कुछ अरबपति बैंकों का आठ लाख करोड़ डकार गये थे और मोदी सरकार ने इसमें से 1,14,000 करोड़ तो माफ कर दिये थे। उस समय केजरीवाल ने वाकायदा एक पोस्टर के माध्यम से यह आरोप लगाये थे लेकिन आजतक इन आरोपों का कोई जवाब नही आया है। ऐसे ही कई और आरोप हैं जिनके जवाब नही आये हैं जिनमें कपिल सिब्बल का जाली नोटों को लेकर लगाया गया आरोप बहुत ही गंभीर है। आरोपों का जब सार्वजनिक रूप से जवाब नही आता है और न ही आरोप लगाने वाले के खिलाफ कोई कारवाई की जाती है तब आम आदमी के पास आरोपों को सच मानने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। आज सरकार इसी कगार पर पहुंचती जा रही है। इसलिये आर्थिक मंदी को रोकने के लिये उत्पादक से पहले उपभोक्ता की क्रय शक्ति को बढ़ाने की आवश्यकता है। आर्थिकी एक ऐसा पक्ष है जिस पर हर आदमी अपनी-अपनी तरह चिन्ता और चिन्तन करता है क्योंकि भूखे आदमी के हर सवाल का जवाब केवल रोटी ही होता है।

भामाशाही अवधारणा का परिणाम है आर्थिक मंदी

इस समय देश आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है क्योंकि मांग और उत्पादन दोनों में अचानक कमी आ गयी है। इस मंदी के कारण न केवल रोजगार पर असर पड़ा है बल्कि बहुत सारे छोटे और मध्यम स्तर के कामगारों का लगा हुआ रोजगार छिन गया है। आर्थिक मंदी का असर मंहगाई पर भी पड़ा है। किचन से लेकर स्कूल और स्वास्थ्य तक सभी क्षेत्रों में मंहगाई बढ़ी है। कई लोग देश की आर्थिक मंदी को वैश्विक मंदी से जोड़कर देख रहे हैं। कुल मिलाकर अभी तक इस मंदी के सार्वजनिक साधारण समझ में आने के कारण चिन्हित नहीं हो पाये हैं। क्योंकि आटोमोबाईल सैक्टर में आयी मंदी के लिये जब देश की वित्तमंत्री उबर और ओला जैसी सर्विस प्रदाता कंपनीयों को जिम्मेदार ठहरायेगी तो यह मानना पड़ेगा कि बीमारी का निदान सही नही है। उबर और ओला का आम आदमी के वाहन स्कूटर और किसान के खेत में चलने वाले ट्रैक्टर तथा माल ढोने वाले ट्रक के उत्पादन और उसकी बिक्री से कोई संबंध नही है। स्कूटर, ट्रैक्टर और ट्रक सबकी बिक्री में कमी आयी है। देश के तीस बड़े शहरों में अठाहर लाख मकान बिकने के लिये लम्बे अरसे से खड़े हैं लेकिन कोई खरीददार नही है।
सरकार ने इस मंदी से बाहर निकलने के लिये बाजार में अतिरिक्त पूंजी उपलब्ध करवाई है। बैंकों को ऋणों पर ब्याज दरें कम करने के आदेश किये हैं। इन आदेशों के बाद बैंकों ने ब्याज दरें कम भी की है लेकिन ऋणों पर ब्याज दरें कम करने के साथ ही लोगों की हर तरह की जमा पूंजी पर भी यह दरें कम हुई हैं। इसी के साथ सरकार ने आटो सैक्टर को उबारने के लिये सरकार द्वारा वाहन खरीद पर बल दिया है। क्या सरकार द्वारा नये वाहन खरीदने से यह उत्पादन में आयी मंदी दूर हो पायेगी इसको लेकर संशय बना हुआ है। क्योंकि आज केन्द्र से लेकर राज्य तक हर सरकार कर्ज के चक्रव्यूह में फंसी हुई है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि सरकार के पास पैसा कहां से आयेगा। सरकार ने बिल्डरों को राहत देते हुए उन्हें बीस हजार करोड़ की पूंजी उपलब्ध करवाई है। इस पूंजी से उन बिल्ड़रों को राहत दी जायेगी जिनके भवन निर्माण 60% तक हो चुके हैं लेकिन अगला काम पैसों के अभाव में रूक गया है। ऐसे 3.5 लाख निर्माण चिन्हित किये गये हैं जिन्हे इससे लाभ मिलेगा। इनके लिये शर्त रखी गयी है कि यह बिल्डर एनपीए में न आ गये हों और न ही अदालत में ऐसी कोई कारवाई चल रही हो। लेकिन पिछले दिनों यह आंकड़ा आया है कि इस समय देश के तीस बड़े शहरों में 18 लाख मकान तैयार खड़े हैं जिनके लिये कोई खरीददार सामने नहीं आ रहे हैं।
आज बाज़ार में हर क्षेत्र में मंदी का दौर चल रहा है कपड़ा उद्योग ने तो एक विज्ञापन छापकर अपनी मंदी की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। इस विज्ञापन के अनुसार अकेले कपड़ा उद्योग में ही परोक्ष-अपरोक्ष रूप से एक करोड़ रोजगार प्रभावित हुए हैं। इस वस्तुस्थिति में यह अहम सवाल खड़ा होता है कि बाजार में एकदम पूंजी की कमी क्यों आ गयी? पैसा चला कहां गया। इसका कोई जवाब अभी तक सरकार की ओर से नही आया है। जबकि देश के अन्दर ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा नही आयी है जिससे एक ही झटके में लाखों करोड़ का नुकसान हो गया हो। बिना किसी आपदा के बाजा़र से पूंजी का गायब होना कई सवाल खड़े करता है। क्योंकि यह सब सरकार की नीतियों का ही परिणाम होता है और सरकार की नीतियों को उसकी सोच प्रभावित करती है। इस समय देश में केन्द्र से लेकर अधिकांश राज्यों तक भाजपा की सरकार है। भाजपा की हर सोच का केन्द्र आरएसएस है और आरएसएस का आर्थिक चिन्तन भामाशाही अवधारणा पर आधारित है। इस सोच के मुताबिक हर शिवाजी के लिये एक भामाशाही चाहिये और इस भामाशाही के लिये संसाधनों की स्वायतता चाहिये। इसी अवधारणा का परिणाम है विनिवेश मंत्रालय और सेवाओं का आऊट सोर्स किया जाना। यह विनिवेश मंत्रालय पहली बार वाजपेयी सरकार में सामने आया था। तब से लेकर अब तक भाजपा सरकारों का केन्द्र से राज्यों तक यह नीति निर्धारिक बिन्दु बन गया है। इसी का परिणाम है कि जिस संघ ने एक समय स्वदेशी जागरण मंच तले एफडीआई का विरोध किया था आज उसी की सरकार का एफडीआई एक बड़ा ऐजैण्डा बना हुआ है। इसी के लिये आज रोजगार की जगह स्वरोजगार का नारा दिया जा रहा है।
स्वभाविक है कि जब आर्थिक क्षेत्र में इस तरह का नीतिगत बदलाव लाया जायेगा तो उसमें कई तरह के जोखिम भी शामिल रहेंगे। इस तरह की आर्थिक सोच इतने बड़े लोकतांत्रिक देश के लिये कैसे लाभदायक सिद्ध हो सकती है इसके लिये एक लम्बी सार्वजनिक बहस की आवश्यकता है। खेत और कारखाने में से किसे प्राथमिकता दी जाये यह चयन करना होगा और यह चयन करते हुए यह दिमाग में स्पष्ट रखना होगा कि अनाज का विकल्प अभी तक किसी भी कम्प्यूटर में सामने नही आया है। इसीलिये आज भी गरीब के ईलाज में आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं की आवश्यकता आ खड़ी हुई है और इस आयुष्मान भारत के लाभार्थी वर्ग के लिये बुलेट ट्रैन और चन्द्रयान का कोई महत्व नही रह जाता है। आज यह सोचने की आवश्यकता है कि हमारी बुलेट ट्रैन जैसी योजनाएं कितने प्रतिशत लोगों की आवश्यकता है। जिस देश में स्वास्थ्य के लिये आयुष्मान भारत और शिक्षा के लिये मुफ्त बर्दी, मुफ्त स्कूल बैग और मीड डे मील जैसी योजनाओं की आवश्यकता मानी जा रही है उसमें आर्थिक क्षेत्र में भामाशाही अवधारणा कतई प्रसांगिक नही हो सकती यह स्पष्ट है। इस परिदृष्य मे यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि बाजार में पूंजी का ऐसा अभाव कैसे आ गया कि सरकार को आरबीआई से पैसा लेना पड़ा और सार्वजनिक उपक्रमों के 75% अधिशेष संसाधन राज्य की समेकित निधि में ट्रांसफर करवाने पड़े। इसी के साथ नोटबंदी के बाद 8.5 लाख करोड़ का एनपीए बटटे खाते में डालने और 3.10 लाख करोड़ की जाली कंरसी का फिर से आ जाना सरकार के प्रयासों पर सवाल उठाता है। इस जाली करंसी पर कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने जो आरोप लगाये हैं उनपर सरकार की खामोशी पूरे मामले को और भी गंभीर बना देती है।

भत्ता बढ़ौत्तरी पर उभरे विरोध का अर्थ

इस बार प्रदेश के माननीयों के भत्ते बढ़ाये जाने पर जनता में रोष और विरोध के स्वर देखने को मिले हैं। यह बढ़ौत्तरी पहली बार ही नही हुई है लेकिन विरोध पहली बार हो रहा है। इस विरोध के बाद भाजपा के ही वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धमूल की प्रतिक्रिया आयी है। धूमल ने कहा है कि जब हम आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहे हैं तब यदि विधायक अपने भत्ते बढ़ायेंगे तो विरोध तो होगा ही। धूमल की प्रतिक्रिया के बाद मुख्यमन्त्री जयराम का ब्यान आया है कि वेतन भत्ते तो वीरभद्र और धूमल की सरकारों मे भी बढ़ाये गये हैं तो फिर इसी बार यह विरोध क्यों? जनता में उभरे विरोध के बाद भाजपा के एक विधायक मनोहर धीमान ने भी यह बढ़ौत्तरी लेने से इन्कार कर दिया है। जब सदन में इस विधेयक पर चर्चा हुई थी तब केवल मात्र सीपीएम के विधायक राकेश सिंघा ने इसका विरोध करते हुए इसे वापिस लेने की मांग की थी। लेकिन कांग्रेस और भाजपा के विधायकों ने न केवल इसका समर्थन बल्कि इसके पक्ष में जबरदस्त तर्क भी रखे। शायद उस समय कोई भी माननीय यह अनुमान ही नही लगा पाया कि जनता इस बढ़ौत्तरी का ऐसा विरोध करेगी। इसी विरोध का परिणाम है कि मुख्यमन्त्री को यह कहना पड़ा है कि यदि विधायक लिखकर देंगे तो सरकार इस पर पुर्नविचार करने को तैयार है। यह आने वाला समय बतायेगा कि विधायक लिखकर देते हैं और यह विधयेक वापिस हो पाता है या नही। क्योंकि मुख्यमन्त्री ने अपने से पलटकर यह जिम्मेदारी विधायकों पर डाल दी है।
जब हर मुख्यमन्त्री के कार्यकाल में ऐसी बढ़ौत्तरीयां होती रही हैं और तब इसका कभी न कभी न तो सदन के अन्दर विरोध हुआ और न ही सदन के बाहर जनता में। फिर इसी बार यह विरोध क्यों और इस विरोध का अर्थ क्या है। यह समझना ही इस विरोध का केन्द्र बिन्दु है। आज राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक मंदी एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा बन चुका है क्योंकि उत्पादन में लगातार गिरावट आती जा रही है। 2014-15 के मुकाबले आज जीडीपी में 3% की गिरावट आ चुकी है। इसमें सबसे रोचक तथ्य यह है कि जब नोटबंदी लागू करते समय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने देश से पचास दिन का समय मांगा था और यह दावा किया था कि पचास दिन में सबकुछ ठीक हो जायेगा। इस दावे के साथ यह भी कहा था यदि इस फैसले में कोई गलती निकलती है तो वह जनता द्वारा किसी भी चौराहे पर सजा़ भुगतने को तैयार हैं। लेकिन नोटंबदी पर आई आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक उस समय 15.44 लाख करोड़ की कंरसी चलन मे थी जो आज बढ़कर 21.10 लाख करोड़ हो गयी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि नोटबंदी की आड़ में बड़े स्तर पर कालाधन सफेद होकर फिर उन्हीं हाथों के पास जा पहुंचा है जिनके पास पहले था। आज भी 3.17 लाख करोड़ के नकली नोट बाज़ारा मे आ चुके हैं।
नोटबंदी से न तो कालाधन चिन्हित हो पाया है और न ही उसके बाद जाली नोट बंद हो पाये हैं। उल्टा तीन लाख करोड़ का अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है। जब नरेन्द्र मोदी ने देश से पचास दिन का समय मांगा था उसी समय पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस फैसले से आगे चलकर जीडीपी में 3% तक की गिरावट आ जायेगी। आज डा. मनमोहन सिंह का कथन शत प्रतिशत सही सिद्ध हुआ है। जीडीपी में आयी गिरावट से अब तक प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष में करीब एक करोड़ लोग बेरोज़गार हो गये हैं। जमा धन और ऋण दोनो पर ब्याज दरें कम हुई है लेकिन इसके बावजूद निवेश के लिये कोई आगे नही आ रहा है। आर्थिक मंदी से मंहगाई और बढ़ गयी है। जिन लोगों का रोज़गार छिन गया है उन्हें जीवन यापन चलाने में कठिनाई आ रही है। इसी सबका परिणाम है कि आज माननीयों के वेत्तन/भत्ते और पैन्शन तथा अन्य सुविधाओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर हो चुकी है। इसी याचिका का परिणाम है कि सांसदों के वेत्तन भत्ते बढ़ाने का प्रस्ताव एक कमीशन को भेजने की बात आयी है। आज जिस तरह की आर्थिक मंदी में देश पहुच गया है उसके लिये इन माननीयों के अतिरिक्त और दूसरा कोई जिम्मेदार नही है।
आज हिमाचल की स्थिति राष्ट्रीय स्थिति से भी दो कदम आगे पहुंच चुकी है। सरकार ने कर्ज और रोज़गार को लेकर सही आंकड़े प्रदेश की जनता के सामने नहीं रखे हैं। विधानसभा में आये लिखित आंकड़ों के बाद भी जब गलतब्यानी की जायेगी तो उसका असर सरकार की विश्वसनीयता पर पड़ेगा ही। इसी का परिणाम है कि जब पर्यटन निगम की परिसंपत्तियों को लीज पर देने की योजना सार्वजनिक हो गयी तो मुख्यमन्त्री को यह कहना पड़ा कि यह सब उनकी जानकारी के बिना हुआ है। इस पर जांच की बात करते हुए सचिव पर्यटक को बदल दिया गया। मुख्य सचिव को तीन दिन में रिपोर्ट सौंपने के  निर्देश दिये गये हैं। आज मुख्य सचिव प्रदेश से चले भी गये हैं परन्तु यह रिपोर्ट सामने नही आयी है। क्योंकि जब यह मसौदा तैयार हुआ था तब इसकी प्रैजेन्टेशन मुख्य सचिव और मन्त्री परिषद के सामने भी दी गयी थी। उस पर कुछ अधिकारियों और मन्त्रीयों की टिप्पणीयां भी की हुई हैं ऐसे में इसके लिये किसी एक अधिकारी को दर्शित करना कैसे संभव हो सकता है। इस तरह के कृत्य जब आम आदमी के सामने आयेंगे तो वह सरकार पर कैसे विश्वास बना पायेगा। ऐसे दर्जनों मामले हैं जिनके कारण जनता का सरकार पर से विश्वास लगातार कम होता जा रहा हैै। ऐसे में जनता के सामने जब भी यह आयेगा कि विधायक और मन्त्री इस तरह से अपने वेतन भत्ते बढ़ा रहे हैं तो निश्चित रूप से उसका विरोध होगा ही। आज जनता को एक मौका मिलना चाहिये जहां वह अपने रोष को इस तरह से जुबान दे सके। आज जनता जो भत्ता बढ़ौत्तरी का इस तरह से मुखर विरोध  कर रही है वह केवल राज्य सरकार के खिलाफ ही नही वरन् अपरोक्ष में केन्द्र की नीतियों के भी खिलाफ है और इस विरोध के परिणाम दूरगामी होंगे।

नोटबंदी से आर बी आई तक

मोदी सरकार ने आरबीआई से 1.76 लाख करोड़ उसके सुरक्षित कोष से ले लिया है। यह पैसा लेने पर सरकार की आर्थिक नीतियों पर पहली बार एक बहस उठ खड़ी हुई है क्योंकि ऐसा शायद पहली बार हुआ है। कुछ लोग इसे सरकार का अधिकार मान रहे हैं। उनका तर्क है कि यह पैसा आर बी आई के पास सरप्लस पड़ा था जो सरकार के पास आकर सीधे निवेश में चला जायेगा। कुछ का मानना है कि यह एक गलत आचरण है और इससे आने वाले दिनों में इस सैन्ट्रल बैंक की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने शुरू हो जायेंगे। इस आशंका का आधार शायद बैंको का लगातार बढ़ता एनपीए है जिसे सख्ती से वसूलने के उपाय करने की बजाये उन्हें इस तरह से धन उपलब्ध करवा करके और छूट दी जा रही है। यह आशंका निराधार नही हैं क्योंकि बैंक आम आदमी के जमा पर दिये जाने वाले ब्याज में कटौती करके उसका लाभ कर्जदार की ब्याज दर कम करके उसको दे रहे हैं और इस कर्ज को वापिस लेना सुनिश्चित नही हो रहा है। मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और वित्तमन्त्री के प्रबन्धन के सबसे पहले विरोधी बाजपेयी सरकार में रहे वित्तमन्त्री यशवन्त सिन्हा और उस समय विनिवेश मंत्री रहे अरूण शौरी तथा जाने माने अर्थशास्त्रीय राज्य सभा सांसद डा.स्वामी रहे हैं। ऐसे में यह समझना बहुत आवश्यक हो जाता है कि ऐसी स्थिति उभरी ही क्यों? इसके लिये 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान जो कुछ घटा है उस पर भी नज़र दौड़ाना आवश्यक हो जाता है। उस समय राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष थे। उन्होने चुनावों के लिये एक स्ट्रैटेजिक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी का अध्यक्ष डा.स्वामी को बनाया गया था और इसमें रा, सैन्य गुप्तचर तथा आई बी के पूर्व अधिकारी थे। इस कमेटी ने अपने अध्ययन के बाद कालेधन को देश की सबसे बड़ी समस्या बताया था। जाली नोटों और आतंकवाद के लिये कालेधन को ही जिम्मेदार ठहराया गया था। इन समस्याओं का एक मात्र कारगर हल नोटबन्दी माना गया था। इसलिये यह दावा किया गया था कि नोटबंदी से कालाधन, जाली नोट और आतंकवाद सब कुछ समाप्त हो जायेगा। कमेटी की इस धारणा को जुलाई 2016 में आर बी आई की साईट पर आये मनी स्टाॅक के आंकड़ों से बल मिल गया। इन आंकड़ों के अनुसार उस समय 17,36,177 करोड़ की कंरसी परिचालन में थी। इसमें 475034 करोड़ तो बैंकों की तिजोरीयों में था और 16,61,143 करोड़ जनता के पास थी। जनता के पास 86% कंरसी थी लेकिन यह बैंकों के पास आ नही रही थी। सरकार को मार्च 2019 तक बे्रसल-3 के मानक पूरे करने थे जिसे पूरा करने के लिये पांच लाख करोड़ चाहिये थे। इस आंकड़ों से यह धारणा और पुख्ता हो गयी कि देश में कालाधन सही में है और इसी कारण से यह बैंकों में वापिस नही आ रहा है। ऐसे में यदि नोटबन्दी करके जनता के पास पड़ी 86% कंरसी को चलन से बाहर कर दिया जाये तो सरकार नये सिरे से नयी कंरसी छाप सकती है और इसी से नोटबंदी का फैसला ले लिया गया। लेकिन आगे चलकर इस 86% कंरसी की 99% से भी अधिक की कंरसी वापिस आ गयी। इस 99% पुरानी कंरसी को नयी कंरसी के साथ बदलना पड़ा। परन्तु यह पैसा जनता का था और जनता का ही रहा। इसे नयी कंरसी के साथ जब बदल दिया गया तो यह एकदम सफेद धन हो गया। इसी कारण से आर.बी.आई. और सरकार आज तक यह आकंड़ा जारी नही कर पाये हैं कि देश में कालाधन और जाली नोट कितने थे। इससे उल्टा सरकार पर यह आरोप आ गया कि नोटबन्दी के माध्यम से कालेधन और जाली नोटों को सफेद में बदलने का मौका दे दिया गया। इस नोटबंदी से एन पी ए की समस्या अपनी जगह यथास्थिति बनी रही। यह एन पी ए सबसे अधिक उन घरानों का था जिन्होंने चुनावों में खुलकर धन साधनों को योगदान दिया था इसीलिये आगे चलकर सरकार को इन घरानों का 8.5 लाख करोड़ राईट आफ करना पड़ा। यह आकंड़ा संसद में आप सांसद सजंय सिंह ने रखा है जिसका सरकार कोई जवाब नही दे पायी है। इस तरह जब सरकारी खजाने को एन पी ए के नाम पर एक ही झटके में इतनी बड़ी चोट पहुंचा दी जायेगी तो इसका असर पूरी व्यवस्था पर पड़ेगा। इसी एन पी ए के कारण बैंक घाटे में चल रहे हैं बैंको के पास पैसा नही है। सरकार की योजनाओं को पूरा करने के लिये बैंकों को धन उपलब्ध करवाना आवश्यक है लेकिन जब कर्ज को वसूले बिना बैंकों को पैसा दिया जायेगा तो निश्चित और स्वभाविक है कि आर बी आई से उसका रिजर्व ही लिया जायेगा जिसकी शुरूआत अब हो गयी है। यह रिजर्व लेना रूकेगा या नही यह कहना कठिन है। रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गर्वनर विरल आचार्य और गवर्नर उर्जित पटेल शायद इसीलिये छोड़ गये हैं क्योंकि वह इससे सहमत नही थे। आज आर बीआई से पैसा लेकर बैंको को रिफांईनैंस करके क्या उद्योगों में जो उत्पादन बन्द हो गया है और नौकरीयां चली गयी है क्या उसे पुनः बहाल किया जा सकेगा? क्या गरीब आदमी की बचत पर ब्याज कम करके उसका लाभ ऋणी को देना एक सही कदम है शायद नही। सरकार को लेकर यह धारणा बन गयी है कि उसकी प्राथमिकता तो बड़े उद्योग घरानों के हितों की रक्षा करना है और यह बात अब आम आदमी तक पहुंचनी शुरू हो गयी है। क्योंकि जिस ढंग से गरीब आदमी को बी पी एल से बाहर निकालने की योजनाएं बन रही है उससे गरीब आदमी सरकार पर ज्यादा देर तक विश्वास नही रख पायेगा। उसे मंदिर-मस्जिद और हिन्दु-मुस्लिम के द्वन्द में ज्यादा देर तक उलझा कर रखना कठिन होगा। आर बीआई से यह पैसा लेने के साथ यदि एन पी ए की वसूली के लिये सही में कड़े कदम न उठाये गये तो इस सबका कोई अर्थ नही रह जायेगा।

चिदम्बर की गिरफ्तारी से उठते सवाल

पूर्व वित्तमंत्री पर चिदम्बरम को सीबीआई ने भ्रष्टाचार के एक मामले में गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन इस गिरफ्तारी को लेकर कुछ गंभीर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। पहला सवाल है कि जिस मामले में यह गिरफ्तारी हुई है उसकी एफआईआर में चिदम्बर का नाम नही है। यह नाम इसी मामले में अभियुक्त बनी इन्द्राणी मुखर्जी के ब्यान के बाद सामने आया है। इन्द्राणी अपनी ही बेटी के कत्ल के आरोप में जेल में है। नाम सामने आने के बाद जब भी सीबीआई/ईडी ने चिदम्बर को जांच के लिये  बुलाया वह इसमें शामिल हुए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय में उनकी अग्रिम जमानत पर सात महीने फैसला रिर्जव रहा और मान्य न्यायधीश ने अपनी सेवानिवृति के दिन इस याचिका को खारिज कर दिया। इस पर चिदम्बर सर्वोच्च न्यायालय जाते हैं लेकिन उन्हे शीघ्र Urgent सुनवाई का अवसर नही दिया जाता है। फिर इसी मामले में वित्त मन्त्रालय के उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कारवाई नही की जाती है जिन्हे इसमें सीबीआई ने दोशी नामजद किया हुआ है क्योंकि इन्ही की संस्तुति का अनुमोदन मंत्री के स्तर पर हुआ है। इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में जिस तरह से चिदम्बरम को गिरफ्तार किया गया है उससे सीबीआई के राजनीतिक दवाब में होने के आरोपों से इन्कार करना आसान नही रह जाता है। यह आवश्यक है कि भ्रष्टाचार से सख्ती से निपटा जाये चाहे भ्रष्टाचारी किसी भी स्तर का बड़ा आदमी क्यों न हो। लेकिन इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि इसमें स्थापित नियमों कानूनों की उल्लंघना न की जाये क्योंकि ऐसा करने से राजनीतिक दुर्भावना के आरोप लगते हैं और फिर सब कुछ उसी में दबकर रह जाता है।
आज चिदम्बरम प्रकरण में जांच ऐजैन्सीयों की भूमिका पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं और यह सवाल तब और ज्यादा प्रमाणित हो जाते हैं जब इन्हे सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी ‘‘ पिंजरे का तोता’’ और अब सी जे आई को कथन कि ‘‘जब राजनीतिक संद्धर्भ न हो तो सीबीआई बहुत अच्छा काम करती है’’ के आईने में देखा जाये तो यह आरोप सही नजर आते हैं। लेकिन जांच ऐजैन्सीयों पर लगने वाले आरोप अपरोक्ष में राजनीतिक नेतृत्व पर ही आ जाते हैं। इस धारणा की पुष्टि एच एस बेदी कमेटी की रिपोर्ट से हो जाती है। यह सार्वजनिक सत्य है कि 2002 से 2006 के बीच जो कुछ गुजरात में घटा था उसमें यह आरोप लगे थे कि कहीं-कहीं यह हिंसा शासन-प्रशासन से प्रायोजित थी। पुलिस पर फर्जी एन काऊंटर दिखाने के आरोप लगे थे। इन कथित फर्जी मुठभेड़ों पर 2007 में बी जी वर्गीज, जावेद अख्तर और शबनम हाशमी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका डाली थी। जिसमें फर्जी मुठभेड़ों के सत्रह मामले उठाये गये थे। इस याचिका के आते ही गुजरात सरकार ने इसकी जांच के लिये एसटीएफ का गठन कर दिया। एसटीएफ के प्रमुख की जिम्मेदारी पुलिस अधिकारी ए.के.शर्मा प्रधानमंत्री मोदी के निकटस्थ माने जाते हैं। इस कारण से हाशमी ने उनकी नियुक्ति पर ऐतराज उठाया। जब यह सब कुछ सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में लाया गया तब शीर्ष अदालत ने एसटीएफ की मानिटरिंग के लिये सर्वोच्च न्यायालय के ही पूर्व जज जस्टिस ए.वी.शाह की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया। जस्टिस शाह ने यह जिम्मेदारी उठाने से इन्कार कर दिया। शाह के इन्कार के बाद गुजरात सरकार ने अपने ही स्तर पर शाह की जगह मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश के.आर.व्यास को कमेटी का अध्यक्ष बना दिया। लेकिन जस्टिस शाह की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय ने की थी इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस व्यास के स्थान पर शीर्ष अदालत के ही पूर्व जज एच.एस.बेदी को कमेटी का अध्यक्ष बनाया।
जस्टिस बेदी को 12 मार्च 2012 को अध्यक्ष बनाया गया और यह कहा गया कि यह कमेटी तीन माह के भीतर अपनी पूर्ण या अन्तरिम रिपोर्ट सौंपेगी। लेकिन गुजरात सरकार ने इस रिपोर्ट के सौंपने, इसको सार्वजनिक करने और उन याचिकाकर्ताओं को भी देने का विरोध किया जिनके कारण यह कमेटी गठित हुई थी। इस विरोध पर यह मामला पुनः सर्वोच्च न्यायालय में आया और शीर्ष अदालत ने 18 दिसम्बर 2018 को यह रिपोर्ट याचिकाकर्ताओं को देने के आदेश दिये। इन आदेशों की अनुपालना में 20 दिसम्बर को जस्टिस बेदी ने 220 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में तीन मामलों को पुलिस हिरासत में हुई मौत करार देते हुए इसकी जांच और दोषीयों को कड़ी सज़ा देने के निर्देश शीर्ष अदालत ने दिये हैं। लेकिन आज तक इन निर्देशों की अनुपालना नही हुई है। जब जस्टिस बेदी कमेटी इन मामलों को देख रही थी उसी दौरान इन दंगों को लेकर एक पत्रकार राणा आयूब ने एक स्टिंग आप्रेशन किया। इसका जिक्र बेदी कमेटी की रिपोर्ट में भी आया है। यह स्टिंग आप्रेशन अब गुजरात फाईलज़ पुस्तक रूप में भी सामने आ चुका है। लेकिन आज तक इस पर कोई कारवाई नही हुई है। यदि इस स्टिंग में दर्ज तथ्य गलत हैं तो राणा आयूब के खिलाफ मानहानि का मामला चलाया जाना चाहिये था लेकिन ऐसा नही हुआ है। आज जिस एनआईए को अचूक शक्तियां दे दी गयी है उस पर समझौता ब्लास्ट मामले में एनआईए की ही पंचकूला स्थित अदालत में गंभीर आक्षेप लगाये हैं। इस ब्लास्ट में पचास से अधिक लोग मारे गये थे लेकिन सारे अभियुक्तों को बरी कर दिया गया है। यह बरी करने की कहानी भी वैसी ही है जैसी कि पहलू खान के हत्यारों को बरी करने की रही है।
इस तरह के एकदम नंगे मामले जब आम आदमी के सामने होंगे तो वह इस पूरी व्यवस्था को लेकर क्या धारणा बनायेगा? क्या वह किसी पर भी विश्वास कर पायेगा जब वह यह समझ जायेगा कि उसकी बचत पर ब्याज दर घटाकर उस बड़े ण धारक को लाभ पहुंचाया जा रहा है जिसका ऋण एनपीए होकर राईट आफ किया जा रहा है। जब आम आदमी इस सुनियोजित षडयंत्र को समझकर सड़क पर निकल आयेगा तब इस व्यवस्था का समूल नाश होना निश्चित है। ऐसी वस्तुस्थिति मे चिदम्बरम जैसी गिरफ्तारियों पर सवाल उठने स्वभाविक है।

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