शिमला/शैल। कांग्रेस के प्रदेश से राज्यसभा उम्मीदवार रहे अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मनु सिंघवी ने यह चुनाव हारने के बाद प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है । स्मरणीय है कि छः कांग्रेस विधायकों और तीन निर्दलीयों द्वारा भाजपा प्रत्याशी हर्ष महाजन के पक्ष में मतदान करने से कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही प्रत्याशियों को मतदान में 34/34 वोट पड़े हैं। ऐसे में बराबर वोट पढ़ने के बाद पर्ची के माध्यम से हार जीत का फैसला किया गया और उसमें भाजपा के हर्ष महाजन विजय घोषित कर दिए गए । 27 फरवरी को यह मतदान हुआ और उसी दिन परिणाम भी घोषित हो गया। अब हर्ष महाजन बतौर राज्यसभा सांसद पद और गोपनीयता की शपथ भी ले चुके हैं । ऐसे में तुरंत प्रभाव से इस याचिका का कोई प्रभाव चुनाव परिणाम पर या उम्मीदवार पर होने वाला नहीं है । लेकिन जो विषय डा. सिंघवी ने उठाया है वह महत्वपूर्ण है और ऐसी स्थितियों के लिए नियमों में कोई प्रावधान किया जाना आवश्यक है। दुर्भाग्य से वर्तमान में संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। इस याचिका का कब क्या अंतिम फैसला आता है और उसके बाद संसद उस पर क्या रुख अपनाती है इसके लिए लंबे समय तक इंतजार करना होगा ।
ऐसे में इस याचिका को लेकर एक रोचक पक्ष यह सामने आता है कि राज्यसभा में क्रॉसवोटिंग के बाद बागीयों को निष्कासित कर दिया गया और उनके स्थानो पर उपचुनाव होने भी अधिसूचित हो गए और सभी बागीयों को भाजपा ने अपना उम्मीदवार भी घोषित कर दिया है। इससे इस सारे खेल मी में भाजपा की भूमिका की पुष्टि हो जाती है। लेकिन निर्दलीयों को लेकर मामला अध्यक्ष के पास लंबित चल रहा है। इस संबंध में बालूगंज में एक एफ आईआर भी दर्ज भी दर्ज है जिसकी जांच चल रही है। इसकी जांच के आधार पर मुख्यमंत्री ने इन विधायकों के पन्द्रह पन्द्रह करोड़ में बिकने का आरोप लगाया है। यदि इस जांच में सही में कोई ऐसे लेन देन का साक्ष्य पुलिस जुटा लेती है तो यह चालान कोर्ट में ले जाकर पूरे मामले का परिदृश्य बदलने का प्रयास किया जायेगा।उस स्थिति में डा.सिंघवी की याचिका की प्रसांगिकता भी बदल जाएगी । यदि पूरे खेल में भाजपा की इस तरह की संलिप्तता प्रमाणित हो जाती है तो क्या उसका असर राज्यसभा चुनाव प्रक्रिया पर नहीं पड़ेगा? यह एक महत्वपूर्ण सवाल हो जाता है। क्योंकि जिस तरह से इस चुनाव को चुनौती दी गई है उसको महज एक सैद्धांतिक नियम स्थापना के उद्देश्य से प्रेरित नहीं माना जा सकता ।
ऐसे में याचिका को भाजपा के रणनीतिकार और विधि विशेषज्ञ कैसे लेते हैं और क्या रणनीति तय करते हैं आने वाले दिनों में दिलचस्प होगा। क्योंकि वर्तमान में प्रदेश का राजनीतिक वातावरण एफ आई आर दर्ज होने और फिर 15-15 करोड़ में बिकने के आरोप लगने तथा इन आरोपों पर बागीयों द्वारा अपनायी आक्रमकता को यदि एक साथ रख कर देखा जाये तो डॉ. सिंघवी की याचिका की प्रसांगिकता ही बदल जाती है। विश्लेषकों का मानना है की बालूगंज थाना में चल रही जांच और उसके बाद आयी इस याचिका मे कोई अन्त : संबंध आवश्यक है ।
निर्दलीयों के त्यागपत्रों पर फैसला लटकाने से उठी चर्चा
जब निर्दलीय भाजपा में शामिल हो चुके हैं तो अध्यक्ष दल बदल के तहत कितने समय तक कारवाई रोक पायेंगे
यदि निर्दलीय त्यागपत्र वापस लेकर केवल भाजपा में शामिल होने की ही जानकारी दे तो क्या होगा?
क्या यह परिस्थितियां राष्ट्रपति शासन के संकेत तो नही है
शिमला/शैल। क्या विधानसभा अध्यक्ष निर्दलीय विधायकों के त्यागपत्रों को स्वीकारने या अस्वीकारने का फैसला लेने में देरी करने से सरकार को गिरने से बचा पायेंगे? क्योंकि इस फैसले को लम्बाने का एक ही अर्थ है कि किसी तरह निर्दलीय विधायकों के विधानसभा क्षेत्रों को रिक्त होने और वहां पर भी उपचुनाव की घोषणा को चुनाव अधिसूचना जारी होने तक रोक रखा जा सके। निर्दलीय विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैं और भाजपा ने उन्हें उन्हीं क्षेत्रों से अपने उम्मीदवार घोषित करके इस पर मोहर लगा दी है कि यह लोग राजनीतिक दल में शामिल हो चुके हैं। इनके भाजपा में शामिल होने के बाद यह लोग स्वतः ही दल बदल कानून के दायरे में आ गये हैं। दल बदल कानून के दायरे में ंआने के बाद इनके खिलाफ निष्कासन की कारवाई करना विधानसभा अध्यक्ष का दायित्व है। यदि इन लोगों ने त्यागपत्र न दिये होते और सिर्फ भाजपा में शामिल होने की ही जानकारी दी होती तो क्या तब भी अध्यक्ष इनके खिलाफ निष्कासन की कारवाई को लटकाये रखते? शायद नहीं। इन लोगों ने अपने त्यागपत्र सौंपकर अध्यक्ष और पूरी सरकार को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां पर सिर्फ यही कहा जा रहा है कि यह सब सरकार बचाने के कमजोर प्रयास है। क्योंकि इन्होंने अपने त्यागपत्र अध्यक्ष को मिलकर सौंपे हैं और इसकी वीडियो भी जारी हो चुकी है। निर्दलीय विधायकों ने राज्यपाल से मिलकर उन्हें भी त्यागपत्रों की प्रति सौंपी है। राज्यपाल ने इन त्यागपत्रों को अपनी राय के साथ अध्यक्ष को भेजा। राज्यपाल ने अपनी राय में संवैधानिक प्रावधान और सर्वाेच्च न्यायालय के फैसलों का जिक्र करते हुए इन त्यागपत्रों को स्वीकार कर लेने की राय दी है। राज्यपाल ने अपनी राय में स्पष्ट कहा है कि इस विषय पर अन्तिम फैसला विधानसभा अध्यक्ष का ही विशेषाधिकार है। लेकिन इसी राय के साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राज्यपाल भी पूरी घटनाक्रम पर अपनी नजर बनाये हुये हैं। अब यह स्थिति बन गयी है कि कांग्रेस के बागियों को तो निष्कासित करने में अध्यक्ष ने चौबिस घंटे से भी कम का समय लिया। लेकिन निर्दलीयों को लेकर मामले को लम्बाने का प्रयास किया जा रहा है। आम आदमी की नजर में यह सरकार बचाने के असफल प्रयास है। क्योंकि यह प्रयास तो बागियों का निष्कासन लटकाने में होना चाहिये था। विधानसभा सचिवालय ने तो निर्दलीयों के त्यागपत्र के बाद इन्हें सदन की विभिन्न कमेटीयों में सदस्य नामित किया है। क्योंकि यह अभी विधायक हैं ऐसे में यदि यह अपने त्यागपत्र वापस लेकर सिर्फ भाजपा में शामिल होने की ही जानकारी दे तो क्या अध्यक्ष इनके खिलाफ दल बदल के प्रावधान के तहत निष्कासन की कारवाई नहीं करेंगे? यदि उसे स्थिति में भी कारवाई को लटकाने का प्रयास किया जाता है तो क्या यह राजनीतिक और प्रशासनिक अस्थिरता नहीं बन जायेगा? क्या ऐसी स्थिति में राज्यपाल के हस्तक्षेप के लिये न्योता नहीं बन जायेगी? जब निर्दलीय त्यागपत्र स्वीकार करने के लिये अध्यक्ष के कक्ष के बाहर धरने पर बैठकर अध्यक्ष का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करने के बाद भी अध्यक्ष त्यापत्र स्वीकारने में देेरी करे तो उसे स्थिति को क्या कहा जायेगा? कानून के जानकारों के मुताबिक अध्यक्ष फैसला लेने में जितना समय लगायेंगे वह स्थिति स्वतः ही राज्यपाल के हस्तक्षेप की भूमिका तैयार करना बन जायेगा। क्योंकि अस्थिरता का संज्ञान लेना राज्यपाल का वैधानिक दायित्व है। इसलिये अस्थिरता की परिभाषा राज्यपाल का अपना विवेक है जिसे किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
लोस उम्मीदवारों की घोषणा से भाजपा ने बनायी मनोवैज्ञानिक बढ़त
सरकार की कर्ज लेने की गति से उपचुनावों में डबल इंजन की सरकार का नारा लगना तय
हमीरपुर लोकसभा चुनाव में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा दाव पर
अनुराग अब धूमल पुत्र से बढ़कर अनुराग सिंह ठाकुर हो गये हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा ने मण्डी और कांगड़ा लोकसभा सीटों के लिये भी उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। मण्डी से बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत और कांगड़ा से डॉ. राजीव भारद्वाज को प्रत्याशी बनाया गया है। दोनों पहली बार चुनाव लड़ने जा रहे हैं। इन दोनों उम्मीदवारों की घोषणा से प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों के लिये भाजपा उम्मीदवारों के चयन का काम पूरा हो गया है। जबकि सरकार में बैठी कांग्रेस अभी सर्वे की प्रक्रिया से ही बाहर नहीं आ पायी है। भाजपा की यह घोषणा निश्चित रूप से ही कांग्रेस पर पहली मनोवैज्ञानिक बढ़त है। कांग्रेस को अपने उम्मीदवार घोषित करने के लिये अभी कितना समय लगेगा शायद इसकी सही जानकारी प्रदेश अध्यक्षा और मुख्यमंत्री को भी नहीं है। उम्मीदवारों के चयन में कांग्रेस जितना अधिक समय लेगी उससे यही संदेश जायेगा कि कांग्रेस में शायद चुनाव लड़ने के लिये कोई तैयार ही नहीं हो रहा है। पार्टी अध्यक्षा मण्डी से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है। ऐसा वह स्वयं कह चुकी हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के बैंक खाते सरकार ने सीज कर रखे हैं यह बात स्वयं मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्षा ने एक संयुक्त पत्रकार वार्ता में रखी है। लेकिन इस वार्ता में यह स्पष्ट नहीं किया कि ऐसा क्यों हुआ। और इसमें कानूनी तौर पर गलत क्या है। तथा पार्टी इसको आम आदमी के सामने रखकर उससे क्या अपेक्षा रखती हैं। यह विषय ही पत्रकार वार्ता में स्पष्ट न कर पाने से पार्टी की हताशा के खुलासे के साथ यह संदेश भी अनचाहे ही चला गया की चुनाव में खर्च का खुला प्रबंध पार्टी नही कर पायेगी और कार्यकर्ता तथा उम्मीदवार को बहुत कुछ अपने ही स्तर पर प्रबंध करना होगा। इस विषय पर कांग्रेस केंद्र सरकार और उसकी एजैन्सियों का कितना आक्रामकता के साथ मुकाबला करेगी ऐसा कोई संदेश मुख्यमंत्री नहीं दे पाये हैं।
भाजपा ने इस चुनाव में बड़ी रणनीति के तहत कांगड़ा और मण्डी से नये चेहरों को उतारा है। जो पहली बार किसी चुनाव में आये हैं। ऐसे में इन लोगों के खिलाफ पहले से ही कुछ नहीं है। यह लोग प्रदेश भाजपा के किसी भी भीतरी समीकरण का कोई बड़ा पात्र अभी तक नहीं है न ही इनके खि़लाफ़ सार्वजनिक जीवन से जड़े कोई बड़े सवाल चर्चा में है। ऐसे में इन चेहरों के मुकाबले में कांग्रेस को यहां ऐसे ही उम्मीदवार उतारने होंगे जिनका राजनीतिक कद इनसे कहीं बड़ा हो और कांग्रेस के इस संकट में उनकी भूमिका एकदम पारदर्शी रही हो। भाजपा ने शिमला से सुरेश कश्यप को पुनः उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस को एक बड़ी चुनौती दी है। कांग्रेस विधानसभा चुनावों में भाजपा पर शिमला लोकसभा क्षेत्र में बहुत भारी रही है। लेकिन सरकार बनने के बाद हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा दिये जाने के मामले में सरकार की कार्यप्रणाली जिस तरह से प्रश्नित रही है उससे सिरमौर में पार्टी को बहुत नुकसान हुआ है। सोलन नगर निगम में कांग्रेस की भूमिका के कारण ही नगर निगम कांग्रेस के हाथ से निकल गयी। इसका प्रभाव सोलन में ग्रामीण भूमि विकास बैंक और जोन्गिदरा सहकारी बैंक के निदेशक मण्डल के लिये हुये चुनावों में देखने को मिला है। विधानसभा चुनावों में सोलन में कांग्रेस जितनी हावी रही थी उसके बाद उसी अनुपात में पीछे चली गयी है। शिमला में सरकार ने सबसे ज्यादा राजनीतिक पद बांटे हैं। इससे हर चुनाव क्षेत्र में इतने-इतने समान्तर सत्ता केंद्र बन गये हैं जिनमें आपसी तालमेल की बजाये एक दूसरे से प्रतिस्पर्धात्मक स्थितियां बन गयी हैं जिनका स्वभाविक लाभ भाजपा के पक्ष में जाता नजर आ रहा है।
हमीरपुर में भाजपा ने अनुराग को पांचवी बार टिकट दिया है। एक समय अनुराग की पहचान धूमल पुत्र होना थी। लेकिन आज अनुराग सिंह ठाकुर एक ऐसी स्वतंत्र पहचान बन गये हैं जिसके ऊपर पूरे प्रदेश की निगाहें लगी हुई हैं। एक समय अनुराग को चंडीगढ़ शिफ्ट किये जाने की पूरी विसात बिछा दी गयी थी। अनुराग चंडीगढ़ से चुनाव लड़ेंगे। यह मुख्य समाचार बना था। लेकिन इस विसात को मात देकर अनुराग ने प्रमाणित कर दिया कि वह राष्ट्रीय स्तर पर गिने जा रहे हैं। आज हमीरपुर लोकसभा क्षेत्र से चार कांग्रेसी और दो निर्दलीय भाजपा में शामिल हो गये हैं। पांच विधानसभा उपचुनाव इसी लोकसभा क्षेत्र से होंगे। इसी लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री आते हैं। इनके जिलों से विधायक क्रॉस वोटिंग करके भाजपा में भी शामिल हो गये और यह कुछ नही कर सके। लोकसभा चुनाव के लिये अपने आप ही कांग्रेस का पक्ष कमजोर कर लिया। क्या यह सब अनुराग की जानकारी और सहमति के बिना घट गया होगा? शायद नहीं। लेकिन इस सबमें अनुराग कहीं चर्चा तक में नहीं आये। ऐसे में आज अनुराग के सामने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। इस समय सुक्खू सरकार हर माह कर्ज के सहारे चल रही है और केंद्र सरकार पर यह आरोप है कि उसने कर्ज लेने की सीमा में कटौती कर दी है। क्या यह अपने में विरोधाभास नहीं हो जाता? कठिन वित्तीय स्थिति के चलते सरकार गारंटीयां पूरी नहीं कर पा रही है न ही रोजगार दे पा रही है। क्या यह स्थिति स्वतः ही इस धारणा को न्योता नहीं दे रही है कि केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होनी चाहिये। यदि इन उपचुनावों में डबल इंजन कि सरकार का नारा लगता है तो क्या जनता उस पर विचार करने के लिये बाध्य नहीं हो जायेगी? इस परिदृश्य में क्या सुक्खू सरकार का सकट स्वतःही गहरा नही होता जा रहा है।
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