Friday, 19 September 2025
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जब सचेतक नियुक्त ही नहीं तो सचेतकीय परिपत्र कौन जारी करेगा? क्रॉस वोटिंग का खतरा बढ़ा

  • जब राष्ट्रपति के चुनाव के लिये सचेतकीय परिपत्र जारी नही हो सकता तो सदस्य के चुनाव में कैसे हो सकता है?
  • क्या राज्यसभा का चुनाव सदन के भीतर की कारवाई मानी जा सकती है?
  • क्या पोलिंग ऐजैन्ट सचेतक की भूमिका निभा सकता है
  • क्या मन्त्री सचेतक भी हो सकता है?

शिमला/शैल। क्या 27 तारीख को होने जा रहे राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग होने जा रही है। यह सवाल इसलिये चर्चा में आया है क्योंकि 25 विधायकों वाली भाजपा ने राज्यसभा के लिये उम्मीदवार दिया है। भाजपा का उम्मीदवार पूर्व कांग्रेसी है। पार्टी छोड़ते समय वह कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष था। पूर्व मंत्री है और स्व. वीरभद्र सिंह के विश्वास पात्रों में रहा है। मुख्यमंत्री सुक्खू के साथ ही उसके संबंध जग जाहिर है। हर्ष महाजन की यह कांग्रेसी पृष्ठभूमि इस चुनाव में इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है कि कांग्रेस के इसी के उम्मीदवार देश के वरिष्ठ वकील सिंधवी प्रदेश से बाहर के हैं। इसी के साथ वह सुक्खू सरकार के वाटरसैस लगाने को चुनौती देने वाली कंपनियों के वकील हैं और यही कांग्रेस के लिये एक बड़ी हास्यस्पद स्थिति पैदा कर देती है। वाटरसैस लगाना सुक्खू सरकार का बड़ा फैसला है और इस फैसले का शीर्ष अदालत में विरोध करने वाले को राज्यसभा का उम्मीदवार बनाना सरकार के हर फैसले पर सैद्धान्तिक प्रश्न चिन्ह खड़े कर देता है।
इस सैद्धान्तिक सुविधा के साथ यदि सरकार के गठन से लेकर अब तक की वस्तुस्थिति पर नजर डाली जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की कथनी और करनी में दिन-रात का अन्तर रहा है। मंत्रिमण्डल के पहले विस्तार से पहले ही मुख्यमंत्री को छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां क्यों करनी पड़ी? यह मामला उच्च न्यायालय में भी पहुंचे चुका है लेकिन जनता में इसका जवाब नहीं आया है। प्रदेश की वित्तीय स्थिति को श्रीलंका जैसी बताने के साथ ही मुख्यमंत्री को एक दर्जन से अधिक गैर विधायकों को सलाहकारों आदि के रूप में ताजपोशियां क्यों देनी पड़ी? इन ताजपोशीयों के बाद सरकार को मित्रों की सरकार का तमगा क्यों मिला? मंत्रिमण्डल में क्षेत्रीय असन्तुलन दूसरे विस्तार के बाद भी बना हुआ है। पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ताओं का सरकार में उचित समायोजन न हो पाना लगातार मुद्दा बना हुआ है। इस आश्य की शिकायत हाईकमान तक पहुंची हुई है। बेरोजगारों के मुद्दे पर कांग्रेस के ही वरिष्ठ विधायक सरकार को खुला पत्र लिखने पर बाध्य हो गये हैं। कर्मचारियों के कई वर्ग धरने प्रदर्शनों तक पहुंच चुके हैं। गारंटीयां चुनावों में गले की फांस बनने जा रही है। लेकिन मुख्यमंत्री से लेकर हाईकमान तक इस लगातार बढ़ते रोष का संज्ञान नहीं ले रहा है। पार्टी में त्यागपत्रों की रणनीति अभिषेक राणा से शुरू होकर मण्डी के समस्त पदाधिकारी तक पहुंच गयी है और कहां रुकेगी यह आने वाला समय ही बतायेगा।
इस वस्तुस्थिति को लेकर पार्टी का हर बड़ा नेता चिन्तित है लेकिन मुख्यमंत्री पर किसी चीज का कोई असर नहीं है। वह अपने अपरिभाषित व्यवस्था परिवर्तन के जुमले को पकड़कर बैठे हुए हैं। ऐसे में जो लोग सही में प्रदेश और पार्टी की चिन्ता कर रहे हैं उनके सामने इस राज्यसभा चुनाव में अपने रोष को व्यवहारिक रूप से प्रकट करने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं बचा है। सरकार का बजट केवल कर्ज बढ़ाने वाला है इसमें बेरोजगारी और महंगाई से निपटने की कोई ठोस योजना नहीं है। ऐसे में हाईकमान को अपने रोष से व्यवहारिक रूप से अवगत करवाने के लिये इस चुनाव में क्रॉस वोटिंग ही एकमात्र विकल्प माना जा रहा है। क्रॉस वोटिंग से ऐसा करने वालों का कोई नुकसान नहीं हो रहा है। क्योंकि पार्टी अभी तक सचेतक नियुक्त नहीं कर पायी है। जब सचेतक है ही नहीं तो व्हिप कैसे जारी होगा? फिर जब व्हिप राष्ट्रपति चुनाव पर लागू नही होता है तो राज्यसभा सदस्य के चुनाव पर कैसे लागू होगा? व्हिप सदन की कार्यवाही पर लागू होता है। किसी विधेयक आदि के पारण में यह व्यवस्था लागू होती। क्योंकि सचेतक का प्रावधान संविधान में नहीं है और न ही सदन के नियमों में। जब 1992 में सचेतक का प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा था तब इसमें एक लाईन, दो लाईन और तीन लाईन के सचेतकीय परिपत्र की व्यवस्था की गयी थी। एक लाईन और दो लाईन के परिपत्र की उल्लंघना पर कोई कारवाई नही होती।
ऐसे में यह स्थिति बनी हुई है कि जब सचेतक नियुक्त ही नहीं है तो सचेतकीय परिपत्र कौन जारी करेगा? यदि पार्टी के नाराज विधायक बजट के भी विरोध में वोट कर देते हैं तब भी उनके खिलाफ कारवाई नही होगी। इस समय पार्टी जो ऐजैन्ट नियुक्त कर रही है वहां सचेतक की भूमिका नहीं निभा सकते। ऐजैन्ट केवल सदस्यता का सत्यापन कर सकता है वह वोट के लिये निर्देश जारी नहीं कर सकता। पार्टी जब मन्त्रियों को सचेतक बनाने का प्रयास करेगी तो अपरोक्ष में उसका अर्थ हो जाता है कि उसे मन्त्रियों पर भी भरोसा नहीं रहा है। मुख्यमंत्री ने एक समय स्वयं सचेतकों की नियुक्तियों को शायद लटकाया था और आज वही गले की फांस बन गया है। इसलिये यदि चुनावों में क्रॉस वोटिंग हो जाती है तो किसी के भी खिलाफ कारवाई नहीं हो सकती क्योंकि इससे सरकार नही गिरती।

कांग्रेस के उम्मीदवार वाटर सैस का विरोध करने वाली कंपनियों के वकील हैं विपक्ष ने उछाला मुद्दा

  • कांग्रेस के असंतुष्टों को सरकार की कार्य प्रणाली पर सवाल उठाने का मिला मुद्दा
  • आसान नहीं होगी कांग्रेस की जीत

शिमला/शैल। राज्यसभा की सीट के लिये होने वाले चुनाव कहीं सरकार के लिये अनिष्टकारक न सिद्ध हो जाये इसकी आशंका लगातार बढ़ती जा रही है। क्योंकि कांग्रेस ने जो उम्मीदवार दिया है वह संयोगवश इसी सरकार के सबसे बड़े फैसले वाटर सैस को चुनौती देने वाली बिजली उत्पादक कंपनीयों का वकील है। सरकार ने अपने संसाधन बढ़ाने के लिये बिजली उत्पादक कंपनियों पर वाटरसैस लगाया है। इसके लिये सरकार ने वाकायदा विधानसभा में एक एक्ट पारित कर इसको अंजाम दिया है। इसके लिये वाटर सैस आयोग तक का गठन कर दिया गया है। लेकिन अब अभिषेक मनु सिंघवी के प्रदेश से राज्यसभा उम्मीदवार होने से सुक्खू सरकार और कांग्रेस की स्थिति हास्यास्पद हो गयी है। विधानसभा में कांग्रेस का बहुमत है और इस नाते उसकी जीत हो सकती है। लेकिन अब आने वाले लोकसभा चुनावों के बड़े मंच पर यह सवाल कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से पूछा जायेगा की वह वाटर सैस लगाने को कैसे जायज ठहराते हैं जब तुम्हारा ही राज्यसभा उम्मीदवार कांग्रेस का राष्ट्रीय प्रवक्ता देश का एक बड़ा वकील अदालत में तुम्हारे फैसले के विरोध में खड़ा है तो ऐसा एक्ट जनहित कैसे हो सकता है? क्या सरकार तब इस एक्ट को वापस लेगी? नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर ने सिंघवी के नामांकन दायर करने के बाद इसको लेकर सरकार पर बड़ा हमला बोला है।
यदि इस उम्मीदवारी के राजनीतिक पक्षों पर विचार किया जाये तो पहला सवाल उठता है कि जब सिंघवी का नाम राज्यसभा के लिये हिमाचल से आया तब क्या इस वाटर सैस वाली पृष्ठभूमि को संज्ञान में नहीं लिया गया? संभव है कि इस पृष्ठभूमि की जानकारी हाईकमान को न रही हो लेकिन मुख्यमंत्री को तो यह जानकारी अवश्य रही होगी। ऐसे में दूसरा सवाल उठता है कि यह जानकारी होने के बावजूद सिंघवी की उम्मीदवारी को इसलिये स्वीकार कर लिया गया कि प्रदेश की जनता को अब पूछने बताने की आवश्यकता ही नहीं है। इन नैतिक सवालों के आयने में सरकार ने जितनी भी सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाये हैं उनके औचित्य पर स्वतः सवाल उठते जायेंगे। ऐसे में यह फैसला एक ऐसा आत्मघाती कदम हो गया है जो कांग्रेस और सरकार का कहीं भी पीछा नहीं छोड़ेगा।
दूसरी और इस समय सुक्खू सरकार और संगठन में तालमेल का बड़ा अभाव चल रहा है। कार्यकर्ताओं को सरकार में उचित मान सम्मान नहीं मिल रहा है। इसकी शिकायतें हाईकमान तक भी पहुंची हुयी हैं। राजेन्द्र राणा और सुधीर शर्मा तो विधायक दल की बैठक से भी गायब रहे हैं। पूर्व मंत्री और जिला मंडी के कांग्रेस अध्यक्ष प्रकाश चौधरी ने तो पार्टी से ही त्यागपत्र दे दिया है। इससे पहले अभिषेक राणा ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। पार्टी में मुख्यमंत्री के व्यवहार को लेकर एक बड़े स्तर पर रोष फैलता जा रहा है। लोकसभा चुनावों में पार्टी को करारी हार मिलने की संभावनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। ऐसे में माना जा रहा है की पार्टी के असंतुष्ट विधायक अपना रोष प्रकट करने के लिये इस चुनाव को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। फिर भाजपा ने अपने पच्चीस विधायकों के बल पर ही अपना उम्मीदवार उतार दिया हो ऐसा नहीं लगता। क्योंकि राष्ट्रीय परिदृश्य में कांग्रेस की सरकारों को अस्थिर करना मोदी-भाजपा की आवश्यकता बनता जा रहा है। हिमाचल में तो सरकार अपने ही बोझ से इतनी दब चुकी है की चाहकर भी इस स्थिति से बाहर नहीं आ सकती। मुख्य संसदीय सचिवों के मामले में मार्च में फैसला आने की संभावना है और तब पार्टी के समीकरणों में भारी बदलाव आयेगा यह तय है। इसलिये भाजपा ने हर्ष महाजन को उम्मीदवार बनाया है। जो कल तक कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष था। वह कांग्रेस को अच्छी तरह समझता है। मुख्यमंत्री के साथ हर्ष महाजन के रिश्ते जगजाहिर हैं। ऐसे में यह चुनाव एक बड़े घटना चक्र का पहला पड़ाव माना जा रहा है।

क्या चण्डीगढ़ के घटनाक्रम ने रोकी हिमाचल के भाजपा प्रत्याशियों की घोषणा

शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा 2014 और 2019 के दोनों लोकसभा चुनाव में यहां की चारों सीटों पर जीत हासिल करती रही है। मण्डी में जब पण्डित राम स्वरुप के निधन के कारण उपचुनाव हुआ तब यहां से कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह विजयी हुई। जबकि मण्डी जयराम ठाकुर का गृह क्षेत्र था और वह सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। 2019 के चुनावों के बाद यदि हिमाचल के सांसदो की प्रदेश में सक्रियता का आकलन करें और यह देखें कि किसकी क्या उपलब्धि व्यक्तिगत तौर पर रही है तो शायद उल्लेखनीय कुछ भी नहीं मिले। क्योंकि 2019 के बाद देश में भाजपा की पहचान केवल मोदी ही बन चुके हैं। आज भी मोदी के बिना भाजपा नहीं है कि स्थिति है। 2017 में प्रदेश में भी भाजपा की सरकार मोदी के नाम पर बनी थी। लेकिन 2022 के चुनाव आने तक प्रदेश की जयराम सरकार मोदी-शाह के भरपूर प्रयास के बावजूद सता में वापसी नहीं कर पायी। भाजपा प्रदेश में वापसी क्यों नहीं कर पायी जबकि लोकसभा की चारों सीटें उसके पास थी। यह हार एक प्रतिशत से भी कम अन्तर से हुई है। और इस हार के कारणों को आज तक सार्वजनिक नहीं किया जा सका है। जयराम सरकार के वक्त भाजपा सांसदों कि क्या स्थिति थी यह प्रदेश का हर आदमी जानता है। जबकि जगत प्रकाश नड्डा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और अनुराग ठाकुर वरिष्ठ मंत्री थे। लेकिन इसके बावजूद भाजपा विधानसभा चुनाव हार गई थी। यह चर्चा आज इसलिये प्रसांगिक हो जाती है क्योंकि भाजपा लोकसभा प्रत्याशियों की घोषणा अब तक नहीं कर पायी है। पिछले दिनों जब यह चर्चा उठी की नड्डा प्रदेश से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं उसके बाद से पार्टी के भीतरी हल्कों में इसको लेकर दबी जुबान से यह चर्चा गंभीर हो गई है। नड्डा के प्रदेश दौरों से इन चर्चाओं को और बल मिलता जा रहा है। इन चर्चाओं का आधार यह माना जा रहा है कि नड्डा की राज्यसभा टर्म खत्म हो गई है और उनको दूसरी टर्म पार्टी के नियमानुसार मिलना संभव नहीं माना जा रहा है। यह स्थिति राष्ट्रीय अध्यक्षता से लेकर है। ऐसे में नड्डा को सक्रिय राजनीति में बने रहने के लिये लोकसभा चुनाव लड़ना एक आसान विकल्प माना जा रहा है। नड्डा के लोस प्रत्याशी बनने की सूरत में अनुराग ठाकुर को चण्डीगढ़ शिफ्ट किये जाने की संभावना बनती जा रही है। क्योंकि पूरे देश में चुनाव तो मोदी के नाम से ही लड़ा जाना है। लेकिन चण्डीगढ में मेयर के चुनाव में जो कुछ घटा है और सर्वाच्च न्यायालय ने जिस तरह से उसका संज्ञान लिया है उसके बाद परिदृश्य कुछ बदलता नजर आ रहा है। चण्डीगढ़ के इस परिदृश्य में हिमाचल के लोस उम्मीदवारों की घोषणा में देरी बर्तने का रास्ता लिया गया है।

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