Friday, 19 September 2025
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मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष दोनों की राजनीतिक समझदारी लगी दाव पर

  • वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का अंतिम परिणाम मध्यावधि चुनाव होना तय
  • कांग्रेस प्रदेश से लेकर दिल्ली तक संकट की गंभीरता नहीं समझ पायी
शिमला/शैल। इस समय प्रदेश राजनीतिक अस्थिरता की दहलीज तक पहुंच चुका है। कांग्रेस के छः विधायक निष्कासित हो चुके हैं और इन स्थानों पर उपचुनाव की भी घोषणा हो चुकी है। कांग्रेस के बाद अब भाजपा के नौ विधायकों के खिलाफ अवमानना की कारवाई शुरू हो चुकी है। संभव है कि उनके खिलाफ भी अध्यक्ष अवमानना की याचिका को स्वीकार करके इनको भी निष्कासित कर दें। स्थितियां इस हद तक पहुंच चुकी है कि ऐसे में जो सवाल अहम हो रहे हैं उन में पहला और बड़ा सवाल यह है कि इस खेल का अन्तिम परिणाम क्या होगा। क्या प्रदेश अन्ततः मध्यावधि चुनावों की ओर बढ़ेगा? क्या हालत राष्ट्रपति शासन तक पहुंच जाएंगे? प्रदेश में इस तरह की राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण पहली बार बन रहा है जो प्रदेश के लिये किसी भी तरक से सही नहीं है। क्योंकि इस परिदृश्य में कांग्रेस के बागियांे को भाजपा में शामिल करवाना अनिवार्यता बन जायेगा और इसका परिणाम होगा छः सीटों पर उपचुनाव। यदि यह बागी भाजपा में शामिल न हो और सर्वाेच्च न्यायालय से इनका निष्कासन रद्द हो जाये जिसकी संभावना बहुत प्रबल है तो उस स्थिति में यह कांग्रेस के ही सदस्य रहते हैं और इससे भाजपा को कोई लाभ नहीं मिलता। क्योंकि तब कांग्रेस सरकार बचाने के लिए नेता को बदलने तक की बात कर सकती है। इसलिये बागियों को भाजपा में शामिल करवाना और उपचुनाव में जाना भाजपा की आवश्यकता बन गया है। इस स्थिति का अंतिम परिणाम राष्ट्रपति शासन और फिर मध्यावधि चुनाव होना तय है। इस परिदृश्य में यह सवाल आम आदमी की ओर से महत्वपूर्ण हो जाता है की प्रदेश को इस स्थिति तक पहुंचाने के लिये कौन जिम्मेदार है। प्रदेश में सरकार कांग्रेस की है इसलिए उसकी भूमिका का पहले आकलन करना आवश्यक हो जाता है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति और बढ़ते हुये कर्जभार पर कांग्रेस बतौर विपक्ष पूर्व सरकार के खिलाफ मुद्दा उठाती रही है। परन्तु सत्ता में आने के लिए दस गारंटियां चुनाव में जारी कर बैठी। इससे सरकार तो बन गयी लेकिन गारंटियां गले की फॉस बन गयी। जब प्रदेश की आर्थिक स्थिति गारंटियां पूरी कर पाने में असमर्थ साबित हो रही थी तो उसी वक्त सलाहकारों और मुख्य संसदीय सचिवों की फौज खड़ी करके प्रदेश पर अवांछित बोझ क्यों डाला? यही नहीं मंत्रिमंडल में क्षेत्रीय असंतुलन खड़ा कर लिया गया। जो नौकरशाही प्रदेश को कर्ज़ के चक्रव्यूह में डालने के लिये जिम्मेदार है उसी को सरकार बनने पर सिर पर बिठा लिया। इसी के कारण खुद कर्ज के सहारे चलने पर विवश हो गये और हर सेवा तथा वस्तु के दाम बढ़ाने पड़ गये। इसके परिणाम स्वरुप युवाओं को रोजगार नहीं दे पाये। जब असंतुलन कार्यकर्ताओं की अनदेखी और युवाओं के रोजगार के मुद्दे उठने लगे तो इसकी शिकायतें कांग्रेस हाईकमान तक पहुंची। खुले पत्र तक लिखे गये परन्तु मुख्यमंत्री से लेकर हाईकमान तक ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया। इस तरह यह मुद्दे उठाने वालों को उस मुकाम तक पहुंचा दिया गया कि वह प्रदेश की जनता के हित और पार्टी की वफादारी दोनों में से किसी एक चुनने के लिए बाध्य हो गये। राज्यसभा का उम्मीदवार तय करने के लिये प्रदेश नेतृत्व को विश्वास में नही लिया गया परिणाम स्वरुप आवाज़ उठाने वालों ने राज्यसभा में पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को हराकर फिर हाईकमान को चेता दिया। राज्यसभा चुनाव में जो घटा उसके बाद भी कांग्रेस नेतृत्व ने स्थिति को संभालने की बजाये अपने अहम के चलते और बिगाड़ दिया। क्योंकि राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग के बाद कटौती प्रस्ताव और वित्त विद्येयक के पारण के दौरान सदन के पटल पर सरकार गिरने की संभावनाओं को टालने के लिये बागियों के खिलाफ रात को ही निष्कासन के नोटिस जारी कर दिये गये। यहां सरकार में कोई भी यह नहीं समझ पाया कि सरकार गिरने का परिणाम मध्यावधि चुनाव होगा और सदन का किसी भी पक्ष का विधायक चुनाव नहीं चाहेगा। इस स्थिति को नेता प्रतिपक्ष ने समझकर 28 फरवरी को अपने विधायकों से सदन में हंगामा करके अपने 15 विधायकों के निष्कासन की स्थिति खड़ी कर दी और अध्यक्ष ने उनका निष्कासन कर दिया। इस निष्कासन के बाद बजट के ध्वनिमत से पारित होने की स्थिति बन गई और बजट पारित भी हो गया। ऐसे में जब बजट पारित हो गया तो उसके बाद बागियों के खिलाफ आयी याचिका पर तुरन्त प्रभाव से कारवाई करना कोई राजनीतिक समझदारी नहीं था। क्योंकि यह याचिका लंबे समय तक अध्यक्ष के पास लंबित रह सकती थी। क्योंकि बजट पारित होते ही सदन में स्त्रावसान हो गया था और सरकार को तीन माह का समय संकट हल करने के लिये मिल जाता। लेकिन यहां पर सरकार और उसके सारे सलाहकार स्थिति का आकलन करने में असफल रहे और आज प्रदेश को इस मुकाम तक पहुंचा दिया गया। इस वस्तुस्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि इसका लोकसभा चुनाव में क्या प्रभाव पड़ता है क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में विपक्ष निश्चित रूप से सरकार पर भारी पड़ा है।

निष्कासन से एफ.आई.आर तक पहुंची राजनीति का अगला पड़ाव क्या होगा?

  • क्या यह एफ.आई.आर. केंद्रीय एजैन्सीयों को न्योता सिद्ध होगी?
  • भ्रष्टाचार को लेकर पूर्व में जारी पत्र बम्ब अब आयेंगे बड़ी भूमिका में

शिमला/शैल। राज्यसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने के कारण दल बदल कानून के तहत सदन की सदस्यता खो चुके कांग्रेस के छः विधायक विधानसभा अध्यक्ष के फैसले की न्यायिक समीक्षा के लिये सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुके हैं। 241 पन्नों की याचिका में अध्यक्ष के फैसले के खिलाफ न्यायिक समीक्षा हेतु संलगन किये गये दस्तावेजों में पहले ही दस्तावेज सचेतक परिपत्र हैं यह परिपत्र कौन सी तारीख को जारी किया गया यह परिपत्र में स्पष्ट नहीं है। क्योंकि इस पर तारीख का जिक्र ही नहीं है। जबकि इन विधायकों के खिलाफ की गयी कारवाई में आरोप ही यह है कि इन्होंने सचेतक परिपत्र की उल्लघंना की है। यदि सचेतक परिपत्र पर कोई तारीख ही अंकित नहीं है तो उसकी प्रमाणिकता स्वतः ही संदिग्ध हो जाती है। फिर 27-28 की रात को 12ः35 पर निष्कासन का नोटिस भेज कर 28 को सुनवायी करके फैसला देने की शीघ्रता भी न्यायिक समझ में संदेह के घेरे में आ जाती है। इस वस्तुस्थिति में यह माना जा रहा है की इन विधायकों का निष्कासन न्यायिक समीक्षा की कसौटी पर ठहर नहीं पायेगा यह माना जा रहा है।
अभी न्यायिक समीक्षा का परिणाम आने से पहले ही कांग्रेस के निष्कासित चैतन्य शर्मा के पिता उत्तराखण्ड से सेवानिवृत मुख्य सचिव राकेश शर्मा और हमीरपुर के निर्दलीय विधायक आशीष शर्मा एवं अन्य के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत भ्रष्टाचार किये जाने की एफ.आई.आर. शिमला के थाना बालूगंज में करवायी गयी है। आरोप है कि राज्यसभा चुनाव में पैसे का लेनदेन हुआ है। स्मरणीय है कि भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम जुलाई 2018 में हुये संशोधन के बाद भ्रष्टाचार होने की सूचना सात दिनों के भीतर देना अनिवार्य है। इस संशोधन के बाद रिश्वत देना भी अपराध है और इसके लिये सात वर्ष की कैद का भी प्रावधान है। वर्तमान मामले में यह शिकायत 10 मार्च को आयी है जबकि राज्यसभा की वोटिंग 27 फरवरी को हो गयी थी। तो क्या पैसे के लेन देन 27 के बाद हुआ है? यदि इस लेन देन की शिकायतकर्ताओं के पास पुख्ता जानकारी थी तो इसमें छापा मारकर रिकवरी क्यों नहीं करवाई गयी? कानून के जानकारों के मुताबिक यह मामला बनता नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि सरकार इस तरह के हाथकण्डां पर क्यों आ गयी है। यदि निष्कासित विधायकों को सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिल जाती है तो उनकी सदस्यता बरकरार रहती है। वह कांग्रेस के सदस्य बने रहते हैं। लेकिन क्या इस एफ.आई.आर. के बाद भी वह सुक्खू को मुख्यमंत्री स्वीकार कर लेंगे शायद नहीं। यदि सर्वोच्च न्यायालय से राहत नही मिलती है तो इन छः स्थानों पर नये चुनाव होंगे। यह चुनाव लोकसभा के साथ ही हो जायेंगे और इनमें कांग्रेस कोई सीट जीत पायेगी यह संभव नहीं लगता। क्योंकि लोकसभा चुनावों और विधानसभा के इन चुनावों में सरकार द्वारा इस दौरान लिये गये फैसलों की व्यवहारिकता फिर जनचर्चा में आयेगी। महिलाओं को जो 1500 रूपये देने का फैसला लिया गया है और जो फॉर्म आवेदिका को भरना है उसके अनुसार लाभार्थी होने वालों का आकड़ा नगण्य होगा। बल्कि यह फॉर्म सामने आने पर और नुकसान होने की संभावना होगी। कर्मचारियों के संद्धर्भ में जारी की गयी अधिसूचना वापस लेनी पड़ी है उससे सरकार की नीयत और वित्तीय स्थिति दोनों का पता चलता है।
दूसरी और यदि यह सारा खेल भाजपा के ऑपरेशन लोटस का परिणाम है तो निश्चित है कि इसके लिये मुख्यमंत्री के निकट बैठे सलाहकार महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर भाजपा को सहयोग दे रहे हैं। क्योंकि इस एफ.आई.आर.के बाद दोनों पक्षों में समझौते की कोई संभावना नहीं रह जाती है। पैसे के कथित लेनदेन के लिये जांच भाजपा नेताओं तक भी पहुंचेगी। भाजपा तक जांच पहुंचते ही केंद्रीय एजैन्सीयां सक्रिय हो जायेंगी। प्रदेश में भ्रष्टाचार को लेकर अधिकारियों के खिलाफ पत्र बम पहले ही रिकॉर्ड पर आ चुके हैं। उनकी जांच केंद्रीय एजैन्सीयों से करवाने की चुनौतियां पहले ही दी जा चुकी हैंं। ऐसे में इस एफ.आई.आर. के बाद केंद्रीय एजैन्सीयों को प्रदेश में आने का का न्योता सिद्ध होगी यह तय है और इसके परिणाम भयानक होंगे। क्योंकि अब आरोप-प्रत्यारोप व्यक्तिगत स्तर पर आ जायेंगे। उद्योग क्षेत्र बी.बी.एन को लेकर तो एक समय उद्योग मंत्रा भी बहुत कुछ कह चुके हैं। फार्माउद्योग लम्बे अरसे से आरोपों के घेरे में चल रहा है। यह सब इस आग में घी का काम करेगा जिसमें कई चेहरे झुलसेंगे।


क्या सुक्खू सरकार बनी रहेगी या राष्ट्रपति शासन लगेगा?

  • जब विधायकों का निष्कासन का आधार व्हिप का उल्लंघन कहा गया है तो व्हिप की नियुक्ति की अधिसूचना कहां है?
  • निष्कासन के फैसले की प्रति मीडिया को जारी क्यों नहीं की जा रही?
  • यदि यह निष्कासन कानूनी समीक्षा में असफल रहा तो स्थिति और भी जटिल हो जायेगी।

शिमला/शैल। क्या सुक्खू सरकार बच पायेगी या प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगेगा? राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली हार के बाद प्रदेश की राजनीतिक स्थिति इस मुकाम पर पहुंच गयी है। क्योंकि यह हार कांग्रेस के छः विधायकों द्वारा भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने के कारण हुयी है। छः विधायकों के इस पाला बदलने के कारण कांग्रेस के विधायकों की संख्या 34 रह गयी है। राज्यसभा का यह मतदान बजट सत्र के दौरान हुआ। ऐसे में यदि बजट सत्र के कटौती प्रस्तावों या वित्त विधेयक के मतदान में सदन के पटल पर सरकार गिरती तो प्रदेश में तुरन्त प्रभाव से विधानसभा चुनाव करवाने की बाध्यता आ जाती। शायद विधानसभा चुनावों के लिये सत्ता पक्ष, विपक्ष और नाराज विधायक कोई भी तैयार नहीं था। इन चुनावों को टालने के लिए सदन में जो कुछ हुआ उसके बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की बाध्यता खड़ी हो गयी है।
जब राज्यसभा चुनाव में सत्ता पक्ष को क्रॉस वोटिंग होने का अहसास हुआ तो इसके लिये व्हिप जारी करने पर विचार किया गया और रोहित ठाकुर, जगत सिंह नेगी, हर्षवर्धन चौहान और संजय अवस्थी को सचेतक नियुक्त करने का समाचार अखबारों में छप गया। लेकिन जैसे ही यह छपा कि जब प्रदेश में सचेतक नियुक्त ही नहीं है तो सचेतक परिपत्र कैसे जारी होगा? समरणीय है कि हिमाचल में 2018 में सचेतक अधिनियम के तहत सचेतकों के वेतन भत्ते आदि पारित हैं। इसकी धारा सात में स्पष्ट कहा गया है कि जब भी कोई सचेतक नियुक्त होगा या अपना पद छोड़ेगा तो इस आश्य की अधिसूचना राजपत्र में प्रकाशित होगी। लेकिन अभी तक सचेतक नियुक्त किये जीने की कोई भी अधिसूचना सामने नहीं आयी है। इस आश्य का अधिनियम होने के बाद कोई भी दूसरा व्यक्ति सचेतकीय जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर सकता और न ही ऐसा करने के लिये अधिकृत किया जा सकता है।
ऐसे में कांग्रेस के छः विधायकों की दल बदल कानून के तहत विधानसभा सदस्यता भंग करने का जो फैसला आया है उसका आधार वित्त विधेयक के लिये जारी व्हिप की उल्लंघना कहा गया है। अध्यक्ष के इस फैसले की प्रति मीडिया को विधानसभा सचिवालय द्वारा उपलब्ध नहीं करवाई गयी है। अध्यक्ष के इस फैसले पर अदालत में जब चर्चा आयेगी तो पहला प्रश्न यही आयेगा कि जिस व्हिप की उल्लंघना का आरोप लगा है वह जारी कब हुआ? उसे जारी करने वाला सचेतक नियुक्त कब हुआ था? उसकी नियुक्ति की अधिसूचना राजपत्र में प्रकाशित कब हुयी थी? विधानसभा सचिवालय इन प्रश्नों पर मौन चल रहा है। इसमें इन विधायकों का निष्कासन कानून की नजर में वैध ठहर पायेगा इसको लेकर गंभीर शंकाएं उभर रही है।
माना जा रहा है कि यह निष्कासन स्टे हो जायेगा। दूसरी ओर कांग्रेस के नाराज विधायकों को मनाने के लिये किये जा रहे प्रयासों के कोई भी संतोषजनक परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं। विक्रमादित्य सिंह को लेकर किये जा रहे दावों कि सच्चाई भी सामने आ चुकी है। बल्कि नाराज विधायकों की संख्या बढ़ने के संकेत सामने आ रहे हैं। जनता में एक अलग तरह की प्रतिक्रिया उभर रही है और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति बनती जा रही है। इस वस्तुस्थिति पर राजभवन कितनी देर तक मूक दर्शक की भूमिका में रह सकता है? राज्यपाल को प्रदेश की राजनीतिक वस्तुस्थिति पर अन्ततः केन्द्र को रिपोर्ट भेजनी ही होगी। इस अनिश्चितता की स्थिति में केन्द्र को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नहीं रह जायेगा। विश्लेष्कों की नजर में अध्यक्ष द्वारा निष्कासन का फैसला जल्दबाजी में उठाया गया कदम है। इससे संकट और गहरा गया है। यदि सचेतक की नियुक्ति अधिसूचित नहीं होगी दो स्थिति और भी हास्यस्पद हो जायेगी। क्योंकि निष्कासित विधायक रजिस्टर पर हाजिरी लगाने का दावा कर रहे हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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