Friday, 19 September 2025
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क्या बेदी कमेटी की रिपोर्ट के परिदृश्य में गुजरात दंगा पीड़ितों को न्याय मिलेगा

गुजरात में 2002 से 2006 के बीच जो कुछ हिंसक घटा है उसमें कितने लोगों की जान और माल की हानि हुई है इसका पूरा आंकलन शायद आज भी उपलब्ध नही है। लेकिन हिंसा को प्रोत्साहित और प्रायोजित करने के आरोप शासन /प्रशासन पर भी लगे हैं। कई राजनीतिक नेताओं पर सीधे आरोप लगे और यह आरोप आज तक पीछा नही छोड़ रहे हैं। राजनीतिक नेतृत्व इन घटनाओं के लिये इस कारण से निशाने पर आ गया था क्योंकि उस समय देश के प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने इन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया में यह कहा था कि यहां पर राजधर्म का पालन नही किया गया। अब जब पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने 1984 के दंगा पीड़ितों को न्याय देते हुए सज्जन कुमार जैसेे बड़े नेता को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है तब से एक बार फिर यह आस बंधी है कि शायद गुजरात के पीड़ितों को भी न्याय मिल पायेगा। देश ने सज्जन कुमार को सज़ा मिलने का स्वागत किया है लेकिन उसी अनुपात में जब गुजरात में एक मन्त्री को मिली ऐसी ही सज़ा के बाद उसे निर्दोष करार देकर छोड़ देने पर अफसोस भी जाहिर किया है।
गुुजरात में जो कुछ घटा है उसमें एक आरोप वहां पर फर्जी एनकाऊंटर दिखाये जाने का भी पुलिस प्रशासन पर लगा है। इन फर्जी मुठभेड़ों पर सर्वोच्च न्यायालय में 2007 में वीजी वर्गीज और जावेद अख्तर तथा शबनम हाशमी ने दो याचिकाएं दायर की थी। इनमें सत्रह मामले फर्जी एनकाऊंटर के आरोपों के उठाये गये थे। यह याचिकाएं 2007 में दायर हुई थी और इनके दायर होने के बाद गुजरात सरकार ने इसका संज्ञान लेते हुए इनकी जांच के लिये स्पैशल टास्क फोर्स का गठन किया था। इस एसटीएफ का मुखिया पुलिस अधिकारी ए. के. शर्मा को लगाया गया। लेकिन ए. के. शर्मा की नियुक्ति पर शबनम हाशमी ने कुछ एतराज उठाये। एतराज में ए.के. शर्मा और नरेन्द्र मोदी के बीच घनिष्ठ संबंध होने का भी गंभीर आरोप था। जब यह सबकुछ सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में लाया गया तब शीर्ष अदालत ने इसकी माॅनिटरिंग के लिये एक कमेटी का गठन कर दिया। इसका चेयरमैन शीर्ष अदालत के ही पूर्व जज एम वी शाह को बनाया गया लेकिन जस्टिस शाह ने इस जिम्मेदारी को स्वीकारने में असमर्थता दिखाई। जस्टिस शाह के असमर्थता दिखाने के बाद गुजरात सरकार ने अपने ही स्तर पर इस कमेटी के अध्यक्ष पद पर मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायाधीश के आर ब्यास को नियुक्त कर दिया जबकि जस्टिस शाह की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी थी। जब जस्टिस ब्यास की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आयी तब शीर्ष अदालत ने यह जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय के ही पूर्व जज जस्टिस एचएस वेदी को सौंप दी।
जस्टिस शाह की नियुक्ति 25 जनवरी 2012 को हुई थी और उनके स्थान पर जस्टिस बेदी की नियुक्ति 12 मार्च 2012 को हुई। जब यह माॅनिटरिंग बनाई गयी थी तब इसकी नियुक्ति में यह कहा गया था कि वह इस नियुक्ति के तीन माह के भीतर पूर्ण या अन्तरिम रिपोर्ट सौंपेंगे। इस कमेटी के सामने जो सत्रह मामले आये थे उनकी जांच के लिये पूरी प्रक्रिया अपनाई गयी। इस तरह बेदी कमेटी की जो फाईनल रिपोर्ट तैयार हुई उसे सार्वजनिक नही किया गया। गुजरात सरकार इसके सार्वजनिक किये जाने का विरोध कर रही थी। यह विरोध इस हद तक गया कि जिन याचिकाओं के बाद एसटीएफ का गठन हुआ और उसकी माॅनिटरिंग के लिये शीर्ष अदालत को कमेटी बनानी पड़ी उन याचिकाकर्ताओं को भी इस कमेटी की रिपोर्ट नही दी गयी। यह रिपोर्ट न दिये जाने पर फिर सर्वोच्च न्यायालय में मामला आया और शीर्ष अदालत ने 18 दिसम्बर 2018 को यह याचिकाकर्ताओं को दिये जाने के आदेश किये। शीर्ष अदालत के इन आदेशों की अनुपालना में जस्टिस बेदी ने 20 दिसम्बर 2018 को यह 220 पन्नो की रिपोर्ट सौंपी है। जस्टिस बेदी की रिपोर्ट में इस कमेटी के सामने आये सत्रह मामलों में से तीन मामलों को पुलिस हिरासत में हुई मौत करार देते हुए इनमें गंभीर कारवाई किये जाने की संस्तुति की है। जब जस्टिस बेदी कमेटी इन मामलों को देख रही थी उसी दौरान इन दंगो को लेकर एक पत्रकार राणा अयूब ने एक स्टिंग आपरेशन किया है। यह स्टिंग आपरेशन गुजरात फाईल्ज़ पुस्तक के रूप में सामने आ चुका है। इस आपरेशन में कई चौंकाने वाले खुलासे दर्ज है और इस स्टिंग आप्रेशन का जिक्र जस्टिस बेदी की रिपोर्ट में भी आया है। इस तरह जस्टिस बेदी की रिपोर्ट और राणा अयूब की गुजरात फाईल्ज़ के परिदृश्य में गुजरात दंगो को लेकर जो कुछ सामने आया है उसके परिदृश्य में इस पर नये सिरे से विचार किये जाने की आवश्यकता आ खड़ी होती है।
जस्टिस बेदी ने अपनी रिपोर्ट में इन मामलों को लेकर जो कुछ कहा है वह उन्ही के शब्दों में पाठकों के सामने रख रहा हूं ताकि इस पर आप अपने स्तर पर राय बना सके।

I have, therefore, taken a conscious decision that initially action will be sussested asainst only those police officers whose participation was admitted or prima facie proved leaving it open for others who are subsequently found to have been involved in conspiracy or in any other manner in regular court proceedings, to be arraigned later as per law. thease directions must be read into the three matters in which I have found prima facie evidence of custodial killings.

आर्थिक आरक्षण पर उठते सवाल

आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णो के लिये शैक्षणिक संस्थानों और सरकार की नौकरियों में दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है। यह प्रावधान करने के लिये संविधान में संशोधन किया गया है। यह आर्थिक रूप से गरीब अगड़े कौन होंगे इसके लिये ऐसे लोगों के परिवार की आय सीमा आठ लाख तय की गयी है। इसके साथ यह भी कहा गया है कि ऐसे परिवार के पास पांच एकड़ से अधिक ज़मीन नही होनी चाहिये। शहरों में रहने वाले गरीबों के लिये मकान के एरिया का मानक साथ रखा गया है। इस तरह मोटे तौर पर आठ लाख की आय तक व्यक्ति को गरीब माना गया है। इस तरह गरीब की पहचान उसके बीपीएल परिवार होने के रूप में की जाती है। गरीबी के इन मानकों से स्पष्ट हो जाता है कि इस आरक्षण का लाभ लेने के लिये व्यक्ति का बीपीएल होना जरूरी होगा। आठ लाख तक की आय का प्रमाणपत्र लाभार्थि के पास होना आवश्यक होगा। सवर्ण होने का जाति प्रमाणपत्र भी साथ रखना आवश्यक होगा। इस समय 2.5 लाख तक की आय वाले को आयकर से छूट हासिल है लेकिन अब जब गरीब होने के लिये आठ लाख की आय सीमा रख दी गयी है तो स्वभाविक है कि इस आय तक का हर व्यक्ति आयकर से छूट चोहगा। क्या सरकार आठ लाख तक की आय पर आयकर से छूट दे पायेगी यह पता तो आने वाले समय में ही लगेगा लेकिन यह तय है कि इसके लिये मांग उठेगी और या तो उसे मानना पड़ेगा। फिर आठ लाख के मानक में संशोधन करना प़डेगा। केन्द्र सरकार ने यह मानक अपनी सेवाओं के लिये तय किये हैं और राज्य सरकारों को इनमें फेरबदल करने की छूट दे रखी है। ऐसे में बहुत संभव है कि हर राज्य में इन मानकों में भिन्नता आ जाये क्योंकि हर जगह जमीन की कीमतों में अन्तर होगा ही। इसलिये इन मानकों में आने वाले संभावित अन्तः विरोधों के चलते इस आरक्षण को अमली जामा पहनाना इतना आसान नही होगा।
देश का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था और उसमें सामाजिक रूप से पिछड़ों को मुख्य धारा में लाने के लिये एक माध्यम आरक्षण का भी सुझाया गया है। लेकिन यह आरक्षण का प्रावधान संविधान के लागू होने के साथ ही शुरू नही हो गया था। बल्कि 1952 में हुए पहले आम चुनाव के बाद इन सामाजिक तौर पर पिछड़ो की पहचान के लिये काका कालेश्वर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस पर लम्बे विचार विमर्श के बाद इन पिछडों की पहचान अनुसूचित जातियों और जन जातियों के रूप में की गयी थी और फिर इनके लिये सरकार की नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया था जो आजतक चल रहा है। इसके बाद 1979 में फिर अन्य पिछड़ा वर्गाें की स्थिति पर संसद में चर्चा उठी और इनकी पहचान के लिये वीपी मण्डल की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी की रिपोर्ट 1980 में आयी और इस कमेटी की सिफारिशों पर 1990 में वीपी सिंह की सरकार के वक्त फैसला हुआ तथा इन पिछड़ा वर्गों के लिये भी 27% आरक्षण का प्रावधान किया गया। मण्डल की सिफारिशों पर अमल करने से पहले इस रिपोर्ट को राज्य सरकारों को अपने सुझावों के लिये भेजा गया था। कई राज्यों ने इस पर अपनी राय भेजी थी और कुछ ने नहीं। हिमाचल में उस समय शान्ता कुमार की सरकार थी लेकिन इस सरकार ने अपनी कोई राय नही भेजी थी।
इसी के साथ यदि इस विधयेक के उद्येश्यों पर नजर डाली जाये तो उसमें यह कहा गया है कि यह लाभ उन वर्गों को मिलेगा जिन वर्गों  का सरकारी सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व नही है। यह एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। इसमे निश्चित रूप से यह आंकड़ा जुटाना होगा कि इस समय देश में विभिन्न श्रेणियों की कुल कितनी नौकरियां सरकार में हैं। इनमे से कितनी किस वर्ग से भरी हुई है अभी जो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये रखे गये आरक्षित कोटे के मुताबिक व्यवहारिक रूप से इन्हें नौकरियां मिल पायी हैं या नही। यदि इन्हे ही पूरा कोटा नही मिल पाया है तो फिर पहली मांग इनका कोटा पूरा करने की आयेगी। इस स्थिति का दूसरा अर्थ यह होगा कि सवर्ण जातियों को सरकार नौकरियों में पहले ही पूरा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। इस आधार पर इन गरीब सवर्णों को अभी सरकारी नौकरियों में वांच्छित आरक्षण मिलने में समय लगेगा। हां शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला मिलने की संभावना थोड़ी बढ़ जायेगी लेकिन इस सबके लिये आंकड़े जुटाने और उनका आकंलन करने में समय लगेगा। इस आंकलन पर भी सहमति बनानी होगी। कायदे से यह सबकुछ इस विधेयक को लाने से पहले हो जाना चाहिये था। लेकिन सरकार ने ऐसा नही किया। इसका सीधा सा अर्थ है कि यह सबकुछ राजनीतिक जल्दाबाजी में किया गया है।
इस आरक्षण के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में याचिका आ चुकी है। गुजरात सरकार ने 2016 में इसी दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करने के लिये अध्यादेश जारी किया था जिसे गुजरात उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। गुजरात सरकार इसकी अपील में सर्वोच्च न्यायालय में गयी हुई है और उसकी अपील अभी तक लंबित पड़ी हुई है। आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान करने को सर्वोच्च न्यायालय की नौ जजों की पीठ इन्दिरा साहनी मामले में पहले ही निरस्त कर चुकी है। कई उच्च न्यायालय भी कई राज्यों में लाये गये ऐसे प्रावधान को रद्द कर चुके हैं। इसलिये अब किये गये प्रावधान को सर्वोच्च न्यायालय की सहमति मिल पाती है या नही इसका पता तो आने वाले दिनों मे ही लगेगा। लेकिन यह विधयेक लाकर मोदी सरकार जो लाभ लेना चाहती थी उसमें कांग्रेस ने इसे राज्य सभा में समर्थन देकर सफल रूप से सेंध लगा दी है क्योंकि यदि राज्य सभा में कांग्रेस समर्थन न देती है तो यह पारित नहीं हो पाता। अभी कई दलित संगठन इसके विरोध में उतरने लग पड़े हैं उन्हें लग रहा है कि इसके माध्यम से आने वाले दिनों में उनके कोटे पर डाका डाला जायेगा। इस परिदृश्य में यह संभावना बहुत बलवती लग रही है कि यह विधेयक लाकर सरकार को लाभ की अपेक्षा हानि अधिक हो सकती है। क्योंकि दलित नाराज हो रहे हैं और सवर्णों में कांग्रेस पूरी बराबर की भागीदार बन गयी है।

क्या राम मन्दिर पर 1992 दोहराया जायेगा

राम मन्दिर मुद्दे की सर्वोच्च न्यायालय ने दैनिक आधार पर सुनवाई करने से इन्कार कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का यह इन्कार उस समय आया है जब देश के कानून मन्त्री रविशंकर प्रसाद ने शीर्ष अदालत से इस मामले की सुनवाई फास्टट्रैक करने का आग्रह किया था। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने टीवी साक्षात्कार में कहा है कि सरकार इस मामले में अदालत के फैसले का इन्तजार करेगी और इसमें अध्यादेश लाने का विकल्प नही चुनेगी। भाजपा/ संघ के लिये राम मन्दिर निर्माण एक लम्बे अरसे से केन्द्रिय मुद्दा चला आ रहा है। दिसम्बर 1992 में इसी प्रकरण पर भाजपा की चार राज्यों की सरकारें राष्ट्रपति शासन की भेंट चढ़ गयी थी। 1992 के बाद केन्द्र में भाजपा की तीसरी बार सरकार बनी है। दो बार स्व. वाजपेयी के नेतृत्व में गठबन्धन की सरकार बनी थी। लेकिन 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा को जो प्रचण्ड बहुमत मिला है ऐसा शायद दूसरी बार नही मिले। इस बार भाजपा किसी सहयोगी पर निर्भर नही है। 2014 में यह वायदा भी किया गया था कि राममन्दिर का निर्माण उसकी पहली प्राथमिकता होगी। बल्कि आजतक संघ/ जनसंघ भाजपा के जो भी हिन्दुवादी मुद्दे रहे हैं उन्हे अमली जामा पहनाने का इस बार ऐसा अवसर मिला था जो निश्चित रूप से फिर नही मिलेगा। महत्वपूर्ण मुद्दों पर संसद का संयुक्त सत्र बुलाया जा सकता था भले ही वह राज्य सभा में लटक जाता लेकिन इससे भाजपा की नीयत पर किसी को भी सन्देह करने का अवसर न मिलता उल्टेे विरोधी जनता के सामने जबावदेही की भूमिका में आ जाते। लेकिन इस पूरे शासनकाल में मोदी सरकार ने एक भी दिन ऐसा कोई कदम नही उठाया। इससे संघ/भाजपा की नीयत पर जो सवाल/सन्देह उभरे हैं उनका वर्तमान में कोई जबाव नही है।
राम मन्दिर के मुद्दे पर संघ विश्व हिन्दु परिषद, साधु समाज और कई भाजपा/सांसदो/मन्त्रियों के जो ब्यान आये हैं और आ रहे हैं वह एकदम प्रधानमन्त्री के स्टैण्ड से अलग हैं। यह सभी लोग लोकसभा चुनाव से पहले मन्दिर के निर्माण की बातें कर रहे हैं। सरकार पर इस संद्धर्भ में कानून लाने की बात की जा रही है। इसके लिये केवल अध्यादेश लाने का ही विकल्प बचा है क्योंकि सामान्य विधेयक लाकर उसे कानून बनवा पाने की अब वक्त नही बचा है और सरकार अच्छी तरह जानती है। इस परिदृश्य में प्रधानमन्त्री का अदालत के फैसले की प्रतीक्षा करना 1992 दोहराये जाने का स्पष्ट संकेत बन रहे हैं। ऐसे में यह सवाल और अहम हो जाता है कि क्या यह सब एक सुनियोजित रणनीति के तहत हो रहा है यह सही में प्रधानमन्त्री और इन अन्यों के बीच गंभीर मतभेद चल रहे हैं क्योंकि अब तक जो कुछ सरकार बनने के बाद घटा है वह इसी ओर संकेत करता है कि यह सब कुछ रणनीतिक है। क्योंकि जब भी संघ/भाजपा और मोदी के कुछ मन्त्रीयों के विवादित के ब्यान आते थे तब प्रधानमन्त्री रस्मी नाराजगी और चुप रहने की नसीहत का ब्यान देते रहे जिसका व्यवहार में कोई अर्थ नही रहा। देश जानता है कि मण्डल के विरोध में उठा आरक्षण विरोधी आन्दोलन कितना उग्र हो गया था। उसमें आत्मदाह तक हुए। वी पी सिंह सरकार गिरने के साथ ही यह आन्दोलन बन्द तो हो गया लेकिन आरक्षण के खिलाफ भावना और धारणा बनी रही। अब जब मोदी सरकार आयी तब फिर कई राज्यों से आरक्षण को लेकर आवाजें उठी। मांग की गयी कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सबका बन्द करो। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचा और शीर्ष अदालत ने फैलसा दे दिया लेकिन मोदी सरकार ने संसद का सहारा लेकर यह फैसला बदल दिया। इससे भाजपा सरकार और संघ की नीयत और नीति पर सवाल उठे हैं यही आचरण धारा 370 को लेकर सामने आया हैं इस तरह ऐसे कई मुद्दे हैं जहां संघ/भाजपा की कथनी और करनी का फर्क खुलकर सामने आ गया है।
इस परिदृश्य में आज राम मन्दिर को लेकर यह सवाल उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय से आज जो इस मामले की दैनिक आधार पर सुनवाई करने की मांग की जा रही है क्या यह मांग और प्रयास 2014 में मोदी सरकार बनने के साथ ही नही हो जाना चाहिये था? लेकिन उस समय ऐसा नही किया गया क्योंकि उस समय कोई चुनाव नही होने जा रहे थे। आज चुनावों की पूर्व संध्या पर राम मन्दिर को लेकर जो वातावरण समाज में खड़ा किया जा रहा है उसके परिणाम क्या होंगे यह तो आने वाला समय ही बातायेगा। लेकिन जो कुछ भी घटता नज़र आ रहा है वह शायद देशहित में नही होगा। लगता है राम मन्दिर को लेकर 1992 को दोहराने की नीयत और नीति अपनाई जा रही है।

कहां है यह 50000 करोड़ का निवेश

जयराम सरकार ने सत्ता में एक वर्ष पूरा कर लिया है। इस अवसर पर सरकार की ओर से धर्मशाला में वैसा ही एक बड़ा आयोजन किया गया जैसा कि एक वर्ष पहले सत्ता संभालते हुए शिमला में किया गया था। दोनो अवसरों पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी मौजूद रहे हैं। यह सरकार के लिये एक अच्छा संदेश रहा है। इस एक वर्ष का आंकलन प्रधानमन्त्री और केन्द्र सरकार की नज़र में क्या रहा है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रधानमन्त्री के अनुसार इस समय प्रदेश में केन्द्र की ओर सेे 36000 करोड़ की योजनाएं चल रही है। यह जानकारी प्रधानमन्त्री ने धर्मशाला मे अपने संबोधन में दी है। इससे पूर्व सोलन के पन्ना प्रमुखों के सम्मेलन में केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा ने यह दावा किया है कि प्रदेश के लिये 5000 करोड़ की और परियोजनाएं पाईप लाईन में है। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर पहले ही 9000 करोड़ की योजनाएं प्रदेश को मिल चुकी होने की जानकारी प्रदेश की जनता के साथ सांझा कर चुके हैं। इस तरह प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा और मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर सबके द्वारा दिये गये आंकड़ो को जोड़कर देखा जाये तो यह राशी 50,000 करोड़ बन जाती है। अब जब इतने बड़े स्तर के नेता यह आंकड़े प्रदेश की जनता को परोस रहे हैं तो स्वभाविक है कि इसे झूठ नही माना जा सकता। इसलिये आज प्रदेश की जनता को यह जानने का हक है कि इस 50000 करोड़ के आंकड़े का पूरा विवरण क्या है? वह कौन -कौन सी योजनाएं हैं जिन पर 36000 करोड़ के निवेश का काम चल रहा है और शेष 14000 करोड़ की योजनाएं कौन सी हैं जो प्रदेश को मिली हैं और उन पर काम कब तक शुरू हो जायेगा। क्योंकि यह पचास हजार करोड़ का आंकड़ा प्रदेश के लिये एक बहुत बड़ी बात है। जबकि इस समय प्रदेश का कर्जभार ही पचास हजार करोड़ को पहुंच चुका है। प्रदेश सरकार अब तक बजट में दर्ज पूंजीगत प्राप्तियों के अतिरिक्त ही 3500 करोड़ का कर्ज ले चुकी है।
इस परिदृश्य में यदि प्रधानमन्त्री की जानकारी सही है कि प्रदेश में केन्द्र की ओर से 36000 करोड़ की योजनाएं चल रही हैं तो यह आंकड़ा प्रदेश के कुल बजट के आंकड़े से कहीं बड़ा है। क्योंकि 36000 करोड़ के निवेश से प्रदेश में बेरोजगारी की समस्या पर कुछ तो अंकुश लगना चाहिये था। प्रदेश सरकार को आऊटसोर्स के माध्यम से एक चैथाई वेतन पर कर्मचारियों की भर्ती करने की नौबत नही आती है। आज जिस ढंग से चुतर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भर्ती के लिये बी.ए. और एम.ए. पास नौजवानों के कतारों में खड़े होने की खबरें आ रही हैं उससे इन निवेश के आंकड़ो की प्रमाणिकता पर स्वतः ही एक बड़ा सवाल लग जाता है। अभी अगले वर्ष मई में लोकसभा चुनाव होने हैं। राजनीतिक दल अभी से इन चुनावों की तैयारीयों में जुट गये हैं। ऐसे में यह निवेश का आंकड़ा एक दोधारी तलवार सिद्ध हो सकता है। यदि यह सही हुआ तो इससे विपक्ष का गला कटेगा और यदि यह गलत हुआ तो यह अपनी ही गर्दन काट देगा। क्योंकि इस समय प्रदेश पर जो पचास हजार करोड़ का कुल कर्ज है वह एक लम्बे अरसे से इकट्ठा होता चला आ रहा है इसमें हर वर्ष कुछ न कुछ जुड़ता रहा है। इसका बड़ा भाग प्रदेश के कर्मचारियों के वेतन भत्तों और पैन्शन पर खर्च होता रहा है। यहां तक की कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लिया जाता रहा है। लेकिन अभी किसी सरकार ने केन्द्र सरकार की ओर से प्रदेश में एक मुश्त इतने बड़े निवेश का दावा नही किया है। ऐसे में दावे की हकीकत जानने का हर आदमी को हक है।
मुख्यमन्त्री ने अपने इस एक वर्ष के कार्यकाल को ‘‘ईमानदार प्रयास का एक वर्ष’’ कहा है। मुख्यमन्त्री के इस कथन को एक हदतक माना जा सकता है क्योंकि उन्होने कोई बड़ा दावा अब तक ऐसा नही किया है जिस पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया जायें लेकिन इसके बावजूद एक पक्ष यह भी है कि जयराम 1998 से लगातार विधायक चले आ रहे हैं। इस दौरान दो बार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकारें रह चुकी हैं और वह एक बार मन्त्री तथा एक बार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इस नाते उन्हे प्रदेश का अनुभव होना ही चाहिये। बतौर विपक्ष जयराम के नेतृत्व में भी वीरभद्र शासन के खिलाफ आरोप पत्र सौंपा गया है। विपक्ष में रहते हुए लगातार वीरभद्र सरकार पर प्रदेश को कर्ज में डूबोने का आरोप लगाते रहे हैं। 1993 से 1998 के बीच हुई चिट्टो पर भर्तियांे की जांच रिपोर्ट भी जयराम के सामने ही आयी है। उन रिपोर्टों पर कोई कारवाई क्यों नही हुई वह भाजपा और जयराम अच्छे से जानते हैं मैं उस ब्योरे में नही जाना चाहता लेकिन इस सबके जिक्र से यह सवाल तो उठता ही है कि जो गलतियां पिछली सरकारों के वक्त में हुई हैं क्या उनको आज दोहराने के लिये लाईसैन्स के रूप में इस्तेमाल करना जरूरी है? शायद नही। जयराम को कर्ज विरासत में मिला है लेकिन आज उसको दोहराने में फिजूल खर्ची का आरोप लग रहा है। राजभवन से लेकर मन्त्रीयों तक की मंहगी गाड़ियां चर्चा में आ चुकी हैं। चिट्टो पर भर्तियांें के स्थान पर आऊटसोर्स पर भर्तीयां की जाने लगी है। इस तरह ऐसे अनेक मामलें हैं जहां सरकार की दूरदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं। बेशक कांग्रेस का आरोप पत्र कोई बड़ा प्रभावी दस्तावेज नही है लेकिन अब जिस तरह से वीरभद्र और उनका बेटा अपने स्वर बदलते जा रहे हैं उसे हल्के में लेना गलत होगा। फिर सरकार में जिस तरह से कुछ मन्त्रीयों की असहजता चर्चा में आ गयी है और कुछ विधायक भी मुखर होते जा रहे हैं यह जयराम के भविष्य के लिये कोई अच्छे संकेत नहीं है। जयराम को मोदी का पूरा सहयोग और समर्थन हासिल है यह धर्मशाला में सामने आ चुका है। जयराम ने भी बदले में मोदी को यह भरोसा दिला दिया है कि वह हर समय उनके साथ खड़े रहेंगे। पांच राज्यों में मिली हार के बाद केन्द्र में जिस तरह से गडकरी जैसे लोगों की प्रतिक्रियाएं आयी हैं वह केन्द्र के भविष्य के प्रति भी गंभीर संकेत है। इस परिदृश्य में प्रदेश में पचास हजार करोड़ के निवेश का जो आंकड़ा अचानक सामने आ गया है वह घातक भी सिद्ध हो सकता है।

किसान की कर्ज माफी पर सवाल क्यों

शिमला/शैल। अभी हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने वायदा किया था कि यदि उसकी सरकार बन जायेगी तो वह सत्ता संभालते ही दस दिन के भीतर यहां के किसानों के दो लाख तक के कर्जे माफ कर देगी। चुनाव परिणाम आने पर तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी सरकारें बन गयी और इन राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों ने सबसे पहला काम कर्ज माफी का किया। इस कर्ज माफी को लेकर कई हल्कों में एतराज के स्वर भी सामने आये हैं। इस तरह की कर्ज माफी को सत्ता की सीढ़ी करार दिया जाने लगा है। इससे जीडीपी पर कुप्रभाव पडे़गा यह तर्क भी सामने आया है कुल मिलाकर सारे गैर कांग्रेसी दलों ने इस कर्ज माफी का समर्थन नही किया है। इन दलों की पीड़ा समझी जा सकती है क्योंकि आज भी देश की 70% जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। इसी जनसंख्या से आने वाला किसान कर्ज के कारण आत्म हत्यायें कर रहा है यह कड़वा सच भी सबके सामने आ चुका है। किसान की आय 2022 तक दोगुनी हो जायेगी केन्द्र के इस आश्वासन के बावजूद आज का किसान अपनी फसले सड़क पर फैंकने के लिये विवश हो गया है। जब प्याज सड़कों पर फैंका गया तब सरकार ने उसके लिये मुआवजे़ की घोषणा की। देश के हर कोने से आये किसानों ने दिल्ली में कितना लम्बा प्रदर्शन किया यह भी देश देख चुका है। हर तरह का खाद्यान खेत से ही पैदा होता है यह एक धु्रव सत्य है। खेत का कोई विकल्प नही है और न ही हो सकता है यह एक सच्चाई है और सदैव बनी रहेगी। इस सच्चाई के कारण किसान को ‘‘अन्नदाता’’ की संज्ञा दी गयी है।
इस परिप्रेक्ष में जब किसान की स्थिति का आंकलन किया जाता है और उसकी आत्महत्याओं का सच सामने आता है तो यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि ऐसा हो क्यों हो रहा है और इस स्थिति से बाहर कैसे आया जा सकता है। इसमें सबसे पहले यही आता है कि इन आत्महत्याओं को कैसे रोका जाये इसके लिये तत्काल उपाय सीमान्त और छोटे किसान के कर्ज माफी के अतिरिक्त और कुछ नही हो सकता। इसलिये यह कर्ज माफी एकदम व्यवहारिक और अपरिहार्य कदम हो जाता है। इसका विरोध एकदम गलत है। हां इसी के साथ यह प्रयास भी साथ ही शुरू हो जाना चाहिये कि भविष्य में किसान को कृशि ऋण के कारण आत्महत्या करने की नौबत न आये। यहां यह उल्लेख करना भी प्रसांगिक होगा कि देश में सबसे पहले किसान के कर्जे माफ करने का कदम 1990 में उठाया गया था। जब 1989 में भाजपा के सहयोग के साथ केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार बनी थी और 1990 में विधानसभाओं के चुनाव भी इसी तालमेल के साथ लड़े गये थे। तब स्व. चौधरी देवी लाल ने किसानों की कर्ज माफी की घोषणा की थी और उस पर अमल किया था। आज जो लोग इसे कांग्रेस का सत्ता प्राप्ति का शाॅर्टकट करार दे रहे हैं उन्हे 1989 और 1990 को याद रखना आवश्यक है। यह सही है कि कर्ज माफी इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं हो सकता क्योंकि यह कर्जमाफी अन्ततः आम आदमी पर ही भारी पड़ती है।
इस कर्ज माफी का स्थायी हल खोजने के लिये आवश्यक है कि यह तय किया जाये कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं। आज जो आंकड़े सामने हैं उनके अनुसार देश में बेरोज़गारी हर वर्ष 9% की दर से बढ़ रही है। आंकडे यह भी बताते हैं कि पिछले तीन वर्षों में निवेश लगातार कम हुआ है। यह निवेश कम होने के साथ ही एनपीए का आंकड़ा भी बढ़ा है। 31 मार्च 2018 को यह एनपीए 12.5 लाख करोड़ हो गया था और देश के अनिल अंबानी जैसे उद्योग घराने पर भी दो लाख करोड़ का कर्ज है। विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहूल चौकसी जैसे बड़े-बड़े एनपीए वाले लोगों की आत्महत्या की खबर कभी नहीं आती है क्योंकि यह लोग एनपीए लेकर विदेश चले जाते हैं। उनके कर्जे को एनपीए का नाम दे दिया जाता है। लेकिन किसान के साथ ऐसा नही होता। बैंक कर्ज वसूली के लिये उसके सिर पर खड़ा रहता है और फिर मज़बूर होकर वह आत्महत्या का रूख करता है। इसलिये यह समझना और मानना आवश्यक है कि कृषि को जबतक उद्योग से ऊपर का दर्जा नही दिया जायेगा तब तक स्थिति में सुधार हो पाना कठिन होगा। कृषि को उद्योग से ऊपर का दर्जा इसलिये चाहिये क्योंकि रोज़गार के जितने अवसर खेत पैदा करता है उतने उद्योग से नहीं। किसान का पूरा परिवार खेत में काम करता है लेकिन उसकी विडम्बना यह है कि उसे अपनी उपज की पूरी कीमत नही मिलती है। वह अपनी ऊपज की कीमत खुद तय नहीं कर पाता। उसके पास यह विकल्प नहीं होता कि यदि उसे पूरा दाम नहीं मिल रहा है तो वह उस ऊपज को अपने पास जमा करके रख ले क्योंकि उसके पास कोल्ड स्टोर की सुविधा नही है न ही उसके पास ऐसा कोई विकल्प रहता है कि उसकी उपज की प्रौसेसिंग से वह कुछ और तैयार कर सके। इसमें सबसे बड़ी हैरानी तो इस बात ही है कि आज तक किसी भी पार्टी के घोषणा पत्र में यह नहीं आता कि वह अपने चुनावक्षेत्र में इतने कोल्डस्टोर बनवा देगा और स्थानीय उपज पर आधारित कोई उ़द्योग इकाई वहां पर सहकारी क्षेत्र में लगा देगा। जब तक किसान के लिये यह सुविधायें उपलब्ध नही होगी उसे कर्ज से मुक्ति दिला पाना आसान नही होगा। आज हर सांसद और विधायक को क्षेत्रिय विकास निधि मिलती है लेकिन इनमें से कभी भी किसी ने इस तरीके से इस पर विचार नही किया। आज हर सांसद/विधायक अपने -अपने क्षेत्र की उपज के आधार पर कोल्ड स्टोर और प्रसंस्करण इकाईयां लगाने की बात शुरू करे दे तो निश्चित रूप से किसान और देश की स्थिति बदल जायेगी। गांवों में अच्छे रोज़गार के साधन उपलब्ध रहेंगे और शहरों की ओर पलायन रूक जायेगा।

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