जयराम सरकार को सत्ता में आये नौ माह का समय हो गया है। इस दौरान दर्जनों मन्त्रीपरिषद की बैठकें हो चुकी है और हर बैठक में दर्जनों फैसले लिये गये है। लेकिन क्या इन सभी फैसलों की समीक्षा गुण दोष के आधार पर किये जाने की कोई आवश्यकता कभी उभरी है शायद नही क्योंकि अधिकांश फैसले तो ऐसे रहे है जो हर सरकार की सामान्य प्रक्रिया की एक अभिन्न अंग होते है। सरकार की सामान्य प्रक्रिया में हर कार्य के निष्पादन के लिये रूल्ज़ ऑफ विजनैस बने हुए है। इन रूल्ज़ के साथ ही हर विभाग में अपना-अपना स्टैण्डिंग आर्डर भी रहता है। ऐसे में सामान्यत जब प्रशासन स्वभाविक रूप से इन नियमों का पालन करते हुए अपना काम निपटाता रहता है तब उस पर कहीं से कोई सवाल उठता ही नही है। सवाल तब उठने शुरू होते है जब इस तय प्रक्रिया को नजर अन्दाज किया लाना शुरू होता है। वैसे तो प्रशासन के मनोविज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि प्रशासन अपनी पकड को बनाये रखने के लिये हर सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक नेतृत्व के सामने कई ऐसे मसलों को लेकर चला जाता है जिसकी कायदे से आवश्यकता ही नही होती है। प्रशासन ऐसा करके राजनीतिक नेतृत्व की प्रशासनिक समझ और महत्वकांक्षाओं का आसानी से आंकलन कर लेता है और जब इस आकलन में राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता सामने आ जाती है। तब यह प्रशासन राजनीतिक नेतृत्व पर हावि हो जाता है शायद जयराम प्रशासन के साथ भी ऐसा ही हुआ है।
अभी जयराम ने नये मुख्य सचिव की नियुक्ति की है। इस नियुक्ति पर हमने इसे सरकार का पहला सही फैसला कहा था। हमारे ऐसा लिखने पर सभी संवद्ध क्षेत्रों में अपनी-अपनी तरह की प्रतिक्रियाएं हुई है। ऐसी प्रतिक्रियाएं होगी ऐसा हमारा विश्वास भी था। इसलिये अब सरकार के कुछ फैसलों पर आकलन की दृष्टि से लिखना आवश्यक हो जाता है। इस आकलन का आधार हमे उस सबसे मिल जाता है जो विधानसभा चुनावों से पूर्व घटा था। पाठकों को याद होगा कि विधानसभा चुनावों के दौरान ही भाजपा ने एक प्रपत्र जारी किया था ‘‘हिमाचल मांगे हिसाब’’ इस प्रपत्र में कुछ मुद्दों को उछालते हुए वीरभद्र सरकार से उन पर जब जवाब मांगा गया था। इसमें बहुत सारे तात्कालिक मुद्दे थे और इनसे यह विश्वास बना था कि यह पार्टी सत्ता में आकर कम सके कम इस सबको दोहराने का प्रयास नही करेगी। लेकिन जब सत्ता में आकर अपने ही स्वतः प्रचारित-प्रसारित मुद्दों पर अपना ही आचरण एकदम यूटर्न ले गया तो आम आदमी के विश्वास को इससे आघात पहुंचना स्वभाविक था और ऐसा हुआ भी। वीरभद्र सरकार पर बड़ा आरोप था कि उसने प्रदेश को कर्ज के गर्त में डाल दिया है। यह आरोप था और है भी सही। इसमें जयराम से यह उम्मीद थी और प्रशासनिक सूझ-बूझ का तकाजा भी था कि प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर एक ‘‘सफेद पत्र’’ लाया जाता और जनता को असलीयत की जानकरी दी जाती । यदि जनता के सामने यह स्थिति रख दी जाती तो शायद इस पर कांग्रेस के पास कोई जवाब न होता। क्योंकि 27 मार्चे 2016 को भारत सरकार के वित्त विभाग से प्रदेश सरकार को एक पत्र आया था और कर्जों की सीमा तय करते हुए सरकार को गंभीर चेतावनी दी गयी थी। परन्तु 2017 के चुनावी वर्ष में केन्द्र के इस चेतावनी पत्र को नज़रअन्दाज करके कर्ज की सीमाओं का खुलकर दुरूपयोग किया गया। सफेद पत्रा आने से उस वक्त के संवद्ध प्रशासनिक और राजनीति नेतृत्व का असली चेहरा जनता के सामने आ जाता। लेकिन जयराम के सलाहकारों ने ऐसे नही होने दिया और यह इस सरकार की पहली सबसे बड़ी भूल रही।
इसके अतिरिक्त चुनावों के दौरान लगाये गये आरोप में कुछ नियुक्तियों पर गंभीर एतराज उठाया गया था। लेकिन सत्ता में आने उपर इन नियुक्तियों को रद्द करने की बजाये उन्ही संस्थानों में पदों का सृजन करे और नियुक्तियां कर दी गयी। भाजपा वीरभद्र सरकार पर यह आरोप लगाती थी कि इसे ‘‘रिटायड-टायरड’’ लोग चला रहे है। परन्तु सता में आने पर स्वंय भी वैसा ही जब किया जाने लगा तो निश्चित रूप से इससे सरकार और इसके मुखिया की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगे हैं। मुख्यमुन्त्री के अपने ही गृहक्षेत्र में एसडीएम कार्यालय को लेकर जो कुछ घटा है उसे मुख्यमन्त्री के गिर्द बैठे शीर्ष प्रशासन की धूर्तता करार देने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही है। प्रशासनिक स्तर पर जो तबादले किये उसमें भी रोज बदलाव होते रहे। इसके लिये भी शीर्ष प्रशासन को ही ज्यादा जिम्मेदार माना जायेगा और शायद यह इसलिये हुआ है क्योंकि संभवतः इनकी निष्ठाएं बंटी हुई थी। क्योंकि पिछले मुख्य सचिव के अपने ही गिर्द ऐसे आरोप चल रहे थे जिनके लिये मुख्यमन्त्री को स्वयं उनकी रक्षा के लिये आना पड़ा। इस परिदृश्य में अब जो नियुक्ति की गयी है शायद उसके साथ ऐसी कोई स्थिति नही है और इसी संद्धर्भ में हमने इसे सही फैसला कहा है।
अब तक के नौ माह में कई ऐसे फैसले भी हुए है जिनसे सरकार पर आने वाले समय में कई गंभीर आरोप लगेंगे। उनपर अगले अंको में चर्चा करेंगे।
मैं हूं । मैं स्वतन्त्र हूं। मेरी अपनी निज की सत्ता है। मैं अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सकता हूं। मैं कोई वस्तु नही हूं जिस पर किसके स्वामीत्व का हक हो। क्या इस बोध का मानक केवल यौन स्वच्छन्दता ही है। यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय के आईपीसी की धारा 377 और 497 को लेकर आये फैसलों से उभरा है। इन फैसलों से समलैंगिकता और व्यभिचार अब अपराध नही माने जायेंगे। व्यभिचार तलाक का आधार तो हो सकता है लेकिन अपराध नही। सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है। क्या इन फैसलों को समाज सहजता से स्वीकार कर लेता है या नही यह सब आने वाले समय में ही स्पष्ट होगा। इस तरह के आचरण का प्रभाव उस परिवार पर क्या पड़ेगा जिसमें संयोगवश यह सब घट जाता है। क्या आचरण को सांस्कृतिक मान्यता मिल पायेगी? क्या इसे मूल्य आधारित जीवन करार दिया जा सकेगा? यह सारे सवाल सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों के बाद एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनेंगे यह तय है। क्योंकि अभी तक भारतीय समाज ऐसे आचरण को स्वीकार नही कर पाया है। जहां पर लव-जिहाद, खाप पंचायतें और वैल्नटाईन डे तथा पहरावे तक को लेकर विवाद खड़े हों वहां पर इस तरह की व्यवस्था को सामान्यता तक पहुंचने में समय लगेगा यह भी तय है।
सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से परिवार की संरचना कितनी प्रभावित होगी यह सबसे बड़ा सवाल रहेगा। क्योंकि जब विवाह के बाद इस तरह के संबधों की स्थिति उभर आती है तब स्वभाविक है कि बात तलाक तक पंहुच जायेगी और इसी आधार पर तलाक हो भी जायेगा। ऐसे में उस सन्तान की जिम्मेदारी किसकी रहेगी जो इस तलाक से पहले जन्म ले लेती है। उसकी देखभाल कौन करेगा। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण होगा कि ऐसे तलाक से पहले यह पति-पत्नी जो भी संपति बनायेंगे उसका बंटवारा, उसकी मलकियत किसकी कितनी रहेगी। जिस परिवार में समलैंगिकता पसर जायेगी वहां पर परिवार की वंश वृद्धि की धारणा क्या होगी। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इन फैसलों से परोक्ष/अपरोक्ष में जुड़े हैं और देर-सवेर समाज के व्यवस्थापकों से जवाब मांगेंगे। यौन संबधों की स्वतन्त्रता तलाक को बढ़ावा देगी और उसी अनुपात में बहु विवाह को यह स्वाभाविक है। क्योंकि यौन संबंध शरीर का स्वभाविक धर्म और गुण है जो अपने समय पर स्वतः ही प्रस्फुटित होता है । आज जो हमारा खान-पान और अन्य व्यवहार हो गये हैं उसके परिणामस्वरूप शरीर की यह आवश्यकता कुछ एडवांस हो गयी है। बल्कि इससे तो विष्णु पुराण में कलियुग को लेकर दिया गया विवरण व्यवहार में शतप्रतिशत घटता नज़र आ रहा है। वहां कहा गया है कि कलियुग में कुल आयु बीस वर्ष की होगी और आठ नौ वर्ष की आयु में ही सन्तान पैदा हो जायेगी। आज ही यह सब घटना शुरू हो गया है। स्कूल जाने वाली बच्ची कि मां बनने की घटना चण्डीगढ़ में पिछले दिनों सामने आ चुकी है।
ऐसे में जब समाज में यौन संबंधो की स्वतन्त्रता एक प्रभावी शक्ल ले लेगी तब समाज में व्यवस्था की स्थिति क्या हो जायेगी? क्या इस पर विचार नही किया जाना चाहिये। जिस समाज में यौन संबंध एक वैचारिक और शारीरिक स्वछन्दता की संज्ञा ले लेंगे उसमें व्यवस्था की स्थापना क्या एक गंभीर चुनौती नही बन जायेगी। सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान जजों ने भविष्य में सामने आने वाले इन प्रश्नों पर विचार नही किया है। मानवीय व्यवहार में तो यह बहुत पहले कह दिया गया था कि ‘‘ योनी नही है रे नारी वह भी मानवी स्वतन्त्रत, रहे न नर पर आश्रित ’’ महिला सशक्तिकरण आन्दोलन में उसे पुरूष के बराबर अधिकारों की वकालत का परिणाम है कि वह आज हर क्षेत्र में पुरूष के बराबर खड़ी है। लेकिन इस आन्दोलन में यौन संबधों की स्वच्छन्दता तो कभी कोई मांग नही रही है। आज जहां विश्व के कई देशों में व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है लेकिन कई जगह यह अपराध है और इस पर कड़ाई से अमल हो रहा है। अभी इस मुद्दे पर आरएसएस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। संघ अपने को हिन्दु संस्कृति का एकमात्र पक्षधर और संरक्षक मानता है। ऐसे में यह दखना दिलचस्प होगा कि संघ इस नयी संस्कृति को कैसे लेता है? क्या वह सरकार को इस संद्धर्भ में एससीएसटी एक्ट की तर्ज पर नये सिरे से विचार करने का आग्रह करता है या नही।
अभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने ‘‘भविष्य का भारत और संघ का दृष्टिकोण’’ नाम से एक आयोजन किया है। इस आयोजन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह कहा है कि संघ में निरंकुशता और अंहकार नही है। इसी कड़ी में उन्होने यह भी स्पष्ट किया कि संघ की स्थापना हिन्दुओं को संगठित करने के लिये हुई है और भारत हिन्दु राष्ट्र है और रहेगा भी। फिर यह भी स्पष्ट किया कि मूल्यों पर आधारित जीवन जीने वाला और पाप न करने वाला हिन्दु है। भागवत ने यह भी माना कि भारत विविधताओं का देश है तथा विविधताओं का सम्मान होना चाहिये। देश की आजादी में कांग्रेस के योगदान को स्वीकारते हुए यह भी माना कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व का कोई अर्थ नही है। संघ प्रमुख ने जो कुछ कहा है क्या वह एक ईमानदारी पूर्ण सीधा ओर सरल स्पष्टीकरण है या यह एक राजनीतिक कुटलता है यह सवाल इस आयोजन के बाद हर विश्लेष्क के सामने खड़ा हो गया है। क्योंकि संघ का इस तरह का आयोजन पहली बार हुआ है और उसमें इस तरह का वक्तव्य आया है।
संघ अपने को एक गैर राजनीतिक संगठन मानता है लेकिन व्यवहार में संघ एक परिवार है जिसकी भाजपा एक राजनीतिक इकाई है और यह सभी जानते है कि इकाई कभी अपने मूल से अलग और बड़ी नही होती है। संघ के स्वयं सेवक भाजपा के सदस्य नहीं हो सकते ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी तरह भाजपा के सदस्य एक साथ संघ भाजपा के सदस्य हो सकते हैं। बल्कि इसी दोहरी सदस्यता के कारण 1980 में जनता पार्टी की सरकारी टूटी थी यह सभी जानते हैं आज भी भाजपा का हर स्तर का संगठन मन्त्रा संघ का मनोनीत सदस्य होता है जो कि भाजपा और संघ के बीच संपर्क सूत्रा का काम करता है। इसलिये इस सबको सामने रखते हुए यह नही स्वीकारा जा सकता कि संघ का कोई राजनीतिक मंतव्य नही हैं बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि भाजपा संघ की राजनीति का एक माध्यम है। यदि ऐसा निहित नही है तो फिर संघ को भाजपा के नाम से राजनीतिक इकाई स्थापित करने की आवश्यकता ही क्यों है। संघ का जो भी सांस्कृतिक मन्तव्य है क्या उसे राजनीतिक समर्थन के बिना प्राप्त किया जा सकता है। बल्कि क्या कोई भी संगठन राजनीतिक समर्थन के बिना काम कर सकता है और आगे बढ़ सकता है? शायद नही। इसलिये आज की परिस्थितियों की यह मांग है कि संघ परिवार अपने में जितना बड़ा संगठन है उसे सीधे स्पष्ट रूप से राजनीतिक भूमिका में आना चाहिये। हर व्यक्ति जानता है कि भाजपा सरकारो ंमेंं संघ की स्वीकृति के बिना कोई बड़ा काम नही होता है इसलिये संघ को अपरोक्षता का लवादा उतार कर सीधे जिम्मेदारी स्वीकारनी चाहिये। यदि संघ ऐसा नही करता है तो इसका अर्थ यही होगा संघ भाजपा सरकार की असफलताओं को स्वीकारने का साहस नही जुटा पा रहा है। क्या संघ भी रामदेव की मानसिकता का अनुसरण करने जा रहा है।क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों रामदेव की जो सक्रिय भूमिका रही है उसे सभी जानते है लेकिन आज वही राम देव अपने को जब निर्दलीय और सर्वदलीय कहने पर आ गये हैं तो यह सीधा संदेश जाता है कि स्वामी रामदेव भी अब मोदी सरकार की असफलताओं को स्वीकारने से भागने का प्रयास कर रहे हैं।
आज संघ प्रमुख भागवत यह मान रहे हैं कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व संभव नही है क्योंकि हिन्दु तो वह है जो मूल्यों पर आधारित और पाप रहित जीवन जीता है। इस परिप्रेक्ष में पूरे विश्व में कौन व्यक्ति होगा जो पाप पूर्ण जीवन जीना चाहते हो। जीवन मूल्य तो देश-काल और उसकी परिस्थितियां बनाती हैं क्योंकि संसार में हर प्राणी के जन्म लेने और उसकी मृत्यु की प्रक्रिया तो एक जैसी ही है । संस्कारिक विविधता तो उसके बाद होती है जब यह सवाल आता है कि जन्म लेने के बाद उसका पालन पोषण कैसे करना है और मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का क्या करना है। फिर पाप और अपराध में केवल इतना ही अन्तर है कि अपराध की सजा़ देने के लिये स्थापित कानून है और पाप आपके अपने मन बुद्धि का विवके है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब संघ यह मान रहा है कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व संभव नही है तो क्या इस बार चुनावों में संघ की राजनीतिक ईकाई भाजपा मुस्लमानों को टिकट देगी या फिर इस प्रवचन के बावजूद 2014 और उत्तर प्रदेश ही दोहराया जायेगा। क्या इस प्रवचन के बाद लव जिहाद और भीड़ हिंसा पर प्रतिबन्द लग पायेगा।
आज जो प्रवचन रूपी अपरोक्ष स्पष्टीकरण संघ का आया है उसमें संघ प्रमुख ने मंहगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर कुछ भी क्यों नही बोला? इस समय तेल की बढ़ती कीमतों तथा रूपये के अवमूल्यन से सारी अर्थव्यवस्था संकट में आ खड़ी हुई है। नोटबंदी सबसे घातक फैसला सिद्ध हुआ है। यह सब आज के ज्लवन्त मुद्दे बने हुए हैं। लेकिन संघ प्रमुख का इन मुद्दों पर मौन रहना क्या अपने में सवाल नही खड़े करता। क्योंकि अभी से चुनावी महौल बनता जा रहा हैं ऐसे में इस संघ का यह प्रवचन रूपी स्पष्टीकरण कूटनीति नही माना जायेगा? आज जिस ढंग से राहूल के मन्दिर जाने और मानसरोवर यात्रा पर भाजपा/संघ के लोगों की प्रतिक्रियाएं रही हैं क्या उनके परिप्रेक्ष में संघ प्रमुख को इस पर कुछ कहना नही चाहिये था। क्या राहूल गांधी को लेकर आयी प्रतिक्रियाएं किसी भी अर्थ में विविधता का सम्मान कही जा सकती हैं।
क्या आरक्षण एक बार फिर सरकार की बलि लेने जा रहा है? यह सवाल एक बार फिर प्रंसागिक हो उठा है। क्योंकि जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं ठीक उसी अनुपात में आरक्षण एक गंभीर राजनीतिक मुद्दे की शक्ल लेता जा रहा हैं। इस मुद्दे से जुड़ी राजनीति की चर्चा करने से पहले इसकी व्यवहारिकता को समझना आवश्यक होगा। देश जब आज़ाद हुआ था तब पहली संसद में ही काका कालेकर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन हुआ था। यह पड़ताल करने के लिये की अनुसचित जाति और जन-जातियों के लोगों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है? इनको समाज की मुख्य धारा में कैसे लाया जा सकता है? क्योंकि उस समय के समाज में अस्पृश्यता जैसे अभिशाप मौजूद थे जबकि संविधान की धारा 15 में यह वायदा किया गया है कि जाति-धर्म और लिंग के आधार किसी के साथ अन्याय नही होने दिया जायेगा। काका कालेकर कमेटी की रिपोर्ट जब संसद में आयी थी तो वह रौंगटे खड़े कर देने वाली थी। इसी कमेटी की सिफारिशां पर अनुसूचित जाति और जन-जाति के लोगों के लिये उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया था। यह प्रावधान दस वर्षो के लिये किया गया था। क्योंकि संविधान की धारा 15 में यह प्रावधान किया गया है कि हर दस वर्ष के बाद इन जातियों की स्थिति का रिव्यू होगा और तब आरक्षण को आगे जारी रखने का फैसला लिया जायेगा। संविधान के इसी प्रावधान के तहत आरक्षण आजतक जारी चला आ रहा है।
इसके बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तब इस सरकार ने देश के अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान के लिये जनवरी 1979 में सांसद वी पी मण्डल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। इस आयोग ने भी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रों के ग्यारह मानकों के आधार पर यह अध्ययन किया। इस आयोग के सामने 3743 जातियां/उपजातियां सामने आयी। आयोग ने ग्यारह मानकों पर इनका आकलन किया। इस आकलन में यह सामने आया कि अन्य पिछड़े वर्गों की जनसंख्या अनुसूचित जाति और जन जाति को छोड़कर देश की शेष जनसंख्या का 52% है। आयोग ने इनके लिये 27% आरक्षण दिये जाने की सिफारिश की और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये एक अलग आयोग गठित किये जाने की सिफारिश की। मण्डल आयोग की सिफारिश पर ही अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ है जो सीधे राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट सौंपता है। अब मोदी सरकार ने इस आयोग को एकस्थायी वैधानिक आयोग का दर्जा प्रदान कर दिया है। मण्डल आयोग ने 1980 में ही अपनी रिपोर्ट जनता पार्टी सरकार को सौंप दी थी। लेकिन 1980 में सरकार टूट गयी और इन सिफारिशों को अमली जामा नही पहनाया जा सका। जबकि संसद इस रिपोर्ट को स्वीकार कर चुकी थी। फिर 1983 में कांग्रेस सरकार ने इस पर कुछ कदम उठाये लेकिन अन्तिम फैसला नही लिया। फिर जब 1989 में वी पी सिंह के नेतृत्व में भाजपा के साथ नैशलनफ्रंट की सरकार बनी तब इस सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने का फैसला लिया। अगस्त 1990 में वी पी सिंह सरकार ने इसकी घोषणा की। लेकिन घोषणा के साथ इसका विरोध शुरू हो गया और सर्वोच्च न्यायालय में इन्दिरा साहनी बनाम भारत सरकार एक याचिका आ गयी। अदालत ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार का फैसला स्टे कर दिया। इसके बाद 16 नवम्बर 1992 को सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया और मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू हो गयी। इसके बाद संविधान के 93वें संशोधन में इन सिफारिशों को उच्च शैक्षणिक संस्थानों में भी लागू कर दिया गया। इस संद्धर्भे में 5 अप्रैल 2006 को अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में एक आल पार्टी बैठक हुई तब उस बैठक में भाजपा, वाम दलों और अन्य सभी बैठक में शामिल हुए दलों ने सरकार के इस फैसले का समर्थन किया तथा सुझाव दिया की आरक्षण का आधार आर्थिक कर दिया जाना चाहिये। इस बैठक में केवल शिव सेना ने इसका विरोध किया था। आज भी सभी राजनीति दल आरक्षण में आर्थिक आधार की वकालत करते हैं। विरोध केवल जातिय आधार का है। सर्वोच्च न्यायालय भी क्रिमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखने के निर्देश दे चुका है। लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने क्रिमी लेयर के निर्देशों की ईमानदारी से अनुपालना करने की बजाये क्रिमी लेयर का दायरा ही बढ़ाया है। क्रिमी लेयर का दायरा बढ़ा दिये जाने से यह संदेश जाता है कि सही में आरक्षण का लाभ गरीब आदमी को नही मिल रहा है और यहीं से सारी समस्या खड़ी हो जाती है।
आज केन्द्र में भाजपा की सरकार है जिसके मुखिया मोदी स्वयं ओबीसी से ताल्लुक रखते हैं। जिसकी अपनी जनसंख्या 52% है। वोट की राजनीति में यह आंकड़ा बहुत बड़ा होता है। अगस्त 1990 में जब वी पी सिंह ने मण्डल सिफारिशें लागू करने की घोषणा की थी तब 19 सितम्बर को दिल्ली के देशबन्धु कॉलिज के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह का प्रयास किया और 24 सितम्बर को सुरेन्द्र सिंह चौहान की आत्मदाह में पहली मौत हो गयी। इस दौरान मण्डल के विरोध में 200 आत्मदाह की घटनाएं घटी हैं। इन आत्मदाहों से वी पी सिंह सरकार हिल गयी। भाजपा ने समर्थन वापिस ले लिया। सरकार गिर गयी और सरकार गिरने के साथ ही आन्दोलन भी समाप्त हो गया। लेकिन आरक्षण अपनी जगह कायम रहा। अब जब मोदी सरकार बनी तब से हर भाजपा शासित राज्य से किसी न किसी समुदाय ने आरक्षण की मांग की है। इस मांग के साथ यह मुद्दा जुड़ा रहा है कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सारा आरक्षण बन्द करो। अभी जब सर्वोच्च न्यायालय ने एस सी एस टी एक्ट में कुछ संशोधन किये तब न्यायालय के फैसले को पलटने के लिये संसद का सहारा लिया और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। सरकार के इस फैसले से स्वभाविक रूप से सवर्ण जातियों में रोष है और यह रोष भारत बन्द के रूप में सामने भी आ गया है। सवर्णो ने यह नारा दिया है कि वह भाजपा को वोट न देकर ’’नोटा‘‘ का प्रयोग करेंगे। उत्तरी भारत में सवर्णो का विरोध आन्दोलन तेज है लेकिन उत्तरी भारत में सवर्णो की जनसंख्या ही 12% है। फिर जब ओबीसी की कुल जनसंख्या का 52% है और उसके साथ 22.5% एससीएसटी छोड़ लिये जाये तो यह आंकड़ा करीब 75% हो जाता है। आज भाजपा ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटकर और सवर्णो से आरक्षण के विरोध में आन्दोलन चलवाकर अपरोक्ष में 75% जनसंख्या को यह संदेश दे दिया है कि केवल भाजपा ही उनके हितों की रक्षा कर सकती है। लेकिन इसी के साथ भाजपा को यह भी खतरा है कि आरक्षण विरोध में जिन लोगों ने आत्मदाहों में अपनी जान गंवाई है यदि आज उनके साथ खड़ी नही हो पायी तो वह मण्डल विरोध के ऐसे रणनीतिक रहस्यों को बाहर ला सकते हैं जो भाजपा के साथ-साथ संघ के लिये भी परेशानी खड़ी कर सकते हैं। ऐसे में यह तय है आरक्षण विरोध में उठा यह आन्दोलन फिर सरकार की बलि ले लेगा जैसा कि वी पी सिंह सरकार के साथ हुआ था।
नवम्बर 2016 को लागू की गयी नोटबंदी के बाद पुरानी मुद्रा के 500 और 1000 रूपये के नोटों का चलन बन्द कर दिया गया था। इस आदेश के साथ ही जनता को पुराने नोटों को नये नोटों से बदलने के लिये समय दिया गया था। इस दिये गये समय में कितने पुराने नोट वापिस बैंको में जमा हुए और अन्ततः रिजर्व बैंक के पास पंहुचे इसकी अब 21 माह बाद फाईनल रिपोर्ट आ गयी है। आरबीआई ने संसदीय दल को सौंपी रिपोर्ट में कहा है कि देश में पुरानी 500 और 1000 की मुद्रा के कुल 15.44 लाख करोड़ के नोट थे। जिनमें से 15.31 लाख करोड़ के नोट वापिस आ गये हैं जो कि 99.3% होते हैं। इसी के साथ यह भी कहा गया है कि इन वापिस आये नोटों में नेपाल और भूटान से आये नोट शामिल नही हैं। आरबीआई की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरानी मुद्रा के लगभग सौ प्रतिशत ही नोट वापिस आ गये हैं।
इससे सबसे पहले यह सवाल उठता है कि जो प्रचार हो रहा था कि देश में कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी हो गयी है वह प्रचार निराधार था। स्वामी राम देव जैसे कई लोग आये दिन लाखों करोड़ के कालेधन के आंकड़े देश के सामने रख रहे थे। आज आरबीआई की रिपोर्ट आने के बाद यह सारा प्रचार एक सुनियोजित षडयंत्र लग रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह प्रचार शायद प्रायोजित था। क्योंकि जब नोटबन्दी की घोषणा की गयी थी तब प्रधानमन्त्री ने नोटबन्दी का यही तर्क दिया था कि यह कदम कालेधन को रोकने के लिये उठाया गया है। क्योंकि कालेधन का निवेश आंतकवाद के लिये हो रहा था। प्रधानमन्त्री ने जब यह तर्क देश के सामने रखा था तब देश की जनता ने उन पर विश्वास कर लिया था। इसी विश्वास के कारण लोग इस फैसले के विरोध में लामबन्द होकर सड़कों पर नही उतरे थे। देश को लगा था कि जब प्रधानमन्त्री इतना बड़ा फैसला ले रहे हैं तो निश्चित रूप से उनके पास कालेधन और उसके निवेश को लेकर ठोस जानकारियां रही होंगी। उनके वित्तमन्त्रा ने पूरी तस्वीर उनके सामने रखी होगी। लेकिन आज यह सब पूरी तरह गलत साबित हुआ है। क्योंकि इसी का दूसरा प़क्ष तो और भी घातक हो जाता है कि क्या यह कदम आम आदमी की कीमत पर कालेधन को सफेद बनाने के लिये उठाया गया था। क्योंकि आज तक यह नही बताया गया है कि कितना कालाधन पकड़ा गया है। आरबीआई की रिपोर्ट के बाद प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री और उनकी सरकार की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
आरबीआई की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस फैसले से देश को दो गुणा नुकसान हुआ है। क्योंकि मुद्रा की प्रिंटिग का एक नियम है। किसी भी देश की करेंसी उस देश के जीडीपी के अनुपात में छापी जाती है भारत में यह अनुपात 10.6 प्रतिशत है। रिजर्व बैंक इस संतुलन को बनाये रखता है। लेकिन भारत में जब से सरकारी क्षेत्र में निजिक्षेत्र का प्रभाव बढ़ा है तक से सरकारी बैंक खतरे में पड़ गये हैं और विजय माल्या,मेहुल चौकसी और नीरव मोदी जैसे प्रकरणों ने इस खतरे को पुख्ता भी कर दिया है। इस संद्धर्भ मे आरबीआई की वेबसाईड पर पड़े मनी स्टोक के आंकड़े यह बताते है कि अप्रैल 2012 में परिचलन में कुल 11,08,232 करोड़ रूपये थी जिसमें से बैंकों की तिजोरी में 43,377 करोड और जनता की जेब में 10,64,855 करोड़ थी। जुलाई 2016 में परिचलन 17,36,177 करोड़ रूपये थी जिसमें से बैंको के पास 75034 करोड़ रूपये और बैंको से बाहर जनता की जेब 16,61,143 करोड़ रूपये थे। आरबीआई के इन आंकड़ो को शायद यह मान लिया गया कि देश में इतना कालाधन है जिसे नोटबंदी से एक ही झटके में समाप्त किया जा सकता है। लेकिन वास्तव में यह सब बैंकां पर कम होते जा रहे विश्वास का परिणाम था। नोटबंदी के बाद जिस तरह से सरकारी बैंकों का घाटा सामने आता जा रहा है उससे यह भरोसा और कम हो रहा है। इसी के कारण जहां 15.44 की पुरानी करेंसी को बदलना पड़ा है उसी के साथ उतनी ही नयी करेंसी को छापना पड़ा है। इस दोहरे नुकसान के कारण क्या आज करेंसी के मुद्रण में आरबीआई 10.6 प्रतिशत के अुनपात को बनाये रख पाया है या नही इसको लेकर अधिकारिक तौर पर कुछ भी सामने नही आया है।
नोटबन्दी के कारण देश की अर्थव्यवस्था को एक बड़ा आघात पंहुचा है अब इस तथ्य को स्वीकारना ही पड़ेगा। अर्थव्यवस्था तो देश की बुनियाद होती है। जब बुनियाद एक बार हिल जाती है तो उसे संभलने में समय लगता है। आज देश इस स्थिति से गुज़र रहा है। इससे प्रधानमन्त्री की अपनी समझ और विश्वसनीयता दोनों पर जो प्रश्नचिन्ह लगा दिया है उसके परिणाम घातक होंगे। क्योंकि यदि इस असफलता को सीधे और ईमानदारी से स्वीकारने की बजाये कुछ और मुद्दे खड़े करके देश का ध्यान बांटने का प्रयास किया जायेगा तो शायदे वह स्वीकार्य नही होगा।