शिमला/शैल। क्या देश अराजकता की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल अभी कुछ दिन पहले झारखण्ड के पाकुड में लिट्टीपाड़ा में सामाजिक कार्यकर्ता स्वार्थी अग्निवेश पर भीड़ द्वारा किये गये हमले के बाद फिर से चर्चा में आ गया है। क्योंकि हमला करने वाली भीड़ साथ में जय श्री राम के नारे भी लगा रही थी। इन नारों से सीधा यह संदेश गया है कि हमला करने वाले लोग संघ-भाजपा से ताल्लुक रखते हैं। केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है और झारखण्ड में भी। इसीलिये यह लोग अपने को कानून से ऊपर मानकर क्या कानून हाथ मे लेकर जांच, फैसला और सज़ा सबकुछ एक साथ मौके पर ही कर दे रहे हैं। पुलिस और प्रशासन ऐसे मामलो मे लाचारगी की भूमिका से बाहर नही आ पाया है। पिछले डेढ़ वर्ष में देश के विभिन्न भागों में भीड़ ने तैतीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया है। यह घटनाएं कम होने की बजाये लगातार बढ़ती जा रही है। स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले की निन्दा संघ- भाजपा की ओर से कोई प्रभावी ढंग से सामने नही आयी है और यह खामोशी पूरे मामले को कुछ और ही अर्थ दे जाती है
भीड़ के हिंसक होने को लेकर महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी और कांग्रेस नेता तहसीन पूनावाला ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी। इस याचिका पर ठीक उसी दिन फैसला आया है जिस दिन स्वामी अग्निवेश पर भीड़ ने जानलेवा हमला किया। स्वामी अग्निवेश पर यह आरोप था कि उन्होंने हिन्दुओं के खिलाफ बोला है। स्वामी अग्निवेश एक समारोह में भाग लेने गये थे। समारोह में भाग लेकर जब वह सभागार से बाहर निकले अपनी गाड़ी में बैठकर जाने के लिये तभी भीड़ ने उनपर हमला कर दिया। सभागार में स्वामी अग्निवेश ने क्या बोला और वह हिन्दुओं के खिलाफ था तथा इसके लिये उन्हे यहीं मौके पर ही बिना उनका पक्ष जाने सजा देनी है यह फैसला कुछ ही क्षणों मे उस भीड़ ने ले लिया जो शायद स्वयं सभागार में उपस्थित भी नही थी। जब भीड़ इस तरह से कानून अपने हाथ में लेकर सड़कों पर फैसले करने लगेगी तो फिर देश में कानून, पुलिस, प्रशासन और अदालत के लिये कहां जगह रह जाती है। यह सबसे बड़ा और गम्भीर सवाल उभरकर सामने आता है। पिछले डेढ़ वर्षे में बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि नोटबंदी के बाद देश में इस तरह की घटनाओं में अचानक बाढ़ आ गयी है। गो रक्षा, गो काशी, बच्चा चोरी और अमुक समुदाय के लोगों ने अमुक समुदाय के व्यक्ति को मार दिया जैसी फर्जी घटनाओं की अफवाह फैलते ही इनके नाम पर अचानक भीड़ इकट्ठा हो जाती है और हिंसक होकर किसी की भी जान ले लेती है लेकिन आज तक भीड़ के हिंसक होने के लिये फैली किसी भी अफवाह की पुष्टि नही हो पायी है कि वास्तव में रोष का कारण बनी सूचना अफवाह नही सच्ची घटना थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी झूठी खबरें एक मकसद के साथ फैलायी जाती हैं ताकि दो समुदायों/वर्गों के बीच ऐसी नफरत फैल जाये कि वह उस खबर के स्त्रोत और सत्यता को जांच के बिना ही हिंसक होकर किसी की जान ले ले।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस भीड़ हिंसा का कड़ा संज्ञान लेकर इसको रोकने के उपाय करने के लिये सरकारों को कड़े निर्देश दिये हैं। इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये चार सप्ताह के भीतर रिपोर्ट भी तलब की है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी अफवाहों के लिये सोशल मीडिया को सबसे बड़ा जिम्मेदार माना है। घृणा, नफरत फैलाने वाले पोस्टों पर कड़ी निगरानी रखते हुए ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के भी निर्देश दिये हैं। उम्मीद की जानी चाहिये कि सरकार और उसका तन्त्र तुरन्त इस दिशा मे प्रभावी कदम उठायेगा। यहां पर एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि जो लोग सोशल मीडिया में यह सब फैला रहे हैं उनका संरक्षक कौन है? जब इस पर विचार करते हैं तो तुरन्त सत्तारूढ़ और विपक्ष की ओर से ध्यान जाता है क्योंकि यह स्वतः सिद्ध सत्य है कि जब हमारी असफलताएं इतनी हो जाती है कि उनके सार्वजनिक हो जाने से हमे सत्ता से बेदखल होने का डर लग जाता है जब आम जनता का ध्यान बंटाने और उसे विभाजित रखने के लिये इस तरह के हथकण्डे अपनाये जाते हैं। आज केन्द्र में भाजपा की सरकार है और अगला लोकसभा चुनाव कभी भी घोषित हो सकता है कि स्थिति बनी हुई है। ऐसे मे जनता के अन्दर अगर किसी की पहली जवाबदेही बनेगी तो वह निश्चित रूप से भाजपा की ही बनेगी। जब 2014 में लोकसभा के चुनाव हुए थे तब जनता से जो वायदे किये गये थे उनमें साथ ही यह भी कहा गया था कि जहां कांग्रेस को 60 वर्ष दिये है वहां हमें 60 महीने दें। हम इसी में सारे वायदे पूरे करेंगे। लेकिन सत्ता में आकर 60 महीने भूलकर 60 वर्ष की योजना परोसी जाने लगी है। निश्चित तौर पर सरकार अपना कोई भी बड़ा वायदा पूरा नही कर पायी है। आज रूपये की कीमत डॉलर के मुकाबले मे बहुत गिर गयी है। जिसके कारण हजा़रों करो़ड़ का ऋण बिना लिये ही बढ़ गया है। विकासदर सबसे निचले स्तर पर आ गयी है और मंहगाई पिछले दस वर्षों का रिकार्ड तोड़ गयी है। नोटबंदी से जो लाभ गिनाये गये थे वह सब हानि में सामने आ रहे हैं। इस परिदृश्य में आज यदि किसी को कुछ खोने का डर है तो वह सबसे अधिक सत्तारूढ़ भाजपा को ही है। क्यांकि जब हिंसक भीड़ किसी को मारते हुए ‘‘जयश्रीराम’’ का नारा लगाती है तो उसी नारे से सबकुछ स्पष्ट हो जाता है। हिंसक भीड़ के नारे और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से इस वस्तुस्थिति को नियंत्रित करने की सबसे बड़ी और पहली जिम्मेदारी भाजपा पर ही आ जाती है क्योंकि जिन राज्यों मे यह सब घटा है वहां पर या तो भाजपा की सरकारें है या फिर इनमें शामिल लोग अधिकांश में भाजपा के रहे हैं। इसलिये यह हिंसक भीड़ तंत्र भाजपा के लिये ही घातक सिद्ध होगा यह तय है।
शिमला/शैल। इन दिनों ‘‘एक देश एक चुनाव’’ पर एक चर्चा चल रही है। यह सुझाव महामहिम राष्ट्रपति ने अपने संसद के संबोधन में दिया था। आज इस पर देश के चुनाव आयोग ने कह दिया है कि वह इसके लिये तैयार है। विधि आयोग ने इस पर राजनीतिक दलों के साथ बैठकें शुरू कर दी हैं। कुछ दलों ने इससे सहमति जताई है तो कुछ ने असहमति। भाजपा और कांग्रेस ने इस पर अपना पक्ष आयोग के सामने नहीं रखा है। जिन दलों ने सहमति व्यक्त की है उन्होंने भी यह कहा है कि यह 2019 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में ही हो जाना चाहिये। यह विचार अमली शक्ल ले पाता है या जुमला बनकर ही रह जाता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन राष्ट्रपति के माध्यम से बाहर आये इस विचार पर सत्तारूढ़ भाजपा की सहमति रही है या नहीं, या यह राष्ट्रपति का ही एक आदर्श विचार रहा है यह भी सामने नहीं आ पाया है। लेकिन यह विचार भाजपा के लिये एक बड़ा सवाल बन जायेगा क्योंकि इस विचार के लिये तर्क दिया जा रहा है कि इससे समय और धन दोनों की बचत होगी। व्यवहारिक रूप से यह कदम सही है कि पांच साल के कार्यकाल में केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक को विधानसभा /लोकसभा/शहरी निकायों और ग्राम पंचायतों के चुनावों का सामना करना पड़ता है। हर चुनाव में आदर्श संहिता लागू होती है और उतने समय तक विकास कार्य प्र्र्रभावित होते हैं। इस गणित से सारे नहीं तो कम से कम लोकसभा और विधानसभा के चुनाव तो एक साथ हो जाने चाहिये। राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देश हित में यह फैसला सर्वसम्मति से ले लेना चाहिये।
इस समय अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारे हैं। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के पास बहुत कम राज्य है। बल्कि राष्ट्रीय दलों के नाम पर आज भाजपा और कांग्रेस दो ही दल रह गये हैं। क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्य से बाहर नहीं हैं। इस नाते भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही राष्ट्रहित में यह फैसला लेकर ‘‘एक देश एक चुनाव’’ को सार्थक बनाने में आगे आना चाहिये। यदि सही में ही हम समय और धन दोनों को बचाना चाहते हैं। इस समय चुनाव कितना महंगा हो गया है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग ने अधिकारिक तौर पर हिमाचल जैसे राज्य के लिये लोकसभा के लिये यह खर्च सीमा 70 लाख कर रखी है। इसका अर्थ यह है कि चुनाव आयोग भी मानता है कि लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिये 70 लाख रूपये खर्च हो सकते हैं। खर्च की यह सीमा उम्मीदवार पर व्यक्तिगत तौर पर लागू होती है, राजनीतिक दल पर नहीं। राजनीतिक दल प्रति उम्मीदवार कई करोड़ खर्च कर सकता है उसके लिये कोई सीमा नहीं है। यहां पर यह सवाल सामने आता है कि ऐसे कितने लोग हैं जो 70 लाख सफेद धन खर्च करके चुनाव लड़ सकता हो, शायद कोई भी नहीं। इसका यह अर्थ है कि चुनाव लड़ने के लिये व्यक्ति को किसी न किसी दल का सहारा लेना ही पड़ेगा। क्योंकि राजनीतिक दलों में आज चुनाव जीतने के लिये विचारधारा की बजाये चुनाव खर्च ही प्रमुख बन गया है। बल्कि इसके लिये होड़ लग जाती है कि कौन कितना अधिक खर्च करता है। राजनीतिक दलों के पास यह धन उद्योगपतियों से कैसे आता है और सरकार बनने पर किस शक्ल में वापिस किया जाता है और उसका भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोज़गारी पर कैसे प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है इस पर महींनो बहस की जा सकती है और ढ़ेरों लिखा जा सकता है।
इसलिये आज जब यह मुद्दा राष्ट्रपति के माध्यम से सार्वजनिक बहस का विषय बना है तो इस पर ईमानदारी और गंभीरता से विचार कर लिया जाना चाहिये। इस संद्धर्भ में इसी के साथ जुड़े कुछ प्रसांगिक विषयों पर भी बात कर ली जानी चाहिये। इस समय विधानसभाओं से लेकर संसद तक आपराधिक छवि के सैंकड़ो माननीय बन कर बैठे हुए हैं। हर चुनाव के बाद यह आंकड़े आते हैं, चिन्ता व्यक्त की जाती है लेकिन परिणाम कोई नहीं निकलता। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह निर्देश दे रखे हैं कि माननीयों से जुड़े आपराधिक मामलों में एक वर्ष के भीतर फैसला आ जाना चाहिये चाहे इसके लिये दैनिक आधार पर सुनवाई क्यों न करनी पड़े। इसके लिये विशेष अदालतें तक गठित करने की बात की गयी है लेकिन इसका अब तक कोई परिणाम नहीं निकला है। आपराधिक छवि के व्यक्ति का भी यही तर्क होता है कि वह जनता की अदालत से चुनकर आया है। यहां यह सवाल उठता है कि क्या जब वह व्यक्ति चुनाव लड़ता है तो क्या उसका सारा रिकॉर्ड जनता के सामने आ पाता है। क्या जनता को पता होता है कि उसके खिलाफ किस तरह के कितने आपराधिक मामले कब से चल रहे हैं। आपराधिक छवि के लोगों को चुनाव लड़ने का अधिकार ही न रहे इसको लेकर अभी तक न तो चुनाव आयोग, न ही सर्वोच्च न्यायालय और न ही संसद कोई व्यवस्था दे पायी है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी देश की जनता को यह वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। लेकिन यह वायदा पूरा नहीं हुआ है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि राजनैतिक दलों में इस पर सहमति न बन पाये तो क्या यह विचार जुमला बनकर ही रह जाना चाहिये? आज चुनाव राजनैतिक दलों ने अपने बहुआयामी चुनाव प्रचार अभियानों से इतना महंगा बना दिया है कि यह केवल राजनैतिक दलों के ही बस की बात बनकर रह गया है। इसी कारण से हर राजनैतिक दल अपराधियों को अपना उम्मीदवार बना रहा है। धन और बाहुबल के सहारे जनता की अदालत से जीतकर आ रहे हैं। राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिये जनता से ऐसे ऐसे वायदे कर लेते हैं जिन्हें कानूनन सार्वजनिक रिश्वतखोरी की संज्ञा दी जा सकती है लेकिन ऐसे वायदों का संज्ञान न तो चुनाव आयोग ले रहा है और न ही संसद तथा सर्वोच्च न्यायालय। फिर ऐसे वायदों को सरकार बनने के बाद कर्ज लेकर पूरा किया जाता है। ऐसे में राजनीतिक दलों पर बंदिश लगा दी जानी चाहिये कि सार्वजनिक रिश्वतखोरी की परिधि में आने वाले वायदे न किये जायें और ऐसा करने वाले दलों को चुनाव से बाहर कर दिया जाना चाहिये। दूसरा जिस भी व्यक्ति के खिलाफ कोई भी आपराधिक मामला किसी भी स्तर पर लम्बित है उसे भी चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाये। राजनैतिक दलों पर भी चुनाव खर्च की सीमा होनी चाहिये और आचार संहिता की उल्लंघना को आई पी सी के तहत दण्डनीय अपराध बना दिया जाना चाहिये। यदि यह कदम भी उठा लिये जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारी विधानसभाओं से लेकर संसद तक के चरित्र में एक बड़ा बदलाव आ जायेगा। आज की व्यवस्था में तो उम्मीदवार के साथ आया शपथ पत्र भी सार्वजनिक बहस का विषय नहीं बन पाता है। राजनीतिक दलों के आगे उनके अपने ही उम्मीदवार बौने बन कर रह जाते हैं। आज पहला सुधार तो यह लाना होगा कि उम्मीदवार दलों के व्यवहारिक बन्धक होकर ही न रह जायें।
शिमला/शैल। केन्द्रशासित राज्य दिल्ली की चुनी हुई सरकार और एलजी के बीच अधिकारों के वर्चस्व को लेकर चल रही लड़ाई में अब सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद कानूनी रूप से स्पष्ट हो गया है कि उपराज्यपाल मन्त्रीमण्डल के सर्वसम्मत फैसलो को मानने के लिये बाध्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि दिल्ली सरकार मन्त्रीमण्डल के फैसलों की जानकारी तो एलजी को देगी लेकिन जानकारी देने का अर्थ यह नही होगा कि इन फैसलों पर एलजी की सहमति और स्वीकृति भी आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश पर आधारित पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अपने 535 पन्नो के फैसले मे पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के अधिकार सर्वोपरि है। पिछले दिनों जिस तरह से कई बार केजरीवाल केन्द्र सरकार के खिलाफ धरने पर बैठने और एलजी हाऊस में ही धरने पर बैठ गये थे इस तरह के सारे कृत्यों को भी सर्वोच्च न्यायालय ने अराजकता करार देते हुए इस सबकी भी निन्दा की है। कुल मिलाकर इस ऐतिहासिक फैंसले से यह स्पष्ट हो गया है कि केन्द्र सरकार उप राज्यपालों के माध्यम से केन्द्रशासित राज्यों की सरकारों को परेशान करने /अस्थिर करने का प्रयास नही कर सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की सर्वत्र सराहना की गयी है और इस फैलसे से एक बार फिर न्यायपालिका पर आम आदमी का भरोसा बढ़ा है जो कि अब अन्यथा टूटने लग पड़ा था। लेकिन इस फैसले पर जिस तरह की प्रतिक्रिया भाजपा की उसके प्रवक्ता डा. पात्रा के माध्यम से आयी है और इसी तरह की प्र्रतिक्रिया एलजी और दिल्ली सरकार की वरिष्ठ अफसरशाही की आयी है उससे लग रहा है कि यह टकराव इस फैसले से ही खत्म होने वाला नही है। क्योंकि पिछले दिनों दिल्ली सरकार के आईएएस अधिकारियों का काम पर न आने का मामला अदालत तक पहुंच गया था तथा मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री के बीच अभद्र व्यवहार का प्रकरण पुलिस और अदालत तक जा पहुंचा है उससे जो तनाव और अविश्वास पनपा है वह अपरोक्ष में इन प्रतिक्रियाओं के रूप में सामने आया है। इसी के साथ यह भी खुलकर स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली में जो कुछ वरिष्ठ अफसरशाही और एलजी कर रहे थे वह सब केन्द्र द्वारा ही प्रायोजित था। तीन मसलों भूमि, पुलिस और व्यवस्था पर ही केन्द्र फैसले ले सकता है। शेष सारे विभागों पर दिल्ली सरकार का फैसला ही सर्वोपरि होगा। विजिलैन्स भी राज्य सरकार का ही एक विभाग होता है और इस नाते सरकार कोई भी मामला जांच के लिये विजिलैन्स को भेज सकती है। अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट भी मुख्यमन्त्री से ही फाईनल होगी। अधिकारियां की पोस्टिंग, ट्रांसफर पर सरकार का अधिकार होगा एलजी का नही। संभवतः इसी सबको देखते हुए अधिकारी दुविधा में आ गये हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से दिल्ली सरकार का एलजी पर वर्चस्व प्रमाणित हो गया है। अब इस वर्चस्व को स्वीकार करना और उसे अधिमान देने के अतिरिक्त नौकरशाही के पास और कोई विकल्प नही रह गया है। इस फैसले से दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी तथा केजरीवाल का व्यक्तिगत स्तर पर भी मान सम्मान बढ़ा है। आम आदमी पार्टी इस फैसले से मजबूत होगी इसमें किसी को भी शक नही होगा चाहिये। अगर इस फैसले के बाद भी केन्द्र सरकार एलजी और अफरशाही के माध्यम से फिर टकराव जारी रखते हैं तो इससे अब मोदी सरकार की साख ही राष्ट्रीय स्तर तक प्रभावित होगी। यह सही है कि यह केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ही थी जिसने भाजपा को लोकसभा में इतना प्रचण्ड बहुमत मिलने के बाद ही दिल्ली प्रदेश के चुनावों में ‘‘स्कूटर पार्टी ’’ तक सीमित कर दिया था। क्योंकि लोकसभा की जीत के बाद ही जिस तरह से कुछ भाजपा संघ नेताओं के मुस्लिमों को लेकर ब्यान आने शुरू हो गये थे उसी का नज़ला भाजपा पर गिरा था। आज तो चार वर्षों में और भी बहुत कुछ भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया है। लोकसभा चुनाव सिर पर खड़े हैं इन चुनावों के लिये फिर से एक लोक लुभावन भावनात्मक मुद्दें की तलाश जारी है। इसके लिये जम्मू- कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करने और एक देश एक-चुनाव की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है। लेकिन यह सारी संभावनाएं अर्थहीन हो जायेंगी यदि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को अक्षरशः अधिमान न दिया गया। यह फैसला भाजपा के भविष्य को प्रभावित करेगा क्योंकि इससे यह सामने आयेगा कि पार्टी न्यायालय का कितना मान सम्मान करती है।
शिमला/शैल। कृषि हिमाचल प्रदेश के लोगों का प्रमुख व्यवसाय है और प्रदेश की अर्थव्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। हिमाचल प्रदेश देश का अकेला ऐसा राज्य है जहां 89.96 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसलिए कृषि व बागवानी पर प्रदेश के लोगों की निर्भरता अधिक है और कृषि से राज्य के कुल कामगारों में से लगभग 62 प्रतिशत को रोज़गार उपलब्ध होता है। कृषि राज्य आय का प्रमुख स्त्रोत है तथा राज्य के कुल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 प्रतिशत कृषि तथा इससे सम्बन्धित क्षेत्रों से प्राप्त होता है।
सरकार द्वारा प्रदेश में कृषि क्षेत्र को नई दिशा प्रदान करने के लिए कई योजनाएं चलाई गई हैं तथा अनेक नई योजनाएं चलाई जानी प्रस्तावित हैं ताकि लोगों को इस क्षेत्र में अधिक से अधिक रोज़गार प्राप्त हो तथा साथ ही कृषि उत्पादन में बढ़ौतरी होने से किसानों की आय में भी वृद्धि हो सके। प्रधानमंत्री ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुणी करने की घोषणा की है। प्रदेश सरकार प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुरूप पूर्ण निष्ठा से किसानों-बागवानों की आर्थिकी को सुदृढ़ करने के हर संभव प्रयास कर रही है।
किसानों-बागवानों कि आय तभी बढ़ेगी जब उनके उत्पाद में वृद्धि होगी। कृषि व बागवानी उत्पाद में वृद्धि के लिए पर्याप्त सिचाई सुविधाओं का होना आवश्यक है। सिचाई सुविधाओं में वृद्धि के उद्देश्य से इस वर्ष तीन नई सिचाई योजनाएं-‘जल से कृषि को बल’, ‘बहाव सिचाई योजना’ व ‘सौर सिचाई योजना’ आरम्भ की जा रही हैं जिसके तहत क्रमशः 250, 150 व 200 करोड़ रुपये व्यय किए जाएंगे। प्रधानमंत्री कृषि सिचाई योजना के तहत 338 करोड़ रुपये की लागत से 111 लघु सिचाई योजनाओं के लिए एक नई इकाई मंजूर की गई है जिसके अंतर्गत केन्द्रीय सहायता के रूप में 49 करोड़ रुपये की पहली किस्त प्राप्त हो गई है। इसके साथ ही प्रदेश में लघु सिचाई योजनाओं के विकास के लिए 277 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया है। किसानों को सिचाई सुविधा प्रदान करने के लिए ही प्रदेश की पुरानी पेयजल व सिचाई योजनाओं को दुरुस्त किया जाएगा जिसके लिए केन्द्र सरकार को 800 करोड़ रुपये का प्रस्ताव भेजा जा रहा है। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा कृषकों को सिचाई के लिए बिजली की वर्तमान दर 1 रुपये प्रति यूनिट से घटाकर 75 पैसे प्रति यूनिट की जा रही है जिससे प्रदेश के लाखों किसान लाभान्वित होंगे।
प्रदेश के किसानों की आय बढ़ाने के दृष्टिगत मंत्रिमंडल की गत बैठक में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि के माध्यम से किसानों की आय बढ़ाने तथा कृषि लागत कम करने के लिए प्रदेश में ‘प्राकृतिक खेती-खुशहाल किसान’ योजना के कार्यान्वयन के दिशा-निर्देशों को मंजूरी प्रदान कर दी गई है। इस योजना के लिए 25 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। योजना से प्राकृतिक कृषि को नई दिशा मिलेगी तथा किसानों द्वारा खेतों में रासायनिक खादों के उपयोग में कमी आएगी। प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा इस योजना के कार्यान्वयन के लिए पैकेज ऑफ प्रैक्टिसिज तैयार किया जाएगा।
कृषकों की आय बढ़ाने के लिए राज्य सरकार द्वारा प्रदेश में फल एवं सब्जी उत्पादन के अंतर्गत अतिरिक्त क्षेत्र को लाया जाएगा। वर्तमान में प्रदेश के 5 जिलों में 300 करोड़ रुपये की जीका (JICA) फसल विविधिकरण योजना लागू की गई है। अब इस योजना के द्वितीय चरण को 1000 करोड़ रुपये की लागत से सभी जिलों में लागू किया जाएगा। इससे प्रदेश में कृषि क्षेत्र को नई दिशा मिलेगी।
प्रदेश में सुरक्षित खेती को बढ़ावा देने के लिए ‘वाई.एस.परमार किसान स्वरोज़गार योजना’ के तहत पॉली हाऊस के निर्माण के लिए वर्ष 2018-19 में दौरान 23 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया है। किसानों की फसलों को बन्दरों, जंगली जानवरों व आवारा पशुओं से बचाने के लिए ‘मुख्यमंत्री खेत संरक्षण योजना’ के तहत सामूहिक तौर पर सोलर बाड़ लगाने के लिए इस वर्ष 85 प्रतिशत अनुदान के प्रावधान के साथ 35 करोड़ के बजट का प्रावधान किया गया है।
इसके साथ-साथ कृषि से सम्बन्धित अन्य क्षेत्रों जैसे फूलों की खेती, मौन पालन, मत्स्य पालन, डेयरी उत्पादन जैसी गतिविधियों को विस्तार देकर भी किसानों की आय को दोगुना करने के लिए प्रदेश सरकार प्रयासरत है।
मजदूरों की कमी के कारण कृषि का यन्त्रीकरण समय की मांग है। ऊँचे दाम के कारण बहुत से कृषक ट्रैक्टर, पॉपर वीडर, पॉवर टिल्लर जैसे उपकरण नहीं खरीद पा रहे हैं। इसके लिए प्रदेश में ‘कृषि उपकरण सुविधा केन्द्र’ स्थापित किए जाएंगे, जिनमें किसान-बागवान किराए पर उपकरण प्राप्त कर सकेंगे। इन केन्द्रों की स्थापना के लिए प्रदेश के किसानों एवं युवा उद्यमियों को 25 लाख रुपये की राशि तक की मशीनरी पर सरकार 40 प्रतिशत उपदान प्रदान करेगी। कृषकों व बागवानों को पॉवर वीडर, पॉवर टिल्लर तथा अन्य उपकरणों पर उपदान के लिए 32 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया है।
उत्पादन लागत कम करने के उपायों के तहत वर्ष 2018-19 में सभी कृषकों को पोषकों के संतुलित उपयोग के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के अंतर्गत लाया जाएगा। प्रदेश की जलवायु गैर-मौसमी सब्जियों के लिए उपयुक्त है। प्रदेश सरकार किसानों को उच्च उत्पादकता वाले बीज वितरित करेगी। अच्छी किस्म वाले अनाज के बीज भी उपदान पर वितरित किए जाएंगे। जैविक कीटनाशक संयन्त्र की स्थापना के लिए 50 प्रतिशत निवेश उपदान देने का प्रावधान किया जा रहा है।
राज्य में 13 अनुसंधान केन्द्रों तथा आठ विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से किसानों तथा बागवानों को कृषि तथा बागवानी की उन्नत तथा नवीनतम जानकारियां प्रदान की जा रही हैं। सरकार ने सभी विज्ञान केन्द्रों के साथ अपनी-अपनी परिधि के किसानों-बागवानों को वाट्सएप्प के साथ जोड़ कर एक नवीन पहल की है। इससे जहां किसानों की समस्याओं के शीघ्र समाधान का मार्ग प्रसस्त हुआ है वहीं उन्हें ऋतृवार फसलों से संबंधित जानकारियां भी प्राप्त हो रही हैं। किसानों की समस्याओं व मांगों को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने के लिए किसान कृषि विभाग की टोल फ्र्री हेल्पलाईन सेवा 1550 आरम्भ की गई है।
शिमला/शैल। थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन ने हाल में एक जनमत सर्वेक्षण किया है जिसका शीर्षक है ‘महिलाओं के लिए विश्व के सबसे खतरनाक देश 2018’ फाउंडेशन ने कहा है कि भारत महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है। यह घोषणा किसी रिपोर्ट या आंकडों पर नहीं बल्कि एक जनमत सर्वेक्षण पर आधारित है।
इस नतीजे तक पहुंचने के लिए रायटर्स ने एक दोषपूर्ण प्रक्रिया का उपयोग किया है। रैकिंग, अवधारणा आधारित है। यह मात्र 6 प्रश्नों के जवाब पर आधारित है। ये परिणाम आंकडों के आधार पर नहीं निकाले गये हैं। ये पूर्णतया विचारों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त इस सर्वेक्षण में मात्र 548 लोगों को शामिल किया गया है। रायटर्स के अनुसार ये व्यक्ति महिला संबंधी मामलों के विशेषज्ञ हैं। इन व्यक्तियों के पद, संबंधित देश, अकादमिक योग्यता व विशेषज्ञता आदि के संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। ये सभी चीजें सर्वेक्षण की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। संगठन द्वारा प्रक्रिया संबंधी दी गयी जानकारी के अनुसार सर्वेक्षण में शामिल कुछ लोग नीति निर्माता है। हालांकि मंत्रालय ने इस सर्वेक्षण के संबंध में कोई जानकारी नहीं मांगी है।
सर्वेक्षण में पूछे गये 6 प्रश्न एक समान रूप से सभी देशों पर लागू नहीं किये जा सकते। जैसे विभिन्न देशों में बाल विवाह की उम्र सीमा अलग-अलग है। इसके अलावा महिला के जनानंगों की विकृति, दोषी व्यक्ति को पत्थर मारना आदि प्रथायें भारत में नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त उपलब्ध आंकडों को साझा करना, नीति निर्माण में सुझाव लेना तथा सरकार की पारदर्शी प्रणालियों के आधार पर भारत में महिलाओं की समस्याओं को रेखांकित किया जाता है। सरकार मीडिया, शोधकर्ताओं तथा स्वयं सेवी संगठनों के साथ खुले रूप से विचारों का आदान-प्रदान करती है। इससे आम लोगों को बहस में जुड़ने का अवसर प्राप्त होता है। आम लोग और स्वतां मीडिया, महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा पर खुले रूप से चर्चा कर सकती हैं। ऐसी बहसों को प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसी खुली व्यवस्था में महिलाओं से संबंधित मामले भारत में जोर-शोर से उठाये जाते हैं। संभवतः इसी कारण ऐसी अवधारणा बनती है कि देश की स्थिति खराब है।
सर्वेक्षण में स्वास्थ्य देखभाल, भेदभाव, सांस्कृतिक परम्परायें, यौन हिंसा, गैर यौन हिंसा, मानव तस्करी, जैसे विषयों पर 548 व्यक्तियों का जनमत संग्रह किया गया है। इन क्षेत्रों में भारत अन्य देशों की तुलना में बहुत आगे है। इसके अलावा पिछले वर्षों की तुलना में स्थितियां बेहतर हुई है। इसलिए भारत की रैंकिंग स्पष्ट रूप से गलत है।
उदाहरण के लिए जून 2018 में जारी नमूना पंजीयन सर्वे (एसआरएस) के अनुसार प्रसव के दौरान मातृ मृत्यु दर में 2013 की तुलना में 22 प्रतिशत की कमी आयी है। इसके अलावा जन्म के समय लिंग अनुपात भी बेहतर हुआ है। इससे यह भी पता चलता है कि लिंग आधारित गर्भपात की संख्या में भी कमी आयी है।
आर्थिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। महिलाओं की आजीविका के लिए लगभग 45.6 लाख स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा दिया गया है और इसके लिए 2 हजार करोड रुपये की धनराशि उपलब्ध कराई गयी है। बालिकाओं के वित्तीय समावेश के लिए सुकन्या समृद्ध योजना के तहत 1.26 करोड़ बैंक खाते खोले गये हैं। कुल जनधन खातों में से आधे महिलाओं के हैं। प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर लड़के और लड़कियों के नामांकनों की संख्या समान है। इस प्रकार यह कहना गलत है कि भारत ने महिलाओं को आर्थिक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं।
बाल विवाह की संख्या में भी महत्वपूर्ण कमी आयी है। 0-9 वर्ष की आयु सीमा में बाल विवाह की संख्या शून्य है। 15 से 19 वर्ष की आयु सीमा में लड़कियों के मां बनने या गर्भवती होने की संख्या में भी कमी आयी है। यह 2005-06 में 16 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 7.9 प्रतिशत हो गयी है।
एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार 2016 में दुष्कर्म के 38,947 मामले दर्ज किये गये हैं। 2014 और 2015 में क्रमशः 36735 और 34651 मामले दर्ज किये गये थे। मामलों की संख्या में वृद्धि पुलिस तक आसानी से पहुंचने का परिणाम है। इसके अतिरिक्त भारत में दुष्कर्म की दर प्रति हजार पर 0.03 है, जबकि यूएस में यह प्रति हजार पर 1.2 है। तेजाब फेंकने के मामले भी गिने चुने हैं। जैसा कि पहले कहा गया है कि दोषियों को पत्थर मारने तथा महिलाओं के जननांगों को विकृत करने की प्रथा भारत में नहीं है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हिंसा के मामले में भारत विश्व का सबसे खतरनाक देश नहीं है।
बंधुआ मजदूरी और जबरन मजदूरी के मामलों में भी कमी आयी है। अपराध की रिपोर्ट होने पर सख्ती से कार्रवाई की जाती है। मानव तस्करी (रोकथाम, सुरक्षा और पुर्नवास) अधिनियम, 2018 के अंतर्गत मानव तस्करी की समस्या को काफी हद तक नियंत्रित कर लिया गया है।
भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश घोषित करने का प्रयास केवल भारत की छवि को धूमिल करने जैसा है। यह प्रयास महिलाओं के पक्ष में हो रहे वास्तविक प्रगतियों से ध्यान हटाने जैसा है।
2012 के दुर्भाग्य पूर्ण घटना के पश्चात पूरा देश महिलाओं की सुरक्षा के प्रति सजग है तथा उन्हें घर में, अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में तथा समाज में बराबरी का हक देने के लिए कृत संकल्प है। सरकार इस दिशा में नेतृत्व प्रदान कर रही है।
यौन हिंसा से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012, अपराध कानून संशोधन अधिनियम 2013 तथा अपराध कानून संशोधन अध्यादेश, 2018 के तहत बलात्कार के मामलों में कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। इसकी परिभाषा को विस्तार दिया गया है और इसमें तेजाब से हमला, स्टॉकिंग, यौन उत्पीड़न, महिला के सम्मान को चोट पहुंचाना, 18 साल से कम उम्र के लड़कों से किया गया यौन अपराध आदि को शामिल किया गया है। किशोर न्याय अधिनियम 2015 में भी बच्चों की देखभाल और सुरक्षा की जरूरत को विस्तार दिया गया है और इसमें उन बच्चों को भी शामिल किया गया है जिन पर बाल विवाह का खतरा है। इस अधिनियम में 16 वर्ष या इससे अधिक के किशोरों को व्यस्क के समान माने जाने का प्रावधान है यदि वे बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों में लिप्त पाये जाते हैं।
राज्य सरकारें पुलिस बल में महिलाओं की संख्या को 33 प्रतिशत तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। महिलाओं की सहायता के लिए 193 वनस्टॉप केन्द्र तथा 31 राज्यों में हेल्पलाईन की शुरूआत की गयी है। इन हेल्पलाईनों से महिलाओं को 24 घंटे सहायता व सुझाव प्राप्त होते हैं। इनमें पुलिस सहायता, कानूनी सहायता, कानूनी सलाह, मेडिकल सुविधा, मानसिक सामाजिक परामर्श, अस्थाई निवास आदि शामिल है। पिछले तीन वर्षों में संस्थानों ने 12 लाख महिलाओं को सहायता प्रदान की है।
तीन तलाक को अपराध घोषित करने वाले विधेयक को मंजूरी दी गयी है। यह मुस्लिम महिलाओं को समानता का अवसर उपलब्ध करायेगा। महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है।
महिलाओं को समान अवसर प्रदान करने के तहत मुद्रा योजना के अंतर्गत 7.88 करोड़ महिला उद्यमियों को 2,25,904 करोड रुपये का ऋण दिया गया है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत प्रमाण पत्र प्राप्त करने वालों में 50 प्रतिशत महिलायें हैं। कार्यबल में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है और वे आर्थिक संसाधनों को नियंत्रित कर रही हैं। 5 लाख से अधिक महिलायें कंपनियों में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं।
प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत आवासों का आवंटन महिलाओं या संयुक्त रूप से महिला व पुरूष के नाम पर किया जा रहा है। प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण के तहत 2 लाख आवासों का आवंटन महिलाओं के नाम पर किया गया है। पैतृक संपत्ति में भी महिलाओं की हिस्सेदारी मिलने को बढ़ावा दिया जा रहा है।
माध्यमिक और उच्च शिक्षा में लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए सरकार ने विभिन्न छात्रवृत्ति योजनाओं की शुरूआत की है। इसके सुखद परिणाम सामने आये हैं। स्कूल छोड़ने की संख्या में कमी आयी है। कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने के संदर्भ में लड़कियों की संख्या में वृद्धि हुई है।
माताओं के स्वास्थ्य की स्थिति में भी सुधार हुआ है। एक महत्वपूर्ण कदम के तहत मातृत्व अवकास को बढ़ाकर 6 महीने कर दिया गया है। इससे महिलाओं को नौकरी छोड़ने की नौबत नहीं आयेगी और गर्भावस्था के दौरान उनकी आय में भी कमी नहीं होगी। पूरे देश में माताओं को नकद प्रोत्साहन दिया जा रहा है ताकि वे गर्भावस्था का पंजीयन कर सकें, अस्पताल में शिशु का जन्म हो और शिशु के जन्म के पहले और बाद उनकी देखभाल हो।
इन प्रयासों से स्थितियां बेहतर हुई हैं। भारतीय महिलाओं का जीवन बेहतर हुआ है। विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारतीय महिलाएं बेहतर स्थिति में हैं। तथ्य स्पष्ट रूप से बताते हैं कि भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश कहना वास्तविकता से परे है।