Friday, 19 September 2025
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जयराम का 80 हजार करोड़ का स्वप्न

जयराम सरकार ने प्रदेश में 80,000 करोड़ का निवेश लाने का एक स्वप्न देखा है और इसे पूरा जमीन पर उतारने के लिये देश के भीतर और प्रदेश के बाहर विदेशों में भी निवेशकों के साथ बैठकें आयोजित करने जा रही है। इस संद्धर्भ में मुख्यमन्त्री/उद्योगमंत्री तथा मुख्य सचिव की अध्यक्षता में दो कमेटीयों का गठन किया जा रहा है। विदेशों में संभावित निवेशकों के साथ यह बैठकें आयोजित करवाने के लिये दूतावासों का भी सहयोग लेगी। इस निवेश के लिये उद्योग, ऊर्जा, पर्यटन एवम् स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र भी सरकार ने चिन्हित कर लिये हैं। इस पूरे देश/विदेश के आयोजन पर करीब 50 करोड़ प्रदेश सरकार खर्च करने जा रही है। 
जिस प्रदेश का कर्जभार 50 हजार करोड़ को पहुंच चुका हो उस प्रदेश में 80 हजार करोड़ का देशी /विदेशी निवेश लाने का स्वप्न देखना एक बहुत बड़ी बात है। ईश्वर करे कि यह प्रयास एक दिवा स्वप्न बन कर ही न रह जाये। क्योंकि इस सरकार के पहले पूर्व सरकारों ने भी ऐसे प्रयास किये थे। निवेशकों को सुविधायें उपलब्ध करवाने के लिये कई नियमों/कानूनो का सरलीकरण किया गया था लेकिन अन्तिम परिणाम लगभग शून्य ही रहे हैं। आज उद्योगों के संद्धर्भ में प्रदेश का वर्तमान परिदृश्य क्या है यह देखना और समझना बहुत आवश्यक होगा। वीरभद्र शासन में जब ऐसा प्रयास किया गया था उस समय उद्योग विभाग ने इस आश्य का एक प्रपत्रा तैयार किया था। इस प्रकरण के मुताबिक प्रदेश में छोटे-बड़े पंजीकृत उद्योगों की संख्या 40 हजार कही गयी थी। इनमें निवेशकां का 17 हजार करोड़ निवेश बताया गया था तथा इन उद्योगों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या 2,58000 कही गयी थी। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक इन उद्योगों को 2005 से 2014 के बीच 35000 हजार करोड़ के आद्यौगिक पैकेज भी मिले हैं। इस तरह 52 हजार करोड़ के निवेश से केवल तीन लाख लोगों को ही लाभ मिल पाया है। इसी के साथ एक कड़वा सच्च यह भी है कि प्रदेश का खादी बोर्ड और वित्त निगम जैसे संस्थान जो केवल उद्योगों को वित्तिय एवम् अन्य सुविधायें देने के लिये ही स्थापित किये थे आज बन्द होने के कगार पर पहुंच चुके हैं। दोनो संस्थान अपने कर्जदारों का अता-पता खोजने के लिये कई योजनाएं तक घोषित कर चुके है लेकिन हर प्रयास असफल ही रहा है। यदि वित्त निगम द्वारा बांटे गये ट्टणों और उनकी वसूली में बरती गयी अनियमितताओं का गंभीरता से संज्ञान लिया जाये तो इसके प्रबन्धन बोर्डों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किये जाने की नौबत आ जायेगी। पर्यटन का पर्याय बन चुके होटल व्यवसाय की अनियमितताओं का संज्ञान सारी शीर्ष अदालतें ले चुकी हैं। इस प्रदेश को ऊर्जा प्रदेश घोशित करते हुए यह माना और प्रचारित-प्रसारित किया गया था कि अकेले ऊर्जा से प्रदेश के सारे संकट हल हो जायेंगे। लेकिन आज ऊर्जा का व्यवहारिक पक्ष यह है कि हर साल इससे आय में कमी होती जा रही है। सीएजी के मुताबिक ऊर्जा का योगदान प्रदेश के राजस्व में लगातार कम होता जा रहा है इस क्षेत्रा का 2012-13 में 46.28% योगदान गैर कर राजस्व के रूप में था जो कि कर 2016-17 में घटकर 41.95% रह गया है। इसी तरह कर राजस्व 2012-13 में 5.68% से घटकर 2016-17 में 4.54% रह गया है जबकि ऊर्जा के क्षेत्रा में सार्वजनिक क्षेत्रा के कुल निवेश का करीब 86% निवेशित है। ऊर्जा से हर वर्ष कर और गैर कर राजस्व में कमी आ रही है। सीएजी के मुताबिक जब उत्पादन लागत तो 4.50 रूपये यूनिट आ रही है और इसकी बिक्री करीब 2.80 यूनिट हो रही है। तब ऐसे में इस क्षेत्र के सहारे प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह से कैसे और कब बाहर निकल पायेगा?
आज के व्यवहारिक परिदृश्य में यदि प्रदेश की आद्यौगिक स्थिति का आंकलन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी औद्योगिक नीतियां प्रदेश की स्थितियांं के संद्धर्भ में प्रसांगिक नही रह पायी है क्योंकि जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ तभी आने वाली सरकार नई नीति लेकर आ गयी। यहां तक हुआ है कि 1990 से आज चार बार भाजपा सत्ता में और चारों बार अलग- अगल पॉलिसियां आयी। यही हालत कांग्रेस की रही है। किसी भी सरकार ने प्रदेश की जनता को यह नही बताया कि पिछली पॉलिसी का मूल्यांकन क्या रहा है और उसमें क्या व्यवहारिक कमियां रही है। प्रदेश में 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आयी थी तब पहली बार औद्योगिक पॉलिसी लायी गयी। प्रदेश में चिन्हित हुए हर उद्योग के लिये सब्सिडी दी गयी। लेकिन आज उस समय के लगे उद्योगों में से शायद पांच प्रतिशत भी मौजूद नही हैं। जब - जब उद्योगों को राहतें उपलब्ध रही उद्योग यहां पर रहे और जिस दिन राहत पैकेज समाप्त हो गया उसके बाद उद्योग पलायन कर गये। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी पॉलिसीयों में व्यवहारिक कमीयां रही हैं।
पिछले दिनों प्रदेश के बैंको के साथ सरकार की बैठक हुई थी बैठक में यह सामने आया था कि हमारे बैंकों के पास लोगों की जितनी जमा पूंजी है उसके अनुपात में क्रैडिट बहुत कम है। क्रैडिट कम होने की चिन्ता करते हुए ऋण प्रक्रिया को और सरल करने तथा कई प्रोत्साहन देने की बात की गयी थी। सरकार ने कई घोषणाएं भी की थी लेकिन व्यवहार में ऐसा कुछ भी नही हो सका है। बैंक ऋण देते हुए सरकार की घोषणाओं से अपने को बांध नही पा रहे हैं क्योंकि बैंको को ऋणों के एनपीए होने का भी बराबर डर बैठा हुआ है। माना जा रहा है कि प्रदेश के बैंकों में जमा पड़े पैसे के निवेश के लिये ही सरकार निवेशकों को आमन्त्रित करने का प्रयास कर रही है। स्वभाविक भी है कि जब निवेशक प्रदेश के बैंको की अच्छी सेहत देखेगा तो वह निवेश के लिये यहां आ जाये। क्योंकि हर निवेशक अपनी जेब से केवल 25 से 30% तक ही निवेशित करता है और शेष वह वित्तिय संस्थानों से ण लेता है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि क्या यह निवेशक सरकार के प्रोत्साहनों से प्रभावित होकर यहां निवेश करेंगे अन्यथा स्थिति होगी कि जिस दिन प्रोत्साहन खत्म उसी दिन का पलायन। 
इसलिये आज सरकार को यह बड़ा प्रयास करने से पहले एक श्वेतपत्र प्रदेश के मौजुदा उद्योगों पर जनता के सामने रखना चाहिये। जिसमें यह दर्ज रहे कि उद्योग का कुल निवेश क्या है और उसमें ण का अनुपात कितना है। उसमें कितने लोगों को प्रत्यक्ष /अप्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध है। उस उद्योग से सरकार को कितना कर और गैर कर राजस्व प्राप्त हो रहा है इस प्रयास पर पचास करोड़ सरकार खर्च करने जा रही है। यह प्रदेश की जनता का पैसा है और वह भी कर्ज का। यह प्रयास कहीं एक सैर सपाटा ट्रिप होकर ही न रह जाये इसलिये प्रदेश की जनता को यह जानने का हक है।

नोटबंदी के दो साल बाद भी

नोटबंदी का फैसला आठ नवम्बर 2016 को लिया गया था। आज दो साल बाद भी विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी से सार्वजनिक माफी मांगने की मांग कर रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री एवम् जाने माने अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने भी कहा है कि नोटबंदी के जख्म लम्बे समय तक पीड़ा देते रहेंगे। जबकि वित्त मन्त्री अरूण जेटली इस फैसले की वकालत यह कह कर रहे हैं कि इसके बाद टैक्स अदा करने वालों की संख्या बढ़ी है। यह सही है कि टैक्स अदा करने वालों की संख्या में करीब 80% की बढ़ौतरी हुई है। नोटबंदी से पहले यह संख्या 3.8 करोड़ जो अब बढ़ कर 6.4 करोड़ हो गयी है। लेकिन यह संख्या बढ़ने के और भी कई कारण हैं। केवल नोटबंदी से ही ऐसा नही हुआ है। यदि फिर भी जेटली के तर्क को मान लिया जाये तो यह सवाल उठता है कि क्या नोटबंदी टैक्स अदा करने वालों की सख्या बढ़ाने के लिये की गयी थी? क्या देश को यह बताया गया था कि इस उद्देश्य के लिये यह कदम उठाना अपरिहार्य हो गया है? शायद ऐसा कुछ भी नही कहा गया था। उस समय यह कहा गया था कि देश में कालाधन एक समान्तर अर्थव्यवस्था की शक्ल ले चुका है और इससे आतंकी गतिविधियों को फण्ड किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा था और वायदा किया था कि उसके बाद हालात एकदम सामान्य हो जायेंगे।
नोटबंदी के दौरान बैंकों के आगे लगने वाली लम्बी कतारों में देश के सौ लोगों की जान गयी है। लाखों लोगों का रोजगार छिन गया है। निर्माण उद्योग अब तक उठ नही पाया है। छोटे और मध्यम उद्योग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। कालेधन को लेकर स्वामी रामदेव जैसे दर्जनों सरकार और मोदी के प्रशंसको ने इसके कई लाख करोड़ होने के ब्यान देकर एक ऐसा वातावरण देश के अन्दर खड़ा कर दिया था जिससे यह लगने लगा था कि सही में कालाधन एक असाध्य रोग बन चुका है। लेकिन अब जब आरबीआई ने पुराने नोटों को लेकर अपनी अधिकारिक रिपोर्ट देश के सामने रखी है तो उसमें यह कहा गया है कि 99.3% पुराने नोट केन्द्रिय बैंक के पास वापिस आ गये हैं। अर्थात 99.3% पुराने नोटों को नये नोटों से बदल लिया गया है। इस आंकड़े में नेपाल में वापिस आये नोट शामिल नही है। यदि यह अंकड़ा भी इसमें जुड़ जाये तो यह प्रतिशत और बढ़ जायेगा। आरबीआई के इस आंकड़े से दो ही सवाल खड़े होते हैं कि या तो देश में कालेधन को लेकर किया गया प्रचार गलत था निहित उद्देश्यों से प्रेरित था और केवल नाम मात्र ही था जो कि आरबीआई के ही 13000 करोड़ के आंकड़े से प्रमाणित हो जाता हैं। यदि कालेधन को लेकर प्रचारित हुए आंकड़े सही थे तो सीधा है कि नोटबंदी के माध्यम से उस कालेधन को सफेद में बदलने का काम किया गया है। इन दोनों स्थितियों में से कौन सी सही है इसका जवाब तो केवल प्रधानमन्त्री, वित्त मन्त्री ही दे सकते हैं और वह दोनों इस पर चुप हैं।
इस परिप्रेक्ष में आज स्थिति यहां तक आ गयी है कि मोदी सरकार आर बी आई से उसके रिजर्व फण्ड में से एक से तीन लाख करोड़ रूपये की मांग कर रही है क्योंकि चुनावी वर्ष में सरकार को खर्च करना चुनाव जीतने के लिये। इसी मकसद से तो सरकार 59 मिनट में एक करोड़ का कर्ज देने की योजना लेकर आयी हैं आरबीआई और केन्द्र सरकार के बीच इसी मांग को लेकर इन दिनो संबंध काफी तनावपूर्ण हो गये है क्योंकि आरबीआई सरकार की इस मांग का अनुमोदन नही कर रहा है। जबकि मोदी सरकार यह पैसा लेने के लिये आरबीआई एक्ट की धारा 7 के प्रावधानों को इस्तेमाल करने तक की चेतावनी दे चुकी है। आरबीआई और केन्द्र सरकर के बीच उभरे इस नये मुद्दे से यह सवाल भी खड़ा होता है कि यदि नोटबंदी का देश की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा होता और सरकार के अपने पास पैसा होता उसे आरबीआई के रिजर्व से मांगना नही पड़ता। इस मांगने से यह भी सामने आता है कि सरकारी कोष में इतना पैसा नही है जिससे सरकार की सारी चुनावी घोषणाओं को आंख बन्द करके पूरा किया जा सके।
यही नही एनपीए की समस्या और गंभीर हो गयी हैं। 31 मार्च 2018 को यह एनपीए 9.61 लाख करोड़ हो गया जबकि मार्च 2015 में यह केवल 2.67 लाख करोड़ था। इसमें भी सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि 9.61 लाख करोड़ में से केवल 85,344 करोड़ ही कृषि और उससे संबधित उद्योगों का है। शेष 98% बड़े आद्यौगिक घरानों का है। इस एनपीए को वसूलने के लिये कारगर कदम उठाना तो दूर इन बड़े कर्जदारो के नाम तक देश को नही बताये जा रहे हैं जबकि सर्वोच्च न्यायालय इन नामों को सार्वजनिक करने के निर्देश दे चुका है। लेकिन इसके वाबजूद भी यह नाम सुभाष अग्रवाल के आरटीआई आवेदन पर नही बताये गये। इसको लेकर अब देश के चीफ सूचना आयुक्त ने आरबीआई को कड़ी लताड़ लगाते हुए देश का पैसा डुबाने वालों के नाम उजागर करने के निर्देश दिये हैं। इन नामों को उजागर करने के लिये मोदी जेटली भी खामोश बैठे हैं और इसी से उनकी भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। ऐसे में नोटबंदी के दो साल बाद भी देश की अर्थव्यवस्था आज जिस मोड़ पर पहुंच चुकी है उससे स्पष्ट कहा जा सकता है कि नोटबंदी एक घातक फैसला था।

सीबीआई प्रकरण-जन विश्वास की खुली हत्या

सीबीआई देश की सर्वोच्च न्यायालय जांच ऐजैन्सी है और मन्त्री स्तर पर इसका प्रभार प्रधानमन्त्री के पास है। यह संस्था अपने में एक स्वतन्त्रा और स्वायत संस्था है। यह स्वायतता इसलिये है ताकि कोई भी इसकी निष्पक्षता पर सवाल न उठा सके। इसी निष्पक्षता और स्वायतता के लिये इसमें नियुक्तियों के लिये प्रधानमन्त्री, नेता प्रतिपक्ष तथा सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश पर आधारित बोर्ड ही अधिकृत है। इस तरह सिद्धान्त रूप से इसकी स्वायतता और निष्पक्षता बनाये रखने के लिये पूरा प्रबन्ध किया गया है। लेकिन क्या यह सब होते हुए भी यह जांच ऐजैन्सी व्यवहारिक तौर पर स्वायत और निष्पक्ष है। यह सवाल आजकल एक सर्वाजनिक बहस का मुद्दा बना हुआ है। क्योंकि इस ऐजैन्सी के दोनों शीर्ष अधिकारियां निदेशक और विशेष निदेशक ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार ओर रिश्वत खोरी के ऐसे गंभीर आरोप लगा रखे हैं जिनसे आम आदमी के विश्वास एवम् सरकार की साख को इतना गहरा आघात लगा है कि शायद उसकी निकट भविष्य में भरपाई ही न हो सके। इस संस्था के निदेशक आलोक वर्मा के खिलाफ कैबिनेट सचिव के पास करीब छः माह से शिकायतें लंबित चली आ रही रही थी और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ तो निदेशक ने एफआईआर तक दर्ज करवा दी है। इसी एफआईआर के चलते डीएसपी देवेन्द्र कुमार की गिरफ्तारी तक हो गयी और इस गिरफतारी के लिये सीबीआई को अपने ही मुख्यलाय पर छापामारी तक करनी पड़ी।
यह सारा प्रकरण जिस तरह से घटा उससे सरकार की छवि पर गंभीर सवाल उठे। सरकार ने आधी रात को कारवाई करते हुए दोनां शीर्ष अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया और तीसरे आदमी नागेश्वर राव को अन्तरिम कार्यभार सौंप दिया। सरकार के इस कदम से आहत होकर दोनां अधिकारियों ने इसे अदालत में चुनौती दे दी। विशेष निदेशक दिल्ली उच्च न्यायालय और निदेशक सर्वोच्च न्यायालय पंहुच गयें दिल्ली उच्च न्यायालय ने अस्थाना की संभावित गिरफतारी पर रोक लगा दी और सर्वोच्च न्यायालय ने आलोक वर्मा के खिलाफ आयी शिकायत पर सीबीसी को दस दिन के भीतर सेवानिवृत न्यायधीश ए.के.पटनायक की निगरानी में रिपोर्ट सौंपने के आदेश दिये हैं। इसी के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने अन्तरिम निदेशक पर कोई भी नीतिगत फैसला लेने पर प्रतिबन्ध लगाते हुए इस दौरान उसके द्वारा किये गये कार्यों की सूची भी तलब कर ली है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों से स्पष्ट हो जाता है कि शीर्ष अदालत ने सरकार की कारवाई को यथास्थिति स्वीकार नही किया है क्योंकि सीबीसी सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायधीश की निगरानी में अपनी रिपोर्ट तैयार करेंगें। इस निगरानी से सीबीसी की निष्पक्षता पर स्वतः ही सवाल खड़े हो जाते हैं। इसी के साथ अन्तरिम निदेशक के कार्य क्षेत्र को भी सीमित कर दिया है। क्योंकि अन्तरिम निदेशक के खिलाफ भी गंभीर आरोप सामने आ गये हैं। इस तरह देश की शीर्ष ऐजैन्सी के शीर्ष अधिकारियों की ईमानदारी पर लगे सवालों से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है। इसी ऐजैन्सी के दो पूर्व निदेशकों ए पी सिंह और रंजीत सिन्हा के खिलाफ तो सर्वोच्च न्यायालय ने वर्तमान निदेशक आलोक वर्मा को ही जांच सौंपी थी जो आज तक पूरी नही हो पायी है। आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना ने स्वयं एक दूसरे को नंगा किया है। शायद यह प्रकृति का न्याय है अन्यथा देश की जनता के सामने यह कभी न आ पाता।
सीबीआई में यह जो कुछ घटा है उसका अन्तिम सच क्या रहता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इस प्रकरण से केन्द्र सरकार और खास तौर पर स्वयं प्रधानमंत्री मोदी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते हैं क्योंकि सीबीआई का प्रभार सीधे उनके अपने पास है। फिर प्रधानमंत्री बनते ही मोदी अपने साथ गुजरात काडर के करीब 30 आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को दिल्ली ले आये थे। कैबिनट सचिव, सीबीसी और अस्थाना मोदी के विश्वस्तों की टीम का ही हिस्सा हैं। सीबीसी और कैबिनेट सचिव के संज्ञान में लम्बे अरसे से आलोक वर्मा/ राकेश अस्थाना का विवाद था। इससे यह नही माना जा सकता कि प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमितशाह के संज्ञान में यह सब लाया गया हो। इस सीबीआई प्रकरण पर पूरा विपक्ष सरकार पर पूरी गंभीरता से आक्रामक हो गया है। इन अधिकारियों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ लगाये गये आरोपों से एक सवाल यह खड़ा हो जाता है कि इन लोगों ने जिन भी मामलों की जांच स्वयं की होगी या जिनकी निगरानी की होगी उनकी रिपोर्ट/निष्कर्ष कितने विश्वसनीय होंगे। आज विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी विदेशों में बैठकर वहां की अदालतों में सीबीआई की निष्पक्षता पर ही सवाल लगाये हुए हैं। विदेशों की अदालतों में सरकार सीबीआई की निष्पक्षता कैसे प्रमाणित कर पायेगी?
यह सवाल कल को बड़ा सवाल बनकर सामने आयेगा। फिर इस प्रकरण पर मोदी और अमितशाह की चुप्पी से यह विश्वास का संकट और गंभीर हो जाता है। आने वाले समय में कोई कैसे किसी भी मामले में सीबीआई जांच की मांग कर सकेगा? अदालतें किस भरोसे सीबीआई को कोई मामला सौंप पायेंगी। आज प्रधानमंत्री मोदी को विपक्ष को साथ लेकर जनता के विश्वास को बहाल करने के लिये कारगर कदम उठाने पड़ेंगे अन्यथा बहुत नुकसान हो जायेगा।

शिमला से श्यामला की कवायद क्यों

जयराम सरकार ने शिमला का नाम बदलकर श्यामला करने की मंशा जाहिर की है। इस पर लोगों की प्रतिक्रियाएं क्या रहती हैं इसका इन्तजार किया जा रहा है। यह नाम बदलनेे का सुझाव विश्वहिन्दु परिषद् की ओर से आया है। ऐसे में यह तय माना जाना चाहिये की कुछ दिनों की बहस के बाद इसे बहुमत की मंाग करार देकर यह नाम बदल दिया जायेगा। नाम बदलने से सरकार के ना एक बड़ीे उपलब्धि दर्ज हो जायेगी कि उसनेे ब्रिटिशशासन के एक प्रतीक को बदलकर पुरानी सांस्कृतिक पहचान को पुनः स्थापित करने की दिशा में पहला कारगर कदम उठा लिया है। वैसेे तो सरकार की नीयत का पता तो तभी चल गया था जब शिमला के सौन्दर्यकरण के ऐजैन्डे से यहां स्थित चर्चां की रिपेयर को अचानक नज़र अन्दाज कर दिया गया और उस पर कहीं से भी कोई आवाज नहीं उठी। सरकार के पास अपना पूर्ण बहुमत है इसलिये किसी भी विरोध से कोई फर्क नही पड़ेगा। संघ परिवार का ब्रिटिश और मुग्ल दासत्तां के प्रतीकों के प्रति किस तरह की धारणा है इसे सभी जानते हैं। ऐसे में उनके द्वारा बनाये गये भवनों और बसाये गये शहरों के नाम बदलकर अपनी पुरातन संस्कृति की स्थापना करना सबसे आसान काम है। फिर जब योगी आदित्यनाथ इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर सकते है तो जयराम शिमला को श्यामला क्यों नहीं कर सकते।
आज शिमला को सही में ही श्यामला बनाने की आवश्यकता है। क्योंकि आज का शिमला कंकरीट के जंगल में बदल चुका है। यह बदलाव कितना भयानक आकार ले चुका है इस पर एनजीटी, प्रदेश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक गंभीर चिन्ता व्यक्त कर चुके हैं। इसी चिन्ता को स्वर देते हुए यहां नये निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। लेकिन शिमला का नाम बदलकर श्यामला करने वाली जयराम सरकार अदालत के इस प्रतिबन्ध को अधिमान देने की बजाये अदालत के फैसले को चुनौती देेने की बात कर रही है। अवैध निर्माणों को सख्ती से रोकने की बजाये उन्हे राहत देने के रास्ते निकाले जा रहे है। जब अवैध निर्माणों को रोका नही जायेगा तो फिर नाम बदलकर ही आप शिमला को श्यामला नही बना पायेंगे शिमला में पिछले दिनों पेयजल की कितनी गंभीर समस्या रही है यह पूरे देश के सामनेे आ चुका है। शहर में पार्किंंग की समस्या कितनी गंभीर है इसका आकलन इसी से किया जा सकता है कि प्रदेश उच्च न्यायालय ने नये वाहनों के पंजीकरण के लिये अपनी पार्किंग होने की शर्त लगा दी है। जब तक अपनी पार्किंग उपलब्ध नहीं होगी आप गाड़ी खरीदकर उसका पंजीकरण नही करवा सकते हैं। हर सड़क पर घन्टों टैªफिक जाम लग रहे हैं। यह आज के शिमला की व्यवहारिक सच्चाई बन चुकी है। इस समय शहर को इन समस्याओं से निजात दिलाने की आवश्यकता है और इसमें नाम बदलने से कुछ भी हल होने वाला नही है।
बल्कि नाम बदलने की बहस छेड़कर क्या सरकार असली समस्याओं पर से ध्यान हटाने का प्रयास करने जा रही है यह सवाल उठने लग पड़ा है। क्योंकि इस बार बरसात में जो नुकसान हुआ है वह आने वाले समय में एक स्थायी फीचर होने जा रहा है यदि इस समय एनजीटी के आदेशो का आक्षरशः पालन नही किया गया तो निश्चित रूप से ही इसके परिणाम बहुत गंभीर होंगे। सरकार वोट की राजनीति के चलतेे अदालत के फैसलों पर अमल करने का साहस नही जुटा पा रही है। जबकि प्राकृतिक आपदाओं के संकट की चेतावनी हर जिम्मेदार मंच से सामनेे आ चुकी है। शिमला का रिज और लक्कड़ बाज़ार एरिया 1971-72 में धंसना शुरू हुआ था जो अब स्थायी फीचर बन चुका है। सैंकड़ो करोड़ इस धंसने को रोकने पर खर्च हो चुके हैं। इसलिये आज की आवश्यकता शिमला को संभावित प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लियेे ठोस और कड़े कदम उठाने की है और यह नाम बदलने से ही होने वाले नही है। फिर आज शिमला को शिमला होने के कारण ही हैरिटेज के नाम पर सौन्दर्यकरण आदि केे लिये विश्व संस्थाओं से करोड़ो रूपये मिल रहे हैं क्योंकि हैरिटेज को संजो कर रखा हुआ है। लेकिन कल जब शिमला श्यामला हो जायेगा तो हैरिटेज के नाम पर मिलने वाली सहायता के भी बन्द होने का खतरा हो जायेगा। ऐसे में यह नाम बदलनेे की कवायद किसी भी तरह से लाभदायक नही रहेगी। इससे केवल एक राजनीतिक बहस चलेगी। हो सकता है कि उससे वैचारिक धु्रवीकरण तो खड़ा हो जाये लेकिन व्यवहारिक रूप से यह नुकसादेह ही रहेगा।

राफेल की जद में सरकार

  फ्रांस से खरीदा जा रहा लड़ाकू विमान राफेल दुश्मनों के खिलाफ का इस्तेमाल होगा यह तो इसके अव्यहारिक तौर पर आ जाने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन अभी इसकी खरीद प्रक्रिया पर उठते सवालों ने ही जो हमला देश की सियासत पर बोला है उसने सबकुछ हिला कर रख दिया है। कांग्रेस और अन्य विपक्षीदल इस पर जेबीसी की मांग कर रही है और सरकार इसके लिये तैयार नही हुई है। इसके बाद सीबीसी के संज्ञान में भी यह मामलां दिया गया है। सीएजी से भी इसकी जांच करवाने की मांग की जा चुकी है। पूर्व मन्त्री यशवन्त सिंह, और अरूण शोरी तथा वरिष्ठ वकील प्रंशात भूषण इसमें एफआईआर दर्ज किये जाने का लिखित आग्रह कर चुके हैं। लेकिन मोदी सरकार इस सौदे की गोपनीयता को आधार बनाकर हर तरह की मांग को ठुकरा चुकी है। इस सौदे पर उठा विवाद प्रशांत किशोर के जुमले ‘‘ चौकीदार ही चोर निकला’’ के मुकाम तक पहुंच गया है। इस जुमले से हर कहीं दिवारें पोती जा रही हैं और कई जगह तो पुलिस इसे देशद्रोह की संज्ञा देती नज़र आ रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो इसी सौदे को लेकर प्रधानमन्त्री पर भ्रष्टता का आरोप लगाते हुए उनसे त्पागपत्रा तक की मांग कर डाली है। यह मामला एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका और शीर्ष अदालत ने इसकी खरीद से जुड़ी सारी प्रक्रिया का रिकार्ड सरकार से तलब कर लिया है।

फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलाँद के ब्यान से राहूल गांधी के आरोपों को बल मिला है। पर्वू राष्ट्रपति ओलाँद के अतिरिक्त फ्रांस की ही एक न्यूज साईट मीडिया पार्टनर ने इस सौदे से जुड़ी कंपनी दसॉल्ट के कुछ दस्तावेज सार्वजनिक करते हुए अनिल अंबानी की सहभागिता पर और गंभीरता जोड़ दी है। कुल मिलाकर यह मुद्दा आज देश की राजनीति का कन्द्रीय सवाल बन चुका है। इस मुद्दे पर भाजपा प्रवक्ता डॉ. संबित पात्रा जिस तरह से सरकार का पक्ष मीडिया के सामने रखते आ रहे हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके पास इस सौदे से जुड़े सारे दस्तावेज उपलब्ध हैं। क्योंकि जिस विस्तार से डॉ. पात्रा इस पर बोलते आ रहे हैं उस विस्तार से तो रक्षामंत्री सीता रमण और सेना अध्यक्ष भी नही बोले हैं। निश्चित है कि डॉ. पात्रा जिन दस्तावेजों के सहारे बोले आ रहे हैं वह उनके पास सरकार से ही आये होंगे क्योंकि वह सत्तारूढ़ दल के ही प्रवक्ता हैं। इसलिये यहां यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब संबित पात्रा के पास दस्तावेज हो सकते हैं तो वही दस्तावेज देश की जनता के सामने क्यों नही आ सकते? पात्रा सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता हैं लेकिन वह सरकार नही हैं। यदि उनके पास दस्तावेज सरकार के माध्यम से नही आये हैं तो फिर यह गोपनीय दस्तावेज उनके पास कहां से आ गये? क्योंकि न तो उनके वक्तव्यों का सरकार ने कभी कोई खण्डन किया है और न ही उनके स्त्रोत को लेकर किसी ने कोई सवाल उठाया है। जब इस मुद्दे को ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा गोपनीयता’’ के नाम पर संयुक्त संसदीय दल के सामने नही रखा जा रहा है तो फिर पात्रा के पास इतनी जानकरी कैसे? और इसी जानकारी को देश के साथ सांझा क्यों नही किया जा सकता? सरकार के इस आचरण से सरकार का अपना ही पक्ष कमज़ोर है।
इसी के साथ जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि जब सरकार यह दावा कर रही है कि उसने कुछ भी गलत नही किया है तो फिर वह इसकी जांच से पीछे क्यों भाग रही है? यदि अंबानी को इस सौदे में शामिल करना पूरी तरह नियम सम्मत हुआ है तो इसका प्रमाण देश के सामने रखने से सरकार क्यों हिचक रही है। जब अंबानी इस सौदे में उनकी भूमिका को लेकर सवाल उठाने वालों के खिलाफ मानहानि के नोटिस भेज सकते हैं तो वह इसकी जांच के लिये आगे क्यों नही आ रहे हैं। अपने ऊपर लग रहे आरोपों पर कोई सफाई देने से ज्यादा अच्छा तो यही होगा कि वह स्वयं इसमें जांच किये जाने की मांग करें। सरकार इसकी जांच से जिस तरह भागती जा रही है उससे उस पर लगने वाले आरोप उतने ही गंभीर होते जा रहे हैं। यदि सरकार इस जांच के लिये आगे नही आती है तो उसे आने वाले चुनावों में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

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