शिमला/बलदेव शर्मा।
वीरभद्र ने आऊट सोर्स कर्मचारियों के लिये नीति बनाने की घोषणा की है। इस घोषणा के लिये तर्क दिया है कि आऊट सोर्स के माध्यम से करीब 35000 कर्मचारी सरकार के विभिन्न अदारों में तैनात है और इनके भविष्य को देखते हुए इसके लिये कोई नीति बनाई जाना आवश्यक है वीरभद्र की घोषणा पर पूर्व मुख्यमंत्री नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल ने अपनी प्रतिक्रिया जारी की है। धमूल ने कहा है कि वीरभद्र यह नीति लाने के प्रति गंभीर नही हैं वह केवल इन कर्मचारियों से छलकर रहें है। धूमल ने दावा किया है कि उनकी सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में इस आश्य की कमेटी बनाई थी जिसे वीरभद्र ने आकर भंग कर दिया है। धूमल की प्रतिक्रिया से स्पष्ट हो जाता है कि उनके शासनकाल में भी आऊटसोर्स के माध्यम से सरकारी अदारों में कर्मचारी रखे गये थे और आज वीरभद्र शासन में भी यह प्रथा जारी है।
हिमाचल में सरकार ही रोजगार का मुख्य साधन है क्योंकि प्रदेश के निजिक्षेत्र में पंजीकृत 40 हजार छोटी बड़ी उद्योग ईकाइयों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या केवल 2,58000 तक ही पंहुच पायी है जबकि यह उद्योग विभिन्न पैकेजों के नाम पर कैग रिपोर्ट के मुताबिक पचास हजार करोड़ सरकार से डकार चुके हैं। सरकार में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या इससे दो गुणा से भी अधिक है। इसलिये सरकार ही रोजगार मुख्य केन्द्र है। हमारे राजनेता इस तथ्य को जानते है और इसके लिये अपने चेहतों को चोर दरवाजे से सरकारी नौकरी देने का प्रबन्ध हर बार करते आयेे हैं। चोर दरवाजे से नौकरियों का चलन शान्ता के पहले शासन काल में शिक्षा विभाग से शुरू हुआ था जब उन्होने वाल्टिंयर अध्यापक लगाये थे। यह लोग केवल मैट्रिक पास थे जिन्हे विभाग ने काफी समय बाद अपने खर्च पर कुछ को जेबीटी करवाई और कुछ को वैसे ही ट्रेण्ड होने का प्रमाण पत्र दे दिया गया था। तब से लेकर आज तक शिक्षा विभाग में अध्यापकों के विद्याउपासक आदि कई वर्ग कार्यरत हैं। 1993 से 1998 के बीच वीरभद्र शासनकाल में चिटों पर भर्तीयों का चलन शुरू हुआ। बिना किसी प्रक्रिया के सरकारी विभागों और निगमों बोर्डो में 23969 कर्मचारी भर्ती किये गये। 1998 में धूमल ने इस पर दो जांच कमेटियां बिठाई जिनकी रिपोर्ट में यह आकंडा सामने आया। उस समय शैल ने इस पर दो जांच कमेटीयों की पूरी रिपोर्ट अपने पाठकों के सामने रखी थी उसके बाद यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में भी पहुंचा था और उच्च न्यायालय ने इसका गंभीर संज्ञान लिया और एफआईआर दर्ज हुई। लेकिन बाद में विजिलैन्स ने राजनीतिक दवाब के आगे घुटने टेक दिये। उच्च न्यायालय ने भी विजिलैन्स से कोई रिपोर्ट लेने का प्रयास नही किया।
अब फिर उसी तर्ज पर आऊट सोर्स के तहत रखे गए 35 हजार कर्मचारियों के लिये नीति लायी जा रही है। कार्यपालिका में कर्मचारियों की भर्ती और उनके प्रोमोशन के लिये संविधान की धारा 309 नियम बने हुए हैं पूरा प्रावधान परिभाषित है। इन प्रावधानों की अवहेलना नही कि जा सकती। सरकार ने जो कन्ट्रैक्ट के आधार पर कर्मचारी रखें है उन्हे नियमित करने के लिये 9-9-2008 और 8-6-2009 को जो पाॅलिसी लायी गयी थी उसे प्रदेश उच्च न्यायालय अपने अप्रैल 2013 के फैसले में गैर कानूनी करार दे चुका है। कान्ट्रैक्ट पर की गयी भर्तीयों को चोर दरवाजे से की गयी नियुक्तियां करार दे चुका है। सर्वोच्च न्यायालय को नियमित के बराबर वेतन देने के भी आदेश किये है। सरकार इन आदेशों की अनुपालना नही कर पा रही है। अब आऊट सोर्स के माध्यम से रखे गये कर्मचारियो के लिये पाॅलिसी लाकर यह सरकार चिटों पर भर्ती से भी एक बड़ा कांड़ करने जा रही है। आऊट सोर्स कर्मचारियों के लियेे सरकार कोई नीति बना ही नही सकती है। क्योंकि यह कर्मचारी तो मूलतः ठेकेदार के कर्मचारी हैं और बिना किसी प्रक्रिया के रखे जाते हैं जो कि सविधान की धारा 14 और 16 का सीधा उल्लघंन है। लेकिन आऊट सोर्स के नाम पर कर्मचारी सप्लाई करने का काम कुछ प्रभावशाली नेता कर रहे हैं। आऊट सोर्स के नाम पर यह ठेकेदार प्रति कर्मचारी मोटा कमीशन खा रहे हैं जो कि अपने में ही एक बहुत बड़ा घोटाला है। अब वीरभद्र इन ठेकेदारों के दबाव के आगे प्रदेश के लाखों बेरोजगार युवाओं के साथ खिलवाड़ करने जा रहे हैं। लेकिन चुनावों को सामने रख कर एक भी राजनीतिक दल या राजनेता इस घोटाले का विरोध करने का साहस नही कर रहा है।
शिमला/बलदेव शर्मा अभी कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। इन राज्यों में इस समय उत्तराखण्ड में कांग्रेस, पंजाब में अकाली -भाजपा और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सत्ता में है। इन चुनावों में यह सभी दल फिर से चुनाव मैदान में कहीं सीधे तो कहीं गठबन्धन की शक्ल मे इनके अतिरिक्त बसपा और ‘‘आप’’ भी चुनाव में है। बसपा यूपी में पहले भी सरकार चला चुकी है और आप दिल्ली में सरकार चला रही है। भाजपा के पास इस समय केन्द्र सरकार है तो कांग्रेस के पास इससे पहले रह चुकी है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सभी दलों को सरकार चलाने का अनुभव है और सभी को सरकारों की वित्तिय स्थिति तथा जनता की समस्याओं और अपेक्षाओं का भी ज्ञान है। इसी के साथ यह भी एक सच है कि सभी राज्य सरकारें कर्ज के बोझ तले भी है और यह कर्ज हर वर्ष घटने की बजाये बढ़ता ही जा रहा है सभी को राज्यों के संसाधनों का भी पता है। लेकिन आज यदि इन सभी दलों के वर्तमान और पूर्व के चुनाव घोषणा पत्रों का एक निष्पक्ष आकलन किया जाये तो जो तस्वीर उभरती है वह एकदम चिन्ताजनक और निराशाजनक दिखती है। क्योंकि किसी के भी घोषणापत्र में संसाधनों का जिक्र नही है। किसी ने भी संबंधित राज्य की आर्थिक और वित्तिय स्थिति का कोई उल्लेख नही किया है। सभी ने जनता को अधिक से अधिक मुफत लाभ देने का वायदा किया है बल्कि इन घोषणापत्रों को देखकर तो यह सवाल भी उठता है कि जो वायदे इस बार किये जा रहें है क्या जनता की यह आवश्यकताएं अभी पैदा हुई है? जब यह दल सरकार चला रहे थे क्या तब जनता को इस सबकी आवश्यकता नही थी? कुल मिलाकर सभी दलों के घोषणपत्रों को प्रलोभनों का पिटारा और मतदाताओं को खरीदने का प्रयास करार दिया जा सकता हैं। कहीं भी यह नही बताया गया है कि इन वायदों को पूरा करने के लिये साधन कहां से आयेंगे? यह वायदा नहीं किया गया है कि जनता पर परोक्ष/अपरोक्ष में कोई नया टैक्स नही लगाया जायेगा और न ही सरकार पर कर्ज का बोझ डाला जायेगा। यदि ईमानदारी से आंकलन किया जाये तो सभी के घोषणापत्र आचार संहिता का उल्लघंन करार दिये जा सकते है।
लेकिन हमारा चुनाव आयोग इस बुनियादी पक्ष की ओर एकदम आंख बन्द करके बैठा हुआ है। हर बार चुनाव खर्च की सीमा बढ़ा दी जाती है और इसमें भी राजनीतिक दलों पर तो कोई सीमा है ही नही। राजनीतिक दलों की आय के स्त्रोत कितने वैध हैं और कितने अवैध इसका खुलासा सामने आ चुका है। राजनीतिक दलों की 69 प्रतिशत आय अज्ञात स्त्रोतों से है जिसे सीधे-सीधे अवैध करार दिया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के पास इतनी आय अज्ञात स्त्रोतांे से हो तो उसके खिलाफ आपराधिक मामला बन जाता है और सज़ा मिलती है। लेकिन राजनीतिक दलों को लेकर न्यायपालिका और चुनाव आयोग दोनों ही एकदम पंगु होकर बैठे हुए है। क्योंकि यह घोषणापत्र जनता का ऐजैन्डा न होकर इन दलों की सत्ता में वापसी सुनिश्चित करने का ऐजैन्डा होकर रह गये है। गरीबों को कुछ चीजे सस्ते में या मुफत उपलब्ध करवा कर एक निश्चित वोट बैंक को अपने पक्ष में करने का प्रयास करना स्वस्थ लोकतन्त्र का मानक नही माना जा सकता। चुनावों की यह वर्तमान व्यवस्था धीरे - धीरे अपराधियों, धनबलियों और बाहुबलियों को शासन के शीर्ष पर बैठाने का साधन होकर रह गयी है। आज राजनीतिक दल पेशेवर चुनाव प्रबन्धकों और प्रचारको के रोजगार का एक बड़ा स्त्रोत बन कर रह गये है। राजनीतिक दल कारपोरेट संस्कृृति का पर्याय बनकर रह गये हैं। कोई भी दल राजनीति में बढते अपराधीकरण को लेकर अपने घोषणापत्रों में एक शब्द तक नही कह पाया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आज राजनीतिक दलों का एक मात्र सरोकार सत्ता में बने रहने के अतिरिक्त और कुछ नही रह गया है। ऐसे में यह सोचना पडे़गा कि यदि ही चुनावी व्यवस्था चलता रही तो निकट भविष्य में स्थितियां कहां से कहां पहुंच जायेगी।
इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है। कि समय रहते ही चुनावी व्यवस्था और इससे वांच्छित सुधारों को लेकर एक सर्वाजनिक बहस शुरू की जायेे। राजनीतिक दलों और जनता के बीच एक सशक्त संवाद कैसे स्थापित हो सकता है। इसके लिये कौन सा मंच कारगर हो सकता है? इस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। चुनाव को धनबल और बाहुबल से कैसे मुक्त रखा जाये? क्योंकि इस वक्त जिस तरह का चुनाव प्रचार किया जा रहा है उसमें तो जनता को सोचने विचारने का समय ही नहीं मिल पाता है। आज की व्यवस्था में राजनीतिक दल और राजनेता को सुनने की व्यवस्था तो है। परन्तु उसे सुनाने और उससे पूछने की कोई तय व्यवस्था नही है। आज माॅडल आचार संहिता तो है परन्तु उसकी अवहेलना पर दण्डनीय अपराध दर्ज हो पाने का प्रावधान नही है इस पर केवल चुनाव परिणाम के बाद चुनाव याचिका दायर करने का ही प्रावधान है। इसलिये आज आवश्वकता है कि जनता और रानीतिक दल तथा राजनेता के बीच अधिकाधिक संवाद की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये। क्योंकि सैद्धान्तिक रूप से तो चुनाव प्रचार का अर्थ ही मतदाताओं के साथ सार्थक संवाद की स्थापना है और यह संवाद लगभग बिना किसी बड़े खर्च से स्थापित किया जा सकता है। इसके लियेे सरकार, चुनाव आयोग और न्यायपालिका तीनों को अपने- अपने स्तर पर प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि समय रहते यह न हो पाया तो बहुत संभव है कि जनता स्वयं को ऐसा कुछ करने पर आ जाये जो अराजकता की सीमा तक जा पहुंचें।
शिमला/बलदेव शर्मा
मुख्यमन्त्री सिंह वीरभद्र सिंह ने धर्मशाला को दो माह के लिये प्रदेश की शीतकालीन राजधानी बनाने का ब्यान दिया है। मुख्यमंत्री का यह ब्यान हकीकत में बदल पाता है या नहीं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। क्योंकि 2017 चुनावी वर्ष है और चुनावों के नाम पर राजनेता हर कुछ ब्यान देते हैं जिनका हकीकत से कोई वास्ता नही होता है। वीरभद्र सिंह ने भी यह ब्यान मन्त्रीमण्डल की बैठक के बाद दिया है और यह स्पष्ट नहीं किया है कि क्या इस पर मन्त्री परिषद में कोई विचार हुआ है या नही। क्योंकि यदि
ऐसा होना है तो इस पर मन्त्री परिषद में फैसला लिया जाना आवश्यक है। वीरभद्र अपने इस ब्यान पर कितने गंभीर हैं यह तो वही जानते हैं। लेकिन उनके इस ब्यान पर एक सार्वजनिक बहस की आवयकता है।
इस समय शिमला प्रदेश की राजधानी है और अंग्रेजी हकूमत ने जब शिमला बसाया था उस समय उनके दिमाग में इसे राजधानी नगर नही बल्कि एक पर्यटक स्थल बनाने का नक्शा था। एक पर्यटक स्थल के हिसाब से ही यहां के लिये बिजली पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओं का ढ़ाचा तैयार किया गया था। लेकिन जब से शिमला को एक नियमित रूप से राजधानी नगर बनाया गया है। तब से लेकर आज तक शिमला का जितना प्रसार हुआ उसके मुताबिक आज यहां की आवश्यक सेवाओं का सारा प्रबन्धन बुरी तरह से चरमरा गया है। इस बार की बर्फबारी ने इसका तल्ख अहसास भी करवा दिया है। इस वर्ष बर्फबारी में आवश्यक सेवाओं के तहस-नहस हो जाने के कारण हर प्रभावित व्यक्ति ने प्रशासन और शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को कोसा है। बहुत संभव है कि इस स्थिति की व्यवहारिक गंभीरता को स्वीकारते हुए ही वीरभद्र ने यह ब्यान दिया हो। क्योंकि राजधानी नगर में जो भी होगा उसमें हर वर्ष नये निमार्ण होगें ही और उनके लिये आवश्यक सेवाओं का प्रबन्धन भी अनिवार्यता रहेगी ही। परन्तु आज शिमला नये निमार्णों और प्रबन्धनों का बोझ उठा पाने के लिये सक्षम नही रह गया है। आज शिमला के आधे से ज्यादा हिस्से में हर घर तक एेंबुलैन्स और फॉयर टैण्डर नहीं पहुंच पाता है। पार्किंग की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि नयी गाड़ी खरीदने से पहले पार्किंग की उपलब्धता का प्रमाणपत्र देना होगा। इसके बिना नयी गाड़ी के पंजीकरण पर रोक है। शिमला में एक लम्बे अरसे से अवैध निर्माण होते आ रहे हैं जिनके लिये नौ बार रिरटैन्शन पॉलिसियां लायी गयी हैं। अब तो अवैध निमार्णों का प्रदेश उच्च न्यायालय तक ने कड़ा संज्ञान लिया है और अवैधता के लिये जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने तक निर्देश दे रखे हैं।
इस परिदृश्य में आज यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो व्यवहारिक रूप से शिमला को आगे लम्बे अरसे तक राजधानी बनाये रखना संभव नही होगा। इस समय शिमला स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद की जा रही है। भारत सरकार भी इसके लिये खुला आर्थिक सहयोग दे रही है। स्मार्ट सिटी की अवधारणा पुराने शहरों पर लागू नही होती है। इस अवधारणा के तहत नया ही शहर बसाया जाना होता है। क्योंकि स्मार्ट सिटी के लिये हर घर तक सीवरेज ऐन्बुलैन्स और फायर टैण्डर का पहुंचना आवश्यक है। इसी के साथ हर घर की अपनी पार्किंग होनी चाहिये। इन बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य और शॉपिंग कम्पलैक्स आदि आते हैं। आज शिमला के हर घर को यह सुविधाएं उपलब्ध होना व्यवहारिक रूप से ही संभव नही है चाहे इसके लिये जितना भी निवेश क्यों न कर लिया जाये।
ऐसे में जब आज स्मार्ट सिटी बनाई जानी है तो उसके लिये यह बहुत आवश्यक और व्यवाहारिक होगा कि प्रदेश के किसी केन्द्रिय स्थल पर स्मार्ट सिटी की अवधारणा पर एक राजधानी नगर ही बसाने का प्रयास किया जाये। क्योंकि शिमला में बर्फ के मौसम में करीब तीन महीने और बरसात में दो महीने के लिये सामान्य जनजीवन में बाधा आती ही है। इससे पूरा शासन और प्रशासन प्रभावित होता है। आज शिमला में आवश्यक सेवाओं को मैन्टेन करने के लिये ही प्रतिवर्ष सैकड़ों करोड़ खर्च हो रहे हैं जो कि पूरी तरह से अनुत्पादिक खर्चा है। इसलिये आज सारे
दूसरी राजधानी की आवश्कता
राजनीतिक और उनके नेतृत्व को दलगत हितों से ऊपर उठकर इस पर विचार करना चाहिये। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने चाहे जिस भी मंशा से सर्दीयों के दो माह के लिये धर्मशाला शीतकालीन राजधानी बनाने की बात की हो लेकिन उसमें अपरोक्ष में यह स्वीकार्यता तो है ही कि शीतकाल के लिये राजधानी के रूप में शिमला सक्षम नहीं रह गया है। धर्मशाला में जब विधानसभा भवन बनाया गया था तब उसके पीछे शुद्ध रूप से राजनीतिक स्वार्थ रहे हैं अन्यथा जिस भवन का वर्ष में इस्तेमाल ही एक सप्ताह भर होना है उसके लिये इतना बड़ा निवेश किया जाना कतई जायज नही ठहराया जा सकता वह भी तब जब सरकार को हर वर्ष एक हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेना पड़ रहा हो। इसलिये मेरा सुझाव है कि अब जब स्वंय वीरभद्र सिंह ने यह बात छेड़ दी है तो उसे आगे बढ़ाने के लिये सबको आगे आना चाहिये। अन्यथा आने वाली पीढीयां वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को बराबर कोसती रहेंगी।
शिमला/बलदेव शर्मा मुख्यमन्त्री सिंह वीरभद्र सिंह ने धर्मशाला को दो माह के लिये प्रदेश की शीतकालीन राजधानी बनाने का ब्यान दिया है। मुख्यमंत्री का यह ब्यान हकीकत में बदल पाता है या नहीं यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। क्योंकि 2017 चुनावी वर्ष है और चुनावों के नाम पर राजनेता हर कुछ ब्यान देते हैं जिनका हकीकत से कोई वास्ता नही होता है। वीरभद्र सिंह ने भी यह ब्यान मन्त्रीमण्डल की बैठक के बाद दिया है और यह स्पष्ट नहीं किया है कि क्या इस पर मन्त्री परिषद में कोई विचार हुआ है या नही। क्योंकि यदि ऐसा होना है तो इस पर मन्त्री परिषद में फैसला लिया जाना आवश्यक है। वीरभद्र अपने इस ब्यान पर कितने गंभीर हैं यह तो वही जानते हैं। लेकिन उनके इस ब्यान पर एक सार्वजनिक बहस की आवयकता है।
इस समय शिमला प्रदेश की राजधानी है और अंग्रेजी हकूमत ने जब शिमला बसाया था उस समय उनके दिमाग में इसे राजधानी नगर नही बल्कि एक पर्यटक स्थल बनाने का नक्शा था। एक पर्यटक स्थल के हिसाब से ही यहां के लिये बिजली पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओं का ढ़ाचा तैयार किया गया था। लेकिन जब से शिमला को एक नियमित रूप से राजधानी नगर बनाया गया है। तब से लेकर आज तक शिमला का जितना प्रसार हुआ उसके मुताबिक आज यहां की आवश्यक सेवाओं का सारा प्रबन्धन बुरी तरह से चरमरा गया है। इस बार की बर्फबारी ने इसका तल्ख अहसास भी करवा दिया है। इस वर्ष बर्फबारी में आवश्यक सेवाओं के तहस-नहस हो जाने के कारण हर प्रभावित व्यक्ति ने प्रशासन और शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को कोसा है। बहुत संभव है कि इस स्थिति की व्यवहारिक गंभीरता को स्वीकारते हुए ही वीरभद्र ने यह ब्यान दिया हो। क्योंकि राजधानी नगर में जो भी होगा उसमें हर वर्ष नये निमार्ण होगें ही और उनके लिये आवश्यक सेवाओं का प्रबन्धन भी अनिवार्यता रहेगी ही। परन्तु आज शिमला नये निमार्णों और प्रबन्धनों का बोझ उठा पाने के लिये सक्षम नही रह गया है। आज शिमला के आधे से ज्यादा हिस्से में हर घर तक एेंबुलैन्स और फॉयर टैण्डर नहीं पहुंच पाता है। पार्किंग की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि नयी गाड़ी खरीदने से पहले पार्किंग की उपलब्धता का प्रमाणपत्र देना होगा। इसके बिना नयी गाड़ी के पंजीकरण पर रोक है। शिमला में एक लम्बे अरसे से अवैध निर्माण होते आ रहे हैं जिनके लिये नौ बार रिरटैन्शन पॉलिसियां लायी गयी हैं। अब तो अवैध निमार्णों का प्रदेश उच्च न्यायालय तक ने कड़ा संज्ञान लिया है और अवैधता के लिये जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने तक निर्देश दे रखे हैं।
इस परिदृश्य में आज यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो व्यवहारिक रूप से शिमला को आगे लम्बे अरसे तक राजधानी बनाये रखना संभव नही होगा। इस समय शिमला स्मार्ट सिटी बनाने की कवायद की जा रही है। भारत सरकार भी इसके लिये खुला आर्थिक सहयोग दे रही है। स्मार्ट सिटी की अवधारणा पुराने शहरों पर लागू नही होती है। इस अवधारणा के तहत नया ही शहर बसाया जाना होता है। क्योंकि स्मार्ट सिटी के लिये हर घर तक सीवरेज ऐन्बुलैन्स और फायर टैण्डर का पहुंचना आवश्यक है। इसी के साथ हर घर की अपनी पार्किंग होनी चाहिये। इन बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य और शॉपिंग कम्पलैक्स आदि आते हैं। आज शिमला के हर घर को यह सुविधाएं उपलब्ध होना व्यवहारिक रूप से ही संभव नही है चाहे इसके लिये जितना भी निवेश क्यों न कर लिया जाये।
ऐसे में जब आज स्मार्ट सिटी बनाई जानी है तो उसके लिये यह बहुत आवश्यक और व्यवाहारिक होगा कि प्रदेश के किसी केन्द्रिय स्थल पर स्मार्ट सिटी की अवधारणा पर एक राजधानी नगर ही बसाने का प्रयास किया जाये। क्योंकि शिमला में बर्फ के मौसम में करीब तीन महीने और बरसात में दो महीने के लिये सामान्य जनजीवन में बाधा आती ही है। इससे पूरा शासन और प्रशासन प्रभावित होता है। आज शिमला में आवश्यक सेवाओं को मैन्टेन करने के लिये ही प्रतिवर्ष सैकड़ों करोड़ खर्च हो रहे हैं जो कि पूरी तरह से अनुत्पादिक खर्चा है। इसलिये आज सारे
दूसरी राजधानी की आवश्कता
राजनीतिक और उनके नेतृत्व को दलगत हितों से ऊपर उठकर इस पर विचार करना चाहिये। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने चाहे जिस भी मंशा से सर्दीयों के दो माह के लिये धर्मशाला शीतकालीन राजधानी बनाने की बात की हो लेकिन उसमें अपरोक्ष में यह स्वीकार्यता तो है ही कि शीतकाल के लिये राजधानी के रूप में शिमला सक्षम नहीं रह गया है। धर्मशाला में जब विधानसभा भवन बनाया गया था तब उसके पीछे शुद्ध रूप से राजनीतिक स्वार्थ रहे हैं अन्यथा जिस भवन का वर्ष में इस्तेमाल ही एक सप्ताह भर होना है उसके लिये इतना बड़ा निवेश किया जाना कतई जायज नही ठहराया जा सकता वह भी तब जब सरकार को हर वर्ष एक हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेना पड़ रहा हो। इसलिये मेरा सुझाव है कि अब जब स्वंय वीरभद्र सिंह ने यह बात छेड़ दी है तो उसे आगे बढ़ाने के लिये सबको आगे आना चाहिये। अन्यथा आने वाली पीढीयां वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को बराबर कोसती रहेंगी।
देश के पांच राज्यों में विधान सभाओं के चुनाव होने जा रहे है। इन चुनावों के परिदृश्य में यह सवाल फिर उभरा है कि जिन लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं क्या उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति होनी चाहिए या नही? चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल पर विचार कर रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए की समय रहते हीे इसका कोई जवाब जनता के सामने आ जायेगा। आज विधान सभाओं से लेकर देश की संसद तक आपराधिक मामले झेल रहे लोग जन प्रतिनिधि बनकर बैठे हुए हैं। क्योंकि यह लोग न्यायपालिका की बजायेे जनता की अदालत पर ज्यादा भरोसा करते हैं और जनता इन्हे विजयी बनाकर अपने प्रतिनिधि के रूप में आगे भेज देती है। इस जनता की अदालत में इनके आपराधिक मामलों पर कितनीे बहस होती है कैसे और कौन इनका पक्ष रखता है इसका कोई लेखा जोखा नहीं रहता है। केवल हार या जीत सामने आती है। इसी के कारण चुनावों में धन बल और बाहुबल के प्रभाव के आरोप लगते आ रहे हैं। यह चलन कब समाप्त होगा? कब व्यवस्थापिका को इन अपराधियों से निजात मिलेगी?
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में यह निर्देश दे रखे हैं कि जिन जन प्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामले आदलतों में लंबित हैं उनमें एक वर्ष के भीतर फैसला करना होगा। इसके लिये अगर दैनिक आधार पर भी सुनवाई करनी पडे़ तो की जानी चाहिये। इसको सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त अदालतें तक स्थापित करने की व्यवस्था दी गयी थी। केन्द्र सरकार ने उस समय राज्य सरकारों को इस आश्य का पत्रा भी भेजा था। सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ अदालतों को सख्त हिदायत दी थी कि एक वर्ष से अधिक का समय लगने की स्थिति में संबधित उच्च न्यायालय से इसकी अनुमति लेनी होगी। लेकिन क्या सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले की अनुपालना हो पायी है? आज भी जन प्रतिनिधियों के खिलाफ वर्षो से ट्रायल में मामले लंबित हैं। क्योंकि फैसले के बाद न तो सर्वोच्च न्यायालय ने और ही सरकार ने इस बारे में जानकारी लेने का प्रयास किया है। एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिये थे कि जांच ऐजैन्सी के पास आने वाली हर शिकायत पर एक सप्ताह के भीतर मामला दर्ज हो जाना चाहिये। यदि जांच अधिकारी को शिकायत पर कुछ प्रारम्भिक जांच करने की आवश्यकता लगे तो ऐसी जांच भी एक सप्ताह में पूरी करके शिकायत पर कारवाई करनी होगी। यदि जांच अधिकारी की राय में शिकायत पर मामला दर्ज करने का आधार न बनता हो तो इसकी वजह लिखित में रिकार्ड करनी होगी और शिकायतकर्ता को भी लिखित में इसकी जानकारी देनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम स्टेेट आॅफ उत्तर प्रदेश में स्पष्ट कहा है कि किसी भी शिकायत को बिना कारवाई के नहीं समाप्त किया जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से उम्मीद जगी थी कि अब व्यवस्थापिका में देर सवेर आपराधिक छवि के लोगों के घुसने पर रोक लग ही जायेगी। यह भी आस बंधी थी कि पुलिस तन्त्र उसके पास आने वाली शिकायतों को आसानी से रद्दी की टोकरी में डालकर ही नहीं निपटा देगा। लगा था कि ‘‘हर आदमी कानून के आगे बराबर है ’’ के वाक्य पर अमल होगा। लेकिन अभी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमन्त्री मोदी के खिलाफ आयी प्रशान्त भूषण की शिकायत के मामले को जिस तरह से निपटाया है उससे आम आदमी की उम्मीद को गहरा आघात लगा है। मोदी जब गुजरात के मुख्यमन्त्री थे उस समय उन्हें कुछ उद्योग घरानों से करीब 40 करोड़ मिलने का आरोप लगा है। इस आरोप की पुष्टि में उन्हें जो कुछ दस्तावेज मिले हैं उन पर आयकर विभाग का भी हवाला है। राहुल गांधी ने भी इन आरोपों को जनता के सामने रखा है। इन आरोपों से आज की राजनीति और आर्थिक परिस्थितियों से एक नयी बहस उठी है। क्योंकि इस समय देश में भ्रष्टाचार और कालाधन केन्द्रित मुद्दे बन चुके हंै। नोटंबदी से इस पर और भी ध्यान केन्द्रित हुआ है। राजनीतिक दल और नेता एक दूसरे के भ्रष्टाचार पर हमला बोलने लगे हैं और यह एक अच्छा संकेत है। इस वस्तु स्थिति में न्यायपालिका की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि देश की सबसे बड़ी जांच ऐजैन्सी सीबीआई को सर्वोच्च न्यायालय ही सरकार के पिंजरे का तोता करार दे चुका है। ऐसे में न्यायपालिका पर ही अन्तिम भरोसा है। यदि सर्वाच्च न्यायालय मोदी पर लगे इन आरोपों की जांच का मार्ग अपनी निगरानी में प्रशस्त कर देता तो इस भरोसे को और बल मिल जाता लेकिन इस जांच का रास्ता ही रोक दिये जाने से यह धारणा बनना और सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बदले राजनीतिक परिदृश्य में न्यायपालिका के सरोकार भी बदल गये हैं?