शिमला/शैल। पिछले दिनों वेब साइट्स के मीडिया कर्मियों ने मुख्यमंत्री से मिलकर उन्हें एक ज्ञापन सौंपा था और वेबसाइट के लिए पॉलिसी बनाने की मांग की थी। इन मीडिया कर्मियों का आरोप था कि पिछले 4 साल से जयराम सरकार लगातार पॉलिसी बनाने का आश्वासन देती आ रही है। लेकिन व्यवहार में कुछ नहीं हुआ है। इस ज्ञापन के बाद अब अतिरिक्त मुख्य सचिव सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की ओर से एक विज्ञप्ति जारी करके यह कहा गया है कि वित्त विभाग ने यह पॉलिसी बनाये जाने के लिये अपनी सहमति दे दी है। इस पर 15 फरवरी तक मीडिया कर्मियों से सुझाव मांगे गये हैं। यह सुझाव आने के बाद पॉलिसी का फाईनल ड्राफ्ट तैयार होगा और वर्ष के अंत तक पॉलिसी बनकर तैयार होगी। इसी बीच अतिरिक्त मुख्य सचिव सूचना एवं जनसंपर्क विभाग अभी सेवानिवृत्त हो जायेंगे। उनके स्थान पर नया सचिव नियुक्त होगा और उसे भी इस मामले को समझने के लिए कुछ समय चाहिए ही होगा। उसके बाद चुनाव आचार संहिता लागू हो जाएगी और फिर पॉलिसी बनाने का यह काम अगली सरकार के लिए छोड़ दिया जायेगा। सरकारी तंत्र की कार्यशैली को समझने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि यही होगा। हो सकता है मुख्यमंत्री को यह जानकारी ही न हो कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को कोई और ही ताकत संचालित कर रही है अन्यथा कोई भी मुख्यमंत्री ऐसे क्यों करेगा कि वह विज्ञापनों को लेकर सदन में पूछे गये सवाल का हर बार यही उत्तर दें कि सूचना एकत्रित की जा रही है। जबकि हर आदमी जानता है कि किसे करोड़ों के विज्ञापन सरकार ने दिये और किसे एक पैसे का भी विज्ञापन नहीं मिला।
इस परिदृश्य में यदि पॉलिसी के लिए सुझाव की बात की जाये तो सबसे पहले नीति निर्माताओं को यह समझना होगा कि सूचना एवं जनसंपर्क होता क्या है। क्या विभाग के सचिव और निदेशक का अपना कोई जनता से संपर्क होता है? क्या कभी इन लोगों ने जन से संपर्क बनाने का प्रयास किया है? शायद नही। यदि कोई संपर्क होता तो इन्हें सरकार की नीतियों की जमीनी हकीकत पता होती। यह विभाग प्रशासनिक अधिकारियों का काम नहीं है यह समझना जरूरी है। जनसंपर्क का दूसरा बड़ा हिस्सा है सूचना। यह सूचना प्राप्त करने के लिये जनता से संपर्क और संवाद चाहिये। जनता अपने भीतर की बात तब खुलकर बताती है जब उसे सुनने वाले पर विश्वास हो। हर पीड़ित व्यक्ति इस स्थिति में नहीं होता है कि वह प्रशासन के सामने बेबाकी से अपनी बात रख सके क्योंकि उसकी शिकायत का आधार कारण ही संबद्ध प्रशासन का व्यवहार होता है। लेकिन प्रशासन सच्चाई सुनने और झेलने को तैयार नहीं होता है। इसलिए जनप्रतिनिधियों मंत्रियों या मुख्यमंत्री के पास कभी भी सही जानकारी पहुंचती ही नहीं है। इसी में गोदी मीडिया की भूमिका आ जाती है। वह प्रशासन द्वारा परोसी गई जानकारी ही जनता की स्थिति बनाकर राजनेताओं को परोस देता है और उसी को सब अंतिम सच मानकर चल पड़ते हैं। यही कारण है कि मीडिया द्वारा सब हरा ही हरा दिखाने के बाद परिणाम भयंकर सूखे के रूप में सामने आता है। आज मीडिया ने सत्ता से सवाल पूछने की बजाये विपक्ष से सवाल करने की नीति अपना रखी है क्योंकि उसे सत्ता और उसके माध्यम से करोड़ों के विज्ञापन चाहिये। आज मीडिया जनता का पैरोकार होने के बजाय सत्ता का संदेशवाहक होकर रह गया है। यहां फिर नीति निर्माताओं को यह तय करना होगा कि वह किस का पक्षधर होकर नीति बनाना चाहते हैं जनता या सत्ता का।
आज भी जनता अपना दुख मीडिया के माध्यम से सत्ता तक पहुंचाना चाहती है। जो तीखा सवाल जनता सत्ता से सीधा नहीं पुछ पाती है वहां वह सवाल मीडिया से अपेक्षा करती है कि वह पूछे। जो मीडिया सत्ता से तीखा सवाल पूछने का साहस करता है। दस्तावेजी प्रमाण सार्वजनिक रूप से सामने रखता है उसे सत्ता का दुश्मन मान कर उसका गला घोंटने का प्रयास किया जाता है। लेकिन जो मीडिया सत्ता की नाराजगी से न डर कर जनता के साथ खड़ा रहता है वही जनता का विश्वसनीय बन जाता है और उसके आकलन सही प्रमाणित होते हैं। लेकिन सत्ता को वह मीडिया चाहिये जो उसके स्वर में स्वर मिलाकर तबलिगी समाज को कोरोना बम्ब करार दे। हिमाचल में सत्ता और जनता के बीच इसी गोदी मीडिया के कारण इतनी दूरी बन चुकी है जिसे पाट पाना वर्तमान सत्ता के वश में नहीं रह गया है। पहले चार नगर निगम और उसके बाद विधानसभा लोकसभा उपचुनाव में यह सामने आ भी चुका है। आज मीडिया से जुड़ा हर आदमी यह जानता है कि इसका नीति संचालन इन अधिकारियों के हाथ में है ही नहीं। यह तो उस संचालक के हाथों की कठपुतली बनकर अपनी पोस्टिंगज के जुगाड़ में लगे हुये हैं। क्योंकि कुछ को सेवानिवृत्ति के बाद भी पद चाहिये। ऐसे लोगों के हाथों यह उम्मीद करना संभव ही नहीं है कि सरकार मीडिया पॉलिसी बनाने के प्रति ईमानदार हो सकती है। क्योंकि चुनावों में प्रतिष्ठा अधिकारियों की नहीं बल्कि राजनेताओं की होती है। अन्यथा मीडिया की पहली आवश्यकता यही होती है कि उसके साथ विज्ञापनों के आवंटन में पक्षपात न हो। लघु समाचार पत्रों के लिये केंद्र ने यह नियम बना रखा है कि वह प्रिंट के साथ अपनी वेबसाइट भी अवश्य बनायें। प्रिंट के साथ सोशल मीडिया के मंचों पर भी जो नियमित रूप से उपलब्ध रहे उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिये। क्योंकि सवाल तो ज्यादा से ज्यादा प्रसार का है। चाहे वह सरकार की नीतियों का हो या उससे सवाल पूछने का। लेकिन जिस सरकार में पत्रों का जवाब देने का ही चलन न हो उससे निष्पक्ष नीति और उस पर निष्पक्ष अमल की उम्मीद कितनी की जानी चाहिये।
जिनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा उनके टिकट कटने की बढ़ी संभावनाएं
सरकार की असफलता के लिए अधिकारियों पर भी होने लगा दोषारोपण
नेतृत्व पर भारी पड़ सकती है या चर्चाएं
शिमला/शैल। जयराम सरकार के इस कार्यकाल का यह अंतिम वर्ष चल रहा है। इस अंतिम वर्ष के लिए वार्षिक योजनाओं का भी आकार तय हो गया है। विधायकों से उनकी प्राथमिकताओं को लेकर बैठकें भी हो चुकी हैं। स्वाभाविक है कि आने वाला बजट चुनावी वर्ष का बजट होगा और उसमें हर वर्ग के लिए घोषणाओं का पिटारा होगा। यह घोषणायें भविष्य के लिए होती हैं और चुनाव इसी वर्ष के अंत में होने हैं तो उसके लिए आचार संहिता भी जल्द ही लागू हो जायेगी और उसी अनुपात में इन घोषणाओं के जमीन पर उतरने की जिम्मेदारी से सरकार बच जायेगी। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि मतदाता सरकार का आकलन करने के लिए इन 4 वर्षों में की गई घोषणाओं पर हुये अमल को मानक बनाये। इसके लिए हर बजट में की घोषणाओं की सूची और सरकार की कुल आय का आंकड़ा हर समय सामने रखना होगा। क्योंकि सरकार के सारे खर्च उसकी आय और उसके द्वारा लिये गये कर्जों पर ही निर्भर करते हैं। इसमें यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है की सरकार केवल विकास कार्यों के लिए ही कर्ज ले सकती हैं। जिससे भविष्य में आय के स्थाई साधन निर्मित हो सके। प्रतिबद्ध खर्चों की पूर्ति के लिए कर्ज लेने का नियमों में कोई प्रावधान नहीं है। सरकार जो पूंजीगत प्राप्तियां बजट दस्तावेज में दिखाती है वह शुद्ध रूप से कर्ज होता है और बजट दस्तावेज में कोष्ठक में लिखा भी जाता है। इस तरह सरकार के कुल बजट का 50% से भी अधिक कर्जों पर आधारित है और इसी के कारण प्रदेश लगातार कर्ज में डूबता जा रहा है। जो आने वाले समय के लिए भयानक समस्या खड़ी कर देगा। कैग रिपोर्ट यह सामने ला चुकी है कि विकास के नाम पर लिये जाने वाले कर्ज का वास्तव में एक भी पैसा विकास पर खर्च करने के लिये सरकार के पास नहीं बचा था बल्कि माईनस में चला गया था। यह स्थिति लगातार बनी हुई है। इस सरकार में इसकी गति और बढ़ गयी है क्योंकि कोरोना की आड़ में कर्ज लेने की सीमा 3% से बढ़कर 5% कर दी गयी। लेकिन इसके बावजूद यह सरकार 96 जनहित की योजनाओं पर एक पैसा तक खर्च नहीं कर पायी है। धर्मशाला सत्र के दौरान आई इस कैग रिपोर्ट पर यह सरकार अभी तक प्रदेश की जनता के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं कर पायी है जबकि हर समाचार पत्र में यह खबर प्रमुखता के साथ छपी है। बढ़ते कर्ज से महंगाई और बेरोजगारी लगातार बढ़ती है यह कड़वा सच है।
इस सरकार ने जब पहला बजट पेश किया था तब कर्ज जो विरासत में मिला था तब उसका करीब 46 हजार करोड सदन में बताया था जो आज बढ़कर करीब 70 हजार करोड हो गया है। ऐसे में यह सवाल बनता है कि जब 96 योजनाओं पर एक पैसा तक खर्च नहीं किया गया तो फिर यह कर्ज कहां खर्च किया। इस सत्र में यह जानकारी भी दी गयी है कि अब तक यह सरकार केवल 23000 लोगों को ही नौकरियां दे पायी है। जबकि इस दौरान सेवानिवृत्त हुए कर्मचारियों का आंकड़ा ही इससे अधिक है। इस दौरान सरकार द्वारा दी जाने वाली हर सेवा के दाम बढ़ाये गये इसका पता हर वर्ष बढ़े कर और गैर कर राजस्व से लग जाता है। भ्रष्टाचार के मामलों में सरकार अदालतों के फैसले भी लागू नहीं कर पायी है। कसौली गोलीकांड का कारण बने अवैध निर्माणों पर टीसीपी और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के लोगों को नामतः चिन्हित करके उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश दिये गये थे जिन पर आज तक अमल नहीं हुआ है। बल्कि कुछ लोगों को तो उनके वरिष्ठों को नजर अन्दाज करके पदोन्नत तक कर दिया गया है। इस तरह प्रताड़ित हुए लोग नौकरियों से त्यागपत्र देने पर मजबूर हुए हैं क्योंकि मुख्यमंत्री उन्हें इंसाफ नहीं दे पाये हैं। स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की सरकार पर रिटायर्ड और टायर्ड लोगों के हावी होने का जो आरोप भाजपा लगाती थी उसी में यह सरकार दो कदम और आगे बढ़ गयी है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपनी निष्पक्षता का सरेआम राजनेताओं से अपने रिश्तो का प्रदर्शन कर रहे हैं और सरकार उनके आगे मुक दर्शक बनकर बैठी हुई है। अदालतों का कितना सम्मान यह सरकार करती है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद आज तक लोक सेवा आयोग के सदस्यों और अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए नियम नहीं बना पायी है।
एनजीटी के आदेशों की अनुपालन में यह सरकार किस तरह असफल रही है यह खुलासा पहले ही पाठकों के सामने रखा जा चुका है। रोचक तो यह है कि सितंबर 2018 में राजकुमार राजेंद्र सिंह बनाम एस जे वी एन एल मामले में आये फैसले पर यह सरकार आज तक अमल नहीं कर पायी है। जबकि फैसले के मुताबिक दो माह में यहां रिकवरी होनी थी। इससे कई करोड़ सरकार के खजाने में आने थे। पिछली सरकार ने जिस स्कूल वर्दी घोटाले के सप्लायरों के करोड़ों रुपयों का भुगतान बतौर जुर्माना रोक दिया था। इस सरकार ने आते ही वह सारा पैसा सप्लायर को लौटा दिया। विभाग ने इस मामले को उच्च न्यायालय में ले जाने की फाइल चलाई लेकिन ऊपर के निर्देशों से ऐसा नहीं हो पाया और सरकार को करोड़ों का नुकसान हो गया। जिन अधिकारियों ने खेल खेला वह आज मुख्यमंत्री के अति विश्वास्तों में शामिल हैं। दर्जनों ऐसे मामले हैं जहां सरकार को करोड़ों का नुकसान पहुंचाया गया है।
ऐसे में यह सवाल उठ रहे हैं कि सरकार की असफलताओं के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाये। सरकार के मंत्रियों को अधिकारियों को या स्वयं मुख्यमंत्री को। पिछले दिनों जब शिमला के बाद धर्मशाला में कार्यकारिणी की विस्तारित बैठक हुई थी और नेतृत्व परिवर्तन का मुद्दा उछला था तब यह चर्चा उठी थी कि आने वाले चुनाव में कई विधायकों /पूर्व विधायकों और मंत्रियों के टिकट कटेंगे। तबसे उठी यह चर्चा मीडिया के कुछ वर्गों में यह शक्ल ले रही है कि मुख्यमंत्री को असफल करने के लिये सरकार के कुछ मंत्री और संगठन के पदाधिकारी जिम्मेदार हैं। जबकि कुछ सरकार से बाहर बैठे मुख्यमंत्री के सलाहकारों को इसके लिये जिम्मेदार मान रहे हैं। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आने वाले दिनों में भाजपा के अंदर यह एक अहम मुद्दा होगा कि सरकार की असफलताओं के लिये किसे जिम्मेदार माना जाये। क्योंकि यह सभी मान रहे हैं कि सरकार हर मोर्चे पर असफल रही है। इस सरकार की बजटीय घोषणाओं पर ही नजर डाली जाये तो इसके अधिकांश मंत्री उनके विभागों से जुड़ी घोषणाओं पर ही कुछ कहने की स्थिति में नहीं है।
चार साल से लगातार कोरे आश्वासन दिये जाने का लगाया आरोप
विधानसभा तक में नहीं दिया जा रहा जवाब
सरकारी संसाधनों को व्यक्तिगत संपत्ति मानकर किया जा रहा बंटवारा
शिमला/शैल। प्रदेश के वेब पोर्टल मीडिया कर्मियों ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को चौथी बार मीडिया पॉलिसी बनाने के लिये ज्ञापन सौंपा है। मण्डी में मीडिया सलाहकार पुरुषोत्तम गुलेरिया से मिलकर एनयूजे ने भी मीडिया कर्मियों से भेदभाव किये जाने के आरोप लगाये हैं। यह आरोप लगाया है कि पिछले 4 वर्षों में हर बार यह ज्ञापन सौंपे जा रहे हैं। हर बार पॉलिसी बनाने के लिये आश्वासन दिये गये। अधिकारियों को निर्देश भी दिये गये। लेकिन हर बार परिणाम शुन्य ही रहा। इस आरोप के साथ ही एक कड़वा सच यह भी है की विधानसभा में भी हर बार यह सवाल पूछा जाता रहा है की सरकार ने किन अखबारों और अन्य प्रचार माध्यमों को कितने-कितने विज्ञापन दिये हैं। इन सवालों का हर बार एक ही जवाब आया है की सूचना एकत्रित की जा रही है। व्यवहार में यह रहा है कि जिस भी समाचार पत्र में सरकार की नीतियों पर उससे सवाल पूछने का साहस किया है उसके न केवल विज्ञापनों पर ही रोक लगाई गई है बल्कि उसके खिलाफ झूठे मामले तक खड़े किये गये हैं। जब भी इस बारे में निदेशक और सचिव लोक संपर्क से इसका कारण पूछा गया तो यह जवाब मिला कि उन्हें इसकी कोई जानकारी नहीं है। लोक संपर्क विभाग की यह वस्तुस्थिति है और इसके प्रभारी मंत्री ही मुख्यमंत्री हैं।
इस व्यवहारिकता से यह सवाल उठता है कि जो सरकार चार वर्षों में मीडिया को भी कोरे आश्वासनों से टरकाती आ रही है उसकी आम आदमी के लिए घोषित योजनाओं की जमीनी हकीकत क्या होगी। यह भी सबके सामने है कि कुछ गिने-चुने अखबारों को उनके गिने-चुने रिपोर्टरों के माध्यम से करोड़ों के विज्ञापन भी इसी सरकार ने दिये हैं और इन रिपोर्टरों को इससे करोड़ों का कमीशन भी मिला है। यह भी स्वाभाविक है कि यह सब संबद्ध अधिकारियों और राजनीतिक सत्ता के इशारे के बिना संभव नहीं हुआ है। इससे यही प्रमाणित होता है कि सरकार में मत भिन्नता के लिये कोई स्थान नहीं है और उसको दबाने के लिये सरकारी साधनों का खुलकर दुरुपयोग किया गया है। शायद इसीलिए विधानसभा में जानकारी आज तक नहीं रखी गयी है। चर्चा है कि इसमें बड़े स्तर पर बड़ा घपला हुआ है शायद इसी सब को दबाने के लिए विभाग को आउटसोर्स करने का भी प्रयास किया जाता रहा है। यह तय है कि देर सबेर यह एक बड़ी जांच का विषय बनेगा।
इस सब से हटकर एक बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है की चुनावी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक मुख्यमंत्री यह सब करने का साहस कैसे कर सकता है । सरकारी संसाधनों का एक तरफा बंटवारा कैसे कर सकता है। जबकि मीडिया के बड़े वर्ग पर गोदी मीडिया का टैग लगने से उसकी विश्वसनीयता शुन्य हो चुकी है। इसी का परिणाम है कि डबल इंजन की सरकार होने के बावजूद उपचुनाव में चार शुन्य की शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। आने वाले विधानसभा चुनाव में भी इसका परिणाम सामने आयेगा यह तय है। क्योंकि जनता उन रिपोर्टों पर ज्यादा विश्वास करती है जिनमें प्रमाणिक दस्तावेजों के साथ सरकार से तीखे सवाल पूछे जाते हैं। यह निश्चित है कि आने वाले दिनों में हर रोज ऐसे सवाल पूछे जाएंगे। इन सवालों का असर विधानसभा चुनाव से आगे निकलकर लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा यह भी स्पष्ट है।
ऐसे में यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि क्या यह सब भाजपा संघ की नीति पर अमल करते हुए जयराम कर रहे हैं? या उन पर कुछ लोगों ने इतना कब्जा कर रखा है की विधानसभा में भी मीडिया को लेकर आये सवाल का जवाब रखने को अहमियत नहीं दे रहे हैं। पार्टी भी सरकार के इस आचरण पर पूरी तरह ख़ामोशी बनाये हुये है। उससे और भी स्पष्ट हो जाता है की इनके लिए लोकतांत्रिक मर्यादाओं की अनुपालन से ‘ऋण कृत्वा घृतं पीबेत’ ज्यादा अहमियत रखता है।
सबसे अधिक अवैध खनन शिमला मण्डी और कांगड़ा में
अवैधता के खिलाफ अपराधिक मामले बनाये जायें उच्च न्यायालय के निर्देश
शिमला/शैल। विधानसभा के पिछले सत्र में कांग्रेस विधायक आशा कुमारी का प्रश्न था कि लोक निर्माण विभाग में उच्च न्यायालय के आदेश के कारण कई ठेकेदारों के करोड़ों रुपए के बिल भुगतान के लिये रुके हुए हैं। इसका पूरा विवरण और इनके भुगतान के लिये उठाये गये कदमों की जानकारी मांगी गयी थी। सरकार ने इसका जवाब देते हुए स्वीकार किया कि 197.98 करोड़ के बिल भुगतान के लिए रुके हुये हैं। इसमें शिमला जोन- 7252.49 लाख, मण्डी 6493.37 लाख, कांगड़ा 5094 .4 लाख, हमीरपुर 776.58 लाख और नेशनल हाईवे 181.98 लाख का विवरण भी दिया गया है। यह जवाब धर्मशाला सत्र में दिया गया था। और अब यह रकम बढ़कर शायद ढाई सौ करोड़ हो गयी है। ठेकेदारों के ये बिल रेता, रोड़ी, बजरी और पत्थरों की आपूर्ति करने के हैं।
प्रदेश में अवैध खनन के आरोप एक लंबे अरसे से लगते आ रहे हैं। यहां तक कि प्रदेश में खनन एक माफिया की शक्ल ले चुका है। प्रदेश उच्च न्यायालय इस बारे में कड़ा संज्ञान ले चुका है। और यह निर्देश 2010 में ही दे चुका है कि इस आपूर्ति के वैद्य स्त्रोत सुनिश्चित किये जायें। जबकि सरकार इन खनिजों के एकत्रीकरण के लाइसेंस देकर और अपनी रॉयल्टी लेकर ही अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेती थी। उच्च न्यायालय के 2010 के निर्देशों के बाद 2015 में इस संदर्भ में नियम बनाये गये। रोड़ी, बजरी और पत्थर ऐसे खनिज है जो सड़क, भवन, बिजली परियोजनायों आदि हर निर्माण में प्रयुक्त होते हैं। इसकी आपूर्ति या तो प्रदेश के बाहर से होती है या भीतर से ही स्थानीय स्तर पर। आपूर्ति का जो भी साधन रहे उसके लिये 2015 में बनाये नियमों की अनुपालन अनिवार्य है। नियम 33 और नियम 15 में पूरा ब्योरा दर्ज हो जाता है। लेकिन इन नियमों की अनुपालना में भी गड़बड़ी होने लगी। नूरपुर के एक दलजीत पठानिया इस मामले को उच्च न्यायालय में ले गये और उच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी। 16-7-20 को लगी इस रोक के खिलाफ विभाग पांच जनवरी 2021 को उच्च न्यायालय पहुंच गया और इसे हटाने का आग्रह कर दिया। उच्च न्यायालय ने इस आग्रह को मानते हुये इस शर्त पर यह रोक हटा दी कि जिन बिलों के साथ फॉर्म w और x पर वांछित जानकारियां दी गयी हैं उनके भुगतान कर दिया जायें।
उच्च न्यायालय ने इस सामग्री की हर आपूर्ति की वैधता का पता लगाने के लिए लोक निर्माण विभाग और उद्योग को एक जांच टीम बनाने के निर्देश दिये हैं। विभाग इसके लिए दो टीमें गठित कर रहा है। जांच में क्या सामने आता है यह जांच रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा। जो भी आपूर्ति की जाती है उसकी ट्रांजिट के फॉर्म w और फॉर्म x बिल के साथ लगे होना आवश्यक है। इन फॉर्मों के बिना हर आपूर्ति अवैध स्त्रोत और अवैध खनन के दायरे में आ जायेगी। 2010 से उच्च न्यायालय इसकी अनुपालना के निर्देश दे चुका है। अनुपालना न होने पर 16 जुलाई 2020 को उच्च न्यायालय कि जस्टिस त्रिलोक चौहान और जस्टिस ज्योत्सना रेवाल दुआ की पीठ भुगतान पर रोक लगा चुकी है। लोक निर्माण विभाग इस रोक के खिलाफ उच्च न्यायालय पहुंच गया। उच्च न्यायालयों ने फार्मों की शर्त के साथ ही विभाग का आग्रह मान लिया लेकिन इसके बाद भी यह भुगतान नहीं हो पाया है क्योंकि बिलों के साथ फॉर्म नहीं है। फार्म नहीं होने का अर्थ है कि यह पूर्ति ही अवैध स्त्रोतों से है और परिणामतः अवैध खनन है। इस अवैधता के खिलाफ उच्च न्यायालय आपराधिक मामले बनाने के निर्देश दे चुका है। इस समय ऐसे सबसे ज्यादा मामले शिमला जोन में हैं दूसरे स्थान पर मण्डी और तीसरे पर कांगड़ा है। इसका अर्थ यह है कि सबसे ज्यादा अवैध खनन इन क्षेत्रों में हो रहा है। ठेकेदारों के इन बिलों का भुगतान कैसे होता है इनके खिलाफ आपराधिक मामले बनाये जाते हैं या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि यह जयराम सरकार के लिए एक कसौटी होगा।