Friday, 19 September 2025
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क्या प्रदेश के बढ़ते कर्ज के लिए सरकार की उद्योग नीति भी जिम्मेदार हैं

शिमला/शैल। प्रदेश के रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों का आंकड़ा करीब 14 लाख को पहुंच चुका है। इसका अर्थ है कि प्रदेश का हर पांचवा व्यक्ति बेरोजगार हैै। इस समय प्रदेश के सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र में नौकरी करने वालों का आंकड़ा भी पांच लाख तक ही पहुंच पाया है। प्रदेश के निजी क्षेत्र नेे जितना रोजगार दिया है और उससे सरकार को जो राजस्व मिल रहा है यदि उसे निजी क्षेत्र को दी गयी सब्सिडी और अन्य आर्थिक लाभों के साथ मिलाकर आंकलित किया जाये तो शायद आर्थिक सहायता पर अदा किया जा रहा ब्याज उससे मिल रहे राजस्व से कहीं अधिक बढ़ जायेगा। यही नहीं निजी क्षेत्र की सहायता के लिए स्थापित किए गए संस्थान वित्त निगम, खादी बोर्ड और एसआईडीसी आदि आज किस हालत को पहुंच चुके हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार की उद्योग नीतियां कितनी सफल और प्रसांगिक रही हैं। निजी क्षेत्र से इस संबंध में जुड़े आंकड़े कैग रिपोर्टों में उपलब्ध हैं। इसका एक उदाहरण यहां काफी होगा कि 1990 में जब बसपा परियोजना जेपी उद्योग को बिजली बोर्ड से लेकर दी गई तब उस पर बिजली बोर्ड का 16 करोड़ निवेश हो चुका था। इस निवेश को जेपी उद्योग ने ब्याज सहित वापस करना था। जब यह रकम 92 करोड़ को पहुंच गई तब इसे यह कहकर जेपी उद्योग को माफ कर दिया गया कि यदि इसे वसूला जाएगा तो जेपी बिजली के दाम बढ़ा देगा। इस पर कैग ने कई बार आपत्तियां दर्ज की हैं। जिन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं। इसी सरकार के कार्यकाल में हाइड्रो कालेज के निर्माण में 92 करोड़ की ऑफर देने वाले टेंडर को नजरअंदाज करके 100 करोड़ की ऑफर वाले को काम दे दिया गया। स्कूलों में बच्चों को दी जाने वाली वर्दियों की खरीद में हुए घोटाले की चर्चा कई दिन तक पिछली सरकार के कार्यकाल में विधानसभा में भी रही थी। इसकी जांच के बाद आपूर्तिकर्ता फर्मों को ब्लैक लिस्ट करके करोड़ों का जुर्माना भी वसूला गया था। जिसे माफ कर दिए जाने पर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने के शिक्षा विभाग के आग्रह को इस सरकार ने क्यों अस्वीकार कर दिया कोई नहीं जानता।
इस समय जब विपक्ष सरकार से कर्जों और केंद्रीय सहायता पर श्वेत पत्र की मांग कर रहा है तब इन सवालों का उठाया जाना ज्यादा प्रसांगिक हो जाता है। क्योंकि यदि सरकार यह श्वेत पत्र जारी करती है तब भी और यदि नहीं करती है तब भी प्रदेश के बढ़ते कर्जाें पर एक बहस तो अवश्य आयेगी। जनता यह सवाल भी अवश्य पूछेगी कि जब प्रदेश में स्थापित उद्योगों ने सिर्फ सरकार पर कर्ज बढ़ाने का ही काम किया है तो फिर इन्हें आर्थिक सहायता क्यों दी जानी चाहिए। इस परिदृश्य में सरकार को अपनी उद्योग नीति पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता हो जाती है। आज सवाल प्रदेश के विकास और यहां के लोगों को रोजगार मिलने का है। इसके लिये हिमाचल निर्माता स्व. डॉ. परमार की त्रिमुखी वन खेती से बेहतर और कोई नहीं रह जाती। यदि प्रदेश को बढ़ते कर्ज के चक्रव्यू से बाहर निकालना है तो उद्योग नीति पर नये सिरे से विचार करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अभी तक कोई भी सरकार इस बढ़ते कर्ज के कारणों का खुलासा नहीं कर पायी है। आज तो संवैधानिक पदों पर बैठे लोग खुलेआम औद्योगिक निवेश के लिए आयोजित निवेश आयोजनों में भाग ले रहे हैं। जबकि इससे उनकी निष्पक्षता पर स्वभाविक रूप से सवाल उठ रहे हैं और सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है।

क्या कांग्रेस को डरा-धमका कर भ्रष्टाचार की गंभीरता को कम कर रही है सरकार

विधानसभा के पटल पर
शराब कांड पर उठी चर्चा धवाला वक्कामुल्ला और कुल्लू प्रकरण तक पहुंची
क्या आने वाले दिनों में व्यक्ति केंद्रित आरोप देखने को मिलेंगे
या आरोप-प्रत्यारोप राजनीतिक ब्लैकमेल होकर रह जायेंगे

शिमला/शैल। बजट सत्र के पहले दिन से ही विपक्ष को सदन से वाकआउट करने की बाध्यता आ खड़ी हुई है। सदन जनहित के मुद्दे उठाने का सबसे बड़ा और प्रमाणिक मंच है। पक्ष-विपक्ष से इस मंच पर जन मुद्दों की प्रभावी चर्चा की अपेक्षा की जाती है। सवाल हमेशा सत्ता पक्ष से ही किया जाता है क्योंकि नियम नीति और प्रशासन सब सरकार की जिम्मेदारी और नियत्रण में होता है। सरकार की कार्यशैली और उसके फैसलों पर कड़े सवाल करने की अपेक्षा विपक्ष से सदन में और मीडिया से सार्वजनिक मंच पर की जाती है। सदन में जब सत्ता पक्ष अपने संख्या बल के आधार पर विपक्ष को नहीं सुनता है तब विपक्ष को सदन से वाकआउट करके मीडिया के सामने अपने सवाल रखने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। इस परिप्रेक्ष में जब वर्तमान बजट सत्र में पक्ष और विपक्ष की अब तक सामने आयी भूमिकाओं का आकलन किया जाये तो जो वस्तुस्थिति सामने आती है उससे कुछ सवाल उभरते हैं। इन सवालों को नजरअंदाज करना शायद ईमानदारी नहीं होगी।
वर्ष के पहले सत्र की शुरुआत महामहिम राज्यपाल के संबोधन से शुरू होता है जिसे प्रशासन तैयार करता है और मंत्रिमंडल इसे स्वीकार करता है। विधानसभाओं में सामान्यतः वर्ष का पहला सत्र बजट का ही रहता है। इस सत्र में राज्यपाल के संबोधन के माध्यम से सरकार की बीते वर्ष की कारगुजारी का पूरा ब्योरा सदन में रखे जाने की अपेक्षा की जाती है। इस समय बेरोजगारी और महंगाई तथा सरकारों का लगातार बढ़ता कर्ज भार ऐसे मुद्दे हैं जिन्होंने हर आदमी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रखा है। हिमाचल में इस समय रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों का आंकड़ा चौदह लाख से पार जा चुका है। सरकार ने चार वर्षों में करीब चौबीस हजार को रोजगार उपलब्ध कराया है। यह जानकारी स्वंय सरकार ने एक प्रश्न के उत्तर में दी है। जबकि पिछले बजट भाषण में वर्ष 2021-22 में तीस हजार को नौकरी देने का वादा किया गया था। लेकिन शायद इसका अभिभाषण में कोई जिक्र ही नहीं है। इस समय प्रदेश में दर्जनों आउटसोर्स कंपनियों के माध्यम से जयराम सरकार नौकरियां दे रही हैं। इनका वेतन और कमीशन सरकार के खजाने से अदा हो रहा है। इस पर जब सरकार इन कंपनियों के बारे में ही एक तरह से अनभिज्ञता प्रकट करें तो विपक्ष या आम आदमी क्या करेगा।
विधानसभा के पिछले सत्र में आयी कैग रिपोर्ट में खुलासा हुआ है की सरकार ने जनहित की 96 योजनाओं पर कोई पैसा खर्च नहीं किया है और न ही इसका कोई कारण बताया है। तो क्या इस पर राज्यपाल के अभिभाषण में सरकार के मौन पर विपक्ष को उसकी प्रशंसा करनी चाहिये थी? घोषणाओं पर खर्च न होने के बावजूद सरकार द्वारा करीब हर माह कर्ज लिये जाने का समर्थन किया जाना चाहिये? अभी जयराम सरकार ने बिजली के बिलों में प्रदेश की जनता को बड़ी राहत देने का ऐलान किया है। इस राहत के लिये सरकार बिजली बोर्ड को 92 करोड़ अदा करेगी यह कहा गया था। लेकिन इस संबंध में भी अभी तक पूरी रिपोर्ट तैयार नहीं हो पायी है जिसका अर्थ है कि यह राहत देने के लिये भी पूरा होमवर्क नहीं किया गया है।
इसी के साथ सबसे महत्वपूर्ण यह है कि बजट सत्र से पहले सुंदरनगर में जहरीली शराब कांड और फिर ऊना के बाथू में स्थित पटाखा फैक्ट्री में हुये विस्फोट ने सबका ध्यान आकर्षित किया है। क्योंकि दोनों मामलों में मौतें हुई हैं। बाथू में कई लोग घायल हुए हैं। सुंदरनगर में जहरीली शराब पीने से वहीं के लोग मरे हैं। उन्हें आठ लाख का मुआवजा दिया गया। क्योंकि वह हिमाचली थे। बाथू विस्फोट में मरने वाले प्रवासी मजदूर थे इसलिए उन्हें चार-चार लाख का मुआवजा दिया गया। मुआवजे में हुये इस भेदभाव का हिमाचल में काम कर रहे प्रवासियों पर क्या असर पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। बाथू में चल रही पटाखा फैक्ट्री भी अवैध रूप से ऑपरेट कर रही थी। कोई लाइसेंस नहीं था। यहां तक कि बिजली पानी की आपूर्ति भी अवैध रूप से हो रही थी। इस अवैधता के लिये प्रशासन में मौन किस स्तर पर जिम्मेदार रहा है और उसके खिलाफ क्या कारवाई की जाती है इसका पता तो आगे लगेगा। लेकिन एक ऐसी फैक्ट्री जिसमें उत्पादन के लिये विस्फोटक सामग्री इस्तेमाल की जा रही हो उसका ऑपरेट होना सरकार की कार्यप्रणाली पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर जाता है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के चुनाव क्षेत्र में यह घटा है और उन्होंने दोषियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कारवाई की मांग की है। सदन में इस पर अपना मत रखते हुये जब अग्निहोत्री ने शराब कांड में नामजद रंगीलू को लेकर बात की और खुलासा किया की वह तो भाजपा का प्राथमिक सदस्य है तब इस पर मुख्यमंत्री सहित पूरे सत्तापक्ष की जो प्रतिक्रियायें आयी हैं वह अपने में कई गंभीर सवाल खड़े कर जाती है। शराब कांड हमीरपुर से शुरू हुआ यहां पर अवैध कारखाना पकड़ा गया जो कि हमीरपुर कांग्रेस के महामंत्री के मकान में स्थित था। प्रदेश में तीन जगह यह अवैध शराब बनाई जा रही थी। जयराम सरकार के कार्यकाल में शराब ठेकों की नीलामी नहीं होती रही है। इस नीति से प्रदेश के राजस्व को बारह सौ करोड़ का नुकसान होने के आरोप हैं। यह माना जाता है कि जितना वैद्य कारोबार हो रहा है उतना ही अवैध कारोबार है।
रंगीलू का संद्धर्भ आने पर मुख्यमंत्री यहां तक कह गये कि हमीरपुर शराब कांड में सम्मिलित हमीरपुर कांग्रेस के महामंत्री के तो कई नेताओं के साथ फोटो वायरल हुये हैं और उसे कांग्रेसी टिकट देने की सिफारिश कर रहे थे। यह इशारा मुकेश अग्निहोत्री की ओर था। इसका जवाब देते हुए मुकेश ने खुलासा किया कि उसके फोटो तो पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के साथ भी हैं। इसी के साथ मुकेश ने यह भी खुलासा किया कि भाजपा नेताओं के फोटो तो चर्चित कुल्लू कांड के साथ भी हैं। तो क्या फोटो होने से कोई दोषी हो जाता है। प्रश्न तो अवैधता का है और जिसके शासन में यह घट रही है। उसी को इस पर कारवाई करनी है। लेकिन भ्रष्टाचार पर जिस तरह से सदन में धवाला कांड से लेकर वक्कामुल्ला तक का जिक्र आया उससे स्पष्ट हो जाता है कि आने वाले दिनों में कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगेंगे। क्योंकि जिन नेताओं और उनके सहयोगियों ने प्रदेश के बाहर और भीतर संपत्ति खरीदी है उनके खुलासे सार्वजनिक रूप से सामने आयेंगे। भ्रष्टाचार हर चुनाव के दौरान एक बड़ा मुद्दा रहता आया है। क्योंकि हर सरकार भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के दावे करती आयी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ 31 अक्तूबर 1997 को सरकार ने एक ईनाम योजना अधिसूचित की थी। इसमें भ्रष्टाचार की शिकायत की प्रारंभिक जांच एक माह में करने का प्रावधान किया गया था। लेकिन आज तक इसमें नियम नहीं बन पाये हैं। इसमें सरकार को होने वाले लाभ का 25% शिकायतकर्ता को देने की बात की गयी है। लेकिन आज तक इस योजना के तहत आयी किसी भी शिकायत की प्रारंभिक जांच माह के भीतर नहीं की गयी। यहां तक की जयराम सरकार ने तो सर्वाेच्च न्यायालय के फैसलों पर भी अमल नहीं किया है। भ्रष्टाचार केवल राजनीतिक ब्लैकमेल का एक माध्यम होकर रह गया है। शराब कांड और विस्फोट कांड दोनों का कारोबार अवैध रूप से चल रहा था। इस सभ्यता के लिए प्रशासन में किसी को दंडित किया जाता है या नहीं जयराम सरकार के लिए यह एक बड़ा टैस्ट होगा।

 

क्या कांग्रेस के वर्तमान ढांचे को ही चुनावों की शक्ल देने की योजना बनाई जा रही है

ऊना में हुई बैठक में आया सुझाव

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस में इन दिनों संगठनात्मक चुनावों की प्रक्रिया चल रही है। ब्लॉक स्तर से लेकर जिला स्तर तक संगठन के पदाधिकारियों का चुनाव होगा। इस चुनाव में कार्यकर्ता जिसे प्रदेश अध्यक्ष चुनेंगे वह सर्वमान्य होगा क्योंकि वह चयन से आयेगा मनोनयन से नहीं। चुनाव की इस प्रक्रिया के संचालन के लिये हाईकमान की ओर से चुनाव अधिकारी तैनात हैं। दीपा दास मुंशी चुनाव की मुख्य अधिकारी हैं। चुनाव प्रक्रिया के पहले चरण में सदस्यता अभियान हैं। प्रदेश विधानसभा के लिए इसी वर्ष के अंत तक चुनाव होने हैं। वर्तमान मनोनीत अध्यक्ष के तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा हो चुका है। प्रदेश में यदि बतौर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की भूमिका का आकलन किया जाये तो विधानसभा के अंदर जितनी प्रभावी है बाहर फील्ड में उसका आधा भी नहीं। विधानसभा का यह बजट सत्र वर्तमान कार्यकाल का एक तरह से यह अंतिम प्रभावी सत्र होगा। इस सत्र के बाद व्यवहारिक रूप से सारे दलों की चुनावी गतिविधियों शुरू हो जायेंगी। इस चुनावी गणित को सामने रखकर कांग्रेस में पिछले कुछ अरसे से अध्यक्ष को बदलने की मांग उठनी शुरू हो गई है। विधायकों का एक वर्ग इस संबंध में दिल्ली के चक्कर भी लगा चुका है। अध्यक्ष को बदलने की मांग का यदि निष्पक्षता से विश्लेषण किया जाये तो इसके लिए वर्तमान पदाधिकारी के आकार पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। इस समय संगठन में राज्य स्तरीय प्रवक्ता ही शायद डेढ़ दर्जन है। अन्य पदाधिकारी भी इसी अनुपात में हैं। बारह जिलों और चार लोकसभा क्षेत्रों वाले प्रदेश में यदि पदाधिकारी इतनी बड़ी संख्या में होंगे तो निश्चित है कि वहां संगठन कोई प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर पायेगा। क्योंकि वहां पर पदों के सहारे नेताओं को संगठन में बनाये रखने की बाध्यता बन चुकी होती है।
अब जब संगठन के चुनाव हो रहे हैं तब चुनाव के माध्यम से ही नये अध्यक्ष का चयन होने देना भी लाभदायक माना जा रहा है। लेकिन जब संगठन में बैठे कुछ लोग इस प्रयास में लग जायें कि वर्तमान ढ़ांचे को ही चुनावों की शक्ल दे दी जाये तो उससे कुछ सवाल उठने स्वाभाविक हैं। क्योंकि प्रदेश विधानसभा के चुनाव से पहले ही राष्ट्रीय स्तर तक संगठन के चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो जायेगी तब इस तरह के प्रयासों को स्वीकार किया जा सकता है। सूत्रों के मुताबिक पिछले दिनों जब प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर दीपा दास मुंशी के साथ संगठन चुनाव के संबंध में ऊना आये थे तब यहां के संगठन द्वारा यह राय दी गई थी कि वर्तमान पदाधिकारियों को ही चयनित मान लिया जाये। इसके लिए यह तर्क दिया गया कि चुनावी वर्ष में संगठन के चुनाव करवाने से कई लोगों में नाराजगी पैदा हो सकती है। दीपा दास मुंशी से यह आग्रह किया गया कि वह इस सुझाव को हाईकमान के पास रखें और उसके लिये हाईकमान की सहमति प्राप्त करने का प्रयास करें। यदि यह प्रयास सुझाव मान लिया जाता है तो फिर से पुराने पदाधिकारियों का ही कब्जा संगठन पर बना रहेगा और इससे नीचे तक रोष व्याप्त हो जायेगा
इस पर एक चर्चा और शुरू हो गयी है कि क्या ऐसा सुझाव सारे विधायकों तथा पूरे संगठन का है या कुछ ही लोगों का है। क्योंकि इसका एक अर्थ यह भी लगाया जा रहा है कि जो लोग संगठन पर अपना कब्जा चाहते हैं वह संगठन के चुनाव के माध्यम से ऐसा कर पाने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। इस समय जहां पूरी पार्टी को विधानसभा चुनावों की तैयारियों में लगना है वहीं पर संगठन के चुनावों को यह मोड़ देने से एक नया विवाद खड़ा होने की आशंका उभरती नजर आ रही है। क्योंकि इस समय पार्टी के अंदर दलित नेतृत्व के नाम पर कोई बड़ा चेहरा नहीं बचा है। ओबीसी वर्ग में भी चंद्र कुमार के बाद कोई बड़ा नेता नहीं है। ट्राईबल एरिया में भी जगत सिंह नेगी ही एक बड़ा नाम बचा है। राजपूत नेतृत्व के नाम पर सबसे बड़ा नाम कौल सिंह ठाकुर अपना विधानसभा चुनाव हारने के बाद लगातार कमजोर होते जा रहे हैं। मंडी नगर निगम हारने के बाद कांग्रेस का प्रदर्शन लोकसभा उपचुनाव में भी मंडी जिले में कमजोर रहा है। यहां तक की द्रंग में भी बढ़त नहीं मिल पायी है। कॉल सिंह के बाद राजपूत नेताओं में आशा कुमारी, हर्षवर्धन चौहान, रामलाल ठाकुर और सुखविंदर सिंह सुक्खू आते हैं। ब्राह्मण नेताओं में मुकेश अग्निहोत्री के बाद दूसरा बड़ा नाम है ही नहीं। नेता प्रतिपक्ष के तौर पर मुकेश का प्रदर्शन सराहनीय रहा है। जातीय आंकड़ों में भी राजपूतों के बाद ब्राह्मण दूसरी बड़ी जाति है प्रदेश में। ऐसे में विधानसभा चुनावों के लिये भी मुख्यमंत्री के चेहरे का चयन करना आसान नहीं होगा। यह सही है कि इस समय पार्टी के पास सबसे बड़ा नाम आनंद शर्मा का है लेकिन उनके लिए विधानसभा क्षेत्र का चुनाव करना ही बड़ा सवाल है।


मौद्रीकरण के नाम पर पंचायतों की संपत्तियों का भी होगा विनिवेश

केंद्र ने राज्यों को भेजा पत्र
हिमाचल सरकार ने पंचायतों से मांगा संपत्तियों का विवरण
राजनैतिक दलों की चुप्पी सवालों में
पंचायतों को संपत्तियों के विनिवेश से जुटानी होगी आय

शिमला/शैल। केंद्र सरकार के ग्रामीण विकास और पंचायती राज विभाग के सचिव द्वारा 16 अगस्त 2021 को राज्य सरकारों को भेजे पत्र में निर्देश दिये गये हैं की पंचायतें अपने राजस्व संसाधन बढ़ाने के लिए अपनी संपत्तियों का मौद्रीकरण करें। पत्र में कहा गया है कि पंचायतें to raise own sources of revenue by monetization  of assets, lease of common property, property tax, panchayat land, ponds and small buildings.  हिमाचल सरकार ने इन निर्देशों की अनुपालना में पंचायतों से खण्ड विकास अधिकारियों के माध्यम से ऐसी संपत्तियों का विवरण मांग लिया है। स्मरणीय है कि इस बार केंद्र सरकार में ग्रामीण विकास विभाग के बजट में पिछले वर्ष की तुलना में दस प्रतिशत की कमी की गई है। यही नहीं मनरेगा में 25.5% और पी डी एस में 28.5% की बजट में कमी की गयी है। मनरेगा के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को रोजगार उपलब्ध रहता था और पी डी एस के तहत सस्ता राशन मिल जाता था। इनमें बजट की कमी से यह योजनाएं प्रभावित होंगी यह तय है। इन सारी कमियों का संयुक्त प्रभाव पंचायतों के कामकाज पर पड़ेगा। ग्रामीण विकास के बजट में भी 10% की कटौती हुई है। इस सबका परिणाम होगा कि पंचायतों को मौद्रीकरण के नाम पर अपनी संपत्ति निजी क्षेत्र को विनिवेश के नाम पर देने की बाध्यता आ जायेगी। इसका यह भी परिणाम होगा कि प्राइवेट सैक्टर को गांव में भी आने का अवसर मिल जायेगा।
पंचायत संपत्तियों के मौद्रीकरण की इस योजना के दूरगामी परिणाम होंगे यह स्वभाविक है। लेकिन इस योजना पर सार्वजनिक मंचों पर कोई बहस न तो केंद्र ने उठायी है और न ही राज्य सरकारों ने। यहां तक कि विपक्ष ने भी इस बारे में कुछ नहीं कहा है। पंचायतों के पास संसाधनों के नाम पर ज्यादा कुछ है नहीं। केवल कुछ जमीन है जिनका दोहन हो नहीं पाया है। जयराम सरकार ने भी पिछले बजट में घोषणा की थी कि वह गांव में खाली पड़ी जमीनों को अपने नियंत्रण में लेंगे। सरकार की इस घोषणा पर अलग से कोई अमल नहीं हो पाया है। लेकिन राज्य सरकार की इस घोषणा को यह केंद्र के इस पत्र के आईने में देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार गांव के स्तर पर तक अपनी संपत्तियों को प्राइवेट सैक्टर को देने का मन बना चुकी है और उस दिशा में लगातार बढ़ रही है। लैण्ड टाइटलिंग एक्ट का उद्देश्य की जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया को सरल बनाना है। यह अधिग्रहण आधारभूत ढांचा खड़ा करने के नाम पर किया जायेगा। आधारभूत ढांचे की संरचना का काम पहले ही निजी क्षेत्र को दिया जा चुका है। इस तरह सरकार की हर नीति गांव में प्राइवेट सैक्टर को लाने की बन चुकी है यह स्पष्ट हो जाता है।
इस परिदृश्य में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि पंचायतों की संपत्तियों के मौद्रीकरण को पंचायतों की आम ग्राम सभा बैठकों में चर्चा के लिये रखा जाये। सरकार ने तो अपने पत्र में पंचायतों के लिये पूरे वर्ष का माहवाार ऐजैण्डा तय कर दिया है। लेकिन पंचायत स्तर तक जो पत्र पहुंचा है उसमें पंचायतों से उनकी संपत्तियों और उनकी लोकेशन का विवरण ही पूछा गया है। पंचायतों से यह विवरण मांगे जाने का कोई कारण नहीं बताया गया है। इसका अर्थ हो जाता है कि सरकार द्वारा पंचायतों को भी पूरी और सही जानकारी नहीं दी गयी है। विपक्ष के पास भी शायद जानकारी नहीं है। सरकार ने भी इस योजना के उद्देश्यों पर कोई अलग से कुछ नहीं कहा है। ऐसे में आम आदमी की निगाहें इस पर लगी हुई है कि बजट सत्र में इस पर कोई चर्चा आती है या नहीं।

किसके नेतृत्व में लडे़गी प्रदेश कांग्रेस अगला चुनाव उठने लगा है सवाल

शिमला/शैल। क्या प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का बदलाव होगा? क्या विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के होने वाले मुख्यमन्त्री के नाम की घोषणा कर दी जायेगी? यदि ऐसी घोषणा हो जाती है तो वह चेहरा कौन होगा? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जो एक कांग्रेस कार्यकर्ता से लेकर प्रदेश के आम आदमी के सामने आने लग पड़े हैं। क्योंकि इसी वर्ष के अंत में चुनाव होने हैं। भाजपा से सत्ता छीनने का सवाल होगा और इसमें यह हर समय सामने रहेगा कि संसाधनों के नाम पर कांग्रेस भाजपा का मुकाबला नहीं कर पायेगी। क्योंकि केंद्र और प्रदेश में दोनों जगह भाजपा की सरकारें हैं। फिर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और जेपी नड्डा से लेकर दर्जनों केंद्रीय मंत्री चुनाव प्रचार में आयेंगे। कांग्रेस को भाजपा के एक व्यवहारिक पक्ष को सामने रखकर अपनी तैयारियां करनी होगी। इसलिये यह सवाल अहम हो जाता है कि प्रदेश कांग्रेस का आकलन इस परिदृश्य में किया जाये। क्योंकि भाजपा का आकलन उस पर लगे आरोपों के आईने में कांग्रेस का उसकी अक्रमकता के आईने में किया जायेगा।
स्मरणीय है कि 2017 के चुनाव के समय स्व. वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री और सुखविंदर सिंह सुक्खू पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे। कांग्रेस चुनाव हार गयी थी। इस हार के बाद जब कांग्रेस विधायक दल का नेता चुनने की बात आयी तब हाईकमान ने यह जिम्मेदारी ना तो स्व. वीरभद्र सिंह को दी और ना ही सुक्खू को। यह जिम्मेदारी मुकेश अग्निहोत्री को दी गयी। जबकि शायद 17 लोगों ने स्व. वीरभद्र सिंह के पक्ष में हस्ताक्षर करके उन्हें यह जिम्मेदारी दिये जाने की मांग की थी। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सुक्खू को हटाकर कुलदीप राठौर को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। पार्टी 2019 में लोकसभा की चारों सीटें हार गयी। सोलन में राजेंद्र राणा और पालमपुर में मुकेश अग्निहोत्री के हाथों में कमान थी। नगर निगम के बाद अब तीन विधानसभा और एक लोकसभा उपचुनाव पार्टी जीत गयी। मंडी लोकसभा की जिम्मेदारी फिर मुकेश अग्निहोत्री के पास थी। जिन्होंने 17 विधानसभा क्षेत्रों का संचालन किया।
इस परिपेक्ष में यह सवाल उठता है कि इस दौरान प्रदेश कांग्रेस की कार्यशैली विधानसभा के भीतर और बाहर क्या रही। विधानसभा के भीतर बतौर नेता प्रतिपक्ष जिस कदर मुकेश अग्निहोत्री जयराम और उनकी सरकार पर आक्रामक रहे हैं उसके कारण वह आज मुख्यमंत्री से लेकर भाजपा के हर छोटे बड़े नेता के निशाने पर चल रहे हैं। जब विधानसभा में राज्यपाल से ही टकराव की स्थिति धरने प्रदर्शन तक पहुंच गई थी तब संगठन की ओर से कोई बड़ा योगदान नहीं मिल पाया है यह कई दिन चर्चा का विषय बना रहा था। आज भी सदन के भीतर जो आक्रमकता कांग्रेस की सामने आती है उसके मुकाबले में संगठन सदन के बाहर कोई प्रभावी भूमिका नहीं निभा पा रहा है। अभी तक कांग्रेस का आरोप पत्र सामने नहीं आ पाया है। जबकि भाजपा ने हर चुनाव में कांग्रेस के नेताओं के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर आरोप लगाये हैं। स्व.वीरभद्र सिंह के खिलाफ बने मामलों को प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के हर नेता ने हर चुनाव में उछाला है। यह अब एक चुनावी संस्कृति बन गयी है कि जब तक विरोधी को व्यक्तिगत स्तर पर नहीं घेरा जायेगा तब तक जनता आपको गंभीरता से नहीं लेती हैं। प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व अभी तक मुख्यमंत्री जयराम और उनके दूसरे सहयोगियों को व्यक्तिगत स्तर पर नहीं घेर पाया है। जबकि दर्जनों गंभीर मामले सामने हैं। अभी घटे शराब कांड में ही भाजपा के दो बड़े नेताओं के नाम हर आदमी की जुबान पर हैं। लेकिन कांग्रेस नेता यह नाम लेने से बच रहे हैं। आज शायद प्रदेश के सात-आठ ठेकेदारों के पास ही सात सौ करोड़ से अधिक के ठेके हैं। एक मंत्री का भाई तो शायद पूरे जिले को संभाल रहा है। जनता में यह चर्चायें आम है लेकिन कांग्रेस मौन है। कांग्रेस का यह मौन तोड़ने के लिए हाईकमान को समय रहते नेतृत्व के सवालों को सुलझा लेना होगा अन्यथा नुकसान हो सकता है। जातीय समीकरण भी प्रभावी रहते हैं इस पर अगले अंक में चर्चा की जायेगी।

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