Friday, 19 September 2025
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चरमराते शीर्ष प्रशासन पर नड्डा और अनुराग की चुप्पी क्यों

बार-बार नड्डा के प्रदेश दौरों से उठी चर्चा
नड्डा का फ्रन्ट पर आना जय राम की सफलता या मजबूरी

शिमला/शैल। इस वर्ष के अन्त में प्रदेश विधानसभा के लिये चुनाव होने हैं। भाजपा कांग्रेस और आप तीनों राजनीतिक दलों के लिये यह चुनाव अपने अपने कारणों से महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि दिल्ली और पंजाब दोनों जगह भाजपा और कांग्रेस आप से हार चुके हैं। हरियाणा में भाजपा अकेले अपने दम पर सत्ता में नहीं है। ऐसे में यदि हिमाचल भी इनके हाथ से निकल जाता है तो दोनों दलों को राष्ट्रीय स्तर पर बहुत गहरा आघात लगेगा और उसके परिणाम भी दूरगामी होंगे कांग्रेस ने प्रदेश संगठन में बदलाव करके इसमें होने वाले पलायन को रोक लिया है। लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा अभी ऐसा कुछ नहीं कर पायी है। जबकि उसके संगठन और सरकार में लम्बे अरसे से बदलाव की चर्चाएं चलती आ रही हैं। जब भाजपा प्रदेश में चारों उपचुनाव हार गयी थी तब नेतृत्व परिवर्तन से लेकर कुछ मंत्रियों को हटाने और कुछ के विभागों में फेरबदल किये जाने की चर्चाएं बहुत तेज हो गयी थी। लेकिन यह सब व्यवहारिक शक्ल नहीं ले पाया है। ऐसा क्यों हुआ है यह विश्लेष्कों के लिए अब तक खोज का विषय बना हुआ है। लेकिन इस पर कलम चलाने से पहले प्रदेश के शीर्ष प्रशासन पर उठते सवालों और उन पर सरकार की रहस्यमई चुप्पी सवालों में है। आज सरकार के मुख्य सचिव से लेकर उनकी नीचे के पांच अधिकारी भी सवालों में आ खड़े हुये हैं। क्योंकि दो-दो जगह सरकारी आवास लेने के अतिरिक्त विशेष वेतन का वितीय लाभ भी ले रहे हैं। नियमों के अनुसार यह गंभीर अपराध है। पूरे प्रदेश में यह चर्चा का विषय बना हुआ है। लेकिन मुख्यमंत्री इस पर चुप है। पुलिस भर्ती परीक्षा के पेपर लीक मामले में करीब दो दर्जन लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। प्रदेश में यह अपनी तरह का पहला मामला है जिसमें इतने बड़े स्तर पर प्रश्न पत्रों को बेचा गया है। कई तरह के नाम चर्चा में आ रहे हैं। विपक्ष मामले की सीबीआई जांच की मांग कर रही है। लेकिन सरकार कोई फैसला नहीं ले पा रही है। यह चर्चा का विषय बना हुआ है कि आखिर मुख्यमंत्री की क्या ऐसी मजबूरी है जो उन्हें कड़ा कदम लेने से रोक रही है। सरकार नेता प्रतिपक्ष को तो मंत्री स्तरीय आवास दे नहीं पायी है लेकिन अपने अफसरों को दिल्ली और शिमला में एक साथ मकान दे कर बैठी हुयी है। कर्ज में डूबी सरकार के इस तरह के आचरण का आम आदमी पर क्या प्रभाव पड़ रहा होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। देर सवेर अधिकारियों का यह मामला विजिलेंस और अदालत में पहुंचेगा ही। ऐसे में राजनीतिक पंड़ितों के लिए यह बड़ा सवाल बना हुआ है कि जिस सरकार का शीर्ष प्रशासन सवालों के कटघरे में खड़ा हो भर्ती परीक्षा के पेपर बेचे जाने के प्रकरण में मामला गिरफ्तारीयों तक पहुंच जाये उस सरकार की साख अपने अंध भक्तों से हटकर आम आदमी की नजर में कहां खड़ी होगी इसका अंदाजा भले ही नेता लोग न लगा पा रहे हो लेकिन आम आदमी पूरी तरह स्पष्ट है। क्योंकि 12ः बेरोजगारी की दर के कारण प्रदेश का नाम देश के 6 राज्यों में आ चुका है। इस सबके बावजूद भी जब हाईकमान न हिल रहा हो तो निश्चित रूप से ध्यान जयराम के दिल्ली में बैठे दो वकीलों जेपी नड्डा और अनुराग ठाकुर पर जायेगा। क्योंकि नड्डा ने ही जयराम के वकील होने का दावा किया है। इस वकालत नामे पर अमल करते हुये दोनों वकील प्रदेश में किसी न किसी बहाने आने का कार्यक्रम बनाने पर विवश हो गये हैं। अब तो प्रधानमंत्री को भी लाने का जुगाड़ बैठा लिया गया है। भले ही अंतिम क्षणों में प्रधानमंत्री न आ पायें लेकिन एक बार तो आम कार्यकर्ताओं को बता ही दिया गया है कि प्रधानमंत्री सरकार से कितने खुश हैं। इस परिदृश्य में यह सवाल भी काफी रोचक हो गया है कि पूर्व मुख्यमंत्रियों शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल को पोस्टरों में जगह न देने और धूमल की हार के कारणों की जांच की मांग को सीधे ठुकराने के बाद नड्डा ने प्रदेश की जिम्मेदारी अपने कंधों पर कैसे ले ली है। नड्डा को फ्रन्ट पर लाकर खड़ा कर देना जयराम की सफलता है या नड्डा की मजबूरी इस पर अभी पर्दा बना हुआ है। लेकिन इस सब में अनुराग की भूमिका आने वाले दिनों में क्या रहती है यह देखना रोचक होगा। क्योंकि जिस तरह से नड्डा प्रदेश में बार-बार आकर रोड शो करने पर मजबूर होते जा रहे हैं उससे प्रदेश में जीत की जिम्मेदारी जयराम से बदलकर नड्डा पर आती जा रही है। इसमें यह देखना भी रोचक होगा कि नड्डा अन्त तक जयराम के साथ खड़े रहते हैं या कुछ कदम चलकर पांव पीछे खींच लेते हैं।



भ्रष्टाचार को संरक्षण जयराम सरकार की नीयत या नीति पर्यावरण पर विजिलेंस जांच से उठी चर्चा

कमेटियों का कार्यकाल 12-07-2021 को समाप्त हो गया था
इस दौरान सचिव पर्यावरण की जिम्मेदारी पहले के.के.पंथ के पास थी और अब प्रबोध सक्सेना के पास है
क्या इस दौरान क्लियर किये गये मामले वैध माने जा सकते हैं जबकि कमेटी ही नहीं थी
सुप्रीम कोर्ट की पर्यावरण पर गंभीरता के बाद मामला हुआ रोचक

शिमला/शैल। प्रदेश विजिलैन्स के पास सरकार के पर्यावरण विभाग को लेकर 11-04-22 को एक शिकायत आयी है। इस शिकायत का संज्ञान लेते हुये विजिलैन्स ने इसमें प्रारंभिक जांच आदेशित करते हुये निदेशक पर्यावरण से आठ बिन्दूओं पर रिकॉर्ड तलब किया है। इसमें जानकारी मांगी गई है कि भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने प्रदेश की एस ई ए सी का 1-1-2021 से अब तक कब गठन किया गया था या उसको विस्तार दिया था। दूसरा बिंदु है कि केंद्र ने हिमाचल के एस ई आई ए का 1-1- 21 को अब तक कब गठन किया या विस्तार दिया। तीसरा है की 1-1- 21 से अब तक पर्यावरण क्लीयरेंस के कितने मामले आये हैं। चौथा है कि इन कमेटियों की बैठकों में क्या-क्या एजेंडा रहा है। पांचवा है कि इन कमेटियों की कारवायी का विवरण। 1-1- 21 से अब तक प्रदेश की इन कमेटियों द्वारा पर्यावरण के कितने मामले क्लियर किये गये तथा सदस्य सचिव द्वारा उनके आदेश जारी किये गये। कितने मामलों की सूचना डाक द्वारा भेजी गई और कितनों में हाथोंहाथ दी गयी।
विजिलेंस के पत्र से स्पष्ट हो जाता है कि पर्यावरण से जुड़ी इन कमेटियों का महत्व कितना है। किसी भी छोटे बड़े उद्योग की स्थापना के लिए इन कमेटियों की क्लीयरेंस अनिवार्य है। क्योंकि पर्यावरण आज एक गंभीर अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने तो एक मामले में यहां तक कह दिया है कि पर्यावरण आपके अधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण है। पर्यावरण की इस गंभीरता के कारण ही भारत सरकार वन एवं पर्यावरण मंत्रालय प्रदेशों के लिए इन कमेटियों का गठन स्वयं करता है। यह अधिकार राज्यों को नहीं दिया गया है। पर्यावरण से जुड़ी क्लीयरेंस के बिना कोई भी उद्योग स्थापित नहीं किया जा सकता है। इसलिए जितने बड़े आकार का उद्योग रहता है उतने ही बड़े उससे जुड़े हित हो जाते हैं और यहीं पर बड़ा खेल हो जाता है। प्रदेश में पर्यावरण विभाग और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में नियुक्तियां इसी कारण से अहम हो जाती हैं। इन्हीं को लेकर समय-समय पर संबद्ध अधिकारियों के खिलाफ शिकायतें आती रही हैं। कसौली कांड इसका सबसे बड़ा प्रमाण रहा है। सरकार अपने विश्वसतों को बचाने के लिए किस हद तक जाती रही है उसका उदाहरण भी यही कसौली कांड बन जाता है। क्योंकि इसमें नामित और चिन्हित लोगों के खिलाफ आज तक कोई कार्यवाही नहीं हो पायी है।
इसी प्ररिपेक्ष में विजिलेंस तक पहुंचे इस मामले में भी अंतिम परिणाम तक पहुंचने को लेकर संशय उभरना शुरू हो गया है। क्योंकि भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित यह कमेटी 12-07-2021 को समाप्त हो गई थी। केंद्र को यह सूचना प्रदेश सरकार द्वारा दी जानी थी। ताकि नई कमेटीयों का गठन हो जाता। यह जिम्मेदारी सरकार के सचिव पर्यावरण और संबंधित मंत्री की थी। सचिव की जिम्मेदारी पहले के.के. पंथ के पास रही है और अब प्रबोध सक्सेना के पास है। मंत्री स्तर पर पर्यावरण विभाग स्वयं मुख्यमंत्री के पास है। 12-07-2021 को समाप्त हो चुकी कमेटियों का गठन क्यों नहीं किया गया? क्या इस दौरान प्रदेश में किसी नए उद्योग का प्रस्ताव ही नहीं आया। सरकार ने 2019 की अपनी उद्योग नीति में भी संशोधन किया है। क्या इस संशोधन के दौरान भी इन कमेटियों का कोई जिक्र नहीं आया। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। अब जब किसी ने विजिलेंस के पास यह शिकायत कर दी है तो इसी दौरान भारत सरकार ने भी प्रदेश से इसमें जवाब तलब किया है। लेकिन यह चर्चा भी सामने आ रही है कि भारत सरकार में भी इस मामले को रफा-दफा करवाने के प्रयास किए जा रहे हैं। संबद्ध अधिकारी अपनी गलती मान कर भारत सरकार से क्षमा कर दिये जाने की गुहार लगा रहे हैं। राजनीतिक स्तर पर भी प्रयास किये जा रहे हैं। जिस तरह की गंभीरता सुप्रीम कोर्ट पर्यावरण को लेकर दिखा चुका है उसके परिदृश्य में इस पर गंभीर कारवाई बनती है। क्योंकि इस दौरान जितने भी उद्योगों के मामले मामलों में पर्यावरण क्लीयरेंस जारी किये गये होंगे उनकी कानूनी वैधता संदिग्ध हो जाती है। क्योंकि जिसने भी यह क्लीयरेंस अनुमोदित की होगी वह उसके लिए अधिकृत ही नहीं था। चुनावी वर्ष में यह मामला सरकार की सेहत पर कितना असर डालता है और विपक्ष की इसी पर क्या प्रतिक्रिया रहती है यह देखना दिलचस्प होगा।





























पुलिस भर्ती मामले में पुलिस के खिलाफ पुलिस की ही जांच कैसे विश्वसनीय होगी

शिमला/शैल। अंततः पुलिस भर्ती रद्द हो गयी है। क्योंकि इसमें परीक्षा से पहले ही पेपर लीक हो गया। यह परीक्षा 29 मार्च को हुई थी और रद्द अब मई में हुई जब इसका परिणाम घोषित होने के बाद भर्ती की अगली प्रतिक्रिया भी शुरू हो गयी। स्मरणीय है कि इस पेपर लीक होने की चर्चा मार्च में ही शुरू हो गई थी। उस समय सरकार और पुलिस विभाग ने पेपर लीक होने को सिरे से खारिज कर दिया था। लेकिन यह परीक्षा देने वाले छात्र लगातार पेपर लीक होने का आरोप लगाते रहे। जिसे अन्ततः एस पी कांगड़ा ने अपनी जांच में सही पाया और इसमें चार लोगों की गिरफ्तारी भी कर ली। आठ लाख में यह पेपर बिकने का आरोप लगा है। सरकार ने इस परीक्षा को रद्द करके इसकी जांच के लिए एसआईटी का गठन कर दिया। अब जब इसमें जांच बिठा दी गयी है तो इस पर कुछ अधिक कहना जांच को प्रभावित करना बन जायेगा। इसलिये इसमें जांच को लेकर ही कुछ सवाल उठाना आवश्यक हो जाता है।
यह मामला पुलिस भर्ती से जुड़ा है। इस परीक्षा का पूरा संचालन पुलिस विभाग के अपने ही पास था। जिसमें पेपर तैयार करने, परीक्षा करवाने, प्रश्न पत्रों को जांचने आदि का सारा काम पुलिस विभाग के अपने ही पास था। प्रश्न पत्रों की प्रिंटिंग से लेकर परीक्षा केंद्र तक उनको ले जाने का पूरा काम पुलिस के पास था। ऐसे में जब इसमें पेपर लीक हुआ है तो उसमें भी कहीं न कहीं किसी पुलिस वाले की भूमिका अवश्य रही होगी। जिसका अर्थ है कि इसमें आदेशित जांच भी पुलिस के ही खिलाफ है। इसलिये पुलिस के खिलाफ जांच की जिम्मेदारी भी पुलिस को दे दी गयी है। लेकिन जब बहुचर्चित गुड़िया कांड में पुलिस हिरासत में ही मौत हो जाने के मामले की जांच पुलिस को ही दे दी गयी थी तब उसमें यह सवाल उठा था कि पुलिस के खिलाफ पुलिस की ही जांच पर कोई कितना विश्वास कर पायेगा। तब यह जांच पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंप दी गयी थी।
आज उसी तर्ज पर यह सवाल उठा रहा है कि अब भी पुलिस के खिलाफ पुलिस को ही जांच सौंप दी गयी है। इसलिये इस पर भी कोई विश्वास कैसे और क्यों करेगा। प्रदेश में इस तरह की परीक्षाओं में पेपर लीक का यह शायद तीसरा मामला है। पहले के मामलों में भी जाचें बिठायी गयी है। लेकिन उनका परिणाम क्या रहा है यह कोई नही जानता। आज चुनाव की पूर्व सन्ध्या पर घटा यह मामला और इसमें जांच भी पुलिस को ही सौंप देना सरकार की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े कर जाता है। क्योंकि इस जांच के अदालती परिणाम से पहले अगली भर्ती प्रक्रिया की घोषणा कर दी गयी है।

प्रदेश में बढ़ी बेरोजगारी देश के टॉप छः राज्यों में आया नाम

सरकार ने 2019 की उद्योग निवेश नीति में किया संशोधन
शिक्षा के अध्यापकों और पशुपालन में डॉक्टरों के पद खाली
2014 में स्वीकृत सीमेंट प्लांट क्यों नहीं लग पाये

शिमला/शैल। हिमाचल में बेरोजगारी किस कदर बढ़ रही है इसका खुलासा भारत सरकार की सी एम आई ई वी रिपोर्ट में हुआ है। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश की बेरोजगारी दर 12.1% पहुंच गयी है और हिमाचल बेरोजगारी में देश के टॉप 10 राज्यों हरियाणा, झारखंड, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान और त्रिपुरा की सूची में शामिल हो गया है। मार्च 2022 में जारी इस रिपोर्ट पर आप प्रवक्ता गौरव शर्मा ने सरकार पर आरोप लगाया है कि जयराम सरकार में नौकरियां सृजित करने की बजाये करीब 2100 पदों को ही समाप्त कर दिया गया है और कई पदों को डाईंगकॉर्डर में डाल दिया है। यह सवाल उठाया है कि प्रदेश के जिस बिजली बोर्ड में 1990 में 42000 कर्मचारी थे वहां अब केवल 17000 कर्मचारी रह गये हैं। 2018-19 और 20 में जो कर्मचारी भर्ती प्रतिक्रियाएं शुरू की गयी थी वह आज तक किसी न किसी कारण से पूरी नहीं हो पायी हैं। भर्तियों की प्रतिक्रियाएं शुरू करके केवल बेरोजगार युवाओं को भ्रम में रखा जा रहा है।
बेरोजगारी की स्थिति का सच इससे भी सामने आ जाता है कि जयराम सरकार ने अगस्त 2019 में जो नई औद्योगिक नीति लाकर इन्वेस्टर मीट के बड़े-बड़े आयोजन करके प्रदेश में एक लाख करोड़ का निवेश आने और हजारों लोगों को रोजगार मिलने का जो दावा किया था अब उस दावे का खोखलापन अप्रैल 2022 में उस नीति में संशोधन करके सामने आ गया है। सरकार ने इस नीति में संशोधन करते हुए निवेश के मानक पर उद्योगों को तीन श्रेणियों ए बी और सी में बांट दिया है। 200 करोड़ का निवेश और 200 हिमाचलीयों को रोजगार देने वाले उद्योगों को ए, 150 करोड़ निवेश 150 रोजगार बी और 100 करोड का निवेश तथा 100 हिमाचलीयों को रोजगार देने वाले उद्योगों को सी श्रेणी में रखा गया है। इसी के अनुसार उद्योगों को सुविधाएं देने की घोषणा की गयी है। यह उद्योग नीति 16 अगस्त 2019 को अधिसूचित की गयी थी जिसे अब कार्यकाल अंतिम वर्ष में चुनावों से कुछ माह पहले संशोधित करने से स्पष्ट हो जाता है कि इस नीति के इतने बड़े स्तर पर हुये आयोजन और प्रचार-प्रसार के परिणाम उल्लेख लायक भी नहीं रहे हैं। अन्यथा चुनावी संध्या पर तो सरकार की सफलताओं के बयानों के स्थान पर उपलब्धियों के श्वेत पत्र जारी होने चाहिये थे। सरकार की प्राथमिकताएं क्या रही हैं और आवश्यक सेवाओं के प्रति कितनी गंभीरता रही है इसका अंदाजा विधानसभा के बजट सत्र के दौरान 15 मार्च को आशा कुमारी द्वारा पूछे प्रश्न के आये जवाब से पता चल जाता है। प्रश्न था कि सरकार ने 3 वर्षों में जेबीटी अध्यापकों के कितने पद बैच वॉइस और कितने एच पी एस एस वी के माध्यम से भरे हैं तथा कितने खाली हैं। इसके जवाब में बताया गया कि केवल बैच वाइज 762 पद भरे गये हैं। बोर्ड के माध्यम से कोई भर्ती नहीं हुई है और 3301 पद खाली हैं। इससे शिक्षा जैसे अहम विषय पर सरकार की संवेदनशीलता का पता चल जाता है। इसी तरह इंद्र दत्त लखन पाल और पवन काजल ने पूछा था कि 3 वर्षों में पशु चिकित्सकों के कितने पद भरे गये और कितने खाली हैं। इसके जवाब में बताया गया कि 3 वर्षों में केवल 27 पद भरे गये और 107 पद खाली चल रहे हैं। सरकार के सभी विभागों में लगभग यही स्थिति है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बयानों और प्रैस विज्ञप्तियों के माध्यम से जनता को जो कुछ परोसा जाता है उस पर कितना विश्वास किया जाना चाहिये। मार्च 2014 में जो सीमेंट प्लांट एकल खिड़की योजना में स्वीकृत हुये थे उनका अंत क्या हुआ है वह पाठकों के सामने हम पहले ही रख चुके हैं। उसमें एक शिकायत तक भी आ चुकी है। लेकिन इस पर मुख्यमंत्री अभी तक खामोश हैं। मुख्यमंत्री की यह चुप्पी सवालों के घेरे में है।

जयराम सरकार के 5 अधिकारियों के पास दिल्ली और शिमला में एक साथ मूल पोस्टिंग कैसे

मोक्टा के पत्र से उठा मुद्दा

शिमला/शैल। जब प्रशासन में शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारी अपने स्वार्थों के लिये स्थापित नियमों को अंगूठा दिखाते हुये लाभ लेना शुरू कर देते हैं और इस लाभ को राजनीतिक नेतृत्व का संरक्षण प्राप्त हो जाता है तब स्थिति को अराजकता का नाम दिया जाता है। आज हिमाचल का प्रशासन लगातार इस अराजकता का शिकार बनता जा रहा है। इस अराजकता में जनहित गौण हो जाता है अधिकारी और राजनीतिक नेतृत्व अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से बाहर निकल ही नहीं पाते हैं। यह एक सामान्य समझ का पक्ष है कि एक व्यक्ति एक समय में दो अलग स्थानों पर उपस्थित नहीं हो सकता है। लेकिन जयराम सरकार में पांच ऐसे बड़े आई ए एस अधिकारी हैं जो सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक दिल्ली और शिमला में 17 सेवाएं दे रहे हैं क्योंकि सरकार ने इन्हें दोनों जगहों पर मूल पोस्टिंग्स दे रखी है। और इन पोस्टिंग्स के कारण इन लोगों ने शिमला और दिल्ली दोनों जगहों पर सरकारी आवासों का आवंटन ले रखा है। यह नियुक्तियां कार्मिक विभाग द्वारा की जाती हैं। कार्मिक विभाग का प्रभार स्वयं मुख्यमंत्री के पास है। फिर आई ए एस अधिकारी को तबादले और नियुक्तियां राज्यपाल के नाम से की जाती है। उनमें यह लिखा जाता है की " The Governor is pleased to order"  इसका अर्थ है कि राज्यपाल के संज्ञान में भी यहां सब रहता है।

अधिकारियों की नियुक्तियों और तबादलों से जुड़े नियमों में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है जिसके तहत किसी अधिकारी को तो अलग-अलग स्थानों पर मूल पोस्टिंग दी जा सके। पिछले दिनों एक आई ए एस अधिकारी की मूल नियुक्ति पर्यावरण विभाग के निदेशक के तौर पर करके उसे सचिवालय में अतिरिक्त प्रभार भी दिया गया और अधिकारी सचिवालय में ही बैठता था। सचिवालय में तैनाती पर विशेष वेतन का लाभ भी मिलता है। लेकिन इस अधिकारी मोक्टा को यह लाभ इसलिए नहीं दिया जा सका क्योंकि उसकी मूल पोस्टिंग पर्यावरण विभाग में थी। इस पर यह प्रश्न उठा कि जब अतिरिक्त मुख्य सचिव निशा सिंह, प्रबोध सक्सेना और प्रधान सचिव शुभाशीष पांडे, रजनीश शर्मा और भरत खेड़ा दिल्ली में मूल पोस्टिंग पर तैनात होकर शिमला सचिवालय के सारे लाभ ले रहे तो फिर मोक्टा को यह लाभ क्यों नहीं मिल सकता। लेकिन नियम इसकी अनुमति नहीं देता है इस पर मोक्टा की मूल पोस्टिंग सचिवालय में दिखाकर इस समस्या का हल निकाला गया। लेकिन इसी हल के साथ यह बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि जो अधिकारी शिमला और दिल्ली में एक साथ मूल पोस्टिंग दिखाकर सरकारी आवासों का लाभ ले रहे हैं उनके मामले को कैसे निपटाया जाये।
नियमों के जानकारों के मुताबिक इन पांचों अधिकारियों ने अवश्य लाभ लेने के लिये दोनों जगह पोस्टिंग को लेकर अलग-अलग दस्तावेज सौंप रखे हैं। क्योंकि जब एक आदमी एक वेतन में एक ही स्थान पर उपलब्ध रह सकता है तो फिर उसी समय में उसकी उपस्थिति दूसरे स्थान पर कैसे संभव हो सकती है। नियमानुसार एक व्यक्ति एक साथ दो अलग-अलग स्थानों पर स्थित सरकारी आवास का लाभ कैसे ले सकता है। शुभाशीष पांडे के पास मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के प्रधान सचिव का प्रभार है साथ ही सचिवालय प्रशासन सामान्य प्रशासन और लोक संपर्क जैसे विभागों की जिम्मेदारी है। ऐसा अधिकारी दिल्ली में मूल पोस्टिंग लेकर शिमला में इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे निभा सकता है। स्वभाविक है कि कहीं तो जानबूझकर नियमों के विरुद्ध कार्य कर रखा है। नियमों के अनुसार इन लोगों के खिलाफ धारा 420 के तहत आपराधिक मामले दर्ज होने चाहिये। यह देखना दिलचस्प होगा कि विजिलैन्स इस पर मामला दर्ज करता है या नहीं। या फिर किसी को धारा 156(3) के तहत अदालत का ही दरवाजा खटखटाना पड़ता है।
अभी प्रदेश विधानसभा के लिये इसी वर्ष चुनाव होने हैं। सरकार की कारगुजारी का आकलन जनता इन चुनावों में करेगी। ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह सब कुछ मुख्यमंत्री के अपने विभागों में हो रहा है। इससे यह सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या शीर्ष प्रशासन मुख्यमंत्री को नियमों की जानकारी न होने का लाभ उठा रहे हैं या यह सब मुख्यमंत्री की सहमति से हो रहा है।

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