शिमला/शैल। जयराम सरकार 70,000 करोड़ के कर्ज के चक्रव्यूह में फंसी हुई है। सरकार को केंद्र की मोदी सरकार की ओर से भी कोई बड़ी आर्थिक सहायता नहीं मिल पायी है। यह कैग रिपोर्ट ने सामने ला दिया है। ऐसे में जब चुनावी वर्ष में मोदी के विश्वासपात्र अदाणी के 280 करोड़ 9% ब्याज सहित लौटाने का निर्देश प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल पीठ से आ जाये तो यह सरकार के लिये कैसी स्थिति पैदा कर देगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। स्मरणीय है की उच्च न्यायालय की जस्टिस संदीप शर्मा पर आधारित एकल पीठ ने 12 अप्रैल को यह फैसला सुनाया है की 960 मेगावाट की जंगी-थोपन-पवारी परियोजना में ब्रैकल एन.वी.के नाम पर अदाणी पावर से आये 280 करोड़ के अपफ्रंट प्रीमियम को 9% ब्याज सहित अदाणी पावर को वापस लौटाया जाये। स्मरणीय है कि 2006 में वीरभद्र सरकार के कार्यकाल में 960 मैगावाट की यह परियोजना नीदरलैंड की कंपनी ब्रेकल एन.वी को दी गयी थी। लेकिन किन्ही कारणों से यह कंपनी 280 करोड़ का अपफ्रंट प्रीमियम अदा नहीं कर पायी। ऐसा न कर पाने पर रिलायंस ने इस आवंटन को चुनौती दे दी। सरकार बदल चुकी थी। धूमल सत्ता में थे मामला उच्च न्यायालय में चल रहा था अदाणी ने ब्रेकल के नाम पर 280 करोड़ ब्याज सहित जमा करवा दिये। मामला उठा कि जब अदाणी ब्रेकल एन.वी. का पार्टनर ही नहीं है तो उसने किस हैसियत से यह रकम जमा करवायी और सरकार ने इसे स्वीकार कैसे कर लिया। मामला उच्च न्यायालय से होकर सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंच गया। रिलायंस भी पीछे हट गया। परियोजना ब्रेकल एन.वी. रिलायंस और अदाणी किसी को भी नहीं मिल पायी। अब जयराम सरकार ने इसे एसजेवीएनएल को सौंपा है। लेकिन इस सबके बीच अदाणी के 280 करोड़ का मामला खड़ा रहा। 2015 में वीरभद्र सरकार ने इस परियोजना को रिलायंस को देने का फैसला लेते हुये यह भी फैसला दिया था कि इसमें रिलायंस से जो पैसा मिलेगा उससे अदाणी का पैसा लौटा दिया जायेगा। लेकिन यह परियोजना फिर रिलायंस को नहीं मिल पायी और वीरभद्र सरकार ने पैसा लौटाने का फैसला वापस ले लिया। बल्कि उस समय योग गुरु स्वामी रामदेव भी चर्चा में आ गये थे। फिर सरकार बदल गयी और 2019 में अदाणी फिर से उच्च न्यायालय पहुंच गये। लेकिन जयराम सरकार ने फैसला ले लिया कि यह रकम विभिन्न उपलब्धियों के कारण जब्त कर ली गयी है। इसलिये इसे वापस नहीं किया जायेगा। लेकिन अब अदालत ने वीरभद्र सरकार के दौरान लिये इस फैसले के आधार पर की रिलायंस से पैसा मिलने पर अदाणी को लौटा दिया जायेगा पर यह निर्देश सुना दिये की दो माह के भीतर ब्याज सहित यह रकम अदाणी को लौटा दी जाये। अदालत ने साफ कहा है कि सरकार अपने फैसले को ऐसे नहीं बदल सकती। फैसले को एक माह से ज्यादा का समय हो गया। अपील का सामान्य समय निकल गया है। अदाणी ने उच्च न्यायालय में केविएट भी दायर कर रखी है। ऐसे में प्रशासनिक और राजनीतिक हलकों में इस मामले पर सबकी निगाहें लगी हुई है। वैसे कांग्रेस और वाम दल अपने-अपने कारणों से इस पर चुप हैं। आम आदमी पार्टी को इसकी जानकारी ही नहीं है।
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के चुनाव सितम्बर-अक्तूबर में होने की संभावनाएं बढ़ती जा रही है। वैसे तो हिमाचल में हर पांच वर्ष बाद सत्ता बदलती आयी है। पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह से लेकर शान्ता, धूमल तक कोई भी सत्ता में वापसी नहीं कर पाया है। बल्कि शान्ता और धूमल तो विधानसभा चुनाव तक भी हार चुके हैं। इन दोनों का शासन तो जयराम के शासन से हजार दर्जे बेहतर रहा है। इस नाते जयराम और उनकी सरकार का हारना तय माना जा रहा है। लेकिन इस बार प्रदेश के राजनीतिक वातावरण में वीरभद्र सिंह की मृत्यु और आप के चुनाव लड़ने के ऐलान से भारी बदलाव आया है। पंजाब में आप की अप्रत्याशित जीत से हिमाचल की राजनीति भी प्रभावित हुई है। प्रदेश में दो बार केजरीवाल भगवंत मान के साथ और मनीष सिसोदिया अकेले यहां आ चुके हैं। इन यात्राओं से आप के नेतृत्व ने शिक्षा को एक प्रमुख मुद्दा बनाये जाने का सफल प्रयास भी कर दिया है। इस प्रयास से आप आज हिमाचल में 2.5% से 3% तक वोट ले जाने तक पहुंच चुकी है। इस प्रतिशत से यह माना जा रहा है कि आप अपने तौर पर शायद कोई सीट न जीत पाये लेकिन इससे कांग्रेस का नुकसान अवश्य कर देगी। आप को भाजपा का नुकसान करने और स्वयं सीट जीतने के लिये कम से कम 10% वोट तक पहुंचना होगा। भाजपा का प्रयास यही रहेगा कि आप 2.5% से 3% तक ही रहें। आप के प्रभावी सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी इस रणनीति का हिस्सा मानी जा रही है और ऐसा लगता है कि प्रदेश के चुनाव तक जैन को जेल से बाहर भी नहीं आने दिया जायेगा। आप की नयी कार्यकारिणी के गठन और हमीरपुर में केजरीवाल के शिक्षा संवाद के बाद भी सरकार की उस पर कोई प्रतिक्रिया न आना इसी दिशा के संकेत माने जा रहे हैं। इस वस्तुस्थिति में प्रदेश में कांग्रेस की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन जिस तरह से कांग्रेस प्रदेश में चल रही है उससे यह नहीं लगता कि वह इस बारे में सचेत भी है। क्योंकि प्रतिभा सिंह की मंडी में जीत का एक बड़ा कारण स्व. वीरभद्र सिंह के प्रति उपजी सहानुभूति भी रही है। इसी सहानुभूति के चलते प्रतिभा सिंह प्रदेश अध्यक्ष बनी है। लेकिन उनकी अध्यक्षता पर उसी समय प्रश्नचिन्ह भी लग गये हैं जब उनके साथ चार कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिये गये। जबकि कार्यकारी अध्यक्ष बनाने का प्रयोग अन्य राज्यों में सफल नहीं रहा है। कार्यकारी अध्यक्षों के साथ ही अन्य बड़े नेताओं मुकेश, सुक्खुू आशा, आनन्द शर्मा, कॉल सिंह आदि के लिये भी पदों का प्रबंध किया गया। इसमें मुकेश ही अकेले ऐसे नेता है जो पहले से ही नेता प्रतिपक्ष थे। जब नेताओं को इस तरह से समायोजित किया गया तब कार्यकर्ताओं और क्षेत्रों का भी ख्याल रखना पड़ा और लंबी चौड़ी कार्यकारिणी बनानी पड़ गयी। इसमें जिला शिमला से सबसे ज्यादा लोगों को कार्यकारिणी में जगह देनी पड़ गयी। यह जगह देने से अन्य जिलों के साथ संतुलन गड़बड़ा गया है। दूसरी ओर यदि इस कार्यकारिणी के बाद पार्टी की कारगुजारी पर नजर डाली जाये तो अभी तक पुलिस पेपर लीक के मामले से हटकर कोई और बड़ा मुद्दा पार्टी जनता के सामने नहीं रख पायी है। इसमें भी दावे के बावजूद ऑडियो टेप जारी नहीं किया गया है। पेपर लीक मामला सीबीआई तक क्यों नहीं पहुंचा है इसको लेकर सुक्खू ने जब राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा तब उनके साथ सारे बड़े नेता क्यों नहीं थे। इसका कोई जवाब नहीं आया है। अब प्रतिभा सिंह के दौरों में भी बड़े नेताओं का एक साथ न रहना सवालों में है। प्रतिभा सिंह की सभाओं में कम हाजिरी भी अब चर्चा में आने लग गयी है। सिरमौर में तो कुंवर अजय बहादुर सिंह के खिलाफ जिला नेताओं का पत्र तक आ गया है। हर्षवर्धन चौहान कैसे और क्यों मंच की बजाय कार्यकर्ताओं के बीच बैठे यह एक अलग सवाल बन गया है। कुल मिलाकर सभी बड़े नेता अपनी-अपनी सीट निकालने तक सीमित होते जा रहे हैं। अपने-अपने जिले की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हो रहे हैं। पूर्व मंत्री मनकोटिया ने तो खुलकर वंशवाद हावी होने का आरोप तक लगा दिया है। यहां तक कहा जा रहा है कि 42 सीटों पर ऐसे उम्मीदवार मैदान में होंगे जिनके परिवारों से कोई न कोई विधायक सांसद या मंत्री रहा है। यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि नेतृत्व अभी तक सरकार के खिलाफ ऐसा कोई मुद्दा नहीं ला पाया है। जिस पर सरकार घिर जाती और जवाब देने पर आना पड़ता तथा कार्यकर्ता भी उस पर एकजुट होकर आक्रामक हो जाते।
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा में दहेरा और जोगिन्दर नगर विधानसभा क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले दोनों निर्दलीय विधायक भाजपा में शामिल हो गये हैं। दल बदल कानून के तहत इन विधायकों को भाजपा में शामिल होने से पहले अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देना चाहिये था। ऐसा न करने पर विधानसभा अध्यक्ष इनके खिलाफ कारवाई करते हुये इनकी सदस्यता रद्द करते हुये इन्हें तीन वर्ष तक विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये अयोग्य घोषित कर सकता है। ऐसा दल बदल कानून में प्रावधान है। ऐसा अध्यक्ष द्वारा स्वतः संज्ञान और किसी की याचिका पर दोनों रूपों में किया जा सकता है। कांग्रेस ने इस संबंध में याचिका दायर करने की भी बात की है। लेकिन भाजपा ने कांग्रेस के स्टैंड पर प्रतिक्रिया देते हुये यह कहा है कि कांग्रेस की मांग पर यह विधायक सदस्यता नहीं छोड़ेंगे। भाजपा की इस प्रतिक्रिया से पता चल जाता है कि नियमों कानूनों का कितना सम्मान यह पार्टी करती है और इसका चाल चरित्र और चेहरा कहां दूसरों से भिन्न है जिसका दावा किया जाता रहा है।
इसके अतिरिक्त इसका दूसरा पक्ष यह रहा है कि देहरा से पूर्व मंत्री रविंद्र रवि और जोगिन्दर नगर से पूर्व मंत्री गुलाब सिंह ने चुनाव लड़ा था। वो धूमल के विश्वस्त माने जाते हैं। गुलाब सिंह तो अनुराग ठाकुर के ससुर हैं। धूमल को योजनाबद्ध तरीके से हराया गया था यह सुरेश भारद्वाज और जगत प्रकाश नड्डा के ब्यानों से स्पष्ट हो चुका है। जंजैहली प्रकरण में धूमल को यह ब्यान देने के कगार पर पहुंचा दिया गया था कि ‘‘सरकार चाहे तो उनकी सी.आई.डी. जांच करवा ले’’। इसके बाद मानव भारती विश्वविद्यालय प्रकरण में जिस तरह का ब्यान पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का राजेंद्र राणा के पत्रों पर आ गया था उससे जयराम सरकार के रिश्ते धूमल के साथ और स्पष्ट हो जाते हैं। अब प्रधानमंी की यात्रा के दौरान जिस तरह से मंच पर नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में अनुराग का नाम तक नहीं लिया है उससे राजनीतिक रिश्तांे का सच और स्पष्ट हो जाता है। केंद्रीय विश्वविद्यालय की जमीन को लेकर जसवां की एक जनसभा में अनुराग और जयराम के बीच हुआ संवाद भी इसी सबकी पुष्टि करता है।
रविंद्र रवि और होशियार सिंह में से जयराम और उसके मंत्री किसको अधिमान देते हैं यह देहरा में महेंद्र सिंह ठाकुर की एक जनसभा में सामने आ ही चुका है। यही नहीं जब किसी कार्यकर्ता ने प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को लेकर शांता कुमार के नाम एक पत्र लिखा था तब इस पत्र को लेकर रविंद्र रवि के खिलाफ ही मामला दर्ज किया गया था। जब चुनाव हारने के बाद भी भाजपा विधायकों के बहुमत ने धूमल को मुख्यमंत्री बनाने की मांग की थी तब कुटलैहड के विधायक वीरेंद्र कंवर में धूमल के लिये अपनी सीट छोड़ने की पेशकश की थी। अब इसी वीरेंद्र कंवर के खिलाफ भरी जनसभा ने इसी निर्दलीय विधायक ने अति अभद्र भाषा का प्रयोग किया था। एक तरह से यह भाषा पूरी सरकार के खिलाफ थी। वीरेंद्र कंवर ने इसे मुख्यमंत्री के समक्ष उठाने की बात की थी और तब मुख्यमंत्री ने एक बैठक में होशियार सिंह का अभिवादन तक अस्वीकार करके मामले को वहीं खत्म करने का प्रयास किया था।
लेकिन अब जिस तरह से स्थानीय इकाइयों, संबंधित मंत्रियों क्षेत्र के सांसद मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को विश्वास में लिये बिना इन निर्दलीय विधायकों को भाजपा में शामिल किया है वह राजनीतिक भाषा में धूमल खेमे के लिये सीधी चुनौती हो जाती है। राजनीतिक विश्लेष्कों के अनुसार आने वाले दिनों में धूमल और जयराम-नड्डा दो खेमों में खुलकर वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जायेगी। क्योंकि इस समय जयराम और नड्डा ने धूमल खेमे को पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिया है। इसका असर 2024 में अनुराग के चुनाव पर भी पड़ेगा। क्योंकि यहीं से राज्यसभा सांसद डॉ. सिकन्दर भी धूमल खेमे के लिये एक सरप्राईज ही रहा है। इस परिदृश्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि कौन सा खेमा आगे क्या कदम चलता है।
शिमला/शैल। हिमाचल सरकार ने विभिन्न विभागों द्वारा की जा रही खरीदो में पारदर्शिता लाने के लिये ई-टेंडर प्रणाली अपना रखी है। इसके लिए एक ई-पोर्टल तैयार किया गया है। जो भी सामान किसी विभाग ने खरीदना होता है उसका ई-टेंडर पोर्टल पर जारी किया जाता है। इच्छुक बोली दाता उसी प्रणाली में अपना टेंडर भेज देते हैं। बहुत सारे मामलों में टेक्निकल और फाईनाशियल निविदायें अलग-अलग भेजी जाती है। यह निविदायें मिलने पर विभाग पहले टेक्निकल निविदा को खोलकर यह सुनिश्चित करते हैं कि सारी निविदायें तकनीकी तौर पर सही हैं। जो निविदा तकनीकी आधार पर सही नहीं पायी जाती है उसकी वित्तिय निविदा नहीं खोली जाती है। जो निविदा तकनीकी रूप से सही नहीं पायी जाती है उसके कारण भी ई-पोर्टल पर जारी किये जाते हैं। वित्तीय निविदा में भी यही प्रक्रिया अपनायी जाती है क्योंकि हर बोली दाता का यह जानने का अधिकार रहता है कि किस आधार पर उसे योग्य नहीं पाया गया। यह भी अधिकार रहता है कि वह विभाग के सामने अपना पक्ष रख सके।
स्मरणीय है कि नागरिक आपूर्ति विभाग द्वारा एक करीब 25 करोड़ की खरीद के लिये ई-पोर्टल के माध्यम से ई-टेंडर आमंत्रित किये गये थे। यह टेंडर ल्त्थ्च् के अनुसार 28-4-2022 को खोले जाने थे। लेकिन इनके खोलने का समय बदल दिया गया और इसकी कोई पूर्व जानकारी पोर्टल पर नहीं डाली गयी। इसमें एक लिंकवैल टेलीसिस्टमस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी ने भी टेंडर डाला था। इसे तकनीकी टेंडर खोलने के बाद अस्वीकार कर दिया गया। लेकिन इस अस्वीकार के कोई भी कारण संबंधित कंपनी को नहीं बताये गये और न ही ई-पोर्टल पर लोड किये गये जबकि कंपनी को यह जानने का अधिकार था। इस संबंध में कंपनी ने सभी संबद्ध अधिकारियों से यह कारण जानने का पूरा प्रयास किया लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली है।
अब कंपनी में 7-6-2022 को नागरिक आपूर्ति मंत्री को पत्र लिखकर इसकी जांच किये जाने की मांग की है। मंत्री को पत्र लिखने के साथ ही लोकायुक्त, प्रधान सचिव नागरिक आपूर्ति वित्त, आईटी और लीगल सैल को भी इसकी प्रतियां भेजी हैं। सूत्रों के मुताबिक कहीं से भी कोई कारवाई सामने नहीं आयी है। जबकि इससे पहले हर खरीद में पूरी पारदर्शिता अपनायी जाती रही है। जिस कंपनी को काम दिया गया है उसे उत्तर प्रदेश एक करोड़ का जुर्माना लगा चुका है। महाराष्ट्र और तेलंगाना सरकारें भी अप्रसन्नता व्यक्त कर चुकी हैं। इसी परिदृश्य में हिमाचल का मामला रोचक हो जाता है इसलिये इसे पाठकों के सामने रखा जा रहा है।
शिमला/शैल। पंजाब में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के बाद जैसे ही आप ने हिमाचल में चुनाव लड़ने का ऐलान किया है तभी से प्रदेश में प्रशासनिक और राजनीतिक गलियारों में यह सवाल चर्चा का केंद्र बना हुआ है कि क्या आप यहां पर कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बन पायेगी। हिमाचल में आज तक कांग्रेस और भाजपा का ही राज रहा है। हर 5 वर्ष बाद सत्ता बदल जाती रही है। इस बदलाव की लहर में शांता कुमार और धूमल तक चुनाव हार चुके हैं। स्व.वीरभद्र सिंह भी रोहड़ू और जुब्बल कोटखाई दो स्थानों से एक साथ चुनाव लड़ते हुये जुब्बल कोटखाई से हार भी चुके हैं। हिमाचल में कांग्रेस भाजपा का विकल्प खड़ा करने के लिये लोक राज पार्टी से लेकर हिविंका, हिलोपा, हिमाचल क्रांति मोर्चा के गठन के रूप में कई असफल प्रयास हो चुके हैं। मेजर मनकोटिया तो बसपा की सरदारी लेकर भी प्रयास कर चुके हैं। इसी कारण से यह धारणा बन चुकी है कि हिमाचल में सत्ता कांग्रेस और भाजपा के बीच ही रहेगी।
लेकिन 2014 में अन्ना के आंदोलन ने देश की राजनीति में बदलाव का जो वातावरण खड़ा किया है अभी तक देश उसी के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया है। जबकि ईवीएम को लेकर बहुत ही गंभीर सवाल भी सामने आ चुके हैं। परंतु इसी बदलाव में देश की राजधानी दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस दोनों से आप ने दो बार सत्ता छीन कर जो इतिहास रचा है वह अपने आप में एक अलग ही राजनीतिक प्रयोग है। अब दिल्ली के बाद पंजाब में भी कांग्रेस और भाजपा दोनों से सत्ता छीन कर यह संकेत और संदेश दे दिया है कि भाजपा को आप ही सत्ता से बाहर कर सकती है। जबकि आप का नेतृत्व भी अन्ना आंदोलन से ही निकला है। लेकिन इसमें यह गौरतलब रहा है कि अन्ना का आंदोलन जहां संघ द्वारा प्रायोजित रहा है। वहीं पर संघ की राजनीतिक इकाई भाजपा की इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी प्रत्यक्ष में नहीं रही है। इसलिए जब अन्ना आंदोलन को राजनीतिक आकार देने के लिए राजनीतिक दल बनाने की बात उठी तो अन्ना ने संघ के इशारे पर इसका विरोध कर के आंदोलन को वहीं पर खत्म करने की बात कर दी। क्योंकि मनमोहन सिंह सरकार लोकपाल विधेयक पारित कर चुकी थी। तभी केजरीवाल और उनके साथीयों ने आप का राजनीतिक दल के रूप में गठन कर दिया। यहां यह सबसे महत्वपूर्ण है कि जिस अन्ना आंदोलन के कारण कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई उसी आंदोलन की कर्मभूमि रही दिल्ली में भाजपा लगातार तीन बार आप से हार गई। अब पंजाब की जीत के बाद भाजपा ने आप से डरना शुरू कर दिया है।
जैसे ही हिमाचल में चुनाव लड़ने की घोषणा आप ने कि तभी से कांग्रेस और भाजपा से नेताओं और कार्यकर्ताओं के आप में जाने की अटकलें तेज हो गई। दोनों से आप में लोग गये हैं। इसी बीच सत्येद्र जैन को हिमाचल का प्रभार सौंप दिया गया है। जैन ने मंडी में कैंप करके सिराज में केजरीवाल की रैली करवाने की घोषणा कर दी। लेकिन सिराज की जगह मंडी में केजरीवाल और मान का रोड शो करवा दिया। इस रोड शो के बाद भिंडरावाले के फोटो और खालिस्तानी झंडे का मुद्दा मणिकरण और ज्वालामुखी से उठ गया। हिमाचल की बसे पंजाब के रोपड़, किरतपुर में रोके जाने का मुद्दा खड़ा हो गया। इसी बीच मनीष सिसोदिया ने दिल्ली में एक पत्रकार वार्ता करके जय राम की जगह अनुराग को हिमाचल का मुख्यमंत्री बनाये जाने का नया प्रकरण छेड़ दिया। इस प्रकरण का जवाब अनुराग ने आप के प्रदेश संयोजक अनूप केसरी और दो अन्य को तोड़कर भाजपा में शामिल करवा दिया। लेकिन इसके बाद भी कांगड़ा के शाहपुर में केजरीवाल की सफल रैली हो गई।
इस रैली के बाद सिसोदिया ने शिमला आकर शिक्षा को एक ऐसा मुद्दा बनाकर उछाल दिया कि जयराम सरकार को न चाहते हुये इसका जवाब देना पड़ा। जयराम को बिजली पानी मुफ्त देने की घोषणा करनी पड़ी। जैन ने पावंटा साहब में केजरीवाल की रैली करवाने की घोषणा कर दी। आप के इन कदमों से भाजपा के लिये कांग्रेस से भी पहले निपटने की रणनीति बनानी पड़ी। विश्लेषकों के अनुसार सतेन्द्र जैन की उस मामले में गिरफ्तारी जिसमें आयकर और सीबीआई पहले ही हाथ खड़े कर चुके हैं यह राजनीतिक कारण ही है जिसकी वजह से FIR में नाम न होने के बावजूद जैन को गिरफ्तार किया गया है। भाजपा का यह कदम पूरी तरह राजनीतिक बौखलाहट का परिणाम बन गया है। जैन की गिरफ्तारी से प्रदेश के आप कार्यकर्ताओं को एक मुद्दा मिल गया है। ऐसे में यह माना जा रहा है कि यदि आप जयराम सरकार के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की रणनीति पर आ जाती है तो भाजपा के लिए शर्मनाक हार की स्थिति बनने से कोई नहीं रोक पायेगा। ऐसे में इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है कि क्या आप को संयोजक के रूप में कोई ऐसा व्यक्ति मिल पायेगा जो भाजपा और कांग्रेस दोनों को एक साथ चुनौती देने की क्षमता रखता हो। क्योंकि यह तय है कि प्रदेश का फैसला इस बार भी भ्रष्टाचार पर ही होगा।