Thursday, 18 September 2025
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क्या सुक्खू सरकार भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर है

शिमला/शैल। क्या सुक्खू सरकार सही में भ्रष्टाचार के खिलाफ है? क्या यह सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कड़ा कानून बन पायेगी? यह सवाल विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भाजपा द्वारा लाये गये स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री के जवाब के बाद उभरे हैं। क्योंकि मुख्यमंत्री ने जोर देकर कहा है कि उनकी सरकार इस आश्य का कानून बनाये जाने के प्रति गंभीर है। भ्रष्टाचार सही में हर व्यवस्था के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती रहता है। हर सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरैन्स के दावे करती है। हिमाचल प्रदेश में स्व. डॉ. परमार के कार्यकाल में स्व. हरि सिंह और स्व. ठाकुर कर्म सिंह के बीच उभरा विवाद भ्रष्टाचार के खिलाफ पहला आरोप पत्र कहा जा सकता है। डॉ. परमार के ही कार्यकाल में खिड़की सकैण्डल चर्चा में आया। इस पर स्व. सत्य देव बुशहरी की लघु पुस्तिका हिमाचल पर-मार सामने आयी यह दूसरा आरोप पत्र था। इसके बाद शान्ता कुमार और स्व. वीरभद्र सिंह, प्रो. प्रेम कुमार धूमल, जयराम और सुक्खू सरकार तक विपक्ष द्वारा सत्तारूढ़ सरकारों के खिलाफ आरोप पत्र जारी करने का चलन रहा है। राष्ट्रपति तक यह आरोप पत्र सौंपे गये हैं। मेजर विजय सिहं मनकोटिया ने एक ऑडियो सीडी जारी की थी 2017 में एक वीडियो आरोप पत्र जारी हुआ था। कांग्रेस के सारे विधायकों से जवाब मांगा गया था। हिमाचल ऑन सेल के आरोप लगे हैं। इन आरोपों पर तीन बार जांच आयोग बैठे हैं। लेकिन किसी का कोई ठोस परिणाम निकला हो ऐसा कुछ सामने नहीं आया है। सरकारी जमीन पर होटल बनाकर मामला सामने आने के बाद उस जमीन का तबादला प्राइवेट जमीन के साथ विशेष परिस्थितियों में अनुमोदित हो गया। बिजली बोर्ड से जल विद्युत परियोजना लेकर प्राइवेट पार्टी को दे दी गयी। समझौता हुआ कि विद्युत बोर्ड का निवेश 16% ब्याज के साथ लौटा दिया जायेगा। लेकिन जब यह राशि 92 करोड़ हो गयी तो इसे बट्टे खाते में डाल दिया गया।
31 अक्तूबर 1997 को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक रिवॉर्ड स्कीम अधिसूचित हुई स्कीम में कहा गया की शिकायत मिलने के तीस दिन के भीतर प्रारंभिक जांच करके अगर मामला बनता होगा तो नियमित जांच की जायेगी। शिकायतकर्ता को सरकार को होने वाले लाभ का 25% दिया जायेगा। 10% तो प्रारंभिक जांच पर ही दे दिया जायेगा। स्कीम के तहत 21 नवम्बर 1997 को ही शिकायत दर्ज करवायी गयी। लेकिन इस पर कभी कोई कारवाई नहीं हुई। शिकायतकर्ता को प्रताड़ित किया जाता रहा है। यह मामला किसी संद्धर्भ में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सितम्बर 2018 में दिये फैसले में कहा की लाभार्थियों को मिले लाभों को 12% ब्याज के साथ वसूल किया जाये। लेकिन इस पर आज तक पूरा अमल नहीं हुआ है। शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला साथ लगाकर सरकार को प्रतिवेदन 2018 में ही दे दिया जिसका आज तक जवाब नहीं आया है। अभी कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों के दौरान एक आरोप पत्र जारी किया था जिस पर दो वर्ष में कोई कारवाई सामने नहीं आयी है। अभी मुख्यमंत्री ने जिस मुद्दे की चर्चा पर भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून लाने की बात की है वह मुद्दा स्वयं एक जांच मांगता है। नादौन के राजा नादौन के पास लैण्ड सीलिंग के बाद केवल तीन सौ कनाल जमीन बची थी। राजस्व रिकॉर्ड में इसके अन्दराज में ताबे हकूक बर्तन बर्तनदारान दर्ज है जिसका अर्थ है कि इस जमीन की मालिक सरकार है। राजा नादौन की एक लाख कनाल से ज्यादा जमीन सरकार को चली गयी थी। इस संबंध में उस समय के अदालती फैसले पूरी तरह स्पष्ट हैं। ऐसे में सीलिंग के बाद राजा नादौन द्वारा बेची गयी हर जमीन जांच के दायरे में आती है। 2011 में सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने फैसले में देश के सारे मुख्य सचिवों को ऐसी जमीनों की सुरक्षा के निर्देश दे रखे हैं। जिनकी अनुपालन हिमाचल में नहीं हुई है। इसलिये इसकी जांच किया जाना आवश्यक हो जाता है।
भ्रष्टाचार पर प्रदेश की इस वस्तुस्थिति के परिदृश्य में यह उम्मीद करना कि वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कानून ला पायेगी बेमानी लगता है। हो सकता है कि आने वाले समय में कोई उच्च न्यायालय के दरवाजे पर इसके लिये दस्तक दे दे। संभव है कि इस समय जिस पीढ़ी के लोग विधानसभा में प्रदेश का नेतृत्व कर रहे हैं उन्हें प्रदेश में हुये भूमि सुधारों की पूरी जानकारी ही न हो। लैण्ड सीलिंग के संद्धर्भ में जमीन की पूरी परिभाषा की ही जानकारी न हो। ऐसे में यदि मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार पर कानून लाने से पहले ऊपर चर्चित किये गये मामलों की सही जानकारी जुटाकर इसकी ही जांच करवा पाये तो यह उनका एक बड़ा योगदान माना जायेगा।

क्या कानून बनाकर अनुबंध कर्मचारियों के लाभ रोके जा सकते हैं?

  • बारह मासी और स्थायी प्रकृत्ति की नौकरी अनुबंध के दायरे से बाहर
  • अनुबंध की ऐसी नौकरी संविधान के अनुच्छेद चौदह और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के खिलाफ है।

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने विधानसभा के इस शीतकालीन सत्र में सरकारी कर्मचारी भर्ती और सेवा शर्तें अधिनियम पारित करके इसे 12 दिसम्बर 2003 से ही प्रभावी होने का प्रावधान किया है। सरकार के इस अधिनियम पारित करने से राज्य में कार्यरत हजारों कर्मचारीयों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। अखिल भारतीय शैक्षिक महासंघ हिमाचल प्रदेश ने इस अधिनियम के पारित होने का संज्ञान लेते हुये सरकार से इसे वापस लेने की मांग की है। संघ के अनुसार इस अधिनियम का 2003 के पश्चात लोकसभा सेवा आयोग के माध्यम से नियुक्त किये कॉलेज प्रवक्ताओं पर पड़ेगा। संघ का कहना है कि कॉलेज प्रवक्ताओं ने 2003 से लम्बी लड़ाई लड़कर न्यायालय के माध्यम से न्याय प्राप्त किया है। इस न्याय को इस कानून के माध्यम से प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है। यदि सरकार इस फैसले को वापस नहीं लेती है तो संघ ने सारे प्रभावितों को लामबंद करके आन्दोलन का रास्ता अपनाने की चेतावनी भी दी है।
स्मरणीय है कि हिमाचल सरकार ने अनुबंध के आधार पर नियुक्तियों की नीति 2003 में अपनायी थी। लोक सेवा आयोग के माध्यम से परीक्षा पास करके आये अभ्यार्थियों को अनुबंध के आधार पर ही नौकरियां दी गयी। नियमित होने के लिये अनुबंध काल 8 वर्ष, 6 वर्ष, पांच वर्ष और तीन वर्ष तक लाया गया। हर सरकार ने अपने अनुसार अनुबंध काल में परिवर्तन किया। सुक्खू सरकार ने दिसम्बर 2023 में यह घोषित किया कि 2024-25 में दो वर्ष का अनुबंध काल पूरा कर चुके कर्मचारियों को नियमित कर दिया जायेगा। ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि सरकार को एक वर्ष में अपना फैसला क्यों बदलना पड़ा और वह भी अधिनियम के माध्यम से। केंद्र सरकार ने 2003 में ही न्यू पैन्शन स्कीम अधिसूचित की थी। इसके तहत 2004 में नौकरियों में लगे लोग न्यू पैन्शन के दायरे में आ गये और अपना अंशदान उसमें देने लगे। कांग्रेस ने विधानसभा जीतने के लिये ओल्ड पैन्शन स्कीम फिर से लागू करने की गारन्टी दे दी। सरकार बनने के बाद ओल्ड पैन्शन तो लागू कर दी गई लेकिन न्यू पैन्शन स्कीम के तहत प्रदेश के कर्मचारियों का जो अंशदान करीब नौ हजार करोड़ केंद्र के पास जमा हो चुका था वह इस सरकार को वापस नहीं मिला क्योंकि नियम नहीं था। इससे सरकार का सारा गणित बिगड़ गया।
दूसरी ओर देश भर में अनुबंध कर्मचारी अपनी सेवा शर्तों को लेकर अदालतों तक पहुंचे गये। सर्वाेच्च न्यायालय ने मार्च 2024 में दिये एक फैसले में स्पष्ट कहा है कि बारह मासी स्थायी प्रकृत्ति वाली नौकरियों में अनुबंध के आधार पर नियुक्ति देना संविधान के अनुच्छेद चौदह और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की अवहेलना है। सर्वाेच्च न्यायालय ने अनुबंध के आधार पर नियुक्त कर्मचारियों को पहली नियुक्ति की तिथि से ही वरियता और अन्य लाभों का पात्र करार दे दिया है।
हिमाचल उच्च न्यायालय में भी इस आश्य की याचिकाएं आ चुकी है। हिमाचल सरकार अनुबंध कर्मचारियों को नियुक्ति की तिथि से वित्तीय लाभ देने की स्थिति में नहीं है। अदालत में मामलों को लगवाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प सरकार के पास है नहीं। बल्कि नवम्बर में उच्च न्यायालय ने इन मामलों में अपनाई जा रही अनावश्यक देरी के लिये सरकार के प्रधान सचिव पर एक लाख का जुर्माना तक लगा दिया और निर्देश दिये कि यह जुर्माना प्रधान सचिव से वसूला जाये। अनुबंध कर्मचारियों के हजारों मामले सरकार के पास लम्बित है जिन्हें वित्तीय लाभ नियुक्ति की तिथि से दे पाना सरकार के लिये कठिन होगा। इस समय करीब चालीस हजार कर्मचारी अनुबंध के आधार पर अपनी सेवाएं सरकार को दे रहे हैं जिन्हें सिर्फ अदालत के फैसले के बाद नियमित करना होगा और वित्तीय लाभ देने पड़ेंगे। चर्चा है कि इससे बचने के लिये ही 2024 में यह अधिनियम लाकर इसे दिसम्बर 2003 से प्रभावी बनाने का रास्ता अपनाया गया है। अनुबंध के अतिरिक्त आउटसोर्स कर्मचारी भी बारह मासी और स्थायी नौकरी की श्रेणी में आते हैं। यदि अनुबंध कर्मीयों के लिये संविधान का अनुच्छेद चौदह और नीति निर्देश सिद्धांत पिक्चर में आते हैं तो आउटसोर्स कर्मियों के लिये क्यों नहीं ? इसी के साथ यह सवाल अहम हो जाता है कि जब ऐसी नौकरियां संविधान की अवमानना है तो क्या कोई राज्य सरकार ऐसा कानून लाकर स्वयं संविधान की अवमानना की दोषी नहीं बन जाती है। यदि सुक्खू सरकार के इस कानून को अदालत में चुनौती दी गयी तो यह सारे सवाल उठेंगे यह तय है।

क्या मुर्गा और समोसा मुख्य मुद्दों से ध्यान हटा पायेंगे?

शिमला/शैल। क्या मुर्गे और समोसे प्रकरणों को चर्चा का केन्द्र बनाकर प्रदेश के मुख्य मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाया जा सकता है? क्या प्रशासन सरकार को सही राय नही दे रहा है? या मुख्यमंत्री किसी की सुनते ही नहीं हैं? यह सारे सवाल 11 दिसम्बर को बिलासपुर में सरकार की दूसरी वर्षगांठ मनाने के बाद घटे मुर्गा प्रकरण के बाद उभरे हैं। जब बिलासपुर में समारोह चल रहा था तो उसी समय विपक्ष शिमला में राज्यपाल को सरकार के दो वर्षों का काला चिठ्ठा सौंप रहा था। इस काले चिट्ठे में दर्ज आरोपों के परिणाम गंभीर होंगे। इन आरोपों को हल्के में लेकर नजरअन्दाज कर देना आसान नहीं होगा। यह आरोप आने वाले समय में हर व्यक्ति की जुबान पर होंगे। हर घर में चर्चा का विषय बनेंगे। फिर बिलासपुर के समारोह में संगठन और सरकार के रिश्ते भी खुलकर सामने आ गये हैं। बिलासपुर के समारोह में समोसा प्रकरण को लेकर जिस भाषा और तर्ज में प्रशासन को चेताया गया है उसके भी राजनीतिक मायने कुछ अलग हो जाते हैं। नादौन हमीरपुर में पांच माह पहले हुई आयकर और ई डी की छापेमारी के बाद इस संबंध में ई डी में मामला दर्ज होने के बाद कुछ लोगों की गिरफ्तारियां तक हो चुकी हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान कांगड़ा केन्द्रीय सरकारी बैंक को लेकर एक ऑडियो वायरल हुआ था। अब इस ऑडियो के आधार पर सीबीआई में मामला दर्ज होने के कगार पर पहुंच गया है। कुछ आलोचकों पर दबाव बनाने के लिये एक समय दायर किया गया मानहानि का मामला शायद अब लोकसभा अदालत में पहुंच गया है। इसके परिणाम भी आने वाले समय में सुखद रहने की संभावना नहीं है। इस तरह के परिदृश्य के आईने में बिलासपुर समारोह के बाद घटा मुर्गा प्रकरण अपने में ही कुछ अलग अर्थ और अहमियत ले लेता है। क्योंकि यह प्रकरण 13 दिसम्बर को घटता है। इसमें वाकायदा मैन्यू जारी हुआ जिसमें आईटम नम्बर 12 पर जंगली मुर्गा दर्ज है। इसमें यह सवाल उठता है कि क्या सरकार गांव के द्वार कार्यक्रम के आयोजकों को यह जानकारी नहीं थी कि जंगली मुर्गा संरक्षित वन्य प्राणियों में आता है और इसको मारना अपराध की श्रेणी में आता है। इसलिये यह नहीं माना जा सकता है कि जंगली मुर्गा बिना विचार के ही मैन्यू का हिस्सा बना दिया गया। विश्लेष्कों की नजर में या तो यह प्रकरण राजनीतिक घटनाक्रम से ध्यान हटाने की नीयत से किया गया था आयोजकों ने अनचाहे ही असहज स्थिति में ला खड़ा करने की कवायत कर डाली। कुछ भी हो यह प्रकरण मुख्यमंत्री को भविष्य में सजग रहने की चेतावनी है क्योंकि इस तरह के मुद्दे सामने आना यह दर्शाता है कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।

क्या यह आयोजन सरकार और संगठन की एकजुटता का संदेश दे पाया है?

  • हाईकमान के किसी भी बड़े नेता का न आना सवालों में
  • विपक्ष ने काला चिट्ठा सौंपकर खोला मुद्दों का पिटारा

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने सत्ता में दो वर्ष पूरे होने पर बिलासपुर में राज्य स्तरीय रैली का आयोजन किया है। इस रैली में तीस हजार लोगों के आने का लक्ष्य तय किया था। इस लक्ष्य के आईने में यह रैली बहुत सफल रही मानी जा सकती है। फिर इन दो वर्षों में सुक्खू सरकार जिस तरह के राजनीतिक वातावरण का सामना करते हुए इस मुकाम तक पहुंची है उसके आईने में भी इस आयोजन को एक सफल आयोजन करार दिया जा सकता है। लेकिन क्या इस रैली के बाद कांग्रेस संगठन और कांग्रेस सरकार अपने कार्यकर्ताओं तथा रैली में आई हुई जनता को अपनी एकजुटता का सन्देश दे पाये हैं ? क्या इस आयोजन के बाद विपक्ष के पास सरकार के खिलाफ कोई सवाल नहीं रह गये हैं जिनका जवाब आना शेष हो ? यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि इन दो वर्षों में प्रदेश सरकार पहले दिन से ही केन्द्र पर राज्य को वांछित सहयोग न देने का आरोप लगाती आयी है और विपक्ष सरकार को गारंटीयों के नाम पर घेरती आयी है। इस रैली में कांग्रेस हाईकमान की ओर से कोई भी नेता शामिल नहीं हो पाया है जबकि आमन्त्रण सारे शीर्ष नेताओं को था। इस आयोजन के मुख्यअतिथि प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला थे जबकि यह आयोजन प्रभारी होने के नाते उनके अपने कार्यकलाप की भी परीक्षा था।
इन बिन्दुओं पर यदि इस आयोजन का मूल्यांकन किया जाये तो इस अवसर पर रैली मैदान को लेकर जो सवाल पूर्व मंत्री रामलाल ठाकुर ने उठाये हैं वह अपने में बहुत कुछ ब्यान कर जाते हैं। इस आयोजन में जिस तरह से प्रदेशाध्यक्ष प्रतिभा सिंह को स्टेज पर बोलते हुये रोका गया उससे उन आशंकाओं को स्वतः ही बल मिल जाता है कि होली लॉज को डिसलॉज करने का प्रयास किया जा रहा है। यहां यह उल्लेखनीय हो जाता है कि जब प्रतिभा सिंह ने भाजपा सरकार के कार्यकाल में मण्डी के लोकसभा का उपचुनाव जीता था तो वह स्व.वीरभद्र सिंह की विरासत के नाम पर ही संभव हो पाया था। इसी विरासत के कारण विधानसभा चुनावों के समय भी किसी एक को नेता घोषित नहीं किया गया था। बाद में मुख्यमंत्री पद के लिये शायद सुखविंदर सिंह सुक्खू इसलिये नामित हुये क्योंकि वही एकमात्र नेता थे जो कांग्रेस संगठन की तीनों इकाइयों छात्र, युवा और मुख्य संगठन के अध्यक्ष रह चुके थे। लेकिन सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री पर जिस तरह से अपने ही मित्रों के गिर्द केन्द्रित होकर रह जाने के आरोप लगने शुरू हुये उनके कारण वीरभद्र कार्यकाल में सक्रिय रहे कार्यकर्ता मुख्य धारा से बाहर होते चले गये। लेकिन जिन मित्रों को मुख्यमंत्री आगे लाये वह न तो सरकार में ही कोई महत्वपूर्ण योगदान दे पाये और न ही मुख्यमंत्री के संकट मोचक हो पाये।
इस रैली के बाद अब तक उपेक्षित चले आ रहे कार्यकर्ताओं को स्व. वीरभद्र सिंह के नाम पर इकट्ठे होने का अवसर मिल जायेगा। क्योंकि विपक्ष ने जिस तरह का सौ पन्नों का सरकार का काला चिट्ठा राज्यपाल को सौंपा है उससे भाजपा के हर कार्यकर्ता से लेकर नेता तक हर आदमी के पास सरकार के खिलाफ सवाल उठाने के लिये मैटिरियल मिल जायेगा। क्योंकि इस कच्चे चिट्ठे में लगभग सभी मंत्रियों और विभागों के खिलाफ कुछ न कुछ दस्तावेजी प्रमाणों के साथ दर्ज है। आने वाले दिनों में इस कच्चे चिट्ठे के आरोप हर दिन चर्चा का विषय रहेंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि मुख्यमंत्री के मित्र इस काले चिट्ठे का जवाब कैसे देते हैं। काले चिट्ठे में जिस तरह के आरोप दर्ज हैं उनसे यह संभावना बलवती हो गई है कि शायद कुछ मामलों में सीबीआई तक सक्रिय हो जाये। ई डी पहले ही सक्रिय है। इस परिदृश्य में रैली के भरे मंच से संगठन और सरकार में तीव्र मतभेद होने का खुला संदेश जाना किसी भी गणित से सरकार के लिये हितकर नहीं हो सकता। अब इस मामले की प्रदेश प्रभारी किस तरह की रिपोर्ट हाईकमान के सामने रखते हैं और हाईकमान उसका कैसे संज्ञान लेता है इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। क्योंकि जिस तरह की वित्तीय स्थितियों से प्रदेश गुजर रहा है और प्रधानमंत्री स्वयं इसको मुद्दा बना चुके हैं उसके आईने में इस रैली का औचित्य स्वयं ही सवालों में आ जाता है। नेता प्रतिपक्ष ने इस आयोजन पर सवाल उठाने शुरू कर ही दिये हैं।

भाजपा के विरोध प्रदर्शन का अंतिम परिणाम क्या होगा

  • क्या इस विरोध प्रदर्शन से ई.डी का रास्ता आसान हो जायेगा

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार के सत्ता में दो साल पूरे होने जा रहे हैं। सरकार इस अवसर पर एक समारोह का आयोजन करने जा रही है। लेकिन भाजपा इस आयोजन के औचित्य पर सवाल उठाते हुये पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन का आयोजन करते हुये समारोह के दिन राज्यपाल को एक ज्ञापन सौंपने जा रही है। वैसे तो सत्ता पक्ष और विपक्ष में आयोजन तथा विरोध एक सामान्य राजनीतिक रस्म अदायगी मानी जाती है। लेकिन राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य और हिमाचल में राज्यसभा चुनाव के बाद जिस तरह के रिश्ते सत्तापक्ष और विपक्ष में बन चुके हैं उसके परिपेक्ष में भाजपा के इस विरोध प्रदर्शन के मायने गंभीर हो जाते हैं। राज्यसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के छः विधायक और तीन निर्दलीय भाजपा में शामिल हो गये। इन नौ स्थानों पर लोकसभा के साथ ही विधानसभा के लिये उपचुनाव हुये। कांग्रेस लोकसभा की चारों सीटें हार गयी परन्तु विधानसभा के लिये छः सीटों पर जीत गयी। विधायकों के इस तरह पाला बदलने में धन बल की भूमिका का पता लगाने के लिये पुलिस में मामला दर्ज करवाया गया। जो अब तक लंबित चल रहा है। पाला बदलने वाले कुछ विधायकों ने मुख्यमंत्री के खिलाफ मामले दर्ज करवा रखे हैं। इन्हीं मामलों के साथ ई.डी. और आयकर विभाग भी प्रदेश में दस्तक देकर छापेमारी कर चुके हैं। छापेमारी के बाद ई.डी. कुछ लोगों की गिरफ्तारी भी कर चुकी है और भी गिरफ्तारीयां होने की संभावना है। मामले के तार सहारनपुर तक पहुंच चुके हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान एक ऑडियो वायरल हुआ था। इस मामले में केन्द्र की सीआरपीएफ की एक आदमी को सुरक्षा तक उपलब्ध हो चुकी है। कुछ अधिकारियों और राजनेताओं तक ई.डी. के पहुंचने की संभावना बन गयी है। ई.डी. का इस तरह का दखल प्रदेश में पहली बार हुआ है।
इसी के साथ राज्यसभा चुनाव के बाद प्रदेश की वित्तीय स्थिति भी चर्चा में आ गयी है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स को प्रधानमंत्री ने स्वयं मुद्दा बनाकर उछाला है। इसी बीच प्रदेश उच्च न्यायालय के कुछ फैसलों ने सरकार के वित्तीय प्रबंधन और समझदारी पर गंभीर सवाल उठा दिये हैं। स्वयं राज्यपाल ने विश्वविद्यालय के समारोह में बागवानी मंत्री की उपस्थिति में वित्तीय स्थिति पर सवाल उठाये हैं। स्वभाविक है कि जब कोई सरकार वित्तीय मुहाने पर ऐसे विवादित हो जाये तब विपक्ष को सरकार को घेरन के लिये एक बहुत ही गंभीर मुद्दा मिल जाता है। इसी सबका परिणाम है कि सरकार के छः पूर्व मुख्य संसदीय सचिवों की विधायकी पर संशय बना हुआ है। इसी संशय के परिदृश्य में भाजपा के नौ विधायकों पर सदन की अवमानना का जो मामला लंबित चल आ रहा है उसको इसी अवसर पर उछाल कर उनके खिलाफ भी निष्कासन की कारवाई की तलवार लटकी होने की चर्चा ताजा हो गयी है ।
यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिये जनता को दस गारंटीयां दी थी इन गारंटी को पूरी तरह लागू कर पाना वर्तमान वित्तीय परिदृश्य में संभव ही नहीं है। इन गारंटीयों में से पांच को लागू कर दिये जाने का ब्यान हाईकमान के लिये तो सही हो सकता है लेकिन भुक्तभोगी जनता के लिये नहीं। फिर कांग्रेस संगठन के पुनर्गठन का काम भी इसी बीच होना है। उसके लिये पहली बार पर्यवेक्षक नियुक्त किये गये हैं। स्वभाविक है कि कार्यकर्ताओं पर टिप्पणी करने के साथ ही यह लोग सरकार पर भी टिप्पणियां करेंगे ही। क्योंकि सरकार बनने के बाद संगठन सरकार के फैसलों को ही जनता में ले जाता है। कार्यकर्ता की सक्रियता सरकार की सक्रियता पर निर्भर करती है। सरकार पर जब हर माह कर्ज लेने का सच सामने आयेगा तो कार्यकर्ता उसे कैसे झुठलायेगा। इसलिये इस समय सरकार के जश्न पर भाजपा का विरोध भारी पड़ने की संभावना लगातार बढ़ती जा रही है। फिर ई.डी ने जब कुछ गिरफ्तारियां कर ही रखी है तो उस मामले को अंतिम परिणाम तक पहुंचाने के लिये यदि कुछ अधिकारियों और राजनेताओं तक पहुंच जाती है तो उसके बाद एकदम सारी स्थितियां बदल जायेगी। जब सरकार जशन मना रही होगी तो उस समय भाजपा सरकार की नाकामियां जनता में रख रही होगी। जनता गारंटीयों का सच जानती है। क्योंकि भुक्त भोगी है। ऐसे परिदृश्य में ई.डी. की किसी भी कारवाई पर जनता में कोई प्रतिकूल संदेश नहीं जायेगा। बल्कि भाजपा का यह विरोध प्रदर्शन उसके लिए जमीन तैयार करेगा।

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