Thursday, 18 September 2025
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क्या प्रदेश में तीसरे विकल्प की जमीन तैयार हो रही है?

हिमाचल सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप जिस तर्ज पर नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर लगा रहे हैं उससे सरकार के आत्मनिर्भरता और अग्रणी राज्य बनने के दावों पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगता जा रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री के मुताबिक सुक्खू सरकार केंद्र द्वारा वित्तपोषित योजनाओं में नियमों को तोड़ मरोड़ कर भ्रष्टाचार को आमंत्रण दे रही हैं। फिन्ना सिंह सिंचाई परियोजना केंद्र से वित्त पोषित है और इसमें सरकार नियमों को तोड़ मरोड़ भारी भ्रष्टाचार को अंजाम देने जा रही है। यह आरोप अपने में ही बड़ा आरोप हो जाता है जब केंद्र द्वारा वित्त पोषित योजनाओं के नियमों में राज्य सरकार अपने स्तर पर बदलाव करने लग जाये। केंद्र सरकार इसका कड़ा संज्ञान लेकर कोई भी कदम उठा सकती है जिसका प्रदेश के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। राज्य सरकार ने अभी तक इस आरोप का कोई जवाब देकर इसका खण्डन नहीं किया है। यह चर्चा उठाना इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सुक्खू सरकार हर माह कर्ज पर आश्रित हो गयी है। अपने संसाधन बढ़ाने के नाम पर प्रदेश की जनता पर लगातार परोक्ष/अपरोक्ष में करों का भार बढ़ाती जा रही है। वर्ष 2023-24 में प्रदेश का कर राजस्व 11835.29 करोड़ था जो अब 2025-26 में 16101.10 करोड़ अनुमानित है। इसका अर्थ है कि इस सरकार ने अब तक 5000 करोड़ से ज्यादा का करभार बढ़ा दिया है। जबकि विद्युत, वानिकी, खनन एवं खनिज और अन्य संसाधन जिनमें उत्पादन हो रहा है उन क्षेत्रों का करेतर राजस्व जो 2023-24 में 3020.88 करोड़ था अब 2025-26 में 4190.37 करोड़ अनुमानित है। करेतर राजस्व में केवल 1000 करोड़ की वृद्धि हो रही है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है की सरकार के करेतर राजस्व में जब तक वृद्धि नहीं होगी तब तक प्रदेश आत्मनिर्भर होने का सोच भी नहीं सकता।
जब सरकार की सारी सोच जनता पर करभार बढ़ाकर ही राजस्व जुटाने तक सीमित हो जाये तो वह प्रदेश के लिये एक बड़े खतरे का संकेत बन जाता है। सरकार ने हर बजट कर मुक्त बजट प्रचारित और घोषित किया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब बजट कर मुक्त थे तो फिर कर राजस्व में पांच हजार करोड़ की वृद्धि कैसे हो गयी? स्वभाविक है कि जनता के साथ गलत ब्यानी हुई है। सरकार की कर और करेतर राजस्व से सिर्फ बीस हजार करोड़ की आय हो रही है जबकि इस आय के मुकाबले सरकार का राजस्व व्यय ही 48733.04 करोड़ जो कि आय के दो गुणा से भी अधिक है। यह राजस्व व्यय लगातार बढ़ता जा रहा है। जबकि पूंजीगत व्यय जो 2023-24 में 9252.24 करोड़ था वह 2024-25 में 10276.98 करोड़ था अब 2025-26 में घटकर 8281.27 करोड़ रह गया है। पूंजीगत व्यय शुद्ध विकासात्मक व्यय होता है। इस व्यय का घटना इस बात का प्रमाण है कि इस वर्ष विकास कार्यों पर बहुत ही कम खर्च होगा। आंकड़ों से स्पष्ट है कि इस सरकार में विकास कार्यों पर खर्च लगातार कम होता जा रहा है।
बजट के इन आंकड़ों से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब विकास कार्यों पर खर्च ही लगातार कम होता जा रहा है तो सरकार के आत्मनिर्भरता के दावों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? क्योंकि आत्मनिर्भरता तो तब बनेगी जब विकास पर खर्च बढ़ेगा। दूसरी ओर जब सरकार का कर राजस्व कर लगाने से बढ़ रहा है और कर्ज का आंकड़ा भी लगातार बढ़ रहा है तो फिर सरकार की स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सेवाएं क्यों कुप्रभावित हो रही है। कर्मचारियों के एरियर का भुगतान अब तक नहीं हो पाया है। मेडिकल बिल लम्बे अरसे से लंबित चल रहे हैं। ठेकेदारों के भुगतान नहीं हो रहे हैं। जब वित्त विभाग को ट्रेजरी ही बन्द करनी पड़ी है और जिन कार्यों के लिये प्रतिमाह सब्सिडी का भुगतान किया जाता था उनमें अब वार्षिक आधार पर यह भुगतान करने के आदेश करने से यह कार्य प्रभावित हो जायेंगे। मनरेगा के कार्य काफी अरसेे से बन्द चल रहे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह करों और कर्ज का पैसा कहां खर्च हो रहा है? सरकार इस सवाल पर लगातार चुप्पी बनाये हुये है। जबकि भ्रष्टाचार को बड़े स्तर पर संरक्षण दिया जा रहा है यह मुख्य सचिव के सेवा विस्तार पर उच्च न्यायालय में आयी याचिका से स्पष्ट हो जाता है। भ्रष्टाचार के बड़े मुद्दों पर सरकार खामोश चल रही है विपक्ष मूक दर्शक बनकर तमाशा देख रहा है। इस उम्मीद में बैठा है कि कांग्रेस के बाद सत्ता उसी के पास आनी है। लेकिन यदि कोई तीसरा राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा के इस खेल को बेनकाब करते हुये सामने आ जाये तो किसी को कोई हैरत नहीं होनी चाहिये। जब जनता की दशा पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़ते हैं तभी विकल्प के उभरने की जमीन तैयार होती है।

राहुल बनाम मोदी होती राजनीति का अन्त क्या होगा?

क्या राहुल गांधी कांग्रेस के भीतर बैठे भाजपा के अपरोक्ष समर्थकों को बाहर कर पाऐगें? या राहुल की कारवाई से पहले ही नरेंद्र मोदी कांग्रेस में एक बड़ी सेंधमारी को अंजाम दे देंगे? यह सवाल देश की राजनीति के राहुल बनाम मोदी होतेे जाने के बाद उठने शुरू हो गये हैं। क्योंकि 2024 में भाजपा के मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आने के बाद लगभग सभी छोटे बड़े राजनीतिक दलों में विघटन हुआ है और पार्टी छोड़कर जाने वाले नेताओं ने भाजपा में ही शरण ली है। बल्कि आज की भाजपा में दूसरे दलों से आये नेताओं की संख्या मूल भाजपाईयों से शायद बढ़ गयी। दूसरे दलों से तोड़ फोड़ में सरकार की एजेंसियों ईडी, सीबीआई और आयकर की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। फिर राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित और प्रमाणित करने के लिये एक विशेष अभियान चलाया गया जिसका खुलासा कोबरा पोस्ट ने अपने स्टिंग ऑपरेशन में देश के सामने रखा था। आज भी जितने ज्यादा आपराधिक मामले राहुल गांधी के खिलाफ बनाये गये हैं उससे भी यही प्रमाणित होता है कि नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा राहुल गांधी को ही अपना विकल्प मानती है। अन्ना और रामदेव के आन्दोलन से भाजपा कांग्रेस को सत्ता से हटाने में तो सफल हो गयी लेकिन अभी स्थापित नहीं हो पायी है क्योंकि आज नरेंद्र मोदी और भाजपा किसी समय कांग्रेस के खिलाफ उठाये अपने ही सवालों में बुरी तरह घिरते जा रहे है। महंगाई, बेरोजगारी, आतंकवाद, काला धन और डॉलर के मुकाबले रुपये का लगातार कमजोर होते जाना ऐसे मुद्दे जिन्हे भाजपा ने एक समय कांग्रेस के खिलाफ बहुत बड़े स्तर पर उछाला था लेकिन आज यही मामले पहले से कई गुना बढ़ गये और उसी अनुपात में भाजपा-मोदी से जवाब मांग रहे हैं। आज भाजपा-मोदी यदि हिन्दू मुसलमान के विभाजनकारी एजैण्डे को छोड़कर अन्य किसी मुद्दे पर देश में एक सार्वजनिक बहस उठाना चाहे तो शायद उनके पास और कोई राष्ट्रीय मुद्दा रह ही नहीं गया है। अभी पहलगाम और उसके बाद हुए ऑपरेशन सिन्दूर में जिस तरह से समूचे विपक्ष ने सरकार को स्थिति से निपटने के लिये सरकार और सेना का समर्थन दिया उसमंे अन्त में जिस तरह का आचरण सरकार ने देश के सामने रखा है उससे स्वयं ही विवादों में आ खड़ी हो गई है। क्योंकि पहलगाम के वह चारों दोषी आज तक पकड़े नहीं गये हैं। सेना ने जिस तरह से दुश्मन देश को उसके घर में घुसकर नुकसान पहुंचाया था उससे उम्मीद बंधी थी कि इससे सीमा पार से पोषित आंतकवाद से स्थायी तौर पर निपटारा हो जायेगा। लेकिन जिस तरह से ट्रंप के दखल से सीजफायर हुआ उससे सरकार की जो कमजोरी विदेश नीति के मामले में सामने आयी है उससे भाजपा-मोदी पर ऐसे स्थायी प्रश्न चिपक गये हैं जिनसे छुटकारा पाना असंभव हो गया है। ऐसे में यह आशंकाएं उभर रही है कि भाजपा-मोदी इस सबसे बचने के लिये जहां यह कहने लग गये हैं कि ट्रंप के ब्यानों पर विश्वास करने की बजाये मोदी पर विश्वास किया जाना चाहिए यह इस बात का संकेत बनता जा रहा है कि शायद अब भाजपा के कुछ कोने में मोदी पर अविश्वास बढ़ने लग पड़ा है। आज भाजपा जब अपना नया अध्यक्ष चुनने में ही उलझ गयी है तो स्पष्ट हो जाता है कि संघ भाजपा के रिश्तों में भी शायद दरारे आना शुरू हो गयी हैैं। इस वस्तुस्थिति में अपने विकल्प को जनता में कमजोर प्रमाणित करने के लिये कांग्रेस के अन्दर किसी बड़ी तोड़फोड़ की बिसात का बिछाया जाना भाजपा-मोदी की तात्कालिक आवश्यकता बन सकती है। क्योंकि यह राहुल गांधी के ही प्रयासों का परिणाम था की लोकसभा में भाजपा 400 पार की 240 पर ही रुक गयी। अब तो स्थितियां और प्रतिकूल है ऐसे में कांग्रेस की सरकारों में किसी तोड़फोड़ की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।

कर्ज से आत्मनिर्भर नहीं हो सकते

सुक्खू सरकार को हर महीने करीब एक हजार करोड़ का कर्ज लेना पड़ रहा है। चालू वित्त वर्ष के पहले दो माह में ही दो हजार करोड़ से अधिक का कर्ज ले लिया गया है। जब इस सरकार ने सत्ता संभाली थी तब प्रदेश पर करीब 70000 करोड़ का कर्ज था जो अब एक लाख करोड़ से बढ़ गया है। माना जा रहा है कि इस सरकार का कार्यकाल समाप्त होने तक प्रदेश का कर्ज डेढ़ लाख करोड़ से बढ़ जायेगा। जो कर्ज यह सरकार ले रही है उसकी भरपायी अगले बीस वर्षों में की जायेगी जिसका अर्थ है कि आने वाली सरकारों के लिये वित्तीय कठिनाइयां इससे भी गंभीर हो जायेगी। इतना कर्ज लेने के बाद भी है सरकार अपने सभी कर्मचारियों को न तो वेतन दे पा रही है और न ही पैन्शन। कर्मचारियों के वेतन संशोधन से अर्जित एरियर का भुगतान अभी तक नहीं हो पाया है। मेडिकल के बिलों का भुगतान रुका पड़ा है। इसलिये अब यह मांग की जाने लगी है कि यह कर्ज कहां निवेश हुआ है उस पर श्वेत पत्र जारी किया जाये। जितनी भी घोषणाएं की जा रही है सबकी पूर्ति जमीन पर शून्य है। इसलिये चुनाव के दौरान जो गारंटियां दी गई थी उन्हें लागू करने के लिये सबके साथ कुछ शर्ते जोड़ दी गयी हैं। मनरेगा के काम लम्बे अरसे से बंद पड़े हैं। किसानों के दूध की खरीद का मूल्य बढ़ाने के साथ मिल्कफैड के दूध के दाम बढ़ा दिये गये हैं। घी तो सीधा सौ रूपये बढ़ा दिया गया है। इन दो वर्षों में जनता पर करों और शुल्कों का बोझ डालकर 5200 करोड़ से अधिक का राजस्व इकट्ठा किया गया है। इस वित्तीय वर्ष में सरकार के कर्ज लेने की सीमा 7000 करोड़ जो छः माह में ही पूरी हो जायेगी। अभी मुख्यमंत्री और उनकी टीम ने केंद्र से प्रदेश के कर्ज लेने की सीमा दो प्रतिशत बढ़ाने का आग्रह किया था जिसे स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि नियम इसकी अनुमति नहीं देते। कुछ राज्यों ने कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिये सर्वाेच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया था लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली है।
वित्तीय नियमों के अनुसार सरकारों को अपने राजस्व खर्च को अपने ही साधनों से पूरा करना पड़ता है। इसमें अपनी चादर देखकर ही पांव पसारने का नियम है। जिस कर्ज लेने से कोई आय का साधन बढ़ता हो उसी उद्देश्य के लिये कर्ज मिलता है। आज जो कर्जभार एक लाख करोड़ से बढ़ गया है उसे उठाते हुये भी आय बढ़ाने का तर्क दिया गया है। लेकिन आज तक इसका कोई हिसाब जनता के सामने नहीं रखा गया है कि इस कर्ज से कितना नियमित राजस्व बड़ा है। बल्कि व्यवहारिकता यह है कि इस कर्ज पर जो ब्याज अदा किया गया है वह उससे अपेक्षित आय से कई गुना अधिक है। जैसे-जैसे प्रदेश पर कर्जभार बढ़ता गया है उसी अनुपात में सरकार में स्थायी रोजगार कम होता गया है। आज आउटसोर्स पर दिये जा रहे रोजगार का आंकड़ा सरकार में दिये जा रहे स्थायी रोजगार से अधिक हो गया है। यह माना जा रहा है कि आने वाले कुछ समय में स्थाई रोजगार केवल राज्य और केन्द्र की प्रशासनिक सेवाओं में ही रह जाएगा। सरकारी कार्यालयों में स्थाई कर्मचारियों के स्थान पर आउटसोर्स वाले ही मिलेंगे।
इस वित्तीय स्थिति में जो 2026 में प्रदेश को आत्मनिर्भर और फिर देश का अग्रिम राज्य बनाने का आश्वासन दिया जा रहा है क्या उस पर भरोसा किया जा सकता है। क्या सरकार यह जनता के सामने स्पष्ट करेगी कि उसने करों और शुल्क के अतिरिक्त प्रदेश में सरकारी क्षेत्र में क्या उत्पादित किया जिससे अमुक स्थायी राजस्व बढ़ा है। हिमाचल प्रदेश में उद्योगों को लाने के लिये जितना सरकारी निवेश किया गया है उसके मुकाबले में उद्योगों से टैक्स और रोजगार उसके अनुपात में बहुत कम मिला है। पर्यटन में तो सरकारी होटल को बन्द करने की नौबत आ गयी थी। प्रदेश में सीमेंट उत्पादन के साधन है परन्तु सारा प्राइवेट सैक्टर में है सरकार इस उद्योग में क्यों नहीं आयी इसका आज तक कोई जवाब नहीं आया है। अब यही स्थिति विद्युत उत्पादन में होती जा रही है। सरकार पूरे विद्युत क्षेत्र को प्राइवेट सैक्टर के हवाले करने की नीति पर चल रही है। जब तक सरकारी क्षेत्र में उत्पादन के साधन नहीं बनाये जाते हैं तब तक प्रदेश की हालत नहीं सुधरेगी। कर्ज से प्रदेश की हालत नहीं सुधरेगा यह तय है।

व्यवस्था परिवर्तन ने पंहुचाया व्यवस्था अतिक्रमण तक

सुक्खू सरकार ने जब प्रदेश की सत्ता संभाली थी तब शासन का सूत्र जनता के सामने व्यवस्था परिवर्तन का रखा था। इस व्यवस्था परिवर्तन को कभी भी परिभाषित नहीं किया गया था। जबकि देश की व्यवस्था संविधान के तहत चलती है। जिसमें संसद द्वारा समय-समय पर संशोधन भी हुये हैं। संविधान के तहत स्थापित प्रशासन को बचाने के लिए रूल्स ऑफ बिजनेस बने हुये हैं। जिसमें एक छोटे से छोटे कर्मचारी से लेकर मुख्य सचिव और मंत्री परिषद तक सबके अधिकार क्षेत्र पूरी तरह से परिभाषित है एक स्थापित नियमावली है। फिर इस सबसे ऊपर जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक लाज सर्वाेपरि रहती है। इस व्यवस्था में से आप क्या बदलना चाहते थे वह अभी तक प्रदेश की जनता को स्पष्ट नहीं हो पाया है उसे समझाने का प्रयास करें। प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को इसलिये सत्ता सौंपी थी वह भाजपा से संतुष्ट नहीं थी। फिर कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के दौरान सत्ता में आने के लिये दस गारंटियां दे रखी थी। इस सब पर भरोसा करते हुये जनता ने आपको सत्ता सौंप दी। सत्ता में आते ही आपने प्रदेश की जनता को यह चेतावनी देकर डरा दिया कि राज्य के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी से लगा कि यह सरकार किसी भी तरह की फिजुल खर्ची नहीं करेगी। लेकिन व्यवहार में आपके खर्चे पिछली सरकार से कई गुना बढ़ गये। इन खर्चों को पूरा करने के लिये आम आदमी पर परोक्ष/अपरोक्ष करों का बोझ डालने और कर्ज लेने की नीति अपना ली। दो वर्षों में 5200 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व प्रदेश की जनता से उगवाया। कर्ज लेने में अब पुरानी सारी सीमाएं लांघ गये। जब आपने सत्ता संभाली थी तब प्रदेश 76000 करोड़ के कर्ज के नीचे था। प्रदेश का कर्ज आज एक लाख करोड़ से बढ़ गया है। यह कर्ज और जनता से वसूला गया राजस्व कहां निवेश हुआ है शायद इसकी कोई जानकारी आपका तंत्र जनता के सामने रखने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि आप कर्मचारियों के हर वर्ग को समय पर वेतन और पैन्शनरों को पैन्शन का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। आज आपको केंद्र से प्रदेश की कर्ज सीमा बढ़ाने का आग्रह करना पड़ रहा है। कंेद्र ने आपको ओ.पी.एस. की जगह यू.पी.एस. अपनाने का सुझाव दिया है। यही स्थिति अन्य गारंटीयों की है हरेक में किन्तु-परन्तु जोड़कर उनका दायरा कम करने का प्रयास किया जा रहा है। बेरोजगारी का मानक बढ़ता जा रहा है। यह सवाल उठने लगा है कि क्या कांग्रेस को प्रदेश की वितीय स्थिति की जानकारी नहीं थी? क्या कांग्रेस ने सत्ता में आने के लिये आम आदमी से झूठ बोला था। क्या जनता में एक भी गारंटी व्यवहारिक शक्ल ले पायी है शायद नहीं। सारी मंत्री परिषद वरिष्ठ विधायकों की है क्या इनको सदन में पारित होते रहे बजटों की समझ नहीं थी। यह स्थापित नियम है कि राज्य सरकारों को अपना राजस्व व्यय अपने ही साधनों से पूरा करना पड़ता है। केवल विकासात्मक आय बढ़ाने वाले कार्यों के लिये ही एक सीमा तक कर्ज लेने का प्रावधान है। जो राज्य कर्ज सीमा बढ़ौत्तरी के लिये सुप्रीम कोर्ट गये थे उन्हें शीर्ष अदालत ने इन्कार कर दिया है। इस वित्तीय स्थिति को सामने रखते आने वाला समय और कठिन होने वाला है। लेकिन सरकार ने प्रशासनिक स्तर पर जो फैसले आज तक ले रखे हैं वह सरकार पर भारी पढ़ने जा रहे हैं। आज सरकार के मुख्य सचिव के सेवाविस्तार को उच्च न्यायालय में चुनौती मिली हुई है क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला सीबीआई ने चला रखा है। सरकार के मुख्य सलाहकारों के खिलाफ मुख्यमंत्री स्वयं बतौर विपक्षी विधायक सदन में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा चुके हैं। पावर कारपोरेशन में व्यापक भ्रष्टाचार ने एक व्यक्ति की जान ले ली है और इस पर सारा शीर्ष प्रशासन उच्च न्यायालय में नंगा हो गया है। प्रशासन में हर स्तर पर व्यवस्था का अतिक्रमण हो रहा है। भ्रष्टाचार को संरक्षण देना सरकार के साथ प्रदेश के स्वास्थ्य पर भी कुप्रभाव डाल रहा है। आज सरकार अपने ही कर्ज भार से दबने के कगार पर पहुंच चुकी है। जिस तरह के आरोप शिमला के एस.पी. ने पत्रकार वार्ता में लगाये हैं उनका जवाब भी देर सवेर जनता की अदालत में तो देना ही पड़ेगा। मुख्यमंत्री को सोचना होगा कि भ्रष्टाचार को संरक्षण देना व्यवस्था परिवर्तन नहीं अतिक्रमण होता है।

ऑपरेशन सिंदूर के बाद उठे सवालों का जवाब कब आयेगा?

पहलगाम की आंतकी घटना के बाद पूरे देश में आतंकवाद के खिलाफ भयंकर रोष था। इस आतंकवाद को सीमा पार से संचालित करार दिये जाने के बाद पूरे विपक्ष ने सरकार को खुला समर्थन देते हुये इससे निपटने के लिये प्रभावी कदम उठाने का आग्रह किया। बल्कि जब सरकार ने इस पर जवाबी कारवाई करने में कुछ समय लगा दिया तब इस देरी के लिए प्रश्न भी पूछे गये। अन्त में सरकार ने सैन्य कारवाई करने का फैसला लिया। पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों को निशाना बनाकर पूरी तरह नष्ट कर दिया। इस कारवाई में सेना ने जो समझ और साहस दिखाया उस पर पूरे देश ने गर्व महसूस किया। लेकिन इस शुरुआत के चौथे दिन ही जब इसमें सीज फायर घोषित कर दी गयी तब देश को इस पर आश्चर्य हुआ क्योंकि भारतीय सेना इसमें लगातार सफल होती जा रही थी तब ऐसे में भारत द्वारा इस सीज फायर की घोषणा करना या इस पर सहमत होना अटपटा सा लगा। लेकिन जब इस युद्ध विराम का श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने लिया और इसकी सूचना भी भारत से पहले दे दी तब से पूरी स्थितियों में एक मोड़ आ गया है। क्योंकि ट्रंप ने इस दखल का तीन बार अपने ब्यानों में श्रेय ले लिया। जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने जब सीज फायर के बाद देश को संबोधित किया तब उन्होंने एक बार भी अपने संबोधन में ट्रंप का जिक्र तक नहीं किया है विपक्ष ने इस पर सर्वदलीय बैठक बुलाने या संसद का सत्र बुलाकर स्थिति स्पष्ट करने की मांग की है लेकिन सरकार ऐसा नही कर रही है। अपने देश और संसद के सामने स्थिति स्पष्ट करने की बजाये सरकार ने सांसदों का एक डेलीगेट विभिन्न देशों में भेजने का निर्णय लिया जो वहां पर भारत का पक्ष रखेंगे।
ऐसे में यह सवाल खड़ा हो गया है देश और संसद या सर्वदलीय बैठक में स्थिति स्पष्ट करने की बजाये विदेशों में अपना पक्ष रखने का विकल्प क्यों चुना गया। क्योंकि जब आई एम एफ ने पाकिस्तान को एक बिलियन डॉलर का ऋण पहलगाम की घटना के बाद स्वीकार किया तब एक देश ने इसका विरोध नहीं किया। जबकि इस कमेटी में भारत समेत पच्चीस देश सदस्य थे। भारत ने इसके विरोध में मतदान करने की बजाये बैठक का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। किसी भी देश का समर्थन इस बैठक में हासिल क्यों नहीं कर पाया इसका जवाब भारत कैसे देगा? भारत-पाक के रिश्ते इस आतंक को लेकर तो देश के विभाजन के बाद से ही बिगड़ने शुरू हो गये थे। हर आतंकी घटना में पाक की परोक्ष/अपरोक्ष में भूमिका रही है। फिर प्रधानमंत्री मोदी पिछले ग्यारह वर्षों में इस विषय पर अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को क्यों नहीं समझा पाये हैं? जबकि भारत तो विश्व गुरु होने का दावा करता आया है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद जिस तरह से विदेश सचिव विक्रम मिस्त्री और उनके परिवार को ट्रोल किया गया उसका क्या जवाब है? कर्नल सोफिया कुरैशी को जिस भाषा में मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह ने अपशब्द कहे हैं उसका अदालत ने तो कड़ा संज्ञान ले लिया लेकिन भाजपा संगठन की इस बारे में आज तक खामोशी का क्या जवाब है। प्रधानमंत्री इस ट्रोल पर क्यों खामोश हैं?
अभी जो सांसद विदेश डैलीगेशन में भेजे जा रहे हैं उनके चयन में उनके दलों को विश्वास में क्यो नहीं लिया गया? जो नाम दलों ने भेजे उनकी जगह सरकार ने दूसरे ही लोगों का चयन क्यों कर लिया? क्या इसमें दलों की सहमति नहीं रहनी चाहिये थी। क्या इसे राजनीति के आईने में नही देखा जायेगा। जब विदेश में इस ट्रोल को लेकर पूछा जायेगा तो क्या जवाब दिया जायेगा? क्योंकि यह वीडियोज तो पूरे विश्व में देखे जा रहे होंगे। पाक पर कारवाई का विदेश मंत्री का वीडियो जिसमें वह कह रहे हैं कि हमने हम्लों की सूचना पहले ही पाकिस्तान को दे दी थी। इसका क्या जवाब दिया जायेगा। आज सबसे पहले अपने देश की जनता, सभी राजनीतिक दलों और संसद के सामने सारी स्थितियां स्पष्ट की जानी चाहिये थी क्योंकि पूरा देश सरकार और सेना के साथ खड़ा रहा है। इसलिये ऑपरेशन सिंदूर के बाद उठे सवालों पर यहां जवाब दिया जाना आवश्यक हो जाता है।

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