शिमला के कोटखाई में 2017 में घटे गुड़िया कांड में पूरी पुलिस जांच टीम को अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाई है। ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि किसी अपराध की जांच के लिये गठित की गई पूरी जांच टीम को ही अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई हो। पुलिस जांच टीम का नेतृत्व एक आई.जी. स्तर के अधिकारी कर रहे थे और टीम में आठ लोग शामिल थे। टीम में आई.जी. से लेकर डी.एस.पी. और सिपाही तक पुलिस कर्मी शामिल थे। पुलिस की कस्टडी में एक व्यक्ति की हत्या हो जाने का आरोप था। इस पूरी टीम को उम्र कैद की सजा होने से पूरे प्रशासनिक तंत्र पर जो सवाल उठ रहे हैं और जो संदेश आम आदमी तक गया है वह अपने में बहुत गंभीर है। क्योंकि इससे आदमी के विश्वास को धक्का लगा है उसे बहाल होने में बहुत वक्त लग जायेगा। क्योंकि यह विश्वास किसी के ब्यानों से नहीं बल्कि तंत्र में बैठे हर व्यक्ति के आचरण से होगा। क्योंकि इस समय जिस तरह के सवाल तंत्र के शीर्ष पर बैठे लोगों से लेकर नीचे तक के लोगों पर लग रहे हैं वह महत्वपूर्ण है। यह सही है कि इस सजा के बाद अपील के दरवाजे शीर्ष अदालत तक खुले हैं। लेकिन वहां तक पहुंचने में कितना वक्त लगेगा और कितने लोग दोष मुक्त हो पाते हैं यह इन्तजार करना भी अपने में एक त्रासदी होगी। इस गुड़िया प्रकरण को लेकर जिस तरह का जनाक्रोष 2017 में उभरा था और उसी के कारण इस मामले की जांच प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रदेश की एस.आई.टी. से लेकर सीबीआई को सौंप दी थी।
स्मरणीय है कि 4 जुलाई 2017 को गुड़िया स्कूल से गायब हो गई और 6 जुलाई को उसका शव जंगल में बरामद हुआ। 7 जुलाई को पोस्टमार्टम हुआ 10 जुलाई को सरकार ने आई.जी. जैदी के नेतृत्व में एस.आई.टी. गठित कर दी। 13 जुलाई को एस.आई.टी. ने पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया और 18 जुलाई को पुलिस की हिरासत में सूरज की कोटखाई पुलिस स्टेशन में मौत हो गई। 19 जुलाई को प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह पूरा प्रकरण सी.बी.आई. को ट्रांसफर कर दिया और 29 अगस्त को सीबीआई ने जैदी समेत 8 पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार कर लिया। 11 अप्रैल 2021 को सी.बी.आई. कोर्ट ने लकड़ी चिरानी नीलू को गुड़िया की हत्या और रेप के लिये आजीवन कारावास की सजा सुना दी। अब 18 जनवरी 2025 को सी.बी.आई. अदालत ने जैदी और सात अन्य पुलिस कर्मियों को दोषी करार दे दिया। इससे केवल डी.डब्लयू. नेगी ही बरी हुये। 27 जनवरी को सभी दोषियों को उम्र कैद की सजा सुना दी गई। इस मामले में जैदी ने किस तरह एस सौम्य को अपना ब्यान बदलने का दबाव डाला यह सौम्य द्वारा अदालत में दी गई शिकायत से सामने आ चुका है। पूरे प्रकरण में एक भी पुलिसकर्मी का यह चरित्र सामने नहीं आया है कि उसने निष्पक्षता से कुछ कहने का प्रयास किया हो। जबकि पुलिस हिरासत में ही उसकी मौत हुई थी और इसके लिये इन पुलिस कर्मियों के अतिरिक्त और कोई जिम्मेदार हो नहीं सकता था।
ऐसे में जब पुलिस कर्मियों का सामूहिक चरित्र इस तरह का सामने आयेगा तो निश्चित रूप से पुलिस पर से आम आदमी का विश्वास उठता चला जायेगा। यह अक्सर देखा गया है कि पुलिस गैर संज्ञेय मामलों को संज्ञेय बनाने के लिये ऐसी धाराएं जोड़ देती है जिसका कोई जमीनी आधार ही होता है। ऐसा या तो बड़े अधिकारियों या फिर राजनीतिक दबाव में किया जाता है। गुड़िया प्रकरण में जनाक्रोस बड़ा तो यह दबाव आया कि अपराधियों को जल्द से जल्द पकड़ा जाये। तब पुलिस सूरज आदि कुछ लोगों को पकड़ चुकी थी और उन्हीं को अपराधी प्रमाणित करने की कवायत कर रही थी। इसी कवायत में जैदी ने पत्रकार सम्मेलन में यह दावा कर दिया कि वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर गिरफ्तारियां की गयी हैं। लेकिन सी.बी.आई. अदालत में इन वैज्ञानिक साक्ष्यों का कोई जिक्र तक नहीं आया है। इससे यह सामने आता है कि पुलिस निष्पक्षता से अपना काम नहीं कर रही थी। या तो वह राजनीतिक नेतृत्व के सामने यह प्रदर्शित करना चाह रही थी कि उसने मामले के असली गुनहगारों को पकड़ लिया है या किसी को बचाने के लिये वह सूरज आदि पर भी दोष सिद्ध करने की कवायत में लग गयी थी। इस समय पूरे तंत्र की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। जिस तरह से रेरा द्वारा लाखों के सब खरीद कर उपहार स्वरूप बांटे गये हैं वह सरकारी धन के दुरुपयोग और अपनी शक्तियों से बाहर जाने का पुख्ता मामला बनता है। यह मामला और इसके तथ्य सार्वजनिक रूप से सामने आ चुके हैं। इस पर सोर्स रिपोर्ट बनाकर विजिलैन्स स्वयं भी मामला दर्ज कर सकती है। या सरकार भी इस पर तुरन्त कारवाई के निर्देश दे सकती है। अब यही मामला प्रमाणित कर देगा की तंत्र अपना विश्वास जनता में बनाये रखने के लिये क्या चयन करता है।
पिछले वर्ष हुये लोकसभा और विधानसभा चुनावों के समय यह वैधानिक वस्तुस्थिति थी। हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव में यह अनुमान लगाये जा रहे थे की इन राज्यों में कांग्रेस और इण्डिया गठबंधन निश्चित रूप से जीत हासिल करेगा। लेकिन चुनाव परिणामों में परिणाम भाजपा के पक्ष में रहे। इसके बाद ईवीएम मशीनों और चुनाव आयोग पर जो गंभीर आरोप लगे उनमें आयोग पर चुनाव डाटा जारी करने में गड़बड़ी के आरोप लगे। मशीनों की बैटरी चार्जिंग प्रतिशतता पर सवाल उठे। मतदान के आंकड़ों पर सवाल उठे। चुनाव आयोग के पास प्रमाणों के साथ शिकायतें दायर हुई। जिन्हें आयोग ने अस्वीकार कर दिया। महाराष्ट्र में तो कुछ गांव में कांग्रेस इण्डिया गठबंधन को एक भी वोट नहीं मिलने के तथ्य सामने आये। ग्रामीणों ने ईवीएम मशीनों की प्रमाणिकता के लिये मॉक पोलिंग का सहारा लिया जिसे चुनाव आयोग ने रोक दिया। लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले बने और कुछ को जेल तक जाना पड़ा। हरियाणा में लोगों ने अदालत का रुख किया। पंजाब एण्ड हरियाणा उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सारा रिकॉर्ड और सी.सी.टी.वी फुटेज का डाटा उपलब्ध करवाने की मांग की गई। उच्च न्यायालय ने यह डाटा देने के आदेश कर दिये। लेकिन जिस दिन यह आदेश हुये उसी दिन इस संबंध में कानून बनाकर यह डाटा देने पर रोक लगा दी गई। अब यह मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंच गया है। लेकिन चुनाव आयोग ने यह डाटा देने से इसलिये मना कर दिया है कि इसमें करोड़ों घंटों की रिकॉर्डिंग है जिसे खंगालने में 36 वर्ष लग जायेंगे। आयोग के इस तर्क से मशीनों और आयोग पर उठते सवाल स्वतः ही और गंभीर हो जाते हैं क्योंकि किसी को भी वही डाटा/फुटेज देखने की आवश्यकता होगी जहां पर गड़बड़ी की आशंका होगी। इस प्रकरण में हरियाणा के सिरसा जिले के रानिया विधानसभा क्षेत्र के चुनाव परिणाम आने पर कांग्रेस प्रत्याशी सर्वमित्र कंबोज इनेलो के अर्जुन चौटाला से हार गये। इस हार के बाद उन्होंने नो बूथों पर ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी के मिलान और जांच के लिये आवेदन कर दिया। आवेदन के साथ 4,34,000 की फीस भी जमा करवा दी। उनके आवेदन पर जांच के आदेश भी हो गये। चुनाव में जितने भी प्रत्याशी थे सबको इस जांच के दौरान हाजिर रहने के आदेश हो गये। लेकिन जब चैकिंग की बात आयी तो जिन मशीनों पर वोटिंग हुई थी उनका रिकॉर्ड दिखाने की बजाये वह डाटा डिलीट कर नये सिरे से मॉक वोटिंग करके उसकी गणना करने का आयोग की ओर से फरमान जारी हो गया। इस पर कांग्रेस प्रत्याशी ने सारी प्रक्रिया को वहीं रुकवा दिया। अब यह मामला उच्च न्यायालय और सर्वाेच्च न्यायालय तक जाने की संभावना बन गयी है। चुनाव आयोग के अपने आचरण से ही कई गंभीर शंकाएं उभर जाती हैं।
इस सारे प्रकरण के बाद जो सवाल उठते हैं उनमें सबसे पहला सवाल यह उठता है कि शीर्ष अदालत ने सारा रिकॉर्ड पैंतालीस दिनों तक सुरक्षित रखने का फैसला दिया है। चुनाव परिणाम पर सवाल उठने का हक दूसरे और तीसरे प्रत्याशी को पूरा खर्च जमा करवाने के बाद दिया है। पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह रिकॉर्ड देने का आदेश पारित कर दिया। फिर इस आदेश के बाद कानून बदलकर रिकॉर्ड देने पर रोक का प्रावधान क्यों किया गया? जब महाराष्ट्र में मॉक वोटिंग रोकने के लिये आयोग ने पुलिस बल का प्रयोग करके उसे रोक दिया तो हरियाणा में रानिया विधानसभा में इस मॉक वोटिंग पर आयोग क्यों आया। इस बार चुनाव डाटा देरी से जारी करने का सबसे बड़ा आरोप आयोग पर लगा है। अब जो परिस्थिति अदालत के फैसले और आयोग के आचरण से निर्मित हुई है उसके परिणाम आने वाले समय में बहुत गंभीर होंगे। रानिया में जिस तरह का आचरण सामने आया है उससे अब तक के सारे चुनाव परिणामों पर जो सन्देह आयेगा उसका अंतिम परिणाम क्या होगा यह एक बड़ा सवाल होगा।
इस परिप्रेक्ष में यदि लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार के गठन से लेकर अब तक के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डाली जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बार लोकसभा में मुस्लिम समुदाय से भाजपा के पास एक भी सांसद नहीं है। क्योंकि किसी भी मुस्लिम को भाजपा ने टिकट ही नहीं दिया था। परिणाम स्वरुप केंद्रीय मंत्रिमंडल में मुस्लिम समाज का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इसी के साथ जिस तरह मुस्लिम धर्म स्थलों में खुदाई करने के बाद हिंदू मंदिर आदि मिल रहे हैं उससे भी एक अलग ही संदेश गया है क्योंकि संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने भी इस पर चिंता जताई है। इसी कड़ी में प्रस्तावित वक्फ संशोधन विधेयक को देखा जा रहा है। इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की नीयत और नीति समाज को हिन्दू-मुस्लिम विवाद में डालकर मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास करने की है। सरकार की इस नीति से उन दलों को हताशा हुई है जो मुस्लिम वोट के अपने को हकदार मानते थे। इसी के साथ इस संसद सत्र में जिस तरह से डॉ. अंबेडकर का मुद्दा संसद परिसर में धक्का-मुक्की से शुरू होकर एफ.आई.आर. तक पहुंच गया उससे पूरा दलित समाज अपने को आहत महसूस करने लग गया है। राहुल गांधी इस पर संविधान यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। इसी कड़ी में ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा जुड़ गया है। इससे क्षेत्रीय दलों को कालान्तर में अस्तित्व के खतरे का एहसास होने लगा है। यह मुद्दा जे.पी.सी. को सौंपा गया है और इसके लिये जो दस्तावेज और अन्य सामग्री सदस्यों को उपलब्ध करायी गयी है वह अठारह हजार पन्नों के दस्तावेज है। इन अठारह हजार पन्नों को पढ़ने और समझने में कितना समय लगेगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस तरह जो राजनीतिक परिस्थितियों निर्मित होती जा रही हैं उससे क्षेत्रीय दलों मुस्लिमों और दलित समाज में सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर शंकाएं पैदा होने लग पड़ी है। इसका प्रमाण नीतीश को लेकर उभरी चर्चाओं से सामने आ गया है ।
इस परिदृश्य में इण्डिया गठबंधन के बिखरने से कांग्रेस अपने में स्वतन्त्र हो जाती है। गठबंधन के सारे दल भाजपा, एनडीए के साथ सीधे टकराव में आ जाते हैं। सारे छोटे दलों की चाहे वह किसी भी गठबंधन से रहे हो उनको भविष्य में भी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये एक मंच पर इकट्ठे आकर भाजपा मोदी को चुनौती देना अनिवार्य हो जायेगा। इस समय मोदी-भाजपा अपने में अल्प मत में है इसलिये उन्हें यह चुनौती देना आसान हो जाता है। इनमें नीतीश, ममता, अखिलेश, नायडू, शरद पवार या केजरीवाल कोई भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जाये उसे समर्थन देने में कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी क्योंकि इन दलों की सरकार कांग्रेस के बिना बन नहीं सकती है। यदि यह दल इकट्ठे नहीं होते हैं तो इससे इन्हीं के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगता है और कांग्रेस किसी भी आक्षेप बच जाती है। क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम और एक देश एक चुनाव कांग्रेस का ऐजैण्डा नहीं है। इस समय देश के सामने बड़े सवाल यह है कि देश का जो कर्ज भार 2014 में 56 लाख करोड़ था वह 2024 में 205 लाख करोड़ कैसे हो गया? अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की जो कीमत 2014 में थी आज उससे कम है फिर पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें अब ज्यादा क्यों है? इस दौरान यदि कांग्रेस अपने यहां मौजूद भाजपा के स्लीपर सैलों को निष्क्रिय करने में सफल हो जाती है तो इससे कांग्रेस और देश दोनों का आने वाले समय में भला ही होगा।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में इण्डिया गठबंधन के बिखरने के ऐलान सामने आ चुके हैं। गठबंधन के सभी बड़े दलों ने यह स्पष्ट कर दिया है की गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव तक ही था। अब दिल्ली में आप और कांग्रेस दोनों चुनाव लड़ रहे हैं। अब दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और आप में तिकाना मुकाबला होने जा रहा है। इण्डिया गठबंधन के घटक दलों में से सपा, आर.जे.डी, ममता और शिवसेना उद्धव ठाकरे ने आप को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। वाम दल कांग्रेस के साथ मिलकर यह चुनाव लड़ रहे हैं। इण्डिया के इस बिखराव का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह इस समय का सबसे बड़ा प्रश्न बन गया है। क्योंकि दिल्ली के इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी स्वयं प्रचार में उतर आये हैं और उन्होंने आप को दिल्ली के लिए आपदा की संज्ञा दी है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल है तथा अन्ना आन्दोलन संघ का एक प्रायोजित प्रयोग था। इस पृष्ठभूमि में दिल्ली चुनाव के माध्यम से ही इस घटनाक्रम का आकलन किया जाना चाहिये। दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास उतना ही काम है जितना वहां की नगर निगम के पास है। क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले के बाद संसद ने सारे अधिकार एल.जी को सौंप दिये हैं। ऐसे में दिल्ली विधानसभा चुनाव की प्रासंगिकता व्यवहारिक रूप से केवल राजनीतिक ही रह जाती है। भाजपा को लोकसभा चुनाव में अबकी बार चार सौ पार का नारा देने के बाद भी दो सौ चालीस ही मिले हैं जबकि राम मंदिर निर्माण की उपलब्धि भी उनके पास थी। इस बार मोदी ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं जो नीतीश और नायडू के समर्थन पर टिकी हुई है। इसलिए यह माना जा रहा है कि भाजपा-मोदी-शाह लोकसभा में अपना बहुमत बनाने के लिये समर्थन घटक दलों में तोड़फोड़ करने के लिए बाध्य हो जायेंगे। घटक दलों को यह संदेश देने के लिये कि देश को चलाने के लिए मोदी और भाजपा अनिवार्य हो गये हैं इसलिये उन्हें अपना विलय भाजपा में कर देना चाहिये। इस परिप्रेक्ष में यदि लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार के गठन से लेकर अब तक के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डाली जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बार लोकसभा में मुस्लिम समुदाय से भाजपा के पास एक भी सांसद नहीं है। क्योंकि किसी भी मुस्लिम को भाजपा ने टिकट ही नहीं दिया था। परिणाम स्वरुप केंद्रीय मंत्रिमंडल में मुस्लिम समाज का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इसी के साथ जिस तरह मुस्लिम धर्म स्थलों में खुदाई करने के बाद हिंदू मंदिर आदि मिल रहे हैं उससे भी एक अलग ही संदेश गया है क्योंकि संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने भी इस पर चिंता जताई है। इसी कड़ी में प्रस्तावित वक्फ संशोधन विधेयक को देखा जा रहा है। इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की नीयत और नीति समाज को हिन्दू-मुस्लिम विवाद में डालकर मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास करने की है। सरकार की इस नीति से उन दलों को हताशा हुई है जो मुस्लिम वोट के अपने को हकदार मानते थे। इसी के साथ इस संसद सत्र में जिस तरह से डॉ. अंबेडकर का मुद्दा संसद परिसर में धक्का-मुक्की से शुरू होकर एफ.आई.आर. तक पहुंच गया उससे पूरा दलित समाज अपने को आहत महसूस करने लग गया है। राहुल गांधी इस पर संविधान यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। इसी कड़ी में ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा जुड़ गया है। इससे क्षेत्रीय दलों को कालान्तर में अस्तित्व के खतरे का एहसास होने लगा है। यह मुद्दा जे.पी.सी. को सौंपा गया है और इसके लिये जो दस्तावेज और अन्य सामग्री सदस्यों को उपलब्ध करायी गयी है वह अठारह हजार पन्नों के दस्तावेज है। इन अठारह हजार पन्नों को पढ़ने और समझने में कितना समय लगेगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस तरह जो राजनीतिक परिस्थितियों निर्मित होती जा रही हैं उससे क्षेत्रीय दलों मुस्लिमों और दलित समाज में सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर शंकाएं पैदा होने लग पड़ी है। इसका प्रमाण नीतीश को लेकर उभरी चर्चाओं से सामने आ गया है ।इस परिदृश्य में इण्डिया गठबंधन के बिखरने से कांग्रेस अपने में स्वतन्त्र हो जाती है। गठबंधन के सारे दल भाजपा, एनडीए के साथ सीधे टकराव में आ जाते हैं। सारे छोटे दलों की चाहे वह किसी भी गठबंधन से रहे हो उनको भविष्य में भी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये एक मंच पर इकट्ठे आकर भाजपा मोदी को चुनौती देना अनिवार्य हो जायेगा। इस समय मोदी-भाजपा अपने में अल्प मत में है इसलिये उन्हें यह चुनौती देना आसान हो जाता है। इनमें नीतीश, ममता, अखिलेश, नायडू, शरद पवार या केजरीवाल कोई भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जाये उसे समर्थन देने में कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी क्योंकि इन दलों की सरकार कांग्रेस के बिना बन नहीं सकती है। यदि यह दल इकट्ठे नहीं होते हैं तो इससे इन्हीं के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगता है और कांग्रेस किसी भी आक्षेप बच जाती है। क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम और एक देश एक चुनाव कांग्रेस का ऐजैण्डा नहीं है। इस समय देश के सामने बड़े सवाल यह है कि देश का जो कर्ज भार 2014 में 56 लाख करोड़ था वह 2024 में 205 लाख करोड़ कैसे हो गया? अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की जो कीमत 2014 में थी आज उसस्ै कम है फिर पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें अब ज्यादा क्यों है? इस दौरान यदि कांग्रेस अपने यहां मौजूद भाजपा के स्लीपर सैलों को निष्क्रिय करने में सफल हो जाती है तो इससे कांग्रेस और देश दोनों का आने वाले समय में भला ही होगा। इण्डिया गठबंधन के बिखरने का अर्थ
राष्ट्रीय प्रोटोकॉल के तहत स्व.डॉ. मनमोहन सिंह का अन्तिम संस्कार कहां किया जायेगा यह केन्द्र सरकार को तय करके डॉ. मनमोहन सिंह के परिवार को सूचित करना था। लेकिन केन्द्र सरकार सुबह 11ः30 बजे मंत्रिमण्डल की बैठक करने के बाद भी शाम तक इसकी सूचना नहीं दे सकी जबकि परिवार और कांग्रेस पार्टी द्वारा इसके लिये आग्रह किया गया था कि उनका संस्कार राजघाट पर किया जाये। लेकिन सरकार राजघाट पर जगह चिन्हित नहीं कर पायी। इस पर प्रियंका गांधी ने स्व.इंदिरा गांधी और स्व. राजीव गांधी के स्मारक स्थलों में जमीन चिन्हित करके स्व.डॉ. मनमोहन सिंह का अन्तिम संस्कार वहां करने और स्मारक बनाने की पेशकश कर दी। इसके बाद जो वाद-विवाद सामने आया उसमें यहां तक आरोप लगा की सरकार ने स्व.डॉ. मनमोहन सिंह का नीयतन अपमान करके एक नया मुद्दा खड़ा कर दिया है। स्व.डॉ. मनमोहन सिंह के देहान्त की खबर आने के बाद अन्तिम संस्कार तक बीच में जितना वक्त था उसमें केन्द्र सरकार सारे फैसले समय पर लेकर डॉ. साहब के परिवार और कांग्रेस पार्टी को सूचित कर सकती थी। जबकि प्रोटोकॉल के अनुसार यह केन्द्र को ही करना था। लेकिन केन्द्र सरकार ऐसा नहीं कर पायी। केन्द्र की यह चूक नीयतन हुई या अनचाहे ही हो गयी। इसका फैसला आने वाला समय करेगा। लेकिन स्व.डॉ मनमोहन सिंह जिस व्यक्तित्व के मालिक थे और देश के लिये जो योगदान उनका रहा है उसको सामने रखते हुये यदि केन्द्र का आचरण नीयतन रहा है तो यह सरकार पर भारी पड़ेगा।
जो लोग स्व.डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और उस दौरान उठे अन्ना आन्दोलन की बात करते हैं उनको यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उन्ही के कार्यकाल में केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ कारवाई हुई। यह अब स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है कि अन्ना आन्दोलन एक प्रायोजित कार्यक्रम था। डॉ.सिंह के ही कार्यकाल में कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ कारवाई हुई। उन्होंने ही लोकपाल विधेयक लाया। लेकिन जिस लोकपाल के लिये अन्ना आन्दोलन हुआ उसके तहत कितने मामलों की जांच पिछले एक दशक में हुई वह अभी तक सामने नहीं आयी है। विनोद राय सी ए जी की जिस रिपोर्ट पर टू जी स्कैम का आरोप लगा और 1,76,000 करोड़ के घपले का आरोप लगा। उसकी जांच में विनोद राय ने यह खेद क्यों प्रकट किया कि उनको गणना में गलती लग गई थी। इन तथ्यों के परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि स्व. डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार पर लगे आरोपों का सच क्या है। इसलिये आज उनके निधन के बाद उनके अपमान का मुद्दा कहीं कुछ बड़ा न हो जाये इसकी आशंका उभरने लगी है।
इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा-मोदी चार सौ पार का नारा लेकर चले थे। राम मन्दिर का निर्माण भाजपा का बड़ा संकल्प था। उसकी प्राण-प्रतिष्ठा का आयोजन भी सारे सवालों के बावजूद चुनावी गणित को सामने रखकर करवा दिया। लेकिन यह सब करने के बाद भी लोकसभा में भाजपा का आंकड़ा 240 पर आकर रुक गया। लोकसभा के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र की चुनावी जीत में फिर ईवीएम का मुद्दा आकर खड़ा हो गया। महाराष्ट्र में यह मुद्दा जो आकार लेने जा रहा है उसके परिणाम गंभीर होंगे। इसी बीच अमेरिका में गौतम अडानी के खिलाफ एक भ्रष्टाचार का मामला वहां की अदालत तक पहुंच गया। यहां विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकार को घेर लिया। अडानी और ईवीएम दो मुद्दे विपक्ष के हाथ लग गये। इसी बीच संसद में संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर चर्चा की बात उठ गयी ईवीएम के मुद्दे पर ममता और उमर अब्दुल्ला तथा सपा कांग्रेस से अलग हो गये। इसी बीच प्रधान मंत्री ने संसद के इसी सत्र में ‘एक देश एक चुनाव’ लाकर खड़ा कर दिया। इन मुद्दों की चर्चा में संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया गृह मंत्री अमित शाह की ओर से आयी उसने पूरे देश में दलित समाज को एक बड़ा मुद्दा दे दिया। इण्डिया गठबंधन जो अपरोक्ष में अडानी और परोक्ष में ईवीएम के मुद्दे पर बिखरने के कगार पर पहुंच गया था उसे ‘एक देश एक चुनाव’ और डॉ. अम्बेडकर के मुद्दों ने फिर अनचाहे ही संसद में इकट्ठा कर दिया।
‘एक देश एक चुनाव’ तो कमेटी को चला गया है। लेकिन अम्बेडकर के मुद्दे को लेकर विपक्ष पूरी तरह अडिग है। गृह मंत्री अमित शाह के त्यागपत्र की मांग की जा रही है। प्रधानमंत्री यह मांग स्वीकारने की स्थिति में नहीं है। राज्यसभा में सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आ चुका है। वक्फ संशोधन विधेयक भी अभी कमेटी के पास ही है। वक्फ पर नीतीश और चन्द्रबाबू नायडू का समर्थन सरकार को मिल ही जायेगा यह निश्चित नहीं है। संघ और भाजपा के रिश्ते अभी तक ज्यादा सुधार नहीं पाये हैं और इसी कारण भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन नहीं हो पाया है। इस वस्तु स्थिति में जब संसद में विपक्ष नियमित विरोध प्रदर्शन की रणनीति पर चल रहा हो तो सरकार के लिए स्थितियां सुखद नहीं हो सकती। जब इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही हो तो सरकार के लिये और भी असहज स्थिति हो जाती है। क्योंकि ‘एक देश एक चुनाव’ के मुद्दे ने कई बुनियादी संवैधानिक सवाल खड़े कर दिये है।ं देश में 1967 तक सारे चुनाव एक साथ होते थे क्योंकि तब कहीं यह नहीं था कि किसी राज्य विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा से आगे पीछे हो रहा हो। केवल 1959 में केरल में अपवाद की स्थिति बनी जब वहां राष्ट्रपति शासन लगा था। लेकिन आज पूरे देश की स्थिति बदली हुई है। ऐसे में यह कैसे संभव हो सकेगा कि विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा के कार्यकाल पर निर्भर करेगा। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिनसे यह आशंका बलवती हो गई है कि इस विधेयक के माध्यम से क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को खतरा हो गया। इस स्थिति को अधिनायक वाद के पहले कदम के रूप में देखा जा रहा है।
इस वस्तुस्थिति में जो कुछ संसद परिसर के अन्दर घटा है और पुलिस जांच तक जा पहुंचा है उसके परिणामों को धैर्य से देखने तथा समझने की आवश्यकता होगी। यह देश के भविष्य की दिशा में एक बड़ा कदम प्रमाणित होगा। इसमें कांग्रेस को अपने प्रदेशों के नेतृत्व पर कड़ी नजर बनाये रखनी होगी।