Thursday, 18 September 2025
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संविधान की 75वीं वर्ष गांठ-कुछ सवाल

संसद में संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर चर्चा चल रही है। संविधान की इस चर्चा में हमारे माननीय सांसद भाग ले रहे हैं। लेकिन जिस तरह की चर्चा सामने आ रही है उससे यही निकल कर सामने आ रहा है कि शायद यह चर्चा पक्ष और विपक्ष में एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतियोगिता मात्र है। जबकि संसद के मंच का उपयोग ऐसे गंभीर मुद्दों की चर्चा का केन्द्र होना चाहिए था जो वर्तमान की आशंकाओं पर माननीय का ध्यान केंद्रित करता। पिछले लोकसभा चुनाव में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी हर छोटी बड़ी जनसभा में संविधान की प्रति साथ लेकर जाते थे और जनता को यह समझाने का प्रयास करते रहे हैं कि संविधान को बदला जा रहा है। राहुल गांधी की इस आशंका का यह प्रभाव पड़ा की जनता ने भाजपा को अपने अकेले के दम पर ही सरकार बनाने का बहुमत नहीं दिया। ऐसे में यह सवाल उभरना स्वभाविक है कि राहुल गांधी की इस आशंका का आधार क्या था। संविधान को लागू हुए 75 वर्ष हो गये हैं। 2024 तक संविधान में एक सौ छः संशोधन हो चुके हैं। यह संशोधन इस बात का प्रमाण है कि हमारा संविधान सामायिक सवालों के प्रति कितना गंभीर हैं। इसी के साथ हमारे संविधान की यह भी विशेषता है कि इसके मूल स्वरूप में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता।
भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातिय देश है। इसके इसी चरित्र को सामने रखकर संविधान निर्माताओं ने देश के हर नागरिक को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक बराबरी का दर्जा दिया है। सरकार का चरित्र धर्मनिरपेक्ष रखा। सरकार का व्यवहार सभी धर्मों के प्रति एक सम्मान रहेगा। किसी के साथ भी जाति और लिंग के आधार पर गैर बराबरी का व्यवहार नहीं किया जा सकता। लेकिन पिछले कुछ अरसे से संविधान के इस स्वरूप के साथ व्यवहारिक रूप से हटकर आचरण देखा गया। गौ रक्षा और लव जिहाद के नाम पर भीड़ हिंसा हुई और इस हिंसा पर प्रशासन लगभग तटस्थ रहा। आर्थिक मुहाने पर संसाधनों को प्राईवेट हाथों में सौंपा गया। देश की अधिकांश आबादी को सरकारी राशन पर आश्रित होना पड़ा। कोविड काल में आये लॉकडाउन में आपातकाल से भी ज्यादा कठिन हो गया जीवन यापन। यह शायद पहली बार देखने को मिला की महामारी को भगाने के लिये ताली, थाली बजायी गयी और दीपक जलाये गये।
कोविड के इसी काल में संघ प्रमुख मोहन भागवत के नाम से भारत के संविधान का एक बारह पृष्ठों का एक बुकलेट वायरल हुआ जिसमें महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिया गया। पूरे समाज पर ब्राह्मण समाज का वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास था। इस पर संघ कार्यालय नागपुर और पीएमओ के नाम पर सुझाव आमन्त्रित किये गये थे। लेकिन इस वायरल हुये प्रलेख पर न तो संघ कार्यालय और न ही पीएमओ से कोई खण्डन जारी हुआ। उत्तर प्रदेश में दो जगह अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज तो हुए लेकिन उन पर हुई कारवाई आज तक सामने नहीं आयी। इसी बीच मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन का फैसला आ गया जिसमें उन्होंने देश को धर्मनिरपेक्ष के स्थान पर पड़ोसी देशों की तर्ज पर धार्मिक देश बना दिये जाने का फैसला दिया। इस फैसले की प्रतियां प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और राष्ट्रपति तक को प्रेषित हुई। कुछ लोग इस फैसले के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय भी पहुंचे। इसी परिदृश्य में केन्द्र में सतारूढ़ दल से मुस्लिम समाज के लोग संसद और सरकार से बाहर हो गये। क्या यह सारी स्थितियां संविधान को बदले जाने की आशंकाओं की ओर इंगित नहीं करते?
आज देश में क्या धर्म के नाम पर एक और विभाजन का जोखिम उठाया जा सकता है शायद नहीं? क्या आर्थिक संसाधनों की मलकियत किसी एक आदमी के हाथ में सौंपी जा सकती है। जिस देश में आज भी 80 करोड़ लोग सरकार के राशन पर आश्रित रहने को मजबूर हों उसके विकास के दावों को किस तराजू में तोला जा सकता है। इस समय संसद में इन आशंकाओं पर एक विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।

विपक्ष के विरोध का जवाब उपलब्धियों के विज्ञापन

हिमाचल सरकार सत्ता में दो वर्ष होने पर बिलासपुर में एक राज्य स्तरीय आयोजन करने जा रही है। परन्तु विपक्षी दल भाजपा इस आयोजन को लेकर आक्रोश दिवस मनाने जा रही है। भाजपा ने पूरे प्रदेश में जगह-जगह रैलियां करके अपने रोष को जनआक्रोश की संज्ञा दे दी है। भाजपा जिस अनुपात में इन रैलिया का आयोजन कर रही है सुक्खू सरकार उसी अनुपात में अपनी दो वर्ष की उपलब्धियों को लगातार विज्ञापन जारी करके भाजपा को जवाब दे रही है। विज्ञापनों के माध्यम से आधिकारिक रूप से सरकार की उपलब्धियां जनता के सामने आ रही है। अब जनता इन उपलब्धियां को अपने आसपास जमीन पर देखने का प्रयास करेगी और फिर सरकार को लेकर अपनी राय बनाएगी। सरकार लगातार अपने व्यवस्था परिवर्तन के सूत्र का महिमा मण्डन कर रही है। सरकार ने पहले दिन विज्ञापन जारी करके अपनी एक बड़ी उपलब्धि लैंड सीलिंग एक्ट में पिछले वर्ष संशोधन करके बेटियों को उनका हक देने की बात की है। 1971 से लागू हुये लैंड सीलिंग एक्ट में 2023 में संशोधन किया गया है। विधानसभा से पारित होकर यह संशोधन राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए गया है। अभी तक राष्ट्रपति की इस संशोधन को स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई है। जब तक यह संशोधन राष्ट्रपति से स्वीकृति मिलने के बाद राजपत्र में अधिसूचित नहीं हो जाता है तब तक यह कानून नहीं बनता है। इस संशोधन की स्वीकृति के बाद कितना क्या कुछ खुलेगा यह अगली बात है। लेकिन अभी इस संशोधन को कानून का आकार लेने से पहले ही इस तरह से उपलब्धि गिनाना अपने में कई सवाल खड़े करता है। और भी जो-जो उपलब्धियां दर्ज की गई है उनके आंकड़े बहुत ज्यादा सरकार के 2023-24 के आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों से मेल नहीं खाते हैं।
उपलब्धियां के विज्ञापनों से हाईकमान को प्रभावित किया जा सकता है लेकिन आम आदमी को नहीं जो जमीन पर भुक्तभोगी है। गांव में पता है कि किसके बच्चों को सरकार में नौकरी मिली है और किसके बच्चे की नौकरी चली गई। स्कूलों में अध्यापकों के कितने पद खाली है और कितने अस्पतालों में डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ नहीं है। इस समय आवश्यकता सौ बीघा में खोले जा रहे राजीव गांधी डे-बोर्डिंग स्कूलों की नहीं है बल्कि जो स्कूल चल रहे हैं उन्हें सुचारू रूप से चलाने की आवश्यकता है। जो अटल आदर्श विद्यालय खोले गये थे उनकी परफॉरमैन्स जनता के सामने रखने की आवश्यकता है। क्या वह सारे विधानसभा क्षेत्र में खोले जा चुके हैं? एक राजीव गांधी डे-बोर्डिंग स्कूल खोलने पर कितना खर्च आयेगा? सभी विधानसभा क्षेत्र में यह स्कूल खोलने में कितने वर्ष लगेंगे? क्या अटल आदर्श विद्यालय और राजीव गांधी डे-बोर्डिंग स्कूल में जाने की इच्छा हर बच्चे और उनके मां-बाप की नहीं होगी? क्या हम इस तरह के प्रयोग शिक्षा जैसे क्षेत्र में सरकारी स्तर पर करके समाज में भेदभाव की नीव नहीं डाल रहे हैं? शिक्षा स्वास्थ्य और न्याय तो सबको मुफ्त मिलना चाहिए क्या हम उसके लिये ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं।
इस समय सरकार को हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। यदि कर्ज की यही गति रही तो पांच वर्ष पूरे होने तक इतना कर्ज हो जायेगा कि आगे प्रदेश को चलाना कठिन हो जायेगा। इसलिए इस अवसर पर ऐसा बड़ा आयोजन करने की बजाये इस पर मंथन होना चाहिये था की आम आदमी को राहत कैसे उपलब्ध हो पायेगी। क्योंकि सरकार ने व्यवस्था परिवर्तन के और वित्तीय संसाधन जुटाने के नाम पर केवल आम आदमी पर करों और कर्ज का बोझ ही बढ़ाया है। इस आयोजन के बाद सरकार के यह दावे सरकार के सामने सवाल बनकर खड़े हो जायेंगे यह तय है। विपक्ष के विरोध का जवाब दावों के विज्ञापन एक अच्छी राजनीति हो सकती है लेकिन जब यह दावे जमीन पर नजर नहीं आयेंगे तब स्थिति कुछ और ही हो जायेगी।

प्रदेश का वित्तीय संकट कुछ सवाल

इस समय हिमाचल जिस वित्तीय मुकाम पर आ पहुंचा है उसमें कुछ ऐसे बुनियादी सवाल खड़े हुये हैं जिनको और अधिक समय के लिए नजरअन्दाज कर पाना संभव नहीं होगा। आज प्रदेश के हर व्यक्ति पर 1.17 लाख का कर्ज है। बेरोजगारी में प्रदेश देश के छः राज्यों की सूची में आ पहुंचा है। सरकार को हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। बल्कि इस कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लिया जा रहा है। कर्मचारियों के वेतन और पैन्शन का ही प्रतिमाह प्रतिबद्ध खर्च करीब 2000 करोड़ है। सरकार अप्रैल से दिसम्बर तक केवल 6200 करोड़ का ही कर्ज ले सकते हैं और यह सीमा पूरी हो चुकी है। जनवरी से मार्च की तिमाही में कितना कर्ज मिल पायेगा यह आगे फैसला होगा। पिछले वर्ष 2023-24 में जनवरी से मार्च के बीच केवल 1700 करोड़़ मिला था। अगले वर्ष कर्ज की सीमा 6200 करोड़ से कम रहेगी। इस गणित से यदि जनवरी से मार्च में 1700 करोड़ भी मिल जाता है तब भी गुजारा नहीं हो पायेगा क्योंकि वेतन और पैन्शन के लिये ही प्रतिमाह 2000 करोड़ चाहिए। इस वस्तुस्थिति से स्पष्ट हो जाता है कि वित्तीय संकट का आकार कितना बड़ा है और इसके परिणाम कितने गंभीर होंगे। इस वस्तुस्थिति में यह सवाल उठता है कि इस संकट के लिये जिम्मेदार कौन है? हिमाचल में 1977 के बाद उद्योगों को प्रदेश में आमंत्रित करने की योजना बनाई गई। इस योजना के तहत औद्योगिक क्षेत्र चिह्नित किये गये। उद्योगों को हर तरह की सब्सिडी दी गई। प्रदेश की वित्त निगम से कर्ज दिया गया। खादी बोर्ड ने भी इसमें सहयोग दिया। लेकिन आज इन उद्योगों की सहायता करने वाले वित्त निगम और खादी बोर्ड जैसे आदारे खुद डूब चुके हैं। इन्हें अपने कर्जदारों को ढूंढने के लिये इनाम योजनाएं तक लानी पड़ी। अधिकांश उद्योगों का आज पता ही नहीं है कि वह कहां है। सस्ते बिजली की उपलब्धता, सस्ती जमीन की उपलब्धता और सब्सिडी मिलने के नाम पर स्थापित हुए उद्योगों का व्यवहारिक सच यह है कि जितनी भी सब्सिडी राज्य और केन्द्र से इन्हें दी जा चुकी है उसका आंकड़ा उनके मूल निवेश से कहीं ज्यादा है। कैग रिपोर्ट और उद्योग विभाग की अपनी रिपोर्ट में यह दर्ज है। रोजगार के नाम पर भी इनका आंकड़ा सरकार के रोजगार से कहीं कम है। उद्योग की सफलता के दो मूल मानक हैं कि या तो क्षेत्र में कच्चा माल उपलब्ध हो या तैयार माल का उपभोक्ता हो। परन्तु हिमाचल में यह दोनों ही स्थितियां नहीं है। इसलिये यह उद्योग प्रदेश पर भारी पड़ रहे हैं। सरकार की थोड़ी सी सख्ती से पलायन पर आ रहे हैं। उद्योगों के साथ ही हिमाचल को पर्यटन हब बनाने की कवायत शुरू हुई। इसमें होटल उद्योग आगे आया। इसके लिए जमीन खरीद को आसान बनाने के लिए धारा 118 में कई रियायतें दी गई। जिस पर एक समय हिमाचल ऑन सेल के आरोप तक लगे। इन आरोपों की जांच के लिये तीन बार जांच आयोग गठित हुई है। लेकिन आयोग की जांच रिपोर्ट पर क्या कारवाई हुई है कोई नहीं जानता। पर्यटन के साथ ही हिमाचल को बिजली राज्य बनाने की मुहिम चली। प्राइवेट सैक्टर को इसमें निवेश के लिए आमंत्रित किया गया। बिजली बोर्ड से प्रोजेक्ट लेकर प्राइवेट निवेशों को दिये गये। इनमें जो बिजली बोर्ड का निवेश हो चुका था उसे ब्याज सहित लौटाने के अनुबंध हुये। परन्तु यह निवेश वापस नहीं आया। कैग की प्रतिकूल टिप्पणीयांे का भी कोई असर नहीं हुआ। जल विद्युत परियोजनाओं के कारण पर्यावरण का जो नुकसान हुआ है उस पर अभय शुक्ला कमेटी की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। पिछले दिनों जो प्राकृतिक आपदाएं प्रदेश पर आयी थी। बादल फटने की घटनाएं इसका कारण भी इन परियोजनाओं का क्षेत्र ही ज्यादा रहा है। जिस बिजली उत्पादन से प्रदेश की सारी आर्थिक समस्याएं हल हो जाने का सपना देखा गया था। आज उसी के कारण प्रदेश का संकट गहराता जा रहा है। हिमाचल की करीब 60% जनसंख्या कृषि और बागवानी पर निर्भर है। लेकिन इसके लिए कोई कारगर योजनाएं नहीं हैं। एक समय स्व.डॉ. परमार ने त्री मुखी वन खेती की वकालत की थी। इसी के लिए बागवानी और कृषि विश्वविद्यालय स्थापित हुये थे लेकिन आज इनकी रिसर्च को खेत तक ले जाने की कोई योजनाएं नहीं है। यदि 60% जनसंख्या को हर तरह से आत्मनिर्भर बना दिया जाये तो प्रदेश का संकट स्वतः ही हल हो जायेगा। वोट के लिये छोटे-छोटे वोट बैंक बनाने और उन्हें मुफ्ती का लालच देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके लिए सरकार को ठेकेदारी की मानसिकता से बाहर आना होगा।

हार के लिये ईवीएम कब तक जिम्मेदार रहेगी

महाराष्ट्र में कांग्रेस शिवसेना उद्धव ठाकरे और एनसीपी का गठबंधन विधानसभा चुनाव हार गया है। लोकसभा चुनाव में जितनी सफलता इस गठबंधन को मिली थी उसको सामने रखते हुये विधानसभा का परिणाम गठबंधन के लिये एक शर्मनाक हार है। इस हार के लिये एक बार फिर चुनाव आयोग और उसकी ईवीएम मशीनों को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है। जबकि इसी आयोग और इन्हीं मशीनों के चलते झारखण्ड में भाजपा की करारी हार हुई है। हरियाणा में भी हार के लिये ईवीएम मशीनों पर दोष डाला गया था। हरियाणा में इस संबंध में लम्बे चौड़े सबूत जुटाकर चुनाव आयोग से शिकायत की गयी थी। लेकिन चुनाव आयोग ने जो जवाब दिया वह एक तरह से कांग्रेस पर ही प्रहार था। आयोग के जवाब के बाद मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंचा दिया गया है। ईवीएम मशीनों और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर लम्बे समय से सवाल उठते आ रहे हैं। इन सवालों की शुरुआत भी एक समय भाजपा ने ही की थी जब वह विपक्ष में थी। हर चुनाव के बाद ईवीएम मशीनों पर सवाल उठते आये हैं। सवाल भी गंभीर होते हैं। सवालों के साथ प्रमाण भी सौंप जाते हैं। लेकिन चुनाव आयोग से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक ने इन्हें सही नहीं माना है। हरियाणा और महाराष्ट्र में मशीनों की बैटरी चार्जिंग के आरोप लगे हैं। इन आरोपों को लेकर आम आदमी भी आयोग की कार्यप्रणाली पर सन्देह करने लग गया है। लेकिन चुनाव आयोग और ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने के बावजूद किसी भी दल ने आज तक इस मुद्दे पर चुनाव का बहिष्कार नहीं किया है।
देश में उन्नीस लाख ईवीएम मशीने गायब होने की जानकारी एक आरटीआई के माध्यम से सामने आयी थी। मामला पुलिस और अदालत तक भी पहुंचा। लेकिन संसद में कभी इस पर प्रश्न नहीं आये और न ही यह किसी नियोजित सार्वजनिक बहस का मुद्दा बना। चुनाव परिणामों पर सवाल उठ रहे हैं। मतदान खत्म होते ही जो आंकड़े जारी किये जाते हैं वही आंकड़े मतगणना के समय बदल जाते हैं यह तथ्य भी जनता के सामने आ चुके हैं। बाहर हर देश मत पत्र से चुनाव करवाने लग गया है। हमारे यहां भी पूरी चुनावी प्रक्रिया में लम्बा समय लगता आ रहा है। मत पत्र से चुनाव न करवाने का तर्क दिया जाता है कि परिणाम घोषित करने में चार-पांच दिन की देरी हो जायेगी। जब पूरी प्रक्रिया में लम्बा समय लगाया जा रहा है। कई-कई चरणों में चुनाव करवाये जा रहे हैं तब यदि परिणाम घोषित करने में एक सप्ताह का समय और लग जाता है तो उससे किसी का भी नुकसान होने वाला नहीं है। फिर जब मशीन के साथ वी वी पैट लगा हुआ है और उस पर बाकायदा पर्ची सामने आ जाती है तो उसे गिनने में कितना समय और लग जायेगा। इस समय जिस तरह का विश्वास पूरी चुनाव प्रक्रिया पर उभर रहा है। वह कालान्तर में पूरी व्यवस्था के लिए घातक होगा। ऐसे में राजनेताओं को ईवीएम को संसद से लेकर सड़क तक मुद्दा बनाकर जनता के बीच आना होगा। चुनावों के बहिष्कार करने तक आना होगा। जब इस तरह की स्थिति पूरे देश में एक साथ बनेगी तभी मशीन की जगह मत पत्रों पर बात आयेगी। यदि राजनेता और राजनीतिक दल ऐसा करने के लिये तैयार न हों तो उन्हें हर हार के बाद ईवीएम पर दोष डालने का कोई अधिकार नहीं रह जाता है।
इसी के साथ राजनीतिक दलों को अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिये अपनी राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स पर भी ध्यान देना होगा। अभी हरियाणा के चुनावों में प्रधानमंत्री ने हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स को मुद्दा बनाया। कांग्रेस जवाब नहीं दे पायी क्योंकि तथ्यों पर आधारित था सब कुछ। अब महाराष्ट्र में भी हिमाचल को प्रधानमंत्री ने मुद्दा बनाया। इसका जवाब देने मुख्यमंत्री महाराष्ट्र गये। फिर मुख्यमंत्री का जवाब देने प्रदेश भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री नेता प्रतिपक्ष और दूसरे नेता महाराष्ट्र जा पहुंचे। इस तरह मुख्यमंत्री के दावों पर विश्वास नहीं बन पाया और परिणाम सामने है। हिमाचल आज पूरे देश में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। यदि कांग्रेस ने समय रहते स्थितियों में सुधार नहीं किया तो फिर कुछ भी हाथ नहीं आयेगा।

प्रैस के बदलते स्वरूप में कुछ सवाल

इस बार राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर चर्चा का विषय था प्रैस का बदलता स्वरूप। इस चर्चा के लिये संवाद गोष्ठी का आयोजन पहले की तरह सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने किया। परन्तु इस बार विभाग ने इस संवाद गोष्ठी के लिये सारे पत्रकारों को आमंत्रित और सूचित करना भी आवश्यक नहीं समझा। इसी से पता चलता है कि सही में प्रैस के प्रति इस सरकार की सोच और समझ क्या है। इस सरकार को सत्ता संभाले दो वर्ष होने जा रहे हैं। इन दो वर्षों में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से लेकर विभाग के निदेशक सचिव मीडिया सलाहकार और प्रभारी मंत्री किसी ने भी मीडिया कर्मियों से कोई औपचारिक बैठक नहीं की है जिसमें मीडिया कर्मी अपनी बात सरकार के सामने रख पाते। बल्कि सरकार ने व्यवहारिक रूप से जिस तरह से पत्रकारों के खिलाफ पुलिस तंत्र का प्रयोग करना शुरू किया है वह पिछली सरकारों से भी कहीं ज्यादा आगे चला गया है। अखबारों के विज्ञापन बन्द करने से लेकर उनके अवासों के किराए में पांच गुना तक बढ़ौतरी कर दी गयी। सरकार के इस चलन से स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार मीडिया को गोदी मीडिया बनाकर रखने का हर संभव प्रयास कर रही है। क्योंकि समाचारों पर स्पष्टीकरण जारी करने या मानहानि के मामले दायर करने की जगह जब सरकार और उसका तंत्र पुलिस का प्रयोग करने पर आ जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार हर तरीके से प्रैस को डरा धमका कर रखना चाहती है। इस अवसर पर यह सब इसलिये लिखना आवश्यक हो गया है क्योंकि प्रैस के बदलते स्वरूप के बीच पत्रकारों से पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करने का आग्रह किया गया है। पत्रकार हर सरकार का स्थाई विपक्ष माना जाता है। यह पत्रकार को तय करना होता है कि उसने सरकार का रिपोर्ट बनकर सरकार का ब्यान यथास्थिति आम आदमी के सामने रखना है या आम आदमी के लिये सरकार सेे तीखे सवाल करने हैं। क्योंकि सरकार का गुणगान करने के लिये इतना बड़ा विभाग कार्यरत है। हर मंत्री के साथ विभाग के लोग अटैच रहते हैं। हर सार्वजनिक उपक्रम में लोक संपर्क की इकाई स्थापित रहती है। सरकार के पास अपनी बात आम आदमी तक पहुंचाने के लिए दर्जनों साधन हैं। परन्तु आम आदमी के पास उसके सवाल सरकार से पूछने के लिये पत्रकार के अतिरिक्त और कोई नहीं है। जिस सरकार को अपने हर फैसले पर स्पष्टीकरण देने पड़े उन्हें संयोजित करना पड़े उस सरकार से कितने सवाल पूछे जाने चाहिए? उसके हर दावे पर क्या सवाल नहीं उठ रहे हैं। इसलिए जब कोई पत्रकार आम आदमी का पक्ष लेकर सरकार से सवाल करेगा तो उसे सरकार की ताकत के साथ टकराने का साहस रखना ही होगा। एक समय था जब सरकारें लोक लाज से डरती थी। लेकिन आज यह लोक लाज कोई सवाल ही नहीं बचा है। आज तो सत्ता में आकर पांच साल तक सत्ता सुख कैसे भोगना इसका जुगाड़ बैठाने की योजनाएं बनाने में ही समय निकल जाता है। आज तो विपक्ष और सत्ता पक्ष में विरोध प्रदर्शन एक रस्म अदागी से अधिक कुछ नहीं रह गया है। एक समय सरकारें भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का दावा करती थी। विपक्ष सत्ता पक्ष के खिलाफ राज्यपाल को आरोप पत्र सौंपता था और सत्ता में आकर उस पर जांच की जाती थी। लेकिन अब व्यवस्था परिवर्तन में भ्रष्टाचार पर कोई बड़ा दावा करना भूतकाल की बात हो गया है। अब तो यदि कोई पत्रकार भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने का साहस करता है तो सबसे पहले उसी के खिलाफ पुलिस बल के प्रयोग का प्रयोग शुरू हो जाता है। व्यवहारिक रूप से बदल रहे इस स्वरूप के बीच भी पत्रकारिता के मूल्य की रक्षा करना सही में एक चुनौती है। शैल का अपने पाठकों से वायदा है कि हम इस चुनौती से डरेंगे नहीं और आम आदमी के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाते रहेंगे।

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