पिछले एक दशक में जब से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता संभाली है तेईस सार्वजनिक उपक्रम पूरी तरह प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर दिये गये हैं। विनिवेश योजना के तहत बैंकिंग, एलआईसी, रेलवे एयरपोर्ट में भी काफी हिस्सा प्राइवेट को देने की योजना है। विनिवेश के तहत कुछ प्राइवेट कंपनियां बाजार पर एकाधिकार स्थापित करने की दिशा में अग्रसर हैं। कुछ कंपनियों का करीब दस लाख करोड़ का एनपीए बट्टे खाते में डाल दिया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने अब तक के कार्यकाल में एक भी सार्वजनिक उपक्रम की स्थापना नहीं की है। सार्वजनिक उपक्रमों को विनिवेश के तहत प्राइवेट सैक्टर के हवाले करने का रोजगार पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस समय केन्द्र सरकार में करीब एक करोड़ पद खाली हैं। कंपनियों के एनपीए को बट्टे खाते में डालने से करीब दस लाख करोड़ की चपत सरकार को लगी है और इसका पूरी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा है। 2014 में जब डॉ. मनमोहन सिंह ने सत्ता छोड़ी और नरेन्द्र मोदी ने संभाली तब देश का कुल 55 लाख करोड़ का कर्ज था। जो अब 2024 में आरबीआई के मुताबिक 155 लाख करोड़ हो गया है। इस बढ़ते कर्ज के साथ ही जो लोग बैंकों को धोखा देकर विदेश भाग गये हैं उनमें से किसी को भी यह सरकार अभी तक वापस नहीं ला पायी है। इस सब का देश की आर्थिक स्थिति पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी एक अरसे से चिन्ता व्यक्त करते आ रहे हैं। उनकी इस चिन्ता में कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी उनके साथ शामिल रहे हैं।
देश की आर्थिक स्थिति का यह गंभीर पक्ष है जिस पर एक सार्वजनिक बहस होनी चाहिए। राहुल गांधी जब से इन एकाधिकार के प्रयासों में लगी कंपनियों के खिलाफ मुखर हुये हैं देश की जनता ने उनकी चिताओं को समझ कर कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष के पद तक पहुंचा दिया है। राहुल गांधी की चिंताएं जायज हैं और भविष्य के गंभीर प्रश्न हैं। क्योंकि एकाधिकार कहीं पर भी किसी का भी कालांतर में घातक ही सिद्ध होता है। बाजार में इस तरह के प्रयास और वह भी सरकार की नीयत और नीतियों से पोषित हों तो पूरे देश के लिये उसके परिणाम अच्छे नहीं हो सकते। लेकिन राहुल की चिताओं के साथ कुछ प्रश्न भी स्वतः ही खड़े हो जाते हैं। क्योंकि राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिये मतदाताओं से ऐसे मुफ्ती के वायदे कर रहे हैं जिनमें से एक दो को भी पूरा करने के लिये पूरा बजट गड़बड़ा जाता है। मुफ्ती के वायदों को पूरा करने के लिये या तो जनता पर प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष करों का बोझ डालना पड़ता है या फिर कर्ज का सहारा लेना पड़ता है। इस समय कांग्रेस केन्द्र में सत्ता में नहीं है। केवल तीन राज्यों में उसकी सरकारें हैं। ऐसे में यह देखना आवश्यक हो जाता है कि कांग्रेस की यह सरकारें राहुल के मानकों पर कितना खरा उतर रही हैं। क्योंकि कंपनी के एकाधिकार का विकल्प केवल सरकार होती है। जब कोई सरकार कोई भी सेवा प्रदान करने के लिये आउटसोर्स के नाम पर प्राइवेट कंपनी का रुख करती है तो एकाधिकार का सारा विरोध अर्थहीन हो जाता है। सरकारें अपने प्रतिबद्ध खर्चे कम करने के लिये सरकार में कर्मचारियों की भर्ती करने के स्थान पर आउटसोर्स का रास्ता अपना रही है। हर सेवा और उत्पादन में प्राइवेट सैक्टर का रुख किया जा रहा है। कर्ज सरकार के नाम पर और भरपाई जनता से सेवा प्रदान करने के नाम पर के चलन को जब तक नहीं रोका जायेगा तब तक यह एकाधिकार का विरोध केवल कागजी ही रहेगा। क्योंकि आज तो सरकारें कर्ज लेकर होटल का निर्माण करके उसे चलाने के लिए प्राइवेट सैक्टर के हवाले कर देती हैं। क्या प्राइवेट सैक्टर को स्वयं कर्ज लेकर स्वयं निर्माण करके होटल स्वयं नहीं चलना चाहिये? यही स्थिति शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी हो रही है। सरकार एक तरह से बड़े सरमायेदार के एजैन्ट की भूमिका तक ही रह गयी है। राहुल गांधी को इस मुद्दे पर अपनी राज्य सरकारों को निर्देशित करके प्राइवेट सैक्टर के दखल को कम करने का प्रयास करना चाहिये।
पूरे देश में श्री सांई को मानने वालों की संख्या करोड़ों में है और सभी धर्मों और जातियों के लोगों की आस्था सांई में है। आस्था बनने के हरेक के व्यक्तिगत आधार होते हैं। ऐसे में यदि सांई में किसी की आस्था है तो क्या इस आस्था को ऐसे बहिष्कार से तोड़ा जा सकता है। शायद नहीं। जगद्गुरु शंकराचार्य का धर्म में एक शीर्ष स्थान है। हरेक धार्मिक मतभेद में शंकराचार्य का निर्णय सर्वोपरी और अंतिम होता है। लेकिन आस्था कोई धार्मिक प्रश्न नहीं है। यह एक विशुद्ध वैयक्तिक विषय है। गौ माता की हत्या नहीं होनी चाहिये। गौ माता एक धार्मिक प्रतीक भी है। गौ माता को राष्ट्र माता घोषित किये जाने की मांग एक राजनीतिक प्रश्न है। क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। यदि सरकार हिन्दू समाज की एक मांग को अधिमान देती है तो उसी गणित से अन्य धर्म को मानने वालों की मांगों को भी अधिमान देना पड़ेगा। शंकराचार्य ने जब अपने उद्बोधन में गौ हत्या करने वाली पार्टियों को वोट न देने की अपील की है तब उन्हें यह भी स्पष्ट करना होगा कि हिन्दूवादी पार्टी के शासन में बीफ के कारोबार का आंकड़ा क्यों बड़ा है। गौ हत्यारी पार्टियों को वोट देना गौ हत्या के पाप में भागीदार बने जैसा है। शंकराचार्य का ऐसा उद्बोधन क्या एक राजनीतिक उद्बोधन नहीं बन जाता है। शंकराचार्य का जो स्थान हिन्दू धर्म में है उसके नाते हिन्दू समाज को यह निर्देश देना कि वह अमुक दल को समर्थन दे और अमुक का बहिष्कार करे अपने में ही एक बड़ा राजनीतिक प्रश्न बन जाता है। फिर जब हिन्दू धर्म के नाते वोट किसे देना है और किसे नहीं देने के निर्देश ऐसे शीर्ष स्तर पर आने शुरू हो जायें तो यह स्थिति अपने में बहुत हास्यास्पद हो जाती है। क्योंकि इसे राजनीति से सीधे-सीधे दखल देने का निर्देश मान लिया जायेगा।
इस समय वक्फ के प्रस्तावित संशोधन के बाद जो राजनीतिक परिदृश्य उभरा है उसमें शंकराचार्य जैसे शीर्ष स्थान से वोट देने और न देने के निर्देश जारी होना एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा बन जाता है। वक्फ के प्रस्तावित संशोधन के बाद जिस तरह का राजनीतिक परिदृश्य उभरा है उसके परिपेक्ष में वोट देने न देने के ऐसे शीर्ष स्थान से निर्देश आना एक बड़ा सवाल बन जाता है। गौ माता को राष्ट्र माता घोषित किये जाने का मांग पत्र क्या केन्द्र सरकार को सौंपा जाना चाहिये या राज्य सरकारों को? फिर किस मंच के नाम से यह मांग रखी जायेगी। यदि इसी तर्ज पर ऐसी ही मांगे दूसरे धर्म को मानने वालों से भी आती हैं तो उन्हें सरकार कैसे इन्कार कर पायेगी? क्या कल जब राम मंदिर संचालन समिति सांई बाबा की मूर्ति को वहां से हटाएगी तब क्या वह इसके कारण पूरी स्पष्टता के साथ समाज में रख पायेगी? तब क्या सांई के भगत इस स्थिति को चुपचाप स्वीकार कर पायेंगे? क्या इससे समग्र हिन्दू समाज में ही बिखराव की स्थितियां नहीं उभरेंगी? मेरा मानना है कि सर्वधर्म समभाव की अवधारणा के तहत ऐसे बहिष्कार समय की मांग नहीं है।
हरियाणा में कांग्रेस की हार निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर मुद्दा है। हरियाणा में भाजपा ने भी मुफ्ती की घोषणाओं के सहारे सत्ता पायी है। मुफ्ती के वायदों पर आरटीआई से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक का जो रुख रहा है उसका हरियाणा के चुनाव पर कोई असर नहीं दिखा है। भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों ने आरबीआई और सर्वाेच्च न्यायालय को खुलकर अंगूठा दिखाया है। मुफ्ती के वायदों को भाजपा कैसे पूरा करती है और उसका हरियाणा की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है यह आने वाला समय ही बतायेगा। इस समय हरियाणा बेरोजगारी में शायद देश में पहले स्थान पर है। किसान आन्दोलन का केंद्र हरियाणा रहा है। शायद इसी के कारण यह माना जा रहा था कि अब भाजपा प्रदेश की सत्ता से बाहर हो जायेगी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि जब नरेन्द्र मोदी का रथ लोक सभा चुनाव में चार सौ पार के नारे के बाद दो सौ चालीस पर रुक गया और नीतीश तथा चन्द्रबाबू नायडू के सहारे सत्ता तक पहुंचे तब यह स्पष्ट हो गया था कि अब जिस भी राज्य में विधानसभा चुनाव होंगे उन्हें येनकेन प्रकरेण भाजपा जीतने का प्रयास करेगी। हरियाणा में चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का बदला जाना भी इसी रणनीति का हिस्सा था। इसी रणनीति के तहत वक्फ संशोधन विधेयक लाना और उस पर राष्ट्रीय बहस चलवाना तथा इसी बीच एक देश एक चुनाव की रिपोर्ट आना कुछ ऐसे संकेत बन जाते हैं जिन से भविष्य का बहुत कुछ समझा जा सकता है। कांग्रेस के रणनीतिकार और विश्लेषक इसका आकलन नहीं कर पाये।
इस समय जो राजनीतिक वातावरण निर्मित हो रहा है उसमें अधिकांश दलों में और विशेषकर कांग्रेस के अन्दर ऐसे लोगों की संख्या बहुत है जो अनचाहे और बिना समझे ही हिन्दू एजैण्डे के ध्वजवाहक बने हुये हैं। जबकि यह एजैण्डा एक राजनीतिक एजैण्डा बनकर रह गया है। इस स्थिति को समझने की आवश्यकता है। सारा एजैण्डा आर्थिक मुद्दों से ध्यान हटाने की रणनीति है। इसलिये आज कांग्रेस को अपनी विश्वसनीयता बनाने की आवश्यकता है। इसके लिये राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स पर ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि कांग्रेस को लोग राहुल गांधी के ब्यानों से ज्यादा पार्टी की राज्य सरकारों की परफारमैन्स से आंकेंगे। क्योंकि जब से आरटीआई और सर्वाेच्च न्यायालय ने मुफ्ती की घोषणाओं पर कड़ा रुख दिखाया है तब से आम आदमी सरकारों की कर्ज संस्कृति पर भी नजर रख रहा है। आज हिमाचल में सरकार जिस तरह से प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में डालकर घी पीने का काम कर रही है उसे आम आदमी पसन्द नहीं कर रहा है। इसलिये हरियाणा की हार को ईवीएम गड़बड़ी करार देने से पहले कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों की जन स्वीकार्यता का आकलन करना होगा। क्योंकि हरियाणा की हार की कीमत महाराष्ट्र और झारखंड में चुकानी पड़ सकती है। इंडिया के सहयोगी दल भी कांग्रेस के प्रति अलग राय बनने पर विवश हो जाएंगे। जब तक राज्यों में विश्वसनीय नेतृत्व नहीं आ पाता है तब तक कांग्रेस के लिये भविष्य आसान नहीं होगा।
वित्तीय संकट के मामले में बीस माह के कार्यकाल में 27,000 करोड़ का कर्ज लेने का आंकड़ा पूर्व केंद्रीय मंत्री और हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर ने जारी किया है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि केन्द्र के सहयोग के बिना यह सरकार एक दिन नहीं चल सकती। केन्द्र द्वारा दी गयी आपदा राहत में घपले किये जाने का आरोप कंगना रनौत से लेकर नड्डा तक लगा चुके हैं। अब तो कांग्रेस के नेता भी इस पर मुखर होने लग गये हैं। वित्तीय संकट के नाम पर इतना वित्तीय बोझ आम आदमी पर डाल दिया गया है कि आम आदमी इस डर में जी रहा है कि सरकार कब कौन सा टैक्स किस कारण से लगा दे इसका अन्दाजा लगाना ही असंभव हो गया है। लेकिन जनता पर इतना वित्तीय बोझ डालने और हर माह एक हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेने के बाद भी यह सरकार समय पर वेतन और पैन्शन का भुगतान क्यों नहीं कर पा रही है। आज हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स हरियाणा विधानसभा के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री और अन्य भाजपा नेताओं के हाथ में कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ा हथियार आ गया है। इस हथियार से कांग्रेस का नुकसान होना तय है। परफॉरमैन्स के लिहाज से हिमाचल में कांग्रेस बीस वर्ष तक पिछड़ गयी है।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस हाईकमान हिमाचल के हालात का संज्ञान लेकर कोई सुधारात्मक कदम क्यों नहीं उठा पा रही है। आज हिमाचल से लोकसभा और राज्यसभा में कोई भी सांसद न होना एक बड़ा कारण बन गया है। क्योंकि हर पार्टी का हाईकमान किसी भी राज्य की जानकारी के लिये उस प्रदेश से आये सांसदों और मंत्रियों यदि केंद्र में उस पार्टी की सरकार हो तो उनकी राय पर बहुत निर्भर रहता है। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद संसद में प्रदेश से कोई कांग्रेस सांसद नहीं है। सांसदों के बाद पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की राय को अधिमान दिया जाता है। यहां पर पार्टी अध्यक्ष को पहले ही विवादित बना दिया गया है। पार्टी अध्यक्ष के बाद प्रैस की सूचनाओं पर निर्भरता की बात आती है। इस दिशा में इस सरकार ने प्रैस का गला ऐसे घोंट कर रखा है कि कहीं कोई आवाज बची ही नहीं है। इस सरकार ने 1971 से लागू हुये लैण्ड सीलिंग एक्ट को 2023 में संशोधित करके उन संशोधनों को 1971 से ही लागू करने की सिफारिश की है। आज पचास वर्ष बाद ऐसे संशोधन की आवश्यकता क्यों आ खड़ी हुई? क्या आज भी प्रदेश में ऐसे लोग हैं जिनके पास लैण्ड सीलिंग सीमा से अधिक जमीन है? इस मुद्दे पर न तो विपक्षी दल भाजपा ने कोई सवाल उठाया है और न ही मीडिया ने। जहां इस तरह की स्थितियां हो वहां पर अन्दाजा लगाया जा सकता है की सरकार के व्यवस्था परिवर्तन सूत्र ने क्या कुछ बदल दिया होगा। ऐसे हालात का प्रदेश की जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा और सत्तारूढ़ दल उससे कितना मजबूत होगा यह सामान्य समझ का विषय है।