Thursday, 18 September 2025
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क्या कर्ज बढ़ाने के लिए कांग्रेस को सत्ता दी थी?

इस समय प्रदेश की वित्तीय स्थिति यह हो गयी है कि सरकार को हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। अब तक यह सरकार करीब तीस हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है। कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लेने की बाध्यता बन गयी है। कैग अपनी रिपोर्ट में इस पर चिन्ता व्यक्त करते हुए सरकार को चेतावनी भी जारी कर चुका है। इस सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब प्रदेश की स्थिति श्रीलंका जैसी होने की आशंका व्यक्त करते हुये चेतावनी जारी की थी। इस चेतावनी के परिपेक्ष में आते ही डीजल और पेट्रोल पर वैट बढ़ाया। बिजली, पानी की दरें बढ़ाई। विधानसभा चुनावों के दौरान जो गारंटीयां जनता को दी थी उन पर अमल स्थगित किया। युवाओं को रोजगार देने का वायदा किया था उस पर अमल नहीं किया जा सका। विधानसभा में रोजगार के संबंध में पूछे गये हर सवाल में सूचना एकत्रित की जा रही है का ही जवाब आया है। बेरोजगारी में प्रदेश देश के पहले पांच राज्यों की सूची में आ चुका है। सस्ते राशन की दरें बढ़ाने के साथ ही उसकी मात्रा में भी कमी कर दी गई है। सत्ता में आते ही सरकार ने विभिन्न सरकारी कार्यालय में खाली पदों का पता लगाने के लिए एक मंत्री कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के सरकारी विभागों में ही सतर हजार पद खाली है। अकेले शिक्षा विभाग में ही बाईस हजार पद खाली है। आज शिक्षा विभाग में स्कूलों में जो परीक्षा परिणाम आये हैं उनके बाद अध्यापकों पर सख्ती बढ़ाने और उनसेे जवाब देही मांगने की बातें हो रही हैं। लेकिन इन खाली पदों में कितने इस दौरान भरे जा सके हैं इसकी कोई जानकारी नहीं आ पायी है। विभाग में पांच आउटसोर्स के माध्यम से नई भर्तियां किये जाने का फैसला लिया गया है। स्वास्थ्य विभाग में एनएचएम के कर्मचारी इसी प्रक्रिया के तहत भरे गये हैं इसका भविष्य प्रश्नित है। इस समय सरकार नियमित रूप से स्थाई भर्तीयां करने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि सरकार की आर्थिक सेहत नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी है।
इस वस्तुस्थिति में जो सवाल खड़े होते हैं उन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। पहला सवाल यह खड़ा होता है कि प्रदेश की स्थिति के लिये जिम्मेदार कौन है। निश्चित रूप से प्रदेश में रही सरकारें और उनकी नीतियां ही इसके लिये जिम्मेदार रही हैं। उन नीतियों पर निष्पक्षता से विचार करने की आवश्यकता है। प्रदेश में उद्योग क्षेत्र स्थापित करने के लिये आधारभूत ढांचा खड़ा करने के लिये जो निवेश किया गया है और उद्योगों को आमंत्रित करने के लिये जो वित्तीय सुविधा उनको समय-समय पर दी गयी हैं उनके बदले में जो कर और गैर कर राजस्व तथा रोजगार इसमें मिला है आज इसका निष्पक्ष आकलन करने की आवश्यकता है। इन उद्योगों की सुविधा के लिये स्थापित किये संस्थाओं वित्त निगम, एसआईडीसी, खादी बोर्ड आदि आज किस हालत में हैं। प्रदेश को बिजली राज्य प्रचारित करके उद्योग आमंत्रित किये गये बिजली परियोजनाएं स्थापित की गयी। लेकिन क्या आज प्रदेश का बिजली बोर्ड और उसके साथ खड़े किये गये दूसरे संस्थान आत्मनिर्भर हो पाये हैं। उनसे कितना राजस्व प्रदेश को मिल रहा है और प्रदेश के सार्वजनिक संस्थाओं का कर्जभार कितना है कितना ब्याज उनको चुकाना पड़ रहा है। क्या इसका एक निष्पक्ष आकलन किये जाने की आज आवश्यकता नहीं है। क्या यह एक स्थापित सच नहीं है कि उद्योगों की मूल आवश्यकता उसके लिये आवश्यक कच्चा माल और उपभोक्ता दोनों में से एक का उपलब्ध होना जरूरी होता है। कितने उद्योगों के लिये प्रदेश इस मानक पर खरा उतरता है यह सब आज जवाब मांग रहा है।
यह एक बुनियादी सच है कि जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो जाये तो घर के प्रबंधकों को अपने खर्चाे पर लगाम लगानी पड़ती है। क्या इस समय के प्रबंधक ऐसा कर पा रहे हैं? क्या जनता ने उसके सिर पर कर्ज भार बढ़ाने के लिये अपना समर्थन दिया था? इस समय सरकार के प्रबंधन पर नजर डाली जाये तो क्या यह नहीं झलकता की कर्ज लेकर घी पीने के चार्वाक दर्शन पर अमल किया जा रहा है। इस समय का सबसे बड़ा सवाल है कि इस कर्ज का निवेश कहां पर हो रहा है। यह जानने का जनता को हक हासिल है। विपक्ष की पहली जिम्मेदारी है यह सवाल उठाना लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। जब चुनाव के मौके पर भी पक्ष और विपक्ष इस बुनियादी सवाल से दूर भाग जायें तो क्या यह सवाल अदालत के माध्यम से नहीं पूछा जाना चाहिए? क्योंकि वित्तीय स्थिति पर एक चेतावनी जनता को पिला दी गयी। एक श्वेत पत्र की रस्म अदायगी हो गयी। पक्ष और विपक्ष चार दिन इस पर शोर मचाने की औपचारिकता के बाद चुप हो गये। तो क्या अब इस मुद्दे पर अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जाना चाहिए? क्योंकि यदि यही स्थिति चलती रही तो प्रदेश का भविष्य क्या हो जायेगा? क्या जनता ने कर्ज की कीमत पर गारंटीयां मांगी थी? शायद नहीं। प्रदेश में आयी आपदा पर किस तरह से राहत का आकार बढ़ाकर सरकार ने अपनी पीठ थपथपायी थी और उसका सच अब पहली बारिश में सामने आ गया है।

राहुल गांधी का नेता प्रतिपक्ष होना

इस बार संसद में एक सशक्त विपक्ष देखने को मिलेगा यह स्पष्ट हो गया है। विपक्ष की संख्या देखकर यह भी लगने लगा है कि आने वाले दिनों में यदि सरकार सही से अपने कार्यों का निष्पादन नहीं कर पायी तो उसे हराया भी जा सकता है। स्थिर सरकार और सशक्त विपक्ष दोनों एक साथ होना लोकतंत्र की पहली और बड़ी आवश्यकता है। इस बार विपक्ष को इस संख्या बल तक पहुंचने का सबसे बड़ा श्रेय कांग्रेस नेता राहुल गांधी को जाता है। यह उनकी दोनों यात्राओं का प्रतिफल है कि एक लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस आधिकारिक रूप से नेता प्रतिपक्ष के पद की पात्र हो गयी है। कांग्रेस ने राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष के पद के लिये नामजद करके एक सही फैसला लिया है। नेता प्रतिपक्ष के नाते वह एक तरह से प्रधानमंत्री के समकक्ष हो जाते हैं। क्योंकि अब राहुल गांधी और प्रधानमंत्री के बीच आधिकारिक वार्तालाप होता रहेगा। दोनों नेताओं को एक दूसरे को वैचारिक स्तर पर समझने का मौका मिलेगा। पिछले 10 वर्षों में कोई सशक्त विपक्ष न होने के कारण प्रधानमंत्री और सरकार दोनों एक तरह से निरंकुश हो गये थे। क्योंकि मोदी भाजपा संगठन से ऊपर हो गये थे और इसका प्रमाण तब सामने आया जब चुनावों के दौरान भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने आरएसएस को उसकी सीमाओं का स्मरण कराया। आज राहुल गांधी सार्वजनिक जीवन में एक सार्वजनिक पद पर आसीन हो गये हैं। अब उनकी सोच और कार्यशैली की आधिकारिक समीक्षा होगी और सार्वजनिक रूप से सबके सामने रहेगी।
एक समय देश कोबरा स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से यह देख चुका है कि उनको पप्पू प्रचारित करने के लिए कैसे और किस स्तर तक निवेश किया गया था। पिछले दस वर्षों में विपक्ष और देश ने जो कुछ जिया भोगा है उस सबके गुणात्मक आकलन का अवसर अब आया है। इस दौरान कैसे प्रभावशाली लोगों का लाखों करोड़ का ऋण माफ हो गया? कैसे सार्वजनिक संस्थान एक के बाद एक निजी क्षेत्र के हवाले होते चले गये? दस वर्षों में दो बार नोटबंदी की नौबत क्यों आयी? क्यों सरकार में सरकारी रोजगार के अवसर कम होते चले गये? ईडी के दुरुपयोग को लेकर विपक्ष को क्यों सर्वाेच्च न्यायालय का रुख करना पड़ा? जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय सर्वसुलभ और निःशुल्क होने चाहिये वहीं पर यह आम आदमी की पहुंच से बाहर क्यों होते जा रहे हैं। पेपर लीक हर परीक्षा में हर राज्य में क्यों होने लग गया है? जितने सवाल देश के सामने आज तक उठाये गये हैं अब उनके सही जवाब देश के सामने लाना एक बड़ी जिम्मेदारी और आवश्यकता होगी। पिछली बार किस आंकड़े तक विपक्ष के सांसदों का निलंबन हो गया था यह देश ने देखा है। तीन अपराधिक कानूनों का मानसून सत्र के अंतिम दिन कैसे बिना बहस के पारण हो गया यह देश देख चुका है। अब यह संशोधित कानून पहली जुलाई से लागू होने जा रहे हैं।
अब इन कानूनों पर संसद में खुली बहस किये जाने की मांग टीएमसी नेता ममता बनर्जी की ओर से आ गयी है। यह कानून पूरे देश और उसके भविष्य को प्रभावित करेंगे। देश के सौ से अधिक पूर्व नौकरशाहों ने महामहिम राष्ट्रपति को खुला पत्र लिखकर इन कानूनों पर अमल रोकने और इन पर संसद में बहस की मांग उठाई है। क्योंकि पिछली बार सौ से अधिक सांसद निलंबित थे। इसलिए इन पर एक विस्तृत बहस देश हित में आवश्यक है। नई संसद के पहले सत्र में ही देश के सामने आ जायेगा कि विपक्ष और सत्ता पक्ष में किस तरह का तालमेल होने जा रहा है। नेता प्रतिपक्ष और प्रधानमंत्री किस तरह से इस अहम मुद्दे का हल निकालते हैं। इसी से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि सरकार और विपक्ष में आने वाले समय में रिश्ते कैसे रहते हैं। राहुल गांधी को यह प्रमाणित करने का अवसर होगा कि वह विकल्प है। इसी तरह प्रधानमंत्री के लिये भी यह सबका विकास और सबका साथ का टेस्ट होगा। गठबंधन के नेता के तौर पर यह मोदी का भी टेस्ट होगा।

क्या नीट और जेईई का विकल्प नहीं हो सकता

इस बार नीट की परीक्षा को लेकर मामला सर्वाेच्च न्यायालय तक जा पहुंचा है। आरोप लग रहा है कि शायद इस परीक्षा का पेपर लीक हुआ है। आरोप का आधार एक अभ्यार्थी अंजलि पटेल की प्लस टू की वायरल हुई अंक तालिका है। वायरल अंक तालिका के मुताबिक अंजलि प्लस टू के कैमिस्ट्री और फिजिक्स पेपरों में फेल है जबकि नीट में उसका स्कोर 720 में से 705 रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी नीट की परीक्षा पर उठते सवालों की जांच की मांग की है। देश के इंजीनियरिंग संस्थानों में प्रवेश के लिये जेईई और मेडिकल संस्थानों में प्रवेश के लिये नीट की परीक्षाएं केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा वर्ष 2009 से आयोजित की जा रही है और इन परीक्षाओं के संचालन के लिए वर्ष 2017 से एनटीए का गठन किया गया है। जब से इन संयुक्त प्रवेश परीक्षाओं का चलन शुरू हुआ है उसी के साथ इन परीक्षाओं के लिये कोचिंग संस्थानों का चलन भी आ गया है।
देश के हर कोने में कोचिंग संस्थान या इनकी ब्रांचें उपलब्ध हैं। इन संस्थानों में इन परीक्षाओं की कोचिंग के लिये बच्चों से लाखों की फीस ली जा रही है। इन दिनों इन परीक्षाओं में कोचिंग के लिये दाखिला लेने के लिये इन संस्थाओं के विज्ञापनों से अखबारों के पन्ने भरे हुये मिल जायेंगे। हर संस्थान का यह दावा मिल जायेगा कि उसके संस्थान से इतने बच्चे परीक्षा के टॉप में पास होकर प्रवेश ले चुके हैं। यह दावे कितने सही होते हैं इसकी पड़ताल करने का समय कितने अभिभावकों या बच्चों के पास होता है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि हर अभिभावक और बच्चा कोचिंग लेकर इंजीनियर या डॉक्टर बनना चाहता है। कई बार बच्चों पर यह परीक्षा पास करने का इतना मनोवैज्ञानिक दबाव और तनाव होता है कि बच्चे आत्महत्या तक करने पर आ जाते हैं। राजस्थान के कोटा में शायद कोचिंग संस्थानों का हब है ओर वहीं से सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले सामने आये हैं। एक बार राजस्थान विधानसभा में भी यह मामला गूंज चुका है और प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री ने इस पर कई सनसनी खेज खुलासे करते हुये परीक्षा और कोचिंग संस्थानों पर एक बड़े फर्जीवाड़े के आरोप लगाये थे। अब जब यह मामला सर्वाेच्च न्यायालय में जा पहुंचा है और इसमें सीबीआई की गहन जांच की मांग की जा रही है तब इसके विकल्पों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थानों में प्रवेश का आधार प्लस टू पास होना रखा गया है। इन संस्थानों में भी प्लस टू ही कोचिंग का आधार है। लेकिन बहुत सारे कोचिंग संस्थान ऐसे भी हैं जो प्लस टू के बिना ही कोचिंग में प्रवेश दे देते हैं। ऐसे प्रवेश को डम्मी प्रवेश की संज्ञा दी जाती है। बच्चा किसी स्कूल से प्लस टू करने के बजाये डम्मी प्रवेश लेकर ऐसे कोचिंग संस्थानों से ही प्लस टू का प्रमाण पत्र हासिल कर लेता है। क्योंकि इन संसथानों ने किसी न किसी मान्यता प्राप्त स्कूल से टाईअप कर रख होता है। इसलिये पहला फर्जीवाड़ा किसी मान्यता प्राप्त स्कूल में दाखिला लिये बिना ही प्लस टू पास करने का प्रमाण पत्र हासिल करना हो जाता है। यह कोचिंग संस्थान किसी शिक्षा बोर्ड द्वारा प्रमाणित शैक्षणिक संस्थान तो होते नहीं हैं। फिर इनके द्वारा डम्मी प्रवेश से रेगुलर प्लस टू का प्रमाण पत्र मिल जाना अपने में ही फर्जीवाड़ा सिद्ध हो जाता है। ऐसे डम्मी प्रवेशों की गहन जांच किया जाना बहुत आवश्यक है।
इसलिये इस समस्या का एक निश्चित हल खोजा जाना आवश्यक हो जाता है। इंजीनियरिंग और मेडिकल में प्रवेश का मूल आधार प्लस टू पास होना है। ऐसा नहीं है कि कोई बच्चा प्लस टू किये बिना ही संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास करके ही प्रवेश का पात्र बन जाये। जब ऐसा नहीं है तो फिर संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास करने का वैधानिक लाभ क्या है? यह प्रवेश परीक्षा तो अपनी सुविधा के लिये एक साधन मात्र है। जब 2012 तक ऐसी संयुक्त प्रवेश परीक्षा का कोई प्रावधान था ही नहीं तो उसके बाद इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास करने पर क्या एन ए टी कोई सर्टिफिकेट जारी करता है शायद नहीं। ऐसे में जब मूलआधार ही प्लस टू है तब क्या यह आवश्यक नहीं हो जाता कि देशभर में प्लस टू का पाठयक्रम एक बराबर करके पूरे देश में एक जैसे ही प्रश्न पत्र जारी किये जायें। इस तरह प्लस टू का जब देश भर में पाठयक्रम और परीक्षा प्रश्न पत्र एक जैसे ही होंगे तो फिर संयुक्त प्रवेश परीक्षा की आवश्यकता ही क्यों रह जायेगी। उसी की मेरिट के आधार पर प्रवेश मिल जायेगा इसमें कोई पेपर लीक या फर्जीवाड़े की गुंजाइश ही नहीं रह जायेगी। यह सुझाव एक सार्वजनिक बहस और सर्व सहमति के लिये दिया जा रहा है। आज की परिस्थितियों में इस पर व्यापक विमर्श की आवश्यकता है।

मोदी का तीसरा कार्यकाल -कुछ उभरते सवाल

नरेंद्र मोदी तीसरी बार लगातार प्रधानमंत्री बनने वाले स्व. पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद पहले नेता हैं। इसके लिये वह निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। लेकिन इस बार वह एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। क्योंकि भाजपा को अपने दम सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिल पाया है। इसलिये माना जा रहा है कि इस बार वह लगातार अपने सहयोगियों के दबाव में रहेंगे। इस बार भी चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़े गये। हर चुनावी वायदे को मोदी की गारंटी बनाकर परोसा गया। लेकिन यह गारंटियां भी पहले जितनी सफलता नहीं दिला पायी। ऐसा क्यों हुआ और इस पर भाजपा की समीक्षा के बाद क्या जवाब आयेगा इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। मोदी ने देश की सता 2014 में संभाली थी। 2014 और 2019 में जो वायदे देश के साथ मोदी भाजपा और एनडीए ने किये थे यह 2024 का चुनाव इन वायदों की परीक्षा था और उस परीक्षा में निश्चित रूप से यह सरकार सफल नही हो पायी है। इस बार विपक्ष भी पहले से कहीं ज्यादा सशक्त होकर उभरा है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस बार जनता ने एक सशक्त विपक्ष के लिये मतदान किया है। विपक्ष ने चुनाव प्रचार के दौरान जो तीखे सवाल सरकार से पूछे और सरकार उन सवालों का जब जवाब नहीं दे पायी उससे जनता का विश्वास विपक्ष पर बना तथा एक ताकतवर विपक्ष देश को मिला। जिस विपक्ष पर यह तंज कसा जाता था कि इस बार वह संख्या में पहले से भी कम होगा तो वह विपक्ष इस बार दो गुना होकर उभरा है। इसलिये यह माना जा रहा है कि इस बार विपक्ष की आवाज को सदन के भीतर दबाना आसान नहीं होगा। क्योंकि मतदान के अंतिम चरण के साथ ही जब एग्जिट पोल के परिणाम आये और उनकी खुशी में प्रधानमंत्री गृह मंत्री और वित्त मंत्री ने शेयर बाजार में अप्रत्याशित बढ़त आने के अनुमान लगाये तो उससे बाजार में बढ़त देखने को मिली। लेकिन जैसे ही वास्तविक चुनाव परिणाम आये तो शेयर बाजार धड़ाम से नीचे बैठ गया और एक दिन में ही निवेशकों का तीस लाख करोड़ डूब गया। शेयर बाजार के इस उतार चढ़ाव पर राहुल गांधी ने सवाल उठा दिये। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंच गया है और शीर्ष अदालत में इसका संज्ञान लेते हुए संबद्ध पक्षों से जवाब भी मांग लिया है। यही स्थिति नीट की परीक्षा को लेकर सामने आयी हैं और शीर्ष अदालत ने इस पर भी सवाल पूछ लिये हैं। पैगासैस पर संयुक्त संसदीय कमेटी की जांच की मांग उठ चुकी है। उम्मीद की जा रही है कि 2014 से लेकर आज तक जो भी गंभीर राष्ट्रीय मुद्दे संसद के शोर में दबकर रह गये हैं उन पर अब संसद में चर्चा अवश्य होगी। नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और विजय माल्या जैसे लोग अब तक विदेश से क्यों वापस नहीं लाये जा सके हैं इसका जवाब देश की जनता के सामने आयेगा। इसी कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण स्थिति तो संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के ब्यान से उभरी है। इस चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा में संघ भाजपा के रिश्तों के बीच जो लकीर खींचने का प्रयास किया था संघ प्रमुख के ब्यान को उस लकीर का जवाब माना जा रहा है। इस बार जिस तर्ज पर विपक्ष के लोगों को तोड़कर भाजपा में शामिल करने का अभियान चलाया गया और इस अभियान में ज्यादा फोकस कांग्रेस पर था। यदि इस अभियान के माध्यम से कांग्रेस को कमजोर दिखाने की रणनीति न रही होती तो शायद एनडीए मिलकर भी सरकार बनाने की स्थिति में न आ पाता। लेकिन इस रणनीति से जो भाजपा का वैचारिक धरातल पर नुकसान हुआ है उसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं है। संघ प्रमुख का ब्यान इसी बिन्दु से जुड़े सवाल माना जा रहा है। क्योंकि इस ब्यान में उठाये गये सवाल एक लंबे अरसे से जवाब मांग रहे थे जिन्हें अब तक सशक्त स्वर नहीं मिला है।

 

एनडीए का चार सौ पार होना संदिग्ध

अंतिम चरण के मतदान के साथ ही एग्जिट पोल के परिणाम आने शुरू हो गये हैं। इन परिणामों में तीसरी बार मोदी सरकार बनने का दावा किया जा रहा है। लेकिन इसी दावे के साथ इण्डिया गठबंधन में भी अपनी बैठक के बाद गठबंधन को 295 सीटें मिलने का दावा किया है। मोदी ने इस चुनाव के लिए चार सौ पार का लक्ष्य अपने कार्यकर्ताओं के सामने रखा था। एक एग्जिट पोल में मोदी की जीत का आंकड़ा 401 भी दिया गया है। यदि 2014 और 2019 के चुनावी परिदृश्य पर नजर दौड़ायें तो स्पष्ट हो जाता है की तब के चुनाव परिणाम एग्जिट पोल के अनुमानों से मिलते जुलते ही रहे हैं। उसी तर्ज पर इस बार भी एग्जिट पोल सही सिद्ध होते हैं या नहीं इसका पता तो 4 जून को परिणाम आने के बाद ही लगेगा। चुनाव सरकार के कामकाज की समीक्षा होते हैं और यह आकलन हर व्यक्ति का अलग-अलग होता है। पिछले दोनों चुनाव के बाद ईवीएम पर सवाल उठे हैं। ईवीएम पर सबसे पहले एक समय भाजपा ने ही सवाल उठाए हैं। इस बार भी ईवीएम का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था जिस पर इन चुनावों के दौरान फैसला आया है। अभी भी चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित है। ऐसे में ईवीएम का मुद्दा इस बार के परिणामों के बाद भी उठता है या नहीं यह देखना रोचक होगा।
मोदी पिछले दस वर्षों से केंद्र की सत्ता पर काबिज है। इसलिये इन दस वर्षों में जो भी महत्वपूर्ण घटा है और उससे आम आदमी कितना प्रभावित हुआ है उसका प्रभाव निश्चित रूप से इन चुनावों पर पड़ा है। महत्वपूर्ण घटनाओं में नोटबंदी, कृषि कानून और उनसे उपजा किसान आंदोलन तथा फिर करोना काल का लॉकडाउन ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने हर आदमी को प्रभावित किया है। इसी परिदृश्य में काले धन की वापसी से हर आदमी के खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने का दावा भी आकलन का एक मुद्दा रहा है। हर चुनाव में किये गये वायदे कितने पूरे हुये हैं यह भी सरकार की समीक्षा का मुख्य आधार रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में इस चुनाव में हर चरण के बाद मोदी ने मुद्दे बदले हैं। कांग्रेस पर वह आरोप लगाये हैं जो उसके घोषणा पत्र में कहीं दर्ज ही नहीं थे। बल्कि मोदी के आरोपों के कारण करोड़ों लोगों ने कांग्रेस के घोषणा पत्र को डाउनलोड करके पड़ा है। राम मंदिर को इन चुनावों में केंद्रीय मुद्दा नहीं बनाया जा सका। इसी तरह इस चुनाव में आरएसएस और भाजपा में बढ़ता आंतरिक रोष जिस ढंग से भाजपा अध्यक्ष नड्डा के साक्षात्कार के माध्यम से सामने आया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बार भाजपा का आंकड़ा पहले से निश्चित रूप से कम होगा। क्योंकि जिन राज्यों में पिछली बार पूरी पूरी सीटें भाजपा को मिली है वहां अब कम होंगी और उसकी भरपाई अन्य राज्यों से हो नहीं पायेगी।
इसी तर्ज पर इंडिया गठबंधन पर यदि नजर डाली जाये तो इस गठबंधन में कांग्रेस ही सबसे बड़ा दल है। तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार हैं। लेकिन इन राज्यों में भी कांग्रेस सारी सारी सीटें जीतने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि इन सरकारों की परफॉर्मेंस अपने-अपने राज्यों में ही संतोषजनक नहीं रही है। फिर चुनाव के दौरान कांग्रेस के घोषित प्रत्याशियों का चुनाव लड़ने से इन्कार और भाजपा में शामिल हो जाना ऐसे बिन्दु हैं जिसके कारण कांग्रेस अपने को मोदी भाजपा का विकल्प स्थापित नहीं कर पायी है। इसलिए इण्डिया गठबंधन के सरकार बनाने के दावों पर विश्वास नहीं बन पा रहा है। जो स्थितियां उभरती नजर आ रही है उससे लगता है कि विपक्ष पहले से ज्यादा मजबूत और प्रभावी भूमिका में रहेगा।

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