Thursday, 18 September 2025
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सह प्रभारी का पलायन प्रदेश के लिए बड़ा संकेत

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव और हिमाचल के सह प्रभारी तेजिन्द्र बिट्टू कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गये हैं। वैसे तो इन चुनावों से कई राज्यों में कई नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा या अन्य दलों में शामिल हो गये हैं। नेताओं का इस तरह दल बदलना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है। एक समय यह निश्चित रूप से दलों के लिये कई बौद्धिक सवाल खड़े करेगा। इस समय इन लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दूसरे दलों से सेन्ध लगाकर करीब एक लाख लोगों को भाजपा में शामिल करने का लक्ष्य रखा है। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा तो बहुत अच्छे से भाजपा में चल रहा है। एक देश एक चुनाव का जो वायदा इस बार भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कर रखा है उसे अब आने वाले दिनों में एक दल और एक नेता की ओर बढ़ने का पहला कदम माना जा रहा है। भाजपा की इस नीति का कालान्तर में देश पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इस सम्भावित परिदृश्य में आज क्या कदम उठाये जाने चाहिए यह विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है। दूसरे दलों में सेन्ध लगाने का जो घोषित लक्ष्य रखा गया है उसे पूरा करने के लिये दूसरे दलों की सरकारें गिराना भी इस नीति का एक चरण हो सकता है। क्योंकि जब दूसरे दल स्थिर सरकारें ही नहीं दे पायेंगे तो लोगों का उनसे मोह भंग होना स्वभाविक है।
भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातीय देश है। इतने बड़े देश में एक ही दल की एक ही नेता के तहत सरकार की कल्पना तक करना भयावह लगता है। क्योंकि एक ही नेता सर्वज्ञ नहीं हो सकता और जब एक नेता को ईश्वरीय संज्ञाओं से अलंकृत करने का चलन शुरू हो जाये तो वह अनिष्ट का पहला संकेत माना जाता है। इस समय प्रधानमंत्री मोदी को बहुत लोग ईश्वरीय संबोधन से संबोधित करने लग पड़े हैं। स्वभाविक है कि जब एक नेता को ऐसे संबोधित किया जाने लग जायेगा तब दूसरे दलों में पलायन का मार्ग प्रशस्त होना शुरू हो जायेगा। चुनावों के बीच हो रहा पलायन कुछ इसी तरह के संकेत दे रहा है। ऐसे पलायन को रोकना दलों के शीर्ष नेतृत्व का दायित्व हो जाता है। इस समय भाजपा और कांग्रेस ही देश में दो सबसे बड़े दल हैं और यह इनके शीर्ष नेतृत्व की जिम्मेदारी हो जाती है कि यह अपने यहां हो रहे पलायन को रोकें।
यह पलायन रोकने के लिए पलायन करने आने वाले नेताओं द्वारा अपने-अपने दलों के नेतृत्व पर लगाये जा रहे आरोपों को जानना और समझना आवश्यक हो जाता है। इसके लिये यदि कांग्रेस छोड़कर गये नेताओं के आरोपों को सामने रखा जाये तो स्थिति कुछ सरलता से सामने आ सकती है। अभी तेजिन्द्र बिट्टू ने कांग्रेस छोड़ी है और उसने आरोप लगाया है कि संगठन में चार-पांच सत्ता केंद्र हो गये हैं और उनमें आपसी तालमेल का अभाव है। हिमाचल में भी छः विधायक कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गये हैं। यह लोग लम्बे अरसे से संगठन के भीतर अपने सवाल रख रहे थे। जब संगठन में उनकी बात नहीं सुनी गयी तब मीडिया मंचों के माध्यम से भी इन्होंने अपनी बात सार्वजनिक की। लेकिन तब भी दिल्ली से लेकर शिमला तक किसी ने उनकी बात नहीं सुनी और परिणाम सामने आ गया। यहां भी समानांतर सत्ता केंद्र स्थापित होने तथा उनमें तालमेल का अभाव रहने का आरोप था। यह सत्ता केंद्र अभी भी यथास्थिति कायम हैं। यदि समय रहते स्थितियों में सुधार न हुआ तो परिणाम भयानक हो सकते हैं। तेजिन्द्र बिट्टू का पलायन प्रदेश के लिये एक बड़ा संकेत है।
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किसके वायदों पर भरोसा किया जाना चाहिये

इस लोकसभा चुनाव के लिये कांग्रेस और भाजपा दोनों के चुनाव घोषणा पत्र आ गये हैं। दोनों घोषणा पत्रों में वायदों का अंबार है। यह वायदे कैसे पूरे होंगे और इनके लिये संसाधन कहां से आयेंगे? क्या यह सब कुछ कर्ज लेकर पूरा किया जायेगा या इसके लिए आम आदमी के सिर पर और कर्ज भार डाला जायेगा इसको लेकर कुछ नहीं कहा गया है। सभी दलों के ऐसी ही घोषणाओं को लेकर उनके भी घोषणा पत्र आयेंगे और संभव है कि उनमें भी संसाधन जुटाने को लेकर कुछ नहीं कहा जायेगा। आज देश जिस आर्थिक दौर से गुजर रहा है उसमें राज्य सरकारों और केंद्र सरकार का बढ़ता कर्ज सबसे बड़ी चिंता और चिंतन का विषय बनता जा रहा है। कई अध्ययन और रिपोर्टे इस ओर संकेत कर चुकी हैं बल्कि चेतावनी तक दे चुकी हैं। जिस तरह वोट के लिये छोटे- बड़े राजनीतिक दल मुफ्ती की घोषणाएं करते आये हैं उसको लेकर रिजर्व बैंक से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक चिंता व्यक्त करते हुए इस चलन को बंद करने की सलाह दे चुके हैं। सर्वाेच्च न्यायालय में तो इस आश्य की एक याचिका भी लंबित चल रही है।
इस परिदृश्य में यदि दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस के घोषणा पत्रों के कुछ बिंदुओं पर नजर डाली जाये तो स्थिति और स्पष्ट हो जायेगी। दोनों दलों में महिलाओं को लेकर एक जैसी ही बड़ी आर्थिक घोषणाएं कर रखी हैं। कांग्रेस ने हर महिला को एक वर्ष में एक लाख रूपये देने की घोषणा की है। भाजपा ने भी तीन करोड़ महिलाओं को लखपति दीदी बनाने की घोषणा की है। लेकिन किसी ने भी स्पष्ट नहीं किया है कि संसाधन कैसे जुटाया जायेगा। पिछले दस वर्ष से केंद्र की सत्ता पर भाजपा का कब्जा है। इसलिये सरकार में होने के कारण भाजपा से उसके पुराने वायदों को लेकर सवाल पूछने बनते हैं। भाजपा ने 2014 के चुनाव में देश के हर आदमी के बैंक खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने का वायदा किया था। इस वायदे का आधार विदेशों में भारतीयों के जमा काले धन को वापस लाना बताया गया था। काले धन के लम्बे-लम्बे आंकड़े परोसे गये थे। लेकिन न यह काला धन वापस आया और न ही पन्द्रह लाख बैंक खाते में आये। बल्कि इस दौरान विदेशों में भारतीयों के काले धन का आंकड़ा और बढ़ गया। परिणाम स्वरुप पन्द्रह लाख खाते में आने को चुनावी जुमला कहकर टाल दिया गया। इसलिये कब किसी वायदे को चुनावी जुमला बताकर बात को टाल दिया जाये इसकी संभावना लगातार बनी हुई है।
इसी केंद्र सरकार ने किसान की आय दोगुनी करने का वायदा किया था जो पूरा नहीं हुआ। इसी तरह दो करोड़ नौकरियां देने का वायदा किया गया था। आज देश को तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनाने की बात की जा रही है और इसी के साथ अस्सी करोड लोगों को आगे भी मुफ्त राशन की सुविधा जारी रखने का वायदा किया गया है। क्या यहां यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि जिस देश की आधी से भी अधिक जनसंख्या अपने लिये राशन न जुटा पा रही हो उस देश का आर्थिक शक्ति बनने का दावा कितना भरोसे लायक हो सकता है। राम देश की आस्था है लेकिन राम मंदिर के गिर्द राजनीति को घूमाना कितना सही हो सकता है इसका विचार हरेक को अपने-अपने स्तर पर करना होगा। भाजपा-मोदी के पिछले दस वर्षों के वायदे आज उनकी कसौटी बनेंगे। इसी तरह कांग्रेस के वायदे की परख उसकी राज्य सरकारों की परफॉर्मेंस के आधार पर करनी होगी क्योंकि वह दस वर्ष से केंद्र की सत्ता से बाहर है। आज मोदी-भाजपा ने एक देश एक चुनाव और कामन मतदाता सूची का वायदा किया है। क्या व्यवहारिक रूप से इसका अर्थ एक दल और एक ही नेता का नहीं हो जाता ? आज देश के सर्वाेच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के इक्वीस पूर्व न्यायाधीशों ने सर्वाेच्च न्यायपालिका को कमजोर करने के प्रयासों की ओर मुख्य न्यायाधीश का ध्यान आकर्षित किया है। छः सौ वरिष्ठ वकीलों ने भी इस आशय का पत्र लिखा है। इसलिए आज मतदान करने से पहले इन प्रश्नों के माईने हर नागरिक को तलाशने होंगे और फिर फैसला लेना होगा कि कौन आपके मत का सही हकदार है।

चुनाव की विश्वसनीयता के लिये वी.वी.पैट की शत प्रतिशत गिनती होनी चाहिये

भाजपा ने इस लोकसभा चुनाव के लिये अब की बार चार सौ पार का नारा लगाया हुआ है। इसी के साथ दूसरे दलों के एक लाख लोगों को भाजपा में शामिल करने का लक्ष्य रखा है। अब तक अस्सी हजार लोगों को शामिल करवा लिये जाने का दावा किया जा रहा है। अब तक किस दल से कितने पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद और पूर्व विधायक तथा अन्य पदाधिकारी भाजपा में शामिल हो चुके हैं इसकी सूचियां प्रसारित की जा रही हैं। यदि सही में भाजपा के प्रति इस स्तर की कोई वैचारिक स्वीकृति बनती जा रही है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिये। यदि ऐसा केन्द्रीय जांच एजैन्सीयों के राजनीतिक दुरुपयोग से हो रहा है तो यह निश्चित रूप से सभी के लिये आने वाले समय में घातक सिद्ध होगा। पिछले दोनों आम चुनावों में भाजपा की जीत का आंकड़ा हर बार बढ़ा है। हर चुनाव के दौरान दूसरे दलों में तोड़फोड़ हुई है। हर चुनाव के लिये एक आंकड़ा पहले ही उछाल दिया जा रहा है। और फिर हर संभव मंच से उसका प्रसार करवाया जाता रहा है ताकि परिणाम के दिन किसी को यह अजीब सा न लगे। लेकिन हर चुनाव के बाद ई.वी.एम. मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल भी उठते रहे हैं। यह आरोप लगते रहे हैं कि ई.वी.एम. हैक हो सकती है बल्कि इन्हीं आरोपों के साये में आयी डॉ. स्वामी की याचिका के बाद इन मशीनों में वी.वी.पैट का प्रावधान किया गया। ई.वी.एम को लेकर एक दर्जन से भी अधिक याचिकाएं विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वाेच्च न्यायालय में आ चुकी हैं। बल्कि इसी दौरान उन्नीस लाख ई.वी.एम. मशीनों के गायब होने का सच भी आर.टी.आई. के माध्यम से बाहर आ चुका है। जिस पर अभी तक कोई निर्णायक कारवाई नहीं हो पायी है। जब किसी चयन प्रक्रिया पर सवाल उठने शुरू हो जाते हैं तो उस चयन के परिणामों की विश्वसनीयता स्वतः ही प्रश्नित हो जाती है। 2019 के चुनाव में 542 लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में से 373 चुनाव क्षेत्रों में कुल डाले गये वोटो और गिने गये वोटो में बड़ा अन्तराल पाया गया था। लेकिन परिणाम भाजपा के घोषित और प्रचारित आंकड़े के करीब रहे। स्वभाविक है कि जब 542 में से 373 चुनाव क्षेत्रों में इस तरह की विसंगति सामने आयेगी तो कोई भी व्यक्ति ऐसे परिणाम पर विश्वास कैसे कर पायेगा। यदि चुनाव परिणामों की अपनी विश्वसनियता ही सन्देह के दायरे में आयेगी तो ऐसे परिणाम के आधार पर बनाई गयी सरकार की स्वीकार्यता कैसे बन पायेगी। स्वभाविक है कि ऐसी बनी सरकार को उसकी एजैन्सीयों के दुरुपयोग करने से नहीं रोका जा सकता। चुनाव में यदि विश्वसनीयता की कमी होगी तो उसके परिणाम किसी भी गणित से देश के लिये शुभ नहीं हो सकते। इस समय सर्वाेच्च न्यायालय के पास ए.डी.आर और इंडिया गठबंधन की याचिका विचाराधीन चल रही है। इसमें यह मांग की गयी है कि वी.वी.पैट की पर्ची को स्वयं मतदाता चुनाव बॉक्स में डालें। इसका प्रावधान किया जाये। दूसरी मांग यह है कि शत प्रतिशत वी.वी.पैट की गणना सुनिश्चित की जाये जो अभी 5% ही है। इस मांग पर चुनाव आयोग का यह ऐतराज है कि इससे मतगणना और परिणाम घोषित करने में पांच-छः दिन का और समय लग जायेगा। जब पहले ही चुनाव प्रक्रिया इतनी लंबी कर दी गयी है तो उसमें छः दिन का और समय लग जाने से कोई अन्तर नहीं आयेगा। चुनाव की विश्वसनीयता स्थापित करने के लिये सर्वाेच्च न्यायालय को यह मांग स्वीकार कर लेनी चाहिये और चुनाव आयोग को भी इसका विरोध नहीं करना चाहिये।

क्या चुनावी बॉण्डज खुलासे को विपक्ष भूना पायेगा?

क्या चुनावी बॉण्ड में हुआ खुलासा चुनावी मुद्दा बन पायेगा? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक और महत्वपूर्ण है कि इसमें हुए खुलासे के बाद नैतिकता के आधार पर स्वतःही बहुत कुछ घट जाना चाहिये था। क्योंकि इस माध्यम से चुनावी चन्दा देने वाली अधिकांश कम्पनियों के खिलाफ केन्द्रीय जांच एजेंसियों की कारवाई सवालों के घेरे में आ गयी है। दिल्ली सरकार के खिलाफ जिस कथित शराब घोटाले को लेकर हुई कारवाई में मनीष सिसोदिया, अरविन्द केजरीवाल गिरफ्तार हुये हैं उस शराब कम्पनी के ठेकेदार ने चुनावी बॉण्ड के माध्यम से केन्द्र में सतारूढ़ भाजपा को करीब साठ करोड़ चन्दा दिया है। जबकि इस काण्ड की जांच के दौरान आप नेताओं के यहां मनी लॉंडरिंग के कोई बड़े साक्ष्य सामने नहीं आये हैं। सर्वाेच्च न्यायालय तक यह प्रश्न कर चुका है की मनिट्रेल कहां है। अब जब इसी शराब कम्पनी के मालिक द्वारा भाजपा को चुनावी चन्दा देने का साक्ष्य बाहर आ गया है तो स्वतः ही सारा परिदृश्य बदल जाता है। इसी तरह कांग्रेस के बैंक खातों का सीज किया जाना और चुनावों के दौरान आयकर का नोटिस आना यह प्रमाणित करता है कि कांग्रेस को चुनावों के दौरान साधनहीन करने की एक सुनियोजित बड़ी योजना पर काम किया जा रहा है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई होनी चाहिये। इसके गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। लेकिन जब ऐसी कारवाई चुनावों के दौरान होगी तो निश्चित रूप से सरकार और जांच एजेंसियों की नियत और नीति पर सवाल उठेंगे ही। आज केजरीवाल की गिरफ्तारी और कांग्रेस के खिलाफ हो रही आयकर की कारवाई पर जर्मनी अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र महासंघ के महासचिव की प्रतिक्राओं ने देश के नागरिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय जगत भारत पर नजर रख रहा है। यदि चुनावी बॉण्ड का खुलासा सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से सामने न आता तो विदेशीयों की इन प्रतिक्रियाओं को देश के आंतरिक मामलों में दखल देना करार दिया जा सकता था। लेकिन चुनावी बॉण्ड के इस खुलासे ने देश की जनता के सामने एक बड़ा सवाल रख दिया है जिस पर जनता को अपनी प्रतिक्रिया एक दिन तो देश के सामने रखनी ही होगी। क्योंकि कम्पनियों के इसी चन्दे के खेल का सीधा असर आम जनता पर महंगाई और बेरोजगारी के रूप में पड़ रहा है। कम्पनियां इस चन्दे की वसूली अपने उत्पाद महंगे करके जनता से वसूलती है।
लेकिन यहीं पर यह सवाल भी सामने आता है की जनता कोई संगठित इकाई तो है नहीं और अकेले व्यक्ति की प्रतिक्रिया तो ‘‘नक्कार खाने में तूती की आवाज’’ बनकर रह जायेगी। ऐसे में यह जिम्मेदारी विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों को निभानी होगी। इसके लिये इन राजनीतिक दलों को अपनी-अपनी सरकारों की परफॉरमैन्स को कसौटी पर लाना होगा और संगठन के भीतर भी एक खुले संवाद की जमीन तैयार करनी होगी। क्योंकि किसी भी सरकारी संगठन की नीतियों की व्यवहारिक परीक्षा उसकी जनता में परफॉरमैन्स बनती है। इस समय विपक्ष के रूप में इण्डिया गठबन्धन सामने है और उसको कमजोर करने के लिये उसके नेताओं को गठबंधन से दूर रखने के लिये कैसी रणनीति सरकार ने अपनायी है वह सामने आ चुकी है। ऐसे में इस समय सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस पर आती है। लेकिन जिस तरह से उसके नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं उस पर भी केन्द्रीय नेतृत्व को ध्यान देना होगा। बड़ी निष्पक्षता से अपने राज्यों के नेतृत्व का तुरन्त प्रभाव से हल तलाशना होगा। केवल नेता के चश्मे से ही जनता और संगठन का आकलन करना घातक होगा। इस समय चुनावी चन्दा बाण्डज से जो खुलासा देश के सामने आ चुका है उससे बड़ा प्रमाणिक मुद्दा और कोई नहीं मिलेगा यह तय है।

देश में अमीर और गरीब का अन्तराल क्यों बढ़ रहा है

एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के मुताबिक़ भारत की कुल दौलत का चालीस प्रतिश्त केवल एक प्रतिशत लोगों के पास है। एक व्यक्ति के पास सौ में से चालीस हो जाये और शेष निनावे लोगों के एक रूपये से भी कम प्रति व्यक्ति संपत्ति हो तो उस देश में अमीर और गरीब के बीच में बढ़ते अन्तराल का अंदाजा लगाया जा सकता है। केंद्र से राज्यों तक हर सरकार प्रतिवर्ष आर्थिक सर्वेक्षण करती है। इस सर्वेक्षण में प्रतिव्यक्ति आय और ऋण का आंकड़ा जारी किया जाता है। इस आंकड़े के मुताबिक भारत में प्रतिव्यक्ति निवल राष्ट्रीय आय वर्ष 2023-24 में 1,85,854 रूपये अनुमानित है। हिमाचल में प्रतिव्यक्ति आय 2022-23 में 2,18,788 रुपए रही है। आंकड़ों के अनुसार भारत विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है। आय के इन आंकड़ों को झूठलाया नहीं जा सकता। लेकिन क्या व्यवहार में यह आंकड़े कहीं मेल खाते हैं? केंद्र और राज्य के आंकड़ों को एक साथ रखकर हिमाचल में प्रतिव्यक्ति आय चार लाख से बढ़ जाती है। इसमें यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जिस प्रदेश में प्रतिव्यक्ति आय चार लाख हो उस प्रदेश की सरकार को विकास के लिये कर्ज लेने की आवश्यकता क्यों होगी। लेकिन आज हिमाचल में प्रति व्यक्ति कर्ज का आकड़ा भी लगभग आय के बराबर ही हो गया है।
ऐसा इसलिये है कि आंकड़ों की इस गणना का आम आदमी के साथ व्यवहारिक रूप से कोई सीधा संबंध ही नहीं है। कोई भी सरकार व्यवहारिक रूप से दस प्रतिशत लोगों के लिये ही काम करती है। आम आदमी के विकास के नाम पर कर्ज लेकर केवल दस प्रतिश्त के लाभ के लिये ही काम किया जाता है। एक उद्योगपति के बड़े निवेश से राज्य की जीडीपी बढ़ जाता है। उसके लाभ से ही प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ जाता है। आय और कर्ज के बढ़ते आंकड़ों के इस खेल में सरकारों में स्थायी और नियमित रोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। चुनावों में मुफ्ती की घोषणाओं के साथ समाज में लाभार्थियों के छोटे-छोटे वर्ग खड़े किए जा रहे हैं। आज कर्ज विश्व बैंक, आईएमएफ जैसी अंतरराष्ट्रीय एजैन्सियों से सरकारें बाहय सहायता प्राप्त योजनाओं के नाम पर ले रही है। जिन योजनाओं के लिये यह कर्ज लिया जा रहा है उनके कार्यन्वयन के लिये ग्लोबल टैन्डर की शर्तें रहती हैं। अभी शिमला में 24 घंटे जलापूर्ति के लिये विश्व बैंक से 460 करोड़ की योजना स्वीकृत हुई थी और इसमें ग्लोबल टैंडरिंग के नाम पर उसका ठेका एक विदेशी कंपनी को शायद 870 करोड़ में दे दिया गया। इसमें कैसे क्या हुआ का प्रसंग छोड़ भी दिया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है की किस तरह से आम आदमी के नाम पर कर्जा बढ़ाया जा रहा है। ऐसे सैकड़ो उदाहरण केंद्र से लेकर राज्यों तक उपलब्ध हैं।
आज केंद्र से लेकर राज्यों तक की सभी योजनाओं पर यह सवाल उठाता है कि आम आदमी के नाम पर लिये जा रहे कर्ज के लाभार्थी कुछ मुठी भर लोग क्यों हो रहे हैं। केंद्र से लेकर राज्यों तक कोई भी सरकार रोजगार के वायदों को पूरा क्यों नहीं कर पा रही है? मुफ्त राशन पाने वालों का आंकड़ा लगातार क्यों बढ़ता जा रहा है। राजनीतिक दलों को सत्ता प्राप्ति के लिए मुफ्ती की घोषणाओं और धार्मिकता का सहारा क्यों लेना पड़ रहा है? आज सरकार को नई शिक्षा नीति लाते हुये उसकी भूमिका में ही क्यों लिखना पड़ रहा है कि इस शिक्षा के बाद खाडी के देशों में बतौर मजदूर हमारे युवाओं को रोजगार के बड़े अवसर उपलब्ध होंगे। क्या आज देश के नीति नियन्ताओं से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये की अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार देश में गरीब और अमीर के बीच का अंतराल लगातार बढ़ता क्यों जा रहा है? इस बढ़त का अंतिम परिणाम क्या होगा?

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