Thursday, 18 September 2025
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किस पर विश्वास किया जाये एनडीए या इंडिया पर

चुनाव प्रचार अंतिम चरण पर चल रहा है। अब तक हुये मतदान के आधार पर दोनों गठबंधन एनडीए और इंडिया दोनों अपनी अपनी सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं। मतदान प्रतिशत के आंकड़े 2019 की तुलना में बहुत नीचे हैं। कम मतदान होना इस बात का प्रमाण नहीं माना जा सकता है कि यह मतदान सत्ता पक्ष या विपक्ष के पक्ष में जायेगा। आज भाजपा नीत गठबंधन पिछले दस वर्षों से केंद्र की सत्ता पर काबिज है। 2014 के चुनाव से पहले जिन मुद्दों पर देश में अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव के आन्दोलन आये थे उनके परिणाम स्वरुप देश में सत्ता परिवर्तन हुआ था। 2014 के चुनाव में भाजपा नीत एनडीए गठबंधन केंद्र की सत्ता पर काबिज हुआ था। उस समय जो वायदे देश की जनता के साथ किये गये थे उनमें से कितने पूरे हुये हैं। यह हरेक के सोचने और समझने का विषय है। इसके बाद 2019 के चुनाव हुये और एनडीए फिर सत्ता पर पहले से ज्यादा बहुमत के साथ काबिज हुई। आज 2024 के चुनाव में मोदी भाजपा ने 400 पार का नारा दिया है। लेकिन 2014 और 2019 के चुनाव में जो वायदे किये गये थे उनमें से कितने पूरे हुये हैं। क्या इस पर कोई विधिवत चर्चा आयोजित हो पायी है शायद नहीं। यह सोचने का विषय है 2014 में तब की सरकार को भ्रष्टाचार का प्रयाय करार दिया गया था। अन्ना आन्दोलन का केंद्रीय मुद्दा लोकपाल की स्थापना था। 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद लोकपाल की स्थापना हुई है। लेकिन लोकपाल के पास भ्रष्टाचार के कितने और कौन से मामले गये और उनके परिणाम क्या रहे हैं क्या इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक रूप से बाहर आयी है शायद नहीं। इस चुनाव में भी यूपीए सरकार के समय के घोटाले की सूची भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने हिमाचल की चुनावी जनसभा में रखी है। लेकिन उसमें यह नहीं बताया कि इन पर कारवाई करने की जिम्मेदारी किसकी थी। 2014 से 2024 तक कांग्रेस और अन्य दलों से भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे नेता भाजपा में शामिल हुये हैं उनके ऊपर लगे आरोपों का क्या हुआ। जब 2014 और 2019 में किये गये वायदे पूरे नहीं हुये तो 2024 में किये जा रहे वायदों पर विश्वास कैसे किया जा सकता है। क्या आज आरएसएस के ही अनुसार अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच बंद नहीं हो चुके हैं? क्या यह नीतियों या नीयत में बदलाव के परिणाम नहीं हैं। इस चुनाव में आरएसएस ने भाजपा का चुनाव में समर्थन नहीं करने का आहवान किया है। लेकिन इस आहवान का कोई स्पष्ट कारण भी नहीं बताया है। आज देश में भाजपा मोदी के विकल्प के रूप में कांग्रेस और राहुल गांधी को देखा जा रहा है। लेकिन कांग्रेस की राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सरकारें क्यों सत्ता से बाहर हो गयी इसका कोई जवाब जनता में नहीं आया है। स्वभाविक है कि बदलाव बनने के लिये सरकार में परफारमैन्स करके दिखाना होगा। इस समय हिमाचल में कांग्रेस की सरकार पन्द्रह माह से सत्ता में है। क्या यह सरकार पन्द्रह माह में परफारमैन्स कर पायी है शायद नहीं। यह सरकार भी स्पष्टवादी मीडिया की विरोधी है। बेवाक लिखने वालों का गला घोटने के लिये किसी भी हद तक जा सकती है। ऐसे में जब विकल्प की स्थिति ऐसी होगी तो उस पर कैसे विश्वास किया जा सकेगा? यह सवाल अपने में बड़ा होता जा रहा है। इसके परिणाम क्या होंगे यह और भी गंभीर होता जा रहा है। ऐसे में यह आंशका बढ़ती जा रही है कि इस बार चुनाव परिणाम के साथ ही कहीं अराजकता अपने पांव न पसार ले।

क्या भाजपा और संघ टकराव की ओर बढ़ रहे हैं

इस लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह की ब्यानबाजी की है उससे स्वतः ही कुछ ऐसे सवाल उभर कर सामने आ गये हैं जिनका इन चुनावों के परिणाम और भविष्य की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। पिछले 10 वर्षों से नरेंद्र मोदी सत्ता पर काबिज हैं। इस कालखण्ड में देश को विश्व गुरु बनाने और अर्थव्यवस्था को विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करने के संकल्प प्रधानमंत्री ने भारत की जनता को परोसे हैं। इन्हीं संकल्पों के सहारे इस बार चुनावों में जीत का आंकड़ा 400 पार का लक्ष्य रखा गया था। देश में ‘एक चुनाव एक राष्ट्र का नारा’ दिया गया था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये ही दूसरे दलों से एक लाख लोगों को भाजपा में शामिल करने का लक्ष्य रखा गया था। इस लक्ष्य के तहत 80 हजार लोगों के शामिल होने का दावा भी किया गया है। यह सारे लक्ष्य और दावे इस बात का प्रमाण बन जाते हैं कि देश में भाजपा और प्रधानमंत्री की स्वीकारोक्ति किस स्तर तक पहुंच चुकी है और अब कोई राजनीतिक चुनौती शेष नहीं बची है।
लेकिन जैसे-जैसे चुनाव प्रचार और मतदान चरण दर चरण आगे बढ़ता गया तो उसी के साथ प्रधानमंत्री का तथ्य और कथ्य भी बदलता गया। कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र पर जिस तरह की आक्रामकता प्रधानमंत्री ने अपनायी और उन मुद्दों पर कांग्रेस को घरने का प्रयास किया जो उसके घोषणा पत्र में थे ही नहीं। प्रधानमंत्री की आक्रामकता का चरण तब सामने आ गया जब उन्होंने देश की जनता से कहा कि यदि कांग्रेस सत्ता में आयी तो राम मन्दिर पर बुलडोजर चलवा देगी। जब प्रधानमंत्री जैसा नेता इस तरह का तथ्य जनता के सामने रखेगा तो उसका क्या अर्थ लगाया जायेगा। यह अपने में ही एक बड़ा सवाल बन जाता है। क्योंकि राम मन्दिर पर बुलडोजर चलाने की कल्पना देश में किसी भी राजनीतिक दल से नहीं की जा सकती चाहे सत्ता पर कोई भी काबिज क्यों न हो। यह एक सामान्य समझ रखने वाला व्यक्ति भी जानता है। परन्तु फिर भी प्रधानमंत्री ने जब ऐसा आरोप देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल पर लगाया है तो उसके निहितार्थ बदल जाते हैं। मोदी के नेतृत्व में ही कांग्रेस मुक्त भारत का नारा लगा था। भले ही आज भाजपा स्वयं कांग्रेस युक्त हो चुकी है दूसरे दलों से आये नेता जो वहां पर भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे थे भाजपा में आकर आरोप मुक्त हो गये हैं।
बल्कि इन्हीं लोगों के सहारे आज भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष यह कह पाने का साहस कर पाये हैं कि आज भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग समर्थन और सलाह की आवश्यकता नहीं है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह विचार उनका अपना नहीं वरन् प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का संघ को सन्देश माना जा रहा है। संघ भाजपा में यह संभावित टकराव क्या परिणाम लायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष के इस वक्तव्य के परिणाम दूरगामी होंगे। संघ भाजपा में यह स्थिति एकदम पैदा नहीं हुई है। जब इन चुनावों में संघ का वह वीडियो वायरल हुआ था जिसमें भाजपा को समर्थन न देने का आहवान किया गया था तभी यह आशंका सामने आ गई थी कि इस बार देश के राजनीतिक पटल पर कुछ बड़ा घटना वाला है। इस वस्तुस्थिति में भी प्रधानमंत्री द्वारा 400 पार के दावे को पूरे विश्वास के साथ दोहराना स्वतः ही ईवीएम मशीनों की ओर भी गंभीर संकेत करता है।

क्या यह चुनाव मुद्दों पर आ पायेगा

प्रदेश में लोकसभा के साथ ही छः विधानसभा उपचुनाव भी होने जा रहे हैं। बल्कि इन उपचुनावों ने लोकसभा चुनावों को दूसरे स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है। इसलिए इन उपचुनावों के लिए जिम्मेदार रही स्थितियों और उनके कारणों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने पन्द्रह माह का समय हो गया है। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां दी थी। लेकिन सरकार बनने के बाद सबसे पहले प्रदेश की जनता को राज्य की वित्तीय स्थिति को लेकर यह चेतावनी दी कि हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी के परिदृश्य में जनता गारंटीयों पर ज्यादा मुखर नहीं हुई। इसी चेतावनी के परिदृश्य में सरकार ने पूर्व सरकार द्वारा अंतिम छः माह में लिये गये फैसले बदलते हुये नये खोले गये संस्थान बन्द कर दिये। यह संस्थान बन्द करने पर विपक्षी भाजपा ने तो प्रदेश भर में धरने प्रदर्शन किये लेकिन आम आदमी इससे दूर रहा।
लेकिन जब सरकार ने मंत्रिमण्डल विस्तार से पहले ही छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां कर दी तब आम आदमी सरकार की कार्यप्रणाली पर नजर रखने लगा। मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों के बाद जब सरकार में नियुक्त हुये सलाहकारों और विशेष कार्यधिकारियों की संख्या करीब दो दर्जन के पास पहुंच गयी तब पार्टी के भीतर बैठे नेताओं और दूसरे लोगों ने भी इसका संज्ञान लेना शुरू कर दिया। पार्टी अध्यक्षा और दूसरे कुछ विधायकों ने इस पर चिन्ता व्यक्त करना शुरू कर दी। पार्टी के कार्यकर्ताओं को उचित मान सम्मान नहीं मिलने के आरोप हार्हकमान तक जा पहुंचे। हाईकमान ने सरकार और संगठन में तालमेल के लिये कमेटी तक का गठन कर दिया। लेकिन यह कमेटी भी पूरी तरह निष्क्रिय होकर रह गयी। आम आदमी को राहत के नाम पर केवल व्यवस्था परिवर्तन का जुमला सुनने को मिला। बेरोजगार युवा रोजगार के लिये धरने प्रदर्शनों तक आ गये। विधानसभा में इस आशय के आये हर सवाल का एक ही जवाब आया की सूचना एकत्रित की जा रही है।
जिस वित्तीय स्थिति पर प्रदेश को चेतावनी तक दी गयी उसमें विपक्ष ने आरटीआई के माध्यम से आंकड़े जुटा कर यह आरोप लगा दिया कि यह सरकार पन्द्रह माह में 25000 करोड़ का कर्ज ले चुकी है। सरकार इस आरोप का कोई जवाब नहीं दे पायी है। पूर्व की भाजपा सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाकर उसके खिलाफ श्वेत पत्र भी लायी लेकिन इस पर आज तक कोई सार्वजनिक बहस नहीं हो पायी है। 25 हजार करोड़ का कर्ज़ करके भी कर्मचारियों को उनके देय वितिय लाभों का भुगतान नहीं हो पाया है। ओ पी एस लागू करने के लिये बिजली बोर्ड जैसे अदारे अरसे से मांग करते-करते अब चनावों का बहिष्कार करने की चेतावनी देने पर आ गये हैं। इस पूरी वस्तुस्थिति में यह सवाल खड़ा होता जा रहा है कि जब सरकार अपने खर्चों पर लगाम लगाने के लिये तैयार नहीं है तो फिर आम आदमी पर बोझ क्यों डाला जा रहा है। विभिन्न सेवाओं और वस्तुओं के दामों में वृद्धि करके सरकार दो हजार करोड़ से अधिक का राजस्व अर्जित कर चुकी है। राजस्व बढ़ाने के लिये जल उपकर लगाने जैसे सारे उपाय अदालती परीक्षा में सफल नहीं हो पाये हैं। लेकिन सरकार किसी भी मुद्दे पर सार्वजनिक बहस के लिये तैयार नहीं हो रही है।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या सरकार इसी सहारे चुनावी वैतरणी पार कर लेगी कि उसकी सरकार धन बल के सहारे गिराने का प्रयास हो रहा है। क्या इस आरोप की आड़ में अन्य मुद्दे गौण हो जायेंगे।

घातक होंगे करोना वैक्सीन पर उठते सवाल

लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। इन चुनावों में कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र पर जिस तरह की आक्रामकता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने दिखाई है उससे कांग्रेस के घोषणा पत्र का पाठक बढ़ा है क्योंकि जो सवाल इस घोषणा पत्र पर उठाये जा रहे हैं उन मुद्दों का इस घोषणा पत्र में कोई जिक्र तक नहीं है। प्रधानमंत्री की आक्रामकता ने भाजपा और मोदी द्वारा पिछले दो चुनावों में किये गये वायदों की ओर देश का ध्यान आकर्षित कर लिया है। पिछले दो चुनावों में किये गये वायदों के अलावा इस दौरान घटी दो मुख्य घटनाओं की ओर भी आकर्षित कर लिया है। इस दौरान के नोटबंदी और फिर लॉकडाउन दो ऐसे घटनाक्रम है जिनका प्रभाव लंबे अरसे तक देश पर रहेगा। 2014 में सत्ता परिवर्तन अन्ना आंदोलन का एक बड़ा प्रतिफल रहा है। इस आंदोलन में तब की मनमोहन सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय बताकर लोकपाल की नियुक्ति अपनी मुख्य मांग बना दिया था। इस मांग के परिणाम स्वरुप लोकपाल विधेयक डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में ही पारित हो गया था और उस पर अमल मोदी सरकार में हुआ। लेकिन उस समय 176000 करोड़ का जो 2जी स्कैन बड़ा मुद्दा बना था उस पर उसी विनोद राय ने जिसने यह स्कैम देश के सामने रखा था अदालत में इस कथित स्कैम पर यह कहां है कि यह स्कैम घटा ही नहीं था और इसमें आकलन की गलती लग गयी थी। विनोद एक सवैघानिक पद पर आसीन थें इसलिये उनके खिलाफ कोई करवाई नहीं हो सकी थी।
इसी तरह नोटबंदी के घोषित लाभों पर आज तक सवाल उठ रहे हैं। लेकिन इसी दौरान आयी करोना महामारी ने देश को दो वर्ष तक लॉकडाउन में रखा। इस महामारी में अस्पताल तक खाली हो गये थे क्योंकि लोगों से सर्जरी तक को टालने की राय दी गयी थी। यह राय एक तरह का निर्देश बन गयी थी। महामारी को टालने के लिये लोगों ने ताली और थाली तक बजाने का प्रयोग किया। इस महामारी से बचने के लिए करोना वैक्सीन के दो दो टीके लोगों ने लगवाये। इन टीकों पर उस समय उठे सवाल सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंचे थे। यह टीके लगवाना कितना आवश्यक कर दिया गया था यह आम आदमी जानता है। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय में केंद्र सरकार ने यह कहा कि उसने यह वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं किया है। यह ऐच्छिक था और लोगों ने अपनी इच्छा से इसे लगवाया है। अब ब्रिटेन की एक अदालत में टीका बनाने वाली कंपनी ने यह स्वीकार किया है कि इस टीके से हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक होने के खतरे हैं। कंपनी द्वारा स्वयं यहां साइड इफेक्ट होना स्वीकारने से एक नया विवाद खड़ा हो गया है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उत्तराखंड इकाई ने राष्ट्रपति को मजिस्ट्रेट के माध्यम से एक ज्ञापन भेज कर इसकी निष्पक्ष जांच किये जाने की मांग की है। यह तथ्य सामने आने के बाद जिन लोगों ने यह टीका लगवाया उनमें एक डर का वातावरण फैल गया है। इस समय लोकसभा चुनावों के दौरान यह सामने आना एक नयी समस्या खड़ी करने का माध्यम बन सकता है। इस नयी आशंका पर अभी तक केंद्र सरकार की ओर से कोई वक्तव्य जारी नहीं हुआ है।

कांग्रेस के घोषणा पत्र पर क्यों उठ रहे सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर नीचे तक भाजपा का हर बड़ा छोटा नेता कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र को लेकर आक्रामक हो उठा है। कुछ लोगों ने तो इसे मुस्लिम लीग का घोषणा पत्र करार दे दिया है। आरोप लग रहा है कि कांग्रेस सत्ता में आयी तो वह आपकी संपत्ति छीन कर मुस्लिमों में बांट देगी। इस आरोप को सैम पित्रोदा के एक टीवी चैनल में आये एक वक्तव्य के साथ जोड़कर उठाया जा रहा है। सैम पित्रोदा कांग्रेस के विदेश विभाग के अध्यक्ष हैं। वह टी.वी. चैनल की बहस में विदेशों में संपत्ति कर के बारे में जिक्र कर रहे थे और इसमें यह कह गये कि भारत में ऐसा कर नहीं है। उन्होंने अपने वक्तव्य में यह नहीं कहा है कि भारत में भी ऐसा कर होना चाहिये। सम पित्रोदा के वक्तव्य पर जब देश के प्रधानमंत्री आक्रामक हो जाये तो इस आरोप का समझना और कांग्रेस के घोषणा पत्र को पड़ना पत्रकारिता का धर्म तथा कर्म दोनों हो जाता है। फिर जब कांग्रेस के नेता इस आरोप पर चुप्पी साध ले तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। इस समय चुनाव चल रहे हैं और इसके परिणाम देश के भविष्य पर दूरगामी प्रभाव डालेंगे क्योंकि बहुत सारे नेता प्रधानमंत्री को ईश्वरीय अवतार की संज्ञा देने लग पड़े हैं। यह स्वभाविक है कि जब एक व्यक्ति को इस तरह के संबोधनों से संबोधित किया जाने लग पड़ता है तो वहां पर तर्क शून्य होकर रह जाता है। कांग्रेस के घोषणा पत्र में जातिगत और आर्थिक सर्वेक्षण करवाने की बात कही गयी है। जातिगत जनगणना बिहार में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने करवाई थी और इस जनगणना को सर्वाेच्च न्यायालय की भी हरी झण्डी हासिल है। इस जनगणना के जब आंकड़े सार्वजनिक हुये तब यह सामने आया कि 80 प्रतिशत गरीब दलित, पिछड़े वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग में से आते हैं। बिहार के इन आंकड़ों पर भाजपा ने एतराज उठाया था और राज्य में नीतीश भाजपा की सरकार टूटने में यह एक बड़ा कारण बना था। परन्तु आज फिर भाजपा और नीतीश चुनाव में इकटठे हैं। बिहार के आंकड़ों के बाद देश के कई भागों से जातिगत जनगणना की मांग उठी है। शायद इन्हीं आंकड़ों के कारण आर्थिक सर्वेक्षण की आवश्यकता समझी गयी है। क्योंकि पिछले दिनों में एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में यह सामने आया है कि भारत की कुल संपत्ति के चालीस प्रतिशत पर केवल एक प्रतिशत का कब्जा है। इस अध्ययन में स्पष्ट चेतावनी दी गयी है कि आने वाले समय में भारत में आर्थिक असमानता एक बहुत बड़ा मुद्दा बन जायेगा। भारत में 1953 में विरासत कर लगाया गया था। जिसे 1985 में स्व.राजीव गांधी के कार्यकाल में वापस लिया गया था। उसके बाद गिफ्ट टैक्स 1998 में और 2015 में वैल्थ टैक्स वापस लिया गया था। लेकिन इसी दौरान वियना स्थित ग्लोबल पॉलिसी सेंटर के निदेशक जैफरी आन्ज का सुझाव आया था कि भारत को विरासत कर फिर से लगाना चाहिए। इस सुझाव पर 2019 में यह टैक्स फिर से लगाने की संभावना बन गयी थी। मोदी सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल में जिस तरह सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य संसाधनों को निजी क्षेत्र के हवाले किया गया है और बड़े घरानों की ऋण माफी हुई है। उसके चलते आर्थिक सर्वेक्षण शायद अब समय की मांग बन जायेगी। ऐसे में आर्थिक सर्वेक्षण के सुझाव को संपत्ति छीनने का प्रयास करार देना सामान्य समझ से बाहिर की बात है और इसे हताशा की संज्ञा दी जाने लगी है।

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