Thursday, 18 September 2025
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चुनाव प्रक्रिया पर बहस जरूरी

इस समय देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें यह सवाल हर रोज बड़ा होता जा रहा है की आंखिर ऐसा हो क्यों रहा है? यह सब कब तक चलता रहेगा? इससे बाहर निकलने का पहला कदम क्या हो सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का चयन लोगों के वोट से होता है। इसके लिए हर पांच वर्ष बाद पंचायत से लेकर संसद तक सभी चुनाव की प्रक्रिया से गुजरते हैं। सांसदों से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों तक सब को मानदेय दिया जा रहा है। हर सरकार के कार्यकाल में इस मानदेय में बढ़ौतरी हो रही है। लेकिन क्या जिस अनुपात में यह बढ़ौतरी होती है उसी अनुपात में आम आदमी के संसाधन भी बढ़ते हैं शायद नहीं। इन लोक सेवकों का यह मानदेय हर बार इसलिये बढ़ाया जाता है कि जिस चुनावी प्रक्रिया को पार करके यह लोग लोकसेवा तक पहुंचते हैं वह लगातार महंगी होती जा रही है। क्योंकि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों पर किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा ही तय नहीं है। आज जब चुनावी चंदे के लिये चुनावी बॉण्डस का प्रावधान कर दिया गया है तब से सारी चुनावी प्रक्रिया कुछ लखपतियों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी है। इसी कारण से आज हर राजनीतिक दल से चुनावी टिकट पाने के लिये करोड़पति होना और साथ में कुछ आपराधिक मामलों का तगमा होना आवश्यक हो गया है। इसलिये तो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन अभी तक भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा भी जुमला बनकर रह गया है कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाउंगा।
पिछले लंबे अरसे से हर चुनाव में ईवीएम को लेकर सवाल उठते आ रहे हैं। इन सवालों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता को शुन्य बनाकर रख दिया है। ईवीएम की निष्पक्षता पर सबसे पहले भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने एक याचिका के माध्यम से सवाल उठाये थे और तब वीवीपैट इसके साथ जोड़ी गयी थी। इस तरह चुनावी प्रक्रिया से लेकर ईवीएम तक सब की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठ चुके हैं। जिन देशों ने ईवीएम के माध्यम से चुनाव करवाने की पहल की थी वह सब इस पर उठते सवालों के चलते इसे बंद कर चुके हैं। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि चुनाव प्रक्रिया पर आम आदमी का विश्वास बहाल करने के लिए ईवीएम का उपयोग बंद करके बैलट पेपर के माध्यम से ही चुनाव करवाने पर आना होगा। फिर विश्व भर में अधिकांश में ईवीएम की जगह मत पत्रों के माध्यम से चुनाव की व्यवस्था कर दी गयी है। इसलिए आज देश की जनता को सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना चाहिये कि चुनाव मतपत्रों से करवाने पर सहमति बनायें। इससे चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने में मदद मिलेगी। इसी के साथ चुनाव को धन से मुक्त करने के लिये प्रचार के वर्तमान माध्यम को खत्म करके ग्राम सभाओं के माध्यम से मतदाताओं तक जाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। सरकारों को अंतिम छः माह में कोई भी राजनीतिक और आर्थिक फैसले लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये। इस काल में सरकार को अपनी कारगुजारीयों पर एक श्वेत पत्र जारी करके उसे ग्राम सभाओं के माध्यम से बहस में लाना चाहिये। ग्राम सभाओं का आयोजन राजनीतिक दलों की जगह प्रशासन द्वारा किया जाना चाहिये।
जहां सरकार के कामकाज पर श्वेत पत्र पर बहस हो। उसी तर्ज पर अगले चुनाव के लिये हर दल से उसका एजेण्डा लेकर उस पर इन्हीं ग्राम सभाओं में चर्चाएं करवायी जानी चाहिये। हर दल और चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वह देश-प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर एजेंडे में वक्तव्य जारी करें। उसमें यह बताये कि वह अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए देश-प्रदेश पर न तो कर्ज का भार और न ही नये करों का बोझ डालेगा। मतदाता को चयन तो राजनीतिक दल या व्यक्ति की विचारधारा का करना है। विचारधारा को हर मतदाता तक पहुंचाने का इससे सरल और सहज साधन नहीं हो सकता। इस सुझाव पर बेबाक गंभीरता से विचार करने और इसे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक बढ़ाने-पहुंचाने का आग्रह रहेगा। यह एक प्रयास है ताकि आने वाली पीढ़ियां यह आरोप न लगायें कि हमने सोचने का जोखिम नही उठाया था।

क्या सर्वाेच्च न्यायालय की चेतावनी से सबक सीखेगी सरकार

सर्वाेच्च न्यायालय ने चेतावनी दी है कि यदि हिमाचल की पर्यावरणीय स्थितियों में सुधार नहीं हुआ तो प्रदेश जल्द ही नक्शे से विलुप्त हो जायेगा। यह चेतावनी सरकार द्वारा नोटिफाई ग्रीन बेल्ट एरिया को लेकर आयी है। इस नोटिफिकेशन को चुनौती देने वाली याचिका को अस्वीकार करते हुए शीर्ष अदालत नेे यह चिंता और चेतावनी व्यक्त की है। ऐसी चेतावनियां और चिंताएं प्रदेश उच्च न्यायालय भी पूर्व में रिटैन्शन पॉलिसीयों को लेकर देता रहा है जिन पर कभी अमल नहीं किया गया है। इस बार बरसात में जिस तरह से बादल फटने और लैण्ड स्लाइड्स की घटनाओं में बढ़ौतरी हुई है उससे एक स्थायी डर का माहौल निर्मित हो गया है। जितनी जान माल की हानि इस बार हुई है ऐसी पहले कभी नहीं हुई है। प्रदेश का कोई जिला इस विनाश से अछूता नहीं रहा है। मण्डी जिले में जो त्रासदी घटी है उसने बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया है। क्योंकि आज जिस मुहाने पर प्रदेश आ पहुंचा उसके लिए यहां की सरकारें और प्रशासन ही जिम्मेदार रहा है। इसलिए आज आम को अपने स्तर पर इस पर सजग होकर सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ खड़े होना होगा। 1977 से लेकर आज तक आयी हर सरकार ने इस विनाश में योगदान किया है। हिमाचल पहाड़ी राज्य है लेकिन हमारी सरकारें यह भूल कर इसका विकास मैदानों की तर्ज पर करने की नीतियां बनाती चली गई। जिसका परिणाम है कि इस बार बरसात ने करीब दो सौ लोगों की आहुति ले ली है।
हिमाचल निर्माता डॉ. परमार ने भू-सुधार अधिनियम में यह सुनिश्चित किया था कि कोई भी गैर कृषक हिमाचल में सरकार की पूर्व अनुमति के बिना जमीन नहीं खरीद सकता। सरकार की अनुमति के साथ भी केवल मकान बनाने लायक ही जमीन खरीद सकता है। परन्तु हमारी सरकारों ने सबसे ज्यादा लूट और छूट इसी 118 की अनुमति में कर दी। हर सरकार पर हिमाचल ऑन सेल के आरोप लगे हैं। धारा 118 की अनुमतियों को लेकर चार बार तो जांच आयोग गठित हो चुके हैं परन्तु किसी भी जांच का परिणाम ऐसा नहीं रहा है कि यह दुरुपयोग रुक गया हो। आज चलते-चलते हालात प्रदेश में रेरा के गठन तक पहुंच गये हैं। इस धांधली में राजनेताओं से लेकर शीर्ष अफसरशाही सब बराबर के भागीदार रहे हैं। हिमाचल भूकंप रोधी जोन चार में आता है इसलिये यहां पर बहुमंजिलें निर्माणों पर रोक है। प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी तक सब इस पर चिंताएं व्यक्त कर चुके हैं। लेकिन इस चिंता का परिणाम जमीन पर नहीं उत्तर पाया है। शिमला को लेकर तो यहां तक अध्ययन आ चुका है कि एक हल्के भूकंप के झटके में चालीस हजार लोगों की जान जा सकती है। प्रदेश उच्च न्यायालय इसको लेकर कड़ी चेतावनी दे चुका है। लेकिन इस चेतावनी के बावजूद शिमला में नौ बार रिटैन्शन पॉलिसीयां आ गयी। शिमला हरित पट्टिया चिन्हित है परन्तु उनकी अनदेखी शीर्ष पर बैठे लोगों से शुरू हुई है। आज भी वर्तमान सरकार ने बेसमैन्ट और ऐटीक को लेकर जो नियमों में बदलाव किया है क्या उसमें कहीं इस त्रासदी का कोई प्रभाव दिखता है? शायद नहीं।
1977 में प्रदेश में औद्योगिक क्षेत्र और पन विद्युत परियोजनाओं तथा सीमेंट उद्योग की तरफ सरकारों की सोच गई। 1977 के दौर में जो उद्योग सब्सिडी के लिए प्रदेश में स्थापित हुये क्या उनमें से आज एक प्रतिशत भी दिखते हैं। शायद नहीं। पनविद्युत परियोजनाओं सीमेंट उद्योगों के लिए सैकड़ो बीघा जमीने लैण्ड सीलिंग की अवहेलना करके इन उद्योगों को दे दी गयी। चंबा 65 किलोमीटर तक रावी हैडटेल परियोजनाओं की भेंट चढ़ गयी। उच्च न्यायालय में यह रिपोर्ट लगी हुई है। किन्नौर में स्थानीय लोगों ने इन परियोजनाओं का विरोध किया है क्या उसका कोई असर हुआ है। इन परियोजनाओं से जो बचा था उसे फोरलेन परियोजनाओं की भेंट चढ़ा दिया। आज यदि समय रहते प्रदेश के विकास की अवधारणा पर ईमानदारी से विचार करके उसके अनुरूप कदम न उठाए गए तो सर्वाेच्च न्यायालय की चेतावनी को सही साबित होने में बड़ा समय नहीं लगेगा। शिमला और धर्मशाला में जो नुकसान हुआ है क्या उससे स्मार्ट सिटी परियोजनाओं पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता नहीं है?

क्या एक और संवैधानिक पद की हत्या है धनखड़ के साथ हुआ व्यवहार

संसद सत्र के पहले ही दिन राज्यसभा के सभापति और देश के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुये अपने पद से जैसे ही त्यागपत्र देने की घोषणा की तो सब चौंक गये थे कि अचानक क्या हो गया। लेकिन जैसे ही इस त्यागपत्र की परतंे खुलकर यह सामने आया कि त्यागपत्र दिया नहीं है बल्कि लिया गया है तो सारे देश की नजरें इस पर आ गयी हैं कि आखिर उप-राष्ट्रपति ने ऐसा क्या कर दिया कि उन्हें तुरन्त प्रभाव से अपना पद छोड़ने के लिये बाध्य किया गया। देश की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार उप-राष्ट्रपति का पद प्रधानमंत्री से बड़ा होता है। इस त्यागपत्र के बाद जिस तरह का राजनीतिक व्यवहार जगदीप धनखड़ के साथ हुआ है उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि उन्हें पूरी तरह अपमानित किया गया है। इस अपमान के कारणों का खुलासा प्रधानमंत्री स्वयंम् या उनका कोई प्रतिनिधि अभी तक नहीं कर पाया है। ऐसे में यह देश का हक बनता है कि उसे वास्तविक कारणों की जानकारी दी जाये क्योंकि यह देश से जुड़ा सवाल है। देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति के साथ ऐसा आचरण हो जाये और उसके कारणों की जानकारी देश की जनता को न दी जाये तो इसे लोकतंत्र की कौन सी संज्ञा दी जायेगी? क्या देश में सही में लोकतंत्र खतरे में आ गया है? देश का शासन संविधान के अनुसार चल रहा है या किसी तानाशाह के इशारे पर चल रहा है? यदि प्रधानमंत्री यह देश के सामने स्पष्ट नहीं करते हैं तो इससे आने वाले समय के लिये अच्छे संकेत नहीं जायेंगे। यदि देश का उप-राष्ट्रपति ही सुरक्षित नहीं है तो और कौन हो सकता है? यदि उप-राष्ट्रपति ने देश हित के खिलाफ कोई अपराध कर दिया है तब तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि वह अपराध जल्द से जल्द देश के सामने लाया जाये। यदि ऐसा नहीं होता है तो यह माना जायेगा कि यह कृत्य संवैधानिक पद की सुनियोजित हत्या है।
उप-राष्ट्रपति का पद खाली होने के बाद इसी संसद सत्र में इस पर चुनाव करवाया जायेगा। चुनाव आयोग इस प्रक्रिया में लग गया है। चुनाव आयोग हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनावों में जिस कदर विवादित हो चुका है और बिहार विधान सभा चुनावों की तैयारीयों में जिस तरह से मतदाता सूचियों के विशेष संघन निरीक्षण SIR पर विपक्ष सवाल उठाता जा रहा है और सत्ता पक्ष तथा चुनाव आयोग अपने को सर्वाेच्च न्यायालय से भी बड़ा मानकर चल रहा है वह सही में लोकतंत्र के लिये एक बड़ी चुनौती होगी। चुनाव आयोग और सरकार के रुख को उपराष्ट्रपति पद के साथ हुए आचरण के साथ यदि जोड़कर देखा जाये तो तस्वीर बहुत भयानक हो जाती है। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों को यह सोच कर चलना होगा कि यदि उनका आचरण पद की मर्यादा के अनुसार नहीं होगा तो जनता को स्वयं सड़कों पर उतरना होगा। हम बच्चों को राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों के अधिकार और कर्तव्य पढ़ाते हैं। क्या किसी व्यवस्था में यदि इन पदों की जलालत पढा़नी पड़े तो क्या पढ़ाएंगे। इन पदों पर बैठे हुए लोगों को भी अपनी गरिमा और मर्यादा की स्वयं रक्षा करनी होगी।
इस समय केन्द्र सरकार अकेली भाजपा की नहीं है उसके सहयोगी दल भी हैं। सहयोगी दलों में अपने-अपने वर्चस्व के सवाल उठने लग पड़े हैं। ऐसे में जिस तरह का आचरण जगदीप धनखड़ के साथ सामने आया है वह एन.डी.ए. के घटक दलों के लिये भी एक बड़ी चेतावनी प्रमाणित होगी। यदि बिहार विधानसभा चुनावों में किन्हीं कारणों से एन.डी.ए. की सरकार नहीं बन पाती है तो उसके बाद एन.डी.ए. का बिखरना शुरू हो जायेगा क्योंकि सब धनखड़ के साथ हुए व्यवहार को सामने रखेंगे।

पेड़ काटकर अतिक्रमणों से बेदखली कितनी संभव हो पायेगी?

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेशानुसार वन विभाग ने वन भूमि से अतिक्रमण हटाने की शुरुआत जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्रा से कर दी है। सैंकड़ो सब के पेड़ काट दिये गये हैं। इन पेड़ों को काटने और उस पर होने वाले अन्य खर्चाे की वसूली अतिक्रमणकर्ताओं से वसूलने के भी आदेश अदालत ने पारित किये हैं। अदालत की यह कारवाई भू-राजस्व अधिनियम 1954 की धारा 163 के तहत की जा रही है। मान्य अदालत को यह आदेश इसलिये पारित करने पड़े हैं क्योंकि उसके पास ऐसे अतिक्रमणों को नियमित करने की सरकार की ओर से न तो कोई पॉलिसी रखी गई और न ही ऐसी योजना प्रस्तावित होना सामने आया है। इन पेड़ों को काटे जाने पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं उभर रही हैं। इस मामले का राजनीतिक प्रतिफल अवश्य होगा। इसलिये इस पर व्यापक चर्चा उठाने की आवश्यकता हो जाती है। स्मरणीय है कि आपातकाल के दौरान 1975 में हर भूमिहीन ग्रामीण को दस कनाल/पांच बीघा जमीन दी गयी थी। सरकार की ओर से बाद में ऐसी जमीनों पर उगे पेड़ों का अधिकार भी इन लोगों को दे दिया गया था। इसी के साथ यह भी स्मरणीय है कि वन अधिकार कानून केंद्र सरकार का एक विशेष कानून है जो अन्य कानूनों पर भी प्रभावी होता है। सर्वाेच्च न्यायालय ने 18-4-2013 को उड़ीसा खनन निगम मामले में स्पष्ट कहा है कि जब तक वन अधिकारों का सत्यापन नहीं हो जाता तब तक वन भूमि से बेदखली को अंजाम न दिया जाये। हिमाचल में इन वन अधिकारों की विवेचना शायद अब तक नहीं हो पायी है। हिमाचल के ग्रामीण क्षेत्र के लोग बहुत सारी चीजों के लिये वनों पर आधारित रहते हैं। इसलिये वन अधिकारों की विवेचना और सत्यापन होना आवश्यक है।
हिमाचल सरकार ने वर्ष 2000 में सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के मामलों को नियमित करने की एक योजना बनाई थी। इस योजना के तहत लोगों ने स्वेच्छा से शपथ पत्रों पर अतिक्रमण की जानकारी दी थी। उसके मुताबिक 1,23,835 बीघे में 57549 मामले विभिन्न अदालतों में लंबित चल रहे थे। वैसे प्रारंभिक जानकारी में तीन लाख मामले संज्ञान में आने की बात कही गयी थी। इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों और सैनिक विधवाओं को विशेष लाभ देने की योजना थी। लेकिन इस योजना को उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गयी और यह लागू नहीं हो पायी। लेकिन जब प्रदेश में इतने स्तर पर अतिक्रमण के मामले सामने आ गये तब राज्य सरकार का दायित्व बनता था कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर वनाधिकार अधिनियम के साये में इसका हल तलाशते। 2014-15 से यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने जनहित याचिकाओं के माध्यम से सामने है। एनजीटी ने भी इसका संज्ञान लिया है। वहां पर पीसीसीएफ ने शपथ पत्र देकर जानकारी दी है कि 2001 से 2023 के बीच 5689 हेक्टेयर वन भूमि पर 80374 अतिक्रमण के मामले पाये गये हैं। इनमें से 3097 हेक्टेयर में 9903 मामलों को सफलता पूर्वक बेदखल कर दिया गया है। अब 1995 के गोदावरमन मामले में मई 2025 में आये फैसले में अतिक्रमणों को चिन्हित करने के लिये हर जिले में डीआरओ और डीएफओ के तहत एसआईटी गठित कर दी गयी है। इनकी रिपोर्ट आने का इंतजार है।
अतिक्रमण के इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि यह प्रदेश की एक बहुत बड़ी समस्या है। इतना बड़ा अतिक्रमण राजस्व और वन अधिकारियों तथा राजनीतिक संरक्षण के बिना संभव नहीं है। इसलिये वनाधिकार अधिनियम के साये में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर पक्ष और विपक्ष दोनों को मिलकर इसका स्थायी हल खोजना होगा। क्योंकि इतने बड़े स्तर पर पेड़ काटकर बेदखली करने से इसका हल नहीं होगा।

चुनौती पूर्ण होगा डॉ. बिन्दल का अगला सफर

प्रदेश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में डॉ. बिन्दल तीसरी बार भाजपा के अध्यक्ष बनना निश्चित रूप से एक बड़ी राजनीतिक सफलता है। क्योंकि भाजपा एक ऐसा राजनीतिक संगठन है जिसमें अध्यक्ष के लिये कभी भी मतदान की स्थिति नहीं आने दी जाती है। इसमें चयन नहीं मनोनयन का सूत्र प्रभावी होता है और यह मनोनयन राज्य ही नहीं बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व से होकर आता है। इस समय प्रदेश में जिस तरह से भाजपा नेतृत्व कांग्रेस सरकार के साथ खड़ा नजर आ रहा है उसमें बिन्दल का अध्यक्ष बनना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। हिमाचल की राजनीतिक परिपाटी में आगे भाजपा का सत्ता में आना लगभग तय माना जा रहा है। फिर हिमाचल में आज तक मुख्यमंत्री का पद राजपूत और ब्राह्मण समुदाय से बाहर नहीं गया है। आने वाले समय में भी यही दोहराये जाने की संभावना है। इसमें भी बिन्दल किसी के लिये चुनौती नहीं होंगे यह भी तय माना जा रहा है। इस समय हिमाचल एक कठिन वित्तीय दौर से गुजर रहा है। सरकार में आम आदमी पर जिस तरह से करों/शुल्कों का बोझ बढा़कर प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में डाल दिया है वह भविष्य की सरकारों के लिये भी एक समस्या बनेगी यह तय है। वर्तमान सरकार प्रदेश के वित्तीय संकट के लिये पूर्व भाजपा सरकार के कुप्रबंधन को लगातार दोषी ठहराती आ रही है। लेकिन भाजपा इस आरोप का कोई बड़ा जवाब नहीं दे पायी है। क्योंकि भाजपा पर यह आरोप भी आ गया है कि उसने धन बल के सहारे सरकार को गिराने का प्रयास किया और प्रदेश की जनता ने उपचुनाव में फिर कांग्रेस को उस बहुमत पर लाकर खड़ा कर दिया। भाजपा इसका भी कोई राजनीतिक जवाब अभी तक नहीं दे पायी है।
पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा की सरकार नहीं बन पायी क्योंकि हमीरपुर और शिमला संसदीय क्षेत्रों में पार्टी की परफॉर्मेंस बहुत अच्छी नहीं रही। जिस तरह का चुनाव परिणाम मण्डी ने भाजपा को दिया यदि वैसा ही परिणाम हमीरपुर, शिमला का भी रहता तो स्थितियां कुछ और ही होती। राज्यसभा चुनाव में जब भाजपा पर दल बदल करवा कर सरकार गिराने का आरोप लगा उसके बाद से भाजपा आज तक उस आरोप से न तो मुक्त हो पायी है और न ही सरकार को नुकसान पहुंचा पायी है। जबकि ऐसी परिस्थितियां विधानसभा उपचुनावों के दौरान ही निर्मित हो गयी थी कि भाजपा जब चाहे सरकार बदलवा सकती है। देहरा उपचुनाव में 78.50 लाख रुपया चुनाव के अन्तिम सप्ताह में सरकारी आदारों द्वारा कैश बांटा जाना एक ऐसा सवाल बन चुका है जिस पर भाजपा की चुप्पी कई कुछ कह जाती है। क्योंकि इस संबंध में राज्यपाल के पास आयी होशियार सिंह की शिकायत पर अभी तक कोई कारवाई न हो पाना कई सवालों को जन्म दे जाता है।
इसी तरह नादौन में हुई ई.डी. की छापेमारी में दो लोगों की गिरफ्तारी के बाद उस मामले में भी आगे कुछ न होना भी कई सवाल खड़े कर जाता है। अब विमल ने की मौत प्रकरण की जांच में सी.बी.आई. का अब तक खाली हाथ होना भी लोगों में सवाल खड़े करने लग पड़ा है। इन सवालों पर प्रदेश भाजपा का नेतृत्व लगभग मौन चल रहा है। बल्कि कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुये नेता भी अब लगभग शान्त होकर बैठ गये हैं। भाजपा शायद इस सोच में चल रही है कि वर्तमान सरकार जनता में जितनी असफल प्रमाणित होती जायेगी उसी अनुपात में उसका स्वभाविक लाभ भाजपा को मिल जायेगा। लेकिन जिस तरह से भाजपा में ही कुछ असन्तुष्ट नेताओं ने एक अलग गुट खड़ा कर लिया है उसमें यदि कल को कुछ और नेता भी जुड़ जाते हैं तो स्थितियां एकदम बदल जायेगी। तब सरकार की असफलता का स्वभाविक लाभ भाजपा को ही मिलना निश्चित नहीं होगा। क्योंकि जिस तरह से भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व लगातार सवालों में उलझता जा रहा है उसका असर हर प्रदेश पर पढ़ना तय है। इस परिदृश्य में डॉ. बिन्दल के लिये यह भी बड़ी चुनौती होगा कि वह भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की सरकार के साथ चर्चित सांठ गांठ के आरोपों से कैसे बाहर निकालते हैं। क्योंकि आने वाले समय में सरकार से ज्यादा भाजपा पर सवाल उठने लग पड़ेंगे। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि महत्वपूर्ण सवालों पर भाजपा की चली आ रही चुप्पी के आरोपों को बिन्दल किस तरह से नकार पाते हैं। क्योंकि आने वाले समय में प्रदेश भाजपा में नड्डा, अनुराग ठाकुर और जयराम में ही प्रदेश के मुख्यमंत्री की दौड़ होगी? इनमें कौन नेता अपने-अपने जिलों में कितनी चुनावी जीत हासिल कर पाता है यह बड़ा सवाल होगा और डॉ. बिन्दल के लिये यही बड़ी चुनौती होगी कि वह कैसे इन ध्रुवों को इकट्ठा चला पाने में सफल होते हैं।
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