शिमला/शैल। एनजीटी ने 16 नवम्बर 2017 को योगेन्द्र मोहन सेन गुप्ता और शिला मलहोत्रा मामलों में दिये फैसलों में स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि We hereby prohibit new construction of any kind, i.e. residential, institutional and commercial to be permitted henceforth in any part of the Core and Green/Forest area as defined under the various Notifications issued under the Interim Development Plan as well, by the State Government. इसी फैसले में यह भी कहा है किWherever unauthorised structures, for which no plans were submitted for approval or NOC for development and such areas falls beyond the Core and Green/Forest area the same shall not be regularised or compounded. However, where plans have been submitted and the construction work with deviation has been completed prior to this judgement and the authorities consider it appropriate to regularise such structure beyond the sanctioned plan, in that event the same shall not be compounded or regularised without payment of environmental compensation at the rate of Rs. 5,000/- per sq. ft. in case of exclusive self occupied residential construction and Rs. 10,000/- per sq. ft. in commercial or residential-cum-commercial buildings. The amount so received should be utilised for sustainable development and for providing of facilities in the city of Shimla, as directed under this judgement. नजीटी ने ऐसे 29 निर्देश जारी किये हैं। भविष्य के लिये इस संद्धर्भ में दो कमेटीयां गठित करने के भी निर्देश जारी किये है।
एनजीटी का यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय के 12 दिसम्बर 1996़ के फैसले और संविधान की धारा 48A और 51A (G) की पृष्ठिभूमि में आया जहां पर्यावरण की सुरक्षा के लिये सरकार और आम नागरिक दोनों के ही कुछ कर्तव्य हैं जिन्हे निभाने के लिये सभी बुरी तरह असफल रहे हैं क्योंकि यह कर्तव्य संविधान की धारा 19(एफ) को हटाकर 44वें संविधान संशोधन के बाद जोड़ी गयी धारा 300 ए के परिदृश्य में और भी गंभीर हो जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के दिसम्बर 1996 के फैसले के बाद सरकार ने वर्ष 2000 में अगस्त और दिसम्बर मे दो अधिसूचनाएं जारी की थी। इनमें नये निर्माणां पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। इनमें स्पष्ट कहा गया था कि All Private as well as Government constructions are totally banned within the core area of Shimla Planning Area. Only reconstruction on old lines shall be permitted in this area with the prior approval of the State Government. इसमें कोर एरिया को परिभाषित किया गया था। सरकार की अधिसूचनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के 1996 के फैसले की पृष्ठिभूमि में एनजीटी ने भी मई 2014 में अपनी मुहर लगाते हुए कहा कि In the meanwhile, we restrain all the Respondents and particularly the Municipal Corporation of Shimla and the Government State of Himachal Pradesh from raising or permitting any construction in the areas covered under the Notification dated 07th December, 2000.
इसी दौरान विभिन्न सरकारी विभागों और कुछ प्राईवेट लोगों ने इन अधिसूचनाओं में कुछ ढील देने का आग्रह करते हुए नये निर्माणों की अनुमतियां मांगी। लेकिन नगर निगम ने यह अनुमतियां इन विभागों को नही दी। कुछ प्राईवेट लोगों ने तो उच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। लेकिन उच्च न्यायालय ने यह मामले एनजीटी को सौंप दिये। एनजीटी ने अपने इसी फैसले में इन आवेदनो/याचिकाओं का भी निपटारा किया है। एनजीटी ने किसी को भी अनुमति नही दी है। इन लोगों को अपने मामले इस फैसले में दिये गये निर्देशों की अनुपालना में बनाई जाने वाली निगरानी कमेटी के समक्ष रखने को कहा है। निगरानी कमेटी इन पर इस फैसले में दिये गये निर्देशों के अनुसार विचार करके अपनी सिफारिश करेंगी और फिर एनजीटी इन पर फैसला लेगा। लेकिन जहां नगर निगम के विभिन्न सरकारी विभागां को अनुमति नही दी बल्कि एक आवेदन तो जस्टिस आरएफ नरीमन का आया है और उन्हे भी अनुमति नही मिली है। वहीं पर इसी दौरान 5143 मामले अवैध निर्माणों के घट गये जिनमें से 180 मामले तो ऐसे हैं जिन्होने कभी अनुमति मांगी ही नही। यह आंकड़ा एनजीटी के फैसले में दर्ज है। ऐसे में सवाल उठता है कि इतनी बड़ी मात्रा में इतना अवैध निर्माण या उसकी जानकारी के बिना ही इसे अंजाम दिया गया है। वस्तुस्थिति जो भी रही हो यह अपने में ही एक बड़ा कांड हो जाता है। एनजीटी के फैसले के अनुसार यह 1801 अवैध निर्माण देर सवेर तोडे़ ही जाने है। बल्कि इन्ही कारणों से एनजीटी के फैसले को पहले ट्रिब्यूनल में ही रिव्यू डालकर चुनौती दी गयी। लेकिन एनजीटी ने इस रिव्यू को अस्वीकार कर दिया है। इस अस्वीकार के बाद अब सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने की बात की जा रही है। यदि एनजीटी के 165 पन्नों के फैसलें को ध्यान से देखा जाये तो यह सारा मामला ही सर्वोच्च न्यायालय के दिसम्बर 1996 के फैसले का ही विस्तारित रूप है। क्योंकि 1996 के फैसले के बाद ही 2000 में सरकार ने स्वयं अधिसूचनाएं जारी करके निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगाया और स्वयं ही अवैधताओं पर आंखे बन्द कर ली। एनजीटी में जब यह मामला आया तब फिर अदालत ने इस पर अधिकारियों की एक कमेटी गठित करे रिपोर्ट तलब की। इस कमेटी के पहले अध्यक्ष प्रधान सचिव आरडी धीमान थे जिन्हें कमेटी के सदस्यों के साथ ही मतभेद हो जाने के कारण हटा दिया गया था। फिर इसके अध्यक्ष अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण कपूर बनाये गये थे। इस कमेटी ने 24 मई 2017 को 20 पन्नो की रिपोर्ट सौपी है। यह रिपोर्ट भी बहुत सारे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययनों पर आधारित है।
इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि एनजीटी का फैसला सर्वोच्च न्यायालय सरकार की अपनी अधिसूचनाओं और फिरअधिकारियों की विस्तृत रिपोर्ट पर ही आधारित है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि एनजीटी ने तो सरकार को ही स्मरण कराया है कि शिमला को बचाये रखने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और अपनी ही अधिसूचनाओं पर अमल करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नही बचा है। अवैधताओं पर आंखे मूंदने की दोषी कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही सरकारें एक बराबर रही है। 5103 अवैध निर्माणों का जो आंकड़ा एनजीटी के सामने आया है उसमें यह भी साफ कहा गया है कि यह आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा हो सकता है एनजीटी ने टूटीकण्डी, संजौली, न्यू शिमला, जाखू, रिज, लक्कड़ बाजार और राम नगर आदि कई क्षेत्रों का तो विशेष रूप से उल्लेख किया है। लेकिन इन क्षेत्रों में आज भी ऐसे निर्माण जारी हैं जो फैसले के मानकों पर सही नही उतरते हैं। मालरोड़ और गंज क्षेत्र में भी ऐसे निर्माण सामने चल रहे हैं। जिन्हें फैसले के परिदृश्य में कतई अनुमति नही दी जा सकती। ऐसे निर्माणों को बीच में ही रोक देने के लिये फैसले के अनुरूप प्रशासन अधिकृत है भले ही उनके प्लान को अनुमति प्राप्त रही हो। प्रशासन फैसले पर अमल करने की बजाये राजनीतिक दबाव में अपील में जाने की नीति पर चल रहा है। इससे कुछ दिनां का समय तो अवश्य मिल सकता है लेकिन यह तय है कि सर्वोच्च न्यायालय इन अवैधताओं को अनुमति नही देगा। यह अवैध निर्माण अन्ततः गिराने ही पडेंगे।
शिमला/शैल। पिछले कुछ अरसे से प्रदेश मन्त्रीमण्डल में फेरबदल किये जाने की अटकलों का दौर चल रहा है। इसमें यह भी चर्चा चल रही थी कि राजीव बिन्दल को मन्त्री बनाया जा सकता है। लेकिन बिन्दल के खिलाफ लम्बे अरसे से विजिलैन्स में आपराधिक मामला चल रहा है। अब इस मामले को वापिस लेने के लिये सीआरपीसी की धारा 321 के तहत अदालत मे आवेदन करना पड़ता है और यह आवेदन केवल मामले से जुड़ा सरकारी वकील ही कर सकता है। इसके लिये मामले से जुड़े सरकारी वकील को सरकार की ओर से निर्देश गये थे कि वह यह आवेदन अदालत में करे। उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक सरकारी वकील ने यह आवेदन करने से इन्कार कर दिया है क्योंकि मामला निर्णायक मोड़ तक पंहुच चुका है। सीआरपीसी की धारा 321 के तहत सरकारी वकील को मामला वापिस लेने के लिये यह कहना पड़ता है कि उसकी राय में यह मामला सफल नही हो सकता। लेकिन इसमें जब मामला अन्तिम चरण में पंहुच चुका है और आज से पहले कभी सरकारी वकील की ओर से यह इंगित ही नही हुआ है तो अब इस स्टेज पर ऐसे आग्रह से उसी की फजीहत होती।
स्मरणीय है कि धूमल शासन के दौरान भी इस मामले को खत्म करने के प्रयास किये गये थे। उन प्रयासों के तहत विधानसभा अध्यक्ष ने इसमें मुकद्दमा चलाने की अनुमति नही दी थी। लेकिन अदालत ने यह अनुममित न दिये जाने को यह कह कर नकार दिया था कि विधानसभा अध्यक्ष इसके लिये सक्षम अधिकारी नही हैं। अब जब सरकारी वकील ने सीआरपीसी की धारा 321 के तहत आवेदन करने में असमर्थता जता दी है तो यह स्पष्ट हो गया कि यह मामला अदालत में चलेगा ही। मामले की जानकारी रखने वालों के मुताबिक इसमें परिणाम कुछ भी आ सकते हैं।
इस परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा यह खड़ा हो गया है कि मंत्री बनने के लिये तो तब तक वंदिश नही हैं जब तक किसी मामले में दो वर्ष से अधिक की सजा़ न हो जाए। क्योंकि दो वर्ष की सज़ा पर तत्काल गिरफ्तारी के बाद ही अपील और जमानत की स्थिति आती है। बिन्दल के मामले तो यह सब कुछ अभी अनिश्चितता में चल रहा है। उन्हें मामले के चलते हुए जब विधानसभा अध्यक्ष बनाया जा सकता है तो उसी तर्क पर उन्हें मन्त्री बनाने में भी कोई दिक्कत नही हो सकती थी। फिर सूत्रों का यह भी दावा है कि सरकारी वकील ने दो माह पहले ही लिख दिया था कि मामला वापिस ले लिया जाये। उसके बाद सरकार ने उस वकील को ही बदल दिया। अब इस केस में जो नया सरकारी वकील लगाया गया है उसने नये सिरे से अपनी राय देते हुए यह लिख दिया है कि मामला वापिस नही लिया जा सकता। इन तथ्यों को सामने रखते हुये तो एकदम सारा परिदृश्य ही बदल जाता है और यह संदेश जाता है कि सरकार मामला वापिस ही नही लेना चाहती है। इससे यह भी संकेत उभरता है कि जब बिन्दल का ही मामला सरकार वापिस नही लेना चाहती है तो अन्य नेताआें के मामलों में भी ऐसी ही रणनीति अपनाई जायेगी। माना जा रहा है कि जयराम सरकार की इस रणनीति के दूरगामी राजनीतिक परिणाम होंगे।
शिमला/शैल। न्यू शिमला आवासीय हाऊसिंग कॉलोनी का प्रारूप जब सार्वजनिक प्रचारित एवम् प्रसारित किया था तब यहां पर ग्रीन एरिया, पार्क और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के लिये अलग से विशेष भूस्थल चिन्हित किये गये थे। क्योंकि यह कालोनी विशुद्ध रूप से आवासीय कालोनी घोषित की गयी थी। यह प्रदेश की दूसरी आवासीय कालोनी थी जो पूरी तरह सैल्फ फाईनसिंग से वित्त पोषित थी। इसी आधार और आशय से इसका विकास प्रारूप तैयार किया था। इसी कारण से इस कॉलोनी के लिये अधिगृहित भूमि के एक-एक ईंच हिस्से की कीमत इसके आबंटितों से ली गयी है जिसमें सड़क, सीवरेज, पेयजल, ग्रीन एरिया, पार्क तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाएं शामिल हैं। इन सारी सुविधाओं की कीमत वसूलने के कारण ही 83.84 लाख में खरीदी गयी ज़मीन आबंटितों को 9.10 करोड़ में दी गयी है। कॉलोनी में पूरी सैल्फ फाईंनैंस होने के कारण यहां की हर सुविधा पर आबंटितों का मालिकाना हक हो जाता है। कॉलोनी विशुद्ध रूप से आवासीय होगी यही खरीददारों के लिये सबसे बड़ा आकर्षण था। क्योंकि इसमें व्यवसायिक दुनिया की हलचल और शोर शराबा नही होगा। एकदम शान्त वातावरण रहेगा इसलिये यह वरिष्ठ नागरिकों की पसन्द बना।
लेकिन जब यहां पर व्यवहारिक रूप से लोगों ने प्लॉट/ मकान खरीदने बनाने शुरू किये तब आगे चल कर यह सामने आने लगा कि जो भू-स्थल ग्रीन एरिया और पार्क आदि के लिये रखे गये थे वहां पर कई जगह भू उपयोग बदल कर उसे दूसरे उद्देश्यों के लिये प्रयुक्त कर लिया गया। इस तरह भू उपयोग बदले जाने से कॉलोनी का आवासीय चरित्र ही बदल गया। जब इसके लिये ज़मीन का अधिग्रहण 1986 में किया गया तब ऐजैन्सी साडा थी। साडा बाद में बदलकर नगर विकास प्राधिकरण बन गया। फिर नगर विकास प्राधिकरण का विलय हिमुडा में हो गया और अब हिमुडा से इसे शिमला नगर निगम को दे दिया गया है। यह सारी ऐजैन्सीयां कानून की नज़र से इस कॉलोनी की ट्रस्टी हैं मालिक नही। भू उपयोग बदले जाने के जितने भी मामले घटित हुए हैं वह सब इन्ही ऐजैन्सीयों ने किये। अब नगर निगम शिमला भी यहां पर ‘‘विकास के नाम से कई निर्माण कार्य करवा रही है इस तरह के कार्यो से जब यहां का आवासीय चरित्र बदलने लगा तब आबंटितां ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया और भू-उपयोग बदले जाने के मामले सामने आने लगे। इसका संज्ञान लेते हुए आबंटितों ने वाकायदा एक अपनी रैजिडैन्ट वैलफेयर सोसायटी का सैक्टर वाईज़ गठन कर लिया और फिर सारी ईकाईयों न मिलकर एक शीर्ष संस्था का गठन कर लिया है।
इसी दौरान इन मुद्दों पर 2012 में प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर हो गयी है। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान यहां पर चल रही विभिन्न व्यवसायिक गतिविधियों की ओर से उच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित हुआ। उच्च न्यायालय ने सबंद्ध प्रशासन से इस बारे में रिपोर्ट तलब की। प्रशासन ने जब इस संबंध में जांच शुरू की तो सैकड़ो ऐसे मामले सामने आये जहां पर प्रशासन से भू उपयोग बदलने की अनुमति लिये बिना ही व्यवसायिक गतिविधियां चल रही थी। इसका कड़ा संज्ञान लेकर ऐसे भवनों के बिजली, पानी के कनैक्शन तक काटे गये। भू उपयोग बदलकर ग्रीन एरिया को पार्कांं में बदलने और इसके लिये पेड़ों को काटे जाने के तथ्य जब उच्च न्यायालय के सामने आये थे तब उच्च न्यायालय ने यहां निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबन्ध के बाद भी यहां पर दो ब्लाक बनाकर बेच दिये गये। ग्रीन एरिया में रद्दोबदल कॉलोनी के सैक्टर 1,2,3 और 4 में सामने आये हैं। यह आरोप नगर शिमला पर लगे हैं जो याचिका में प्रतिवादी नम्बर 5 हैं। इन आरोपों का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने यह रोक लगा दी थी कि अदालत की अनुमति के बिना यहां के खाली/ग्रीन और कामन एरिया में कोई भी निर्माण न किया जाये। लेकिन नगर निगम ने यहां पर अम्रूत योजना और मर्जड एरिया ग्रांट के नाम पर मिले धन से कई निर्माण कार्य शुरू करवा रखे हैं। इन सारे कार्यो को ठेकेदारों के माध्यम से करवाया जा रहा है। निगम ने इन कार्यों की बाकायदा सूचियां अदालत में दे रखी हैं। अब अदालत के आदेश से बन्द किये गये इन कार्यों को पुनः शुरू करवाने के लिये उच्च न्यायालय में गुहार लगा रखी है।
नगर निगम पर आरोप है कि उसने भू-उपयोग को बदला है निगम द्वारा कार्यों की सूची अदालत में रखना कानून की नज़र में इस आरोप को स्वतः ही स्वीकार करना बन जाता है यदि उच्च न्यायालय निगम को यह कार्य पूरे करने की अनुमति दे देता है तो इसका अर्थ यह होगा कि अदालत ने भी भू उपयोग बदलने की अपरोक्ष में अनुमति दे दी। दूसरी ओर याचिकाकर्ता का निगम पर आरोप है कि 1998 से लेकर आज तक निगम ने एक पेड़ तक यहां नही लगाया है। धन का दुरूपयोग किया जा रहा है। बल्कि अदालत के आदेशां की अनुपालना नही की जा रही है। जो निर्माण/विकास कार्य किये जा रहे हैं वह डवैल्पमैन्ट प्लान के अनुरूप नही बल्कि प्लान पारूप की धारा 26, 27 की अवेहलना के कारण दण्डनीय बन जाते हैं। उच्च न्यायालय में आज तक डवैल्पमैन्ट प्लान पेश नही किया गया है। ऐसे में यह और भी बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि जब प्लान ही नही है तो फिर निर्माण किस आधार पर हो रहा है। नगर निगम तो नियोजक की भूमिका में है न कि विकासिक की। फिर भू उपयोग को बदलना तो याचिकाकर्ता के अनुसार उच्च न्यायालय के भी अधिकार क्षेत्र में नही है फिर नगर निगम किसी अन्य ऐजैन्सी का तो सवाल ही पैदा नही होता। ऐसे में यदि नगर निगम भू उपयोग बदलने के लिये अधिकृत ही नही है तब तो उसके द्वारा किये गये कार्यो की सूची स्वतः ही अदालत के सामने रखना अन्ततः निगम प्रशासन के गले की फांस बन सकता है।
शिमला/शैल। न्यू शिमला आवासीय हाऊसिंग कॉलोनी का प्रारूप जब सार्वजनिक प्रचारित एवम् प्रसारित किया था तब यहां पर ग्रीन एरिया, पार्क और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के लिये अलग से विशेष भूस्थल चिन्हित किये गये थे। क्योंकि यह कालोनी विशुद्ध रूप से आवासीय कालोनी घोषित की गयी थी। यह प्रदेश की दूसरी आवासीय कालोनी थी जो पूरी तरह सैल्फ फाईनसिंग से वित्त पोषित थी। इसी आधार और आशय से इसका विकास प्रारूप तैयार किया था। इसी कारण से इस कॉलोनी के लिये अधिगृहित भूमि के एक-एक ईंच हिस्से की कीमत इसके आबंटितों से ली गयी है जिसमें सड़क, सीवरेज, पेयजल, ग्रीन एरिया, पार्क तथा अन्य सार्वजनिक सुविधाएं शामिल हैं। इन सारी सुविधाओं की कीमत वसूलने के कारण ही 83.84 लाख में खरीदी गयी ज़मीन आबंटितों को 9.10 करोड़ में दी गयी है। कॉलोनी में पूरी सैल्फ फाईंनैंस होने के कारण यहां की हर सुविधा पर आबंटितों का मालिकाना हक हो जाता है। कॉलोनी विशुद्ध रूप से आवासीय होगी यही खरीददारों के लिये सबसे बड़ा आकर्षण था। क्योंकि इसमें व्यवसायिक दुनिया की हलचल और शोर शराबा नही होगा। एकदम शान्त वातावरण रहेगा इसलिये यह वरिष्ठ नागरिकों की पसन्द बना।
लेकिन जब यहां पर व्यवहारिक रूप से लोगों ने प्लॉट/ मकान खरीदने बनाने शुरू किये तब आगे चल कर यह सामने आने लगा कि जो भू-स्थल ग्रीन एरिया और पार्क आदि के लिये रखे गये थे वहां पर कई जगह भू उपयोग बदल कर उसे दूसरे उद्देश्यों के लिये प्रयुक्त कर लिया गया। इस तरह भू उपयोग बदले जाने से कॉलोनी का आवासीय चरित्र ही बदल गया। जब इसके लिये ज़मीन का अधिग्रहण 1986 में किया गया तब ऐजैन्सी साडा थी। साडा बाद में बदलकर नगर विकास प्राधिकरण बन गया। फिर नगर विकास प्राधिकरण का विलय हिमुडा में हो गया और अब हिमुडा से इसे शिमला नगर निगम को दे दिया गया है। यह सारी ऐजैन्सीयां कानून की नज़र से इस कॉलोनी की ट्रस्टी हैं मालिक नही। भू उपयोग बदले जाने के जितने भी मामले घटित हुए हैं वह सब इन्ही ऐजैन्सीयों ने किये। अब नगर निगम शिमला भी यहां पर ‘‘विकास के नाम से कई निर्माण कार्य करवा रही है इस तरह के कार्यो से जब यहां का आवासीय चरित्र बदलने लगा तब आबंटितां ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया और भू-उपयोग बदले जाने के मामले सामने आने लगे। इसका संज्ञान लेते हुए आबंटितों ने वाकायदा एक अपनी रैजिडैन्ट वैलफेयर सोसायटी का सैक्टर वाईज़ गठन कर लिया और फिर सारी ईकाईयों न मिलकर एक शीर्ष संस्था का गठन कर लिया है।
इसी दौरान इन मुद्दों पर 2012 में प्रदेश उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर हो गयी है। इसी याचिका की सुनवाई के दौरान यहां पर चल रही विभिन्न व्यवसायिक गतिविधियों की ओर से उच्च न्यायालय का ध्यान आकर्षित हुआ। उच्च न्यायालय ने सबंद्ध प्रशासन से इस बारे में रिपोर्ट तलब की। प्रशासन ने जब इस संबंध में जांच शुरू की तो सैकड़ो ऐसे मामले सामने आये जहां पर प्रशासन से भू उपयोग बदलने की अनुमति लिये बिना ही व्यवसायिक गतिविधियां चल रही थी। इसका कड़ा संज्ञान लेकर ऐसे भवनों के बिजली, पानी के कनैक्शन तक काटे गये। भू उपयोग बदलकर ग्रीन एरिया को पार्कांं में बदलने और इसके लिये पेड़ों को काटे जाने के तथ्य जब उच्च न्यायालय के सामने आये थे तब उच्च न्यायालय ने यहां निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। लेकिन इस प्रतिबन्ध के बाद भी यहां पर दो ब्लाक बनाकर बेच दिये गये। ग्रीन एरिया में रद्दोबदल कॉलोनी के सैक्टर 1,2,3 और 4 में सामने आये हैं। यह आरोप नगर शिमला पर लगे हैं जो याचिका में प्रतिवादी नम्बर 5 हैं। इन आरोपों का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने यह रोक लगा दी थी कि अदालत की अनुमति के बिना यहां के खाली/ग्रीन और कामन एरिया में कोई भी निर्माण न किया जाये। लेकिन नगर निगम ने यहां पर अम्रूत योजना और मर्जड एरिया ग्रांट के नाम पर मिले धन से कई निर्माण कार्य शुरू करवा रखे हैं। इन सारे कार्यो को ठेकेदारों के माध्यम से करवाया जा रहा है। निगम ने इन कार्यों की बाकायदा सूचियां अदालत में दे रखी हैं। अब अदालत के आदेश से बन्द किये गये इन कार्यों को पुनः शुरू करवाने के लिये उच्च न्यायालय में गुहार लगा रखी है।
नगर निगम पर आरोप है कि उसने भू-उपयोग को बदला है निगम द्वारा कार्यों की सूची अदालत में रखना कानून की नज़र में इस आरोप को स्वतः ही स्वीकार करना बन जाता है यदि उच्च न्यायालय निगम को यह कार्य पूरे करने की अनुमति दे देता है तो इसका अर्थ यह होगा कि अदालत ने भी भू उपयोग बदलने की अपरोक्ष में अनुमति दे दी। दूसरी ओर याचिकाकर्ता का निगम पर आरोप है कि 1998 से लेकर आज तक निगम ने एक पेड़ तक यहां नही लगाया है। धन का दुरूपयोग किया जा रहा है। बल्कि अदालत के आदेशां की अनुपालना नही की जा रही है। जो निर्माण/विकास कार्य किये जा रहे हैं वह डवैल्पमैन्ट प्लान के अनुरूप नही बल्कि प्लान पारूप की धारा 26, 27 की अवेहलना के कारण दण्डनीय बन जाते हैं। उच्च न्यायालय में आज तक डवैल्पमैन्ट प्लान पेश नही किया गया है। ऐसे में यह और भी बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि जब प्लान ही नही है तो फिर निर्माण किस आधार पर हो रहा है। नगर निगम तो नियोजक की भूमिका में है न कि विकासिक की। फिर भू उपयोग को बदलना तो याचिकाकर्ता के अनुसार उच्च न्यायालय के भी अधिकार क्षेत्र में नही है फिर नगर निगम किसी अन्य ऐजैन्सी का तो सवाल ही पैदा नही होता। ऐसे में यदि नगर निगम भू उपयोग बदलने के लिये अधिकृत ही नही है तब तो उसके द्वारा किये गये कार्यो की सूची स्वतः ही अदालत के सामने रखना अन्ततः निगम प्रशासन के गले की फांस बन सकता है।
शिमला/शैल। पूर्व मुख्यमन्त्री और प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता वीरभद्र सिंह ने कांग्रेस के राज्य अध्यक्ष सुक्खु को पद से हटाने के लिये विधानसभा चुनावों से बहुत पहले से अभियान छेड़ रखा है। इसी अभियान के कारण विधानसभा चुनावों के लिये वीरभद्र सिंह को नेता घोषित किया गया था लेकिन फिर भी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी जबकि पचपन टिकट वीरभद्र की सिफारिश पर दिये गये थे। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को अधिकारिक तौर पर विपक्ष का दर्जा हासिल करने लायक भी बहुमत नहीं मिल पाया है। शायद इसीलिये कांग्रेस विधायक दल का नेता वीरभद्र की बजाये मुकेश अग्निहोत्री को बनाया गया है। इन विधानसभा चुनावों में वीरभद्र की व्यक्तिगत बडी उपलब्धि यही रही है कि वह अपनी पुरानी सीट शिमला ग्रामीण से अपने बेटे विक्रमादित्य को विधायक बनवा पाये हैं। स्वयं भी नये क्षेत्रा अर्की से जीत हासिल कर पाये हैं। वैसे इस जीत को लेकर यह भी चर्चा रही है कि यहां पर भाजपा ने अपने दो बार लगातार जीत हासिल करने वाले विधायक गोविन्द शर्मा का टिकट काटकर वीरभद्र की जीत की राह आसान कर दी थी। इन चुनावों जहां कांग्रेस के अन्दर वीरभद्र के विरोधी हारे हैं वहीं पर कुछ उनके निकटस्थ भी हार गये हैं। विधानसभा चुनाव परिणामों के इस गणित से यह स्पष्ट संकेत उभरता है कि जिस ऐज और स्टेज पर वीरभद्र पहुंच चुके हैं वहां से जनता पर उनकी पकड़ अब पहले जैसी नहीं रह गयी है। यह सही है कि वह छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रह चुके हैं और इस नाते प्रदेश के हर विधानसभा क्षेत्र में कुछ न कुछ लोग उनको व्यक्तिगत तौर पर जानने वाले आज भी हैं। लेकिन प्रदेश की जो समस्याएं आज है जिसका सबसे बड़ा कारण कर्ज का चक्रव्यूह है। यही नहीं आज स्कूलों में चौदह हज़ार से ज्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं, सैंकड़ों स्कूलों को बन्द करना पड़ रहा है। यह सब कुछ बहुत हद तक उन्हीं के शासन काल की योजनाओं का परिणाम है। इस सब को लेकर अधिकांश जनता का आकलन क्या है शायद इसकी जानकारी वीरभद्र और कांग्रेस को व्यवहारिक तौर पर नहीं है।
आज कांग्रेस के अन्दर अगले नेता को लेकर एक बड़ा शून्य चल रहा है क्योंकि वीरभद्र ने अभी तक किसी एक का नाम अधिकारिक तौर पर घोषित नहीं किया है। क्योंकि जब उन्होंने यहां तक कह दिया है कि वह कांग्रेस के अन्दर भाजपा के आडवाणी और जोशी जैसे मार्गदर्शक नहीं बनना चाहते। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह अभी भी अपने को सत्ता के हकदारों में पहले स्थान पर मानकर चल रहे हैं लेकिन अपने इस मन्तव्य को वह सीधा घोषित नहीं कर रहे हैं परन्तु जिस तर्ज पर उन्होंने सुक्खु को हटवाने का अभियान छेड़ रखा है उससे तो पहला अर्थ यही निकलता है। अन्यथा वह पार्टी हित में वरिष्ठतम नेता होने के नाते कांग्रेस में सरकार और संगठन के नेतृत्व के लिये किसी को तो नामजद करते। लेकिन जब वह ऐसा नहीं कर रहें है और साथ ही यह भी कह चुके हैं कि न तो वह स्वयं और न ही उनके परिवार से कोई दूसरा लोकसभा चुनाव लड़ेगा तब इस सब के राजनीतिक मायने बदल जाते हैं। वीरभद्र और उनकी पत्नी प्रतिभा मण्डी लोकसभा क्षेत्र का कई बार प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इस बार भी यदि यह लोग चुनाव लड़े तो स्वभाविक रूप से मण्डी से ही लड़ना होगा। लेकिन उन्होंने न केवल स्वयं लड़ने से मना किया है बल्कि कांग्र्रेस से जो भी लड़ेगा उसे अभी से ही मकर झण्डू कहकर उसकी हार की बुनियाद रख दी है। कांग्रेस हाईकमान उनके इस कथन को कैसे लेता है यह तो आगे पता चलेगा लेकिन निश्चित तौर पर मण्डी से होने वाले उम्मीदवार को मकरझण्डू कहकर भाजपा का रास्ता बहुत आसान कर दिया है। वीरभद्र जहां सुक्खु को हटाने की मांग कर रहे हैं वहीं पर उनके समर्थकों ने लोकसभा चुनाव वीरभद्र के नेतृत्व में लड़ने की मांग कर दी है। बल्कि शिमला से तो उनके समर्थकों ने सुरेन्द्र गर्ग को टिकट देने की मांग कर दी है। अभी ठियोग और सोलन की बैठकों में भाग लेने से पहले वीरभद्र ने हमीरपूर और कांगडा लोकसभा क्षेत्रों का व्यापक दौरा किया है। कांगड़ा में सुधीर शर्मा और जी एस बाली उम्मीदवार के तौर पर सामने आये हैं लेकिन यहां वीरभद्र ने किसी एक का भी नाम सीधे नहीं लिया है। क्योंकि शायद बाली का सीधा विरोध करने से वह बच रहे हैं। लेकिन हमीरपुर में वह राजेन्द्र राणा के साथ खुलकर खड़े हैं और राणा स्वयं की जगह अपने बेटे को आगे बढ़ा रहे हैं। वीरभद्र इस पर खामोश हैं। कांग्रेस के अन्दर वीरभद्र बनाम सुक्खु विवाद पर तो अब भाजपा ने चुटकीयां लेना शुरू कर दिया है क्योंकि इस विवाद से जहां कांग्र्रेस पक्ष जनता में कमजोर होता जा रहा है वहीं पर इससे भाजपा को अनचाहे ही लाभ मिल रहा है। क्योंकि इस समय मण्डी लोकसभा सीट मुख्यमन्त्री जयराम के लिये प्रतिष्ठा का मामला होगा। विधानसभा चुनावों में मण्डी से कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पायी है। क्योंकि चुनाव के दौरान ही अमित शाह ने यह घोषणा कर दी थी कि जयराम को कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जायेगी। परन्तु अब सरकार बनने के बाद जयराम को सबसे पहली समस्या अपने ही चुनाव क्षेत्र से सामने आयी जब एस डी एम कार्यालय को लेकर जंजैहली में लोग आन्दोलन पर उतर आये। आज ही मण्डी की स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि यदि फिर से चुनाव हो जायें तो यह भाजपा पर भारी पडेंगे। यदि मण्डी से वीरभद्र या उनकी पत्नी में से कोई चुनाव लड़ता है तो भाजपा के लिये सीट जीतना कठिन हो जायेगा। ऐसे में वीरभद्र का मण्डी से चुनाव लड़ने से इन्कार करना और होने वाले उम्मीदवार को मकरझण्डू करार देना निश्चित रूप से जयराम और भाजपा की मदद करना बन जाता है।
इस वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि वीरभद्र ऐसा कर क्यों रहे हैं। क्योंकि कांग्रेस के अन्दर संगठन के चुनाव क्यों रूके थे यह सब जानते हैं। अगले चुनाव कब करवाये जायेंगे यह हाईकमान के आदेशों से तय होगा। तो क्या वीरभद्र का सुक्खु पर हमला बोलना हाईकमान पर ही हमला नहीं बन जाता है। वीरभद्र एक लम्बे समय से आयकर और सी बी आई तथा ई डी के मामले झेल रहे हैं, यह मामले अभी तक खत्म नहीं हुए हैं। ऐसे में कुछ क्षेत्रों में वीरभद्र की सारी कारगुज़ारी को इन मामलों के साथ जोड़कर भी देखा जा रहा है। क्योंकि ई डी के अटेचमैन्ट आदेश में जिस तरह के दस्तावेज सामने आ चुके हैं उनसे मामलों की गंभीरता का स्वतः ही अनुमान लग जाता है।