Friday, 19 September 2025
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अन्तः विरोधों में घिरती जयराम सरकार के लिये कठिन होती जा रही अगली राह

शिमला/शैल। 2019 में होनेे वाला लोकसभा चुनाव 2018 में भी हो सकता है इसके संकेत उभरते जा रहे हैं क्योंकि अभी हुए कुछ राज्यों के कुछ लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान में जैसे बड़े राज्यों में हुई हार से भाजपा बुरी तरह हिल गयी है। इस हार के बाद ही कुछ पूराने फैसलों पर पार्टी में पुनर्विचार हुआ है। इसमें अब 75 वर्ष से ऊपर के नेताओं को न केवल फिर से टिकट देकर चुनाव ही लड़ाया जायेगा बल्कि जीतने के बाद उन्हें मन्त्राी तक बना दिया जायेगा। इस फैसले का तो हिमाचल पर सीधा असर पड़ेगा क्योंकि पहले यह माना जा रहा था कि अब प्रेम कुमार धूमल और शान्ता कुमार चुनावी राजनीति से बाहर हो जायेंगे। लेकिन अब सबकुछ बदल गया है। लोकसभा चुनाव जीतना भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की एक तरह से व्यक्तिगत आवश्यकता बन गयी है। इसके कारण अब आम आदमी समझने लगा है। लोकसभा चुनावो में यदि पार्टी हार जाती है तो इस हार की जिम्मेदारी, मोदी, शाह और मोहन भागवत पर जायेगीं क्योंकि इन पिछले चार वर्षों में जिस तरह से वैचारिक कट्टरता को प्रचारित किया गया है उससे समाज का एक बड़ा वर्ग भाजपा के प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकल गया है। कर्नाटक चुनावों में यह सामने भी आ गया है जहां कांग्रेस को 38% और भाजपा को 36% वोट मिले हैं। भाजपा की धर्म आधारित विचारधारा का विरोध अब भाजपा के अन्दर से भी उठने लगा है। यूपी के कैराना मे हुई हार के बाद पार्टी के कुछ मन्त्रीयों औेर सांसदो ने इस पर सार्वजनिक रूप से बोलना शुरू कर दिया है बल्कि पिछले दिनों एनबीसी का एक सर्वे आया है जिसमें दिल्ली, जम्मू-कश्मीर हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और उतराखण्ड में भाजपा को केवल छः से सात सीटें मिलती दिखायी है। बल्कि इस सर्वे के बाद तो हरियाणा में भी नेतृत्व के खिलाफ शेष के स्वर मुखर होने शुरू हुए हैं। 

इस परिदृश्य में हिमाचल का आकलन करते हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा को 2014 जैसी सफलता की दूर -दूर तक उम्मीद नही लगती क्योंकि जयराम सरकार स्वतः ही अन्तः विरोधों में घिरती जा रही है। इसके कई फैसले ऐसे आ गये है जिनसे आने वाले दिनों में लाभ मिलने की बजाये नुकसान होगा। सरकार ने आबकारी एवम् कराधान में पिछले वर्षों में सरकार का राजस्व कम कैसे हुआ है इसकी विजिलैन्स जांच करवाने का फैसला लिया है सिद्धांत रूप में यह फैसला स्वागत योग्य है। लेकिन इसमें सरकार के फैसले पर उस समय हैरानी होती है जब सरकार ने सारे नियमो /कानूनो को अंगूठा दिखाते हुए स्टडी लीव का लाभ दे दिया। यह फैसला एक व्यक्ति को अनुचित लाभ और सरकार को नुकसान पहुंचाने का है सीधे आपराधिक मामला बनता है। प्रदेश के सहकारी बैंको का 900 करोड़ से अधिक का कर्ज एनपीए के रूप में फंसा हुआ है। पांच माह में इस कर्ज को वापिस लेने के कोई ठोस कदम नही उठाये गये। उल्टा सरकार को मई में सीधे 700 करोड़ का कर्ज लेना पड़ा है और जून में राज्य विद्युत बोर्ड की कर्ज सीमा पांच हजार करोड़ से बढ़ाकर सात हजार करोड़ कर दी गयी। भ्रष्टाचार के खिलाफ भी यह सरकार अपनी विश्वसनीयता बनाने में सफल नही हो पायी है। इस मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में बीवरेज कारपोरेशन को भंग करके उसमें हुए राजस्व के नुकसान की विजिलैन्स जांच करवाने का फैसला लिया गया था। पांच माह में यह मामला विजिलैन्स में पहुंच जाता, ऐसा नही हो पाया है। क्योंकि जिन अधिकारियों पर इसकी गाज गिरेगी वही आज सरकार चला रहे हैं। अब सरकार ने विदेशों से मंगवाये गये सेब के पौधों में पाये गये वायरस के कारण हुए नुकसान की जांच करवाने का भी फैसला लिया है। यह जांच होनी चाहिये लेकिन क्या इसी विभाग में घटे करोड़ो के टिशू कल्चर घोटाले की जांच भी करवायेगी। इसी विभाग के अधिकारी डा. बवेजा के एक मामले में तो डीसी सोलन का पत्र ही बहुत कुछ खुलासा कर देता है क्या उसकी भी जांच सुनिश्चित की जायेगी। ऐसे कई विभागों के दर्जनों मामलें हैं जिनमें राजस्व का सीधा-सीधा नुकसान हुआ है। लेकिन सरकार तो उन अधिकारियों को पदोन्नत कर रही है जिन्हें अदालत ने भी दंडित करने के निर्देश दे रखे हैं। आने वाले दिनों में यह सब बड़े मुद्दे बनकर सामने आयेंगे और सरकार से जवाब मांगा जायेगा।
सुचारू शासन के नाम पर मुख्यमन्त्री के अपने ही चुनाव क्षेत्र में कई दिनो तक लोग एसडीएम कार्यालय के मुख्यालय को लेकर आन्दोलन करते रहे। मुख्यमन्त्री के तन्त्र और सलाहकारों ने इस आन्दोलन के पीछे धूमल का हाथ बता दिया और यह चर्चा इतनी बढ़ी कि धूमल को यह ब्यान देना पड़ा कि सरकार चाहे तो सीआईडी से इसकी जांच करवा ले। अब शिमला और प्रदेश के अन्य भागों में पेयजल संकट सामने आया। शिमला में उच्च न्यायालय से लेकर मुख्यमन्त्री और मुख्य सचिव को स्थिति का नियन्त्रण अपने हाथ में लेना पड़ा। यहां यह सवाल सवाल उठता है कि ऐसा कितने मामलांें में किया जायेगा और जो हुआ है उसका प्रशासन पर असर क्या हुआ है तथा इसका जनता में सन्देश क्या गया। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इस पर मुख्य सचिव मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव और अतिरिक्त मुख्यसचिव पर्यटन को कुछ पत्रकारों को बुलाकर चर्चा करनी पड़ी है। इसके बाद मुख्यमन्त्री ने भी पत्रकारों के एक निश्चित ग्रुप से ही इस पर चर्चा की। यही नहीं अब जब पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने शिमला में एक पत्रकार वार्ता संबोधित की उसमें भी कुछ चुने हुए पत्रकारों को बुलाया गया। इससे भी यही संकेत गया है कि शीर्ष प्रशासन से लेकर मुख्यमन्त्री और भाजपा का संगठन भी पत्रकारों को विभाजित करने की नीति पर चलने लगा है। जिसका दूसरा अर्थ यह है कि अभी से कुछ पत्रकारों के तीखे सवालों का सामना करने से डर लगने लगा है। लेकिन यह भूल रहे हैं कि पत्रकार जनता को जवाबदेह होता है सरकार और प्रशासन के सीमित वर्ग को नही।
आज पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क से समर्थन की रणनीति अपनायी है और हिमाचल में सरकार और पार्टी इस संपर्क की सबसे बड़ी कडी पत्रकारों में विभाजन की रेखा खींचकर जब आगे बढ़ने का प्रयास करेगी तो इसके परिणाम कितने सुखद होंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे ही अब तक के पांच माह के कार्यकाल में अपने होने का कोई बड़ा संदेश नही छोड़ पायी है। आज यदि कोई व्यक्ति कुछ मुद्दों पर जनहित के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा दे तो स्थितियां और गंभीर हो जायेंगी। शिमला में पानी के संकट के बाद नगर निगम में मेयर और डिप्टी मेयर के खिलाफ बगावत के स्वर उभरने लग पड़े है। जो अन्ततः संगठन की सेहत के लिये नुकसानदेह ही सिद्ध होंगे। पूर्व सांसद सुरेश चन्देल भी अपने तेवर जग जाहिर कर चुके हैं। सचेतकों को मन्त्री का दर्जा देने के विधेयक को राज्यपाल से स्वीकृति मिल चुकी है लेकिन यह नियुक्तियां अभी तक नही हो पायी है। निश्चित है कि जब इस विधेयक पर अमल किया जायेगा तो इसे उच्च न्यायालय मे चुनौती मिलेगी ही और वहां इस विधेयक को अनुमोदन मिलने की संभावना नही के बराबर है। सूत्रों की माने तो यह विधेयक लाये जाने से पूर्व हाईकमान से भी राय नहीं ली गयी है। इस तरह अब तक सरकार अपने ही फैसलों के अन्तः विरोध में कुछ अधिकारियों और अन्य सलाहकारों के चलते ऐसी घिर गयी है कि इससे सरकार का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। हाईकमान ऐजीन्सीयों के माध्यम से इस पर पूरी नजर बनाये हुए है। ऐजैन्सीयां शीघ्र ही यह रिपोर्ट देने वाली हैै कि प्रदेश से लोकसभा की कितनी सीटों पर इस बार जीत मिलने की संभावना है। यदि यह रिपोर्ट कोई ज्यादा सकारात्मक न हुई तो इसका असर कुछ भी हो सकता है। अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों को लेकर केन्द्र के पास पंहुची रिपोर्ट सरकार के पक्ष में नही हैं। इसमें इस सरकार की भूमिका को लेकर भी कई गंभीर प्रश्न उठाये गये हैं। क्योंकि इनमें सरकार के कई अपने भी संलिप्त है। शीर्ष प्रशासन को इस रिपोर्ट की जानकारी है और इसी कारण से सरकार की छवि सुधारने को लेकर चर्चा की गयी है।

 

15 रूपये की राहत देकर कांग्रेस के ‘‘थाली चम्मच’’ प्रदर्शन का दिया जवाब

शिमला/शैल। कांग्रेस ने पिछले दिनों बढ़ती मंहगाई के खिलाफ प्रदेशभर में थाली चम्मच बजाकर प्रदर्शन किया था। सरकार ने इस प्रदर्शन का जवाब दालों की कीमतो में प्रति किलो 5 रूपये दाम करके प्रदेश के 18.5 लाख उपभोक्ताओं को राहत प्रदान की है। इसी के साथ राशन की गुणात्मकता और गुणवत्ता दोनों को भी सुनिश्चित बनाने का दावा किया है। यह जानकारी नागरिक आपूर्ति एवम् उपभोक्ता मामलों के मन्त्री किश्न कपूर ने शिमला में एक पत्रकार वार्ता में दी है। मन्त्री ने दावा किया कि इन दिनों बाज़ार में दालों की कीमतों में कमी आयी है और राज्य सरकार ने तुरन्त प्रभाव से इसका लाभ प्रदेश के उपभोक्ताओं तक पहुंचा दिया है। कपूर ने यह भी दावा किया कि शीघ्र ही चीनी की कीमतों में भी कमी की जायेगी। इस समय राशन डिपूओं के माध्यम से लोगों को चना, उड़द और मलका की दाल उपलब्ध करवायी जा रही है। इनकी कीममें पहले 40, और 35 रूपये थी जो अब 40 से 35 और 35 से 30 रूपये हो गयी है।
इसी के साथ मन्त्री ने यह भी दावा किया कि शीघ्र ही प्रदेश के एक लाख गरीबों को गृहणी सुविधा योजना के तहत रसोई गैस के कनैक्शन भी उपलब्ध करवाये जायेंगे। एक कनैक्शन पर 3500 रूपये खर्च आयेगा जिसे राज्य सरकार स्वयं उठायेगी । इस संद्धर्भ में सरकार ने प्रदेश के ग्रामीण विकास एवम् पंचायती राज विभाग से गरीबों का आंकड़ा मांगा है। प्रदेश में कितने गरीब हैं इसके लिये पहले से ही बीपीएल परिवारों की सूची सरकार के पास उपलब्ध है क्योंकि हर बीपीएल परिवार के बाहर उसकी बीपीएल होने का बोर्ड चिपका हुआ है यही नही प्रदेश में अन्तोदय के तहत कितने परिवार आते हैं इसका आंकड़ा भी सरकार के पास उपलब्ध है। बल्कि अब तो जन धन योजना के तहत गरीबों के बैंक खाते जीरो बैलेन्स पर खोले गये हैं।
ऐसे में सरकार ग्रामीण विकास विभाग से नये सिरे से यह आंकड़े क्यों मांग रही है? क्या सरकार को इन आंकड़ो पर विश्वास नही है या इसका कोई नया सर्वे करवाना चाहती है। या फिर अभी सरकार के पास इसके लिये उपयुक्त साधन नही है। जिसके कारण यह सुविधा अभी देने में वक्त लग रहा है। इन सवालों के जवाब विभाग की ओर से नही आये हैं।

क्या जनमंच के माध्यम से जनता के सही मूड का आकलन हो पायेगा

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने जनमंच के माध्यम से जनता की समस्याएं सुनने और उनका तत्काल समाधान निकालने का प्रयोग आरम्भ किया है। यह प्रयोग कितना सफल होता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन राजनीतिक हल्कों में इस प्रयोग को अगले लोकसभा चुनावों के पूर्व आकलन के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि अभी हाल ही में देश के कुछ राज्यों में हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों के जो परिणाम सामने आये हैं उसने भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। इस परिदृश्य में राजनीतिक विश्लेष्कों का यह मानना है कि लोकसभा के चुनाव मई 2019 के बजाये इसी वर्ष के नवम्बर - दिसम्बर तक करवाये जा सकते हैं। इसके लिये तर्क यह दिया जा रहा है कि मई आते -आते विपक्ष सही मायनों में इकट्ठा हो सकता है और एक जुट हुए विपक्ष को हरा पाना अब भाजपा के लिये संभव नही होगा। दूसरा तर्क यह है कि यदि इस वर्ष होने वाले मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में यदि भाजपा को कोई सफलता नहीं मिल पाती है तो 2019 बहुत कठिन हो जायेगा क्योंकि उत्तरप्रदेश जो कि सबसे बड़ा राज्य है वहां योगी के नेतृत्व में भाजपा कमजोर पड़ती जा रही है। वैसे भी केन्द्र सरकार अबतक न तो कश्मीरी पंडितों को वापिस बसा पायी है न ही गंगा साफ हो पायी है और न ही गो हत्या पर प्रतिबन्ध का कोई कानून आया है। यह मुद्दे भाजपा के एक लम्बे वक्त से चले आ रहे घोषित मुद्दे रहे हैं जिनपर कोई परिणाम अभी तक सामने नही आ पाये हैं।
माना जा रहा है कि भाजपा हाईकमान ने इस सबको सामने रखते हुए अपने प्रदेशों की सरकारों को अपना जन संपर्क बढ़ाने और जन विश्वास पाने के लिये सक्रिय कदम उठाने के निर्देश दे रखे हैं। उन्हीं निर्देशों का परिणाम जनमंच माना जा रहा है। इसके माध्यम से सरकार जनता का कितना विश्वास प्राप्त कर पाती है यह तो आगे ही पता चलेगा। लेकिन इस समय भाजपा का अपना ही संगठन प्रदेश सरकार को लेकर बहुत प्रसन्न नही है। क्योंकि पांच माह के समय में सरकार विभिन्न निगमो/बोर्डो में अपने कार्यकर्ताओं की ताजपोशीयां कर पायी है और न ही यह दो टूक फैसला ले पायी है कि उसे यह ताजपोशीयां नही करनी है। अब तक जो ताजपोशीयां हुई हैं उनको लेकर यह कहा जा रहा है कि जो लोग मुख्यमन्त्री के अपने निकट थे उनको तो ताजपोशीयां दे दी गयी है। बल्कि कुछ नौकरशाहों के परिजनो को भी इनसे नवाजा गया है जिनका संगठन के लिये कोई सक्रिय योगदान नही रहा है। यहां तक कि जो शिकायत निवारण कमेटीयां सारे जिलों और प्रदेश स्तर पर बनाई जाती है अभी तक उसका गठन नही हो पाया है। जो शिकायतें यह कमेटीयां सुनती थी उसे जनमंच के माध्यम से किया जा रहा है। स्वभाविक है कि जब किसी पार्टी की सरकार आती है तब उसके कार्यकर्ताओं को सरकार से यह पहली उम्मीद रहती है जब इसमें भी भाई-भतीजावाद आ जाता है तो उससे कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट जाता है। दुर्भाग्य से आज प्रदेश सरकार और संगठन पांच माह में ही इस मुकाम पर पहुंच गये है। अभी जो पेयजल संकट सामने आया है उसमें कितने बड़े नेताओं ने सरकार का पक्ष जनता के सामने रखा है उसी से संगठन की सक्रियता का अनुमान हो जाता है।
इस पांच माह के अल्प समय में ही सरकार अपने होने का कोई बड़ा संकेत नही दे पायी है। यह आम चर्चा चल पड़ी है कि यह दो तीन अधिकारियों की ही सरकार होकर रह गयी है। भ्रष्टाचार को लेकर एक भी मामले में सरकार अपने ही फैसलो पर अमल नही कर पायी है। बीवरेज कारपोरेशन को लेकर धर्मशाला में मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में लिये गये फैसले पर सरकार बैकफुट पर आ गयी है। ऐसे दर्जनों मामले घट चुके हैं जहां सरकार के फैसले कोई ज्यादा सराहनीय नही रहे हैं। पानी के मामले में जिस तरह की फजी़हत सरकार को झेलनी पड़ी है उसमें यह ही नही तय हो पाया है यह कि संकट वास्तविक था या की तैयार किया गया था। आने वाले समय में वित्तिय मोर्चे पर भी सरकार की ऐसी ही फजीहत वाली स्थिति बन जाये तो यह यह कोई हैरानी वाली बात नही होगी। सरकार और मुख्यमन्त्री जिस तरह के सलाहकारों से घिर गये हैं यदि समय रहते इससे बाहर नही आये तो लोकसभा चुनावों में इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। फिर से चारो सीटों पर विजय हासिल करना असंभव हो जायेगा।

अपार्टमैन्टस के पानी कनैक्शन के बाद वर्मा के होटल पर भी उठे सवाल

शिमला/शैल। भाजपा विधायक बलवीर वर्मा के जाखू स्थित अपार्टमैंट में पानी का कनैक्शन सीधे मेन सप्लाई लाईन से दिया गया था यह तथ्य अब शिमला में आये पेयजल संकट के दौरान सामने आया है। जिलाधीश शिमला ने फौरी तौर पर इस पर कारवाई करते हुए कनैक्शन बन्द कर दिया है। यह अवैध कनैक्शन कैसे मिला इस बारे में जांच की जा रही है। इस जांच से किसे सज़ा दी जाती है या यह मामला यहीं पर ही बन्द हो जाता है इसका पता तो आने वाले समय में ही लगेगा। लेकिन इस मामले के सामने आने के बाद यह सवाल उठ गया है कि वर्मा की ही तरह और कितने ऐसे बिल्डर हैं जिनको ऐसे कनैक्शन मिले होंगे। क्योंकि 3000 से अधिक ऐसे कनैक्शन आॅप्रेशन में है यह निगम के भीतरी सूत्रों का मानना है। शहर में वर्मा की ही तरह और भी कई बिल्डर रहे हैं और आज भी कार्यरत हैं। कई कांग्रेस में तो कई भाजपा में बडे नेता बिल्डर का धन्धा परोक्ष/अपरोक्ष में कर रहे हैं। बहुत संभव है कि ऐसे कई और मामले सामने आ जायें यदि सरकार और नगर निगम इस बारे में ईमानदारी से जांच करवायें।
भाजपा विधायक बलवीर वर्मा ने शांखली में भी एक होटल का निर्माण खसरा न0 987,988,989 पर कर रखा है। इस निर्माण के लिये नगर निगम की ओर से 13.5.2011 को स्वीकृति प्रदान की गयी थी। इस अनुमति की शर्तों में यह साफ कहा गया था कि स्वीकृति नक्शे से अधिक निर्माण अवैध समझा जायेगा। इन्ही खसरा नम्बरों पर 17.1.2011 को एक ‘‘सर्वश्री ईश्वर दास अंकुश नवराजन आदि को भी निर्माण की अनुमति प्रदान की गयी थी। यह अनुमति दो मंजिल के निर्माण की थी जबकि वर्मा को मिली अनुमति में पार्किंग धरातल मंजिल, प्रथम मंजिल, द्वितीय मंजिल, तृतीय मंजिल छत सहित शामिल है। यह खसरा नम्बर जिन पर इन दोनों को निर्माण की अनुमति मिली है यह क्षेत्र "Restricted area" में पड़ता है। इसके लैण्ड यूज़ चेन्ज की अनुमति सरकार से अलग से लेनी पड़ती है। इसके लिये निदेशक टीसीपी की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यों की कमेटी इसकी अनुमति देती है। इस कमेटी की बैठक 30.11.2010, 1.12.2010 और 2.12.2010 को हुई थी। इन बैठकों में 17 मामले विचार के लिये आये थे और ईश्वर दास वगैरा को इसी बैठक में अनुमति मिली थी। लेकिन वर्मा का मामला इस बैठक में विचार के लिये नही आया था।
वर्मा को निर्माण की अनुमति 13.5.2011 को मिली थी। इसके बाद 15.6.2015 को वर्मा को नगर निगम ने 7,93,433 रूपये की कम्पाउंडिंग फीस लगाकर अन्तिम स्वीकृति प्रदान कर दी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 13.5.2011 को जब पहली स्वीकृति ली गयी थी और उसमें जो भी प्रस्ताविक निर्माण दिखाया गया था उसमें निर्माण के पूरा होने तक और कुछ बढौत्तरी कर ली गयी। जिसे बाद में यह फीस लेकर नियमित कर दिया गया है। यह एरिया प्रतिबंधित क्षेत्र में आता है यहां पर बड़े निर्माणों की अनुमति नही दी जा सकती। लेकिन वर्मा के मामले में ऐसा नही हुआ है क्योंकि उस समय वर्मा सत्तारूढ़ कांग्रेस के सहयोगी विधायक थे। बल्कि भाजपा ने वर्मा और अन्य निर्दलीय विधायकों की सदस्यता रद्द करने के लिये स्पीकर के पास एक याचिका भी दायर की थी। अब तो वर्मा वाकायदा भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत कर आये है। इसलिये ‘‘समर्थ को नही दोष गोसाई’’ के स्थापित सत्य के तहत किसी कारवाई का प्रश्न ही नही उठता। वर्मा को यह स्वीकृति "Senction is granted subject to the final decision  in CWP No.4595/2011 titled as Rajeev Varma & Others v/s State of H.P. pending before the Hon'ble High Court. पर दी गयी है। यह याचिका अभी तक उच्च न्यायालय में लंबित है। अब जल संकट को लेकर शिमला की सारी स्थिति उच्च न्यायालय और सरकार के सामने है। अब देखना है कि वर्मा जैसे मामलों पर कौन क्या करता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

जल संकट के परिदृश्य में क्या नगर निगम भंग नही कर दी जानी चाहिये

शिमला/शैल। शिमला में इस बार कितना गंभीर हो गया पेयजल संकट, इसका आकलन इसी से लगाया जा सकता है कि 28 मई से प्रतिदिन उच्च न्यायालय इसका संज्ञान लेकर सरकार और संवद्ध प्रशासन को इस संद्धर्भ में निर्देश जारी कर रहा है। प्रदेश न्यायालय द्वारा इस तरह का संज्ञान पहली बार लिया गया है। प्रदेश उच्च न्यायालय के संज्ञान के साथ ही प्रदेश के मुख्यमन्त्री और मुख्य सचिव भी इसका प्रतिदिन संज्ञान ले रहे हैं। मुख्य सचिव स्वयं जल वितरण का निरीक्षण कर रहे हैं। उन्ही के मार्गदर्शन में शिमला को जल वितरण के लिये तीन जोन में बांटा गया है। प्रत्येक जोन में कब- कब पानी का वितरण होगा और कौन-कौन अधिकारी/ कर्मचारी इस काम को अंजाम देंगे उनके संपर्क फोन नम्बर भी बाकायदा जोन स्कीम के साथ सूचित कर दिये गये है। जोन में कौन-कौन सा एरिया शामिल है इसको भी बाकायदा सूचित किया गया है। पानी वितरण में मुख्य भूमिका निभा रहे ‘‘की मैन’’ पर नज़र रखने और पानी खोलने और बन्द करने की विडियोग्राफी किये जाने के निर्देश भी उच्च न्यायालय दे चुका है। उच्च न्यायालय के यह सारे निर्देश उसकी साईट पर फैसलों/निर्देशों के रूप में उपलब्ध है। उच्च न्यायालय का यह संज्ञान लेना ही शहर की पेेयजल समस्या की गंभीरता का सबसे बड़ा प्रमाण है और इस प्रमाण को देखकर यहां आने की योजना बना रहा कोई भी व्यक्ति आने से पहले सोचेगा जरूर। लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि यदि उच्च न्यायालय इस स्थिति का संज्ञान न लेता और कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने जिस तरह अपने व्यक्तिगत स्तर पर इसका नोटिस लिया है उससे इस समस्या पर समय रहते कुछ नियन्त्रण का आस बंधी है। अन्यथा इसके परिणाम भयानक हो जाते।
शहर में पानी का संकट 15 मई से बढ़ना शुरू हुआ है लेकिन यह संकट हुआ क्यों यह अपने में एक अहम सवाल है। इसके लिये कुछ आंकड़ों पर नज़र डालना आवश्यक है। 28 मई को सरकार के प्रवक्ता के मुताबिक मई 2016 में नगर निगम को 1003.99 एमएलडी पानी मिला था। मई 2017 में 1104.78 और 28 मई 2018 तक 810 एमएलडी पानी मिला। मई 2016 में प्रतिदिन 32.39, मई 2017 में 35.64 और मई 2018 में 28.93 एमएलडी पानी शिमला को मिला यह सरकार का अपना मानना है। 29 मई को उच्च न्यायालय को बताया गया कि 18.5 एमएलडी पानी मिला। एक जून को सचिव आईपीएच के मुताबिक 23 एमएलडी पानी मिला। दिसम्बर 2017 में प्रतिदिन औसत 42 से 43 एमएलडी पानी मिला। नगर निगम के मुताबिक यदि सारे शिमला को नियमित प्रतिदिन पानी सप्लाई करना हो तो 47 एमएलडी पानी चाहिए। जो आंकड़े सरकार स्वयं जनता के सामने रख रही है और प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने रख रही है उसके मुताबिक जितना पानी निगम को मई 2016 और 2017 में मिला उसका करीब 80% मई 2018 में मिला है। ऐसे में जब शहर को तीन भागों में बांटकर हर ज़ोन को तीसरे दिन पानी देने की योजना बनी तब तो तीसरे दिन संबधित ज़ोन के हर व्यक्ति /परिवार को पानी मिल जाना चाहिये था लेकिन ऐसा हो नही पाया। ज़ोन एक में जहां मुख्य सचिव स्वयं रहते हैं वहां पहली जून को सबको पानी नही मिल पाया। स्थिति यहां तक हो गयी कि रात 11ः30 बजे महिलाओं ने कंट्रोलरूम में हंगामा खड़ा कर दिया। महिलाओं के आक्रोश को देखते हुए कुछ कर्मचारी तो वहां से भाग ही निकले। स्थिति की सूचना मुख्य सचिव को दी गयी। महिलाओं का आरोप था कि पानी के वितरण में भाई -भतीजावाद हो रहा है। सरकार के बड़े अधिकारी के यहां मैहली क्षेत्र में पानी के ओवरफ्रलो होने के भी आरोप लगे हैं। इन आंकड़ो से यही सवाल उठता है कि यदि यह आंकडे सही हैं तो निश्चित रूप से प्रशासन के स्तर पर कोई नियोजित गड़बड़ हो रही है। यदि प्रशासन पर पूरा नियन्त्रण है तो फिर सरकार जनता और अदालत के सामने सही तस्वीर नहीं रख रही है।
अब जब पानी का संकट गहराया और उच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान ले लिया तब यह सामने आया कि कैसे कुछ लोगों को सीधे मेन लाईन से ही सप्लाई दे दी गयी थी। लोगों ने जब इस आश्य की शिकायतें प्रशासन के सामने रखी और डीसी शिमला ने इन शिकायतों का संज्ञान लिया तब पहली कारवाई भाजपा विधायक बलवीर वर्मा के जाखू ़क्षेत्र में बने फ्रलैटों पर हुई। इस समय नगर निगम के रिकार्ड के मुताबिक चार एमएलडी पानी की नाॅन रैवेन्यू लीकेज हो रही है। शहर के 224 होटलों को 527 पानी के कनैक्शन मिले हुए हैं जिसका सीधा अर्थ है कि इस तरह का कारनामा कुछ अधिकारियों/ कर्मचारियों के सहयोग के बिना नही घट सकता। निगम के सूत्रों की माने तो विधायक बलवीर वर्मा की तर्ज पर करीब 3000 कनैक्शन मिले हुए हैं। कई होटलों के बारे में तो यहां तक चर्चा है कि उन्होने भूमिगत स्टोरेज टैंक तक बना रखे हैं ऐसा पहली बार हुआ है कि बिजली बोर्ड की चाबा विद्युत उत्पादन योजना से नगर निगम को पानी लेने की आवश्यकता आ पड़ी हो।
पानी का यह संकट जिस तरह से सामने आया उसने एक बुनियादी और बड़ा सवाल प्रदेश के प्रबन्धकों के सामने खड़ा कर दिया है। इस पर प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी 28 मई को यह कहकर चिन्ता प्रकट की है कि  The problem of water scarcity within Shimla town, as highlighted, takes us to yet another issue and that being as to whether any new construction should be allowed to come up within the Municipal limits of Shimla town at all or not, for the town, except for one, itself does not have its own perennial source of water, which is required to be pumped from the river sources at a distant place. Whether the present holding capacity is sufficient enough to cater to the ever growing urban population or not, is an issue which certainly needs to be addressed. इसी तरह की चिन्ता एनजीटी ने व्यक्त करते हुए यहां निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगाने की बात की है। एनजीटी ने अढ़ाई मंजिल से अधिक पर प्रतिबनध लगाने की बात की है। सरकार ने भी जब न्यू शिमला उपनगर बनाने की योजना तैयार की थी तब वहां पर भी अढ़ाई मंजिल के निर्माणों की ही बात की थी लेकिन राजनीतिक दबावो और स्वार्थों के कारण सरकार अपने ही बनाये हुए नियमो/ कानूनों की अनुपालना नही कर पायी है। अपने कानूनो को स्वयं ही न मानने का परिणाम इस तरह के जल संकट पैदा करता है और भविष्य में भी करता रहेगा यदि सरकार नियमो कानूनो को स्वयं ही तोड़ती रही। आज यह सवाल उठ रहा है कि जो निगम प्रशासन और उसके चयनित प्रतिनिधि शहर में पेयजल का वितरण सुनिश्चित नही कर पा रहे हैं और उस पर सरकार और उच्च न्यायालय को नज़र रखनी पड़ रही है क्या ऐसी संस्था पर आज शहर की जनता का विश्वास बना रह सकता है? क्या सरकार और उच्च न्यायालय को इसे भंग करके इसका पूरा प्रशासन अपने हाथ में लेकर शहर की जनता को नये सिरे से इसके चयन का अधिकार नही दिया जाना चाहिये?

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